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Showing posts from February, 2023

नदलेस की केंद्रीय पत्रिका सोच वार्षिकी की डा. नविला सत्यादास द्वारा लिखी गई समीक्षा

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सच का आईना दिखाती सोच पत्रिका का प्रवेशांक सफर                                             - डा. नविला सत्यादास             नव दलित लेखक संघ (नदलेस) ने अपने गठन (14 सितम्बर 2021) के समय ही छमाही पत्रिका सोच को प्रकाशित करने का बीड़ा उठाया था। जिसकी परिणति वार्षिक संकलन के रूप में हुई। नदलेस ने अपने इस प्रस्तावित संकल्प को छह माह के तत्पश्चात हासिल करके अम्बेडकरवादी मिशन के प्रति अपनी उत्साहवर्धक प्रतिबद्धता की मिसाल प्रस्तुततु की है। सोच पत्रिका के रूप में नदलेस की रचनात्मक प्रस्तुति अत्यन्त प्रसंशनीय एवं प्रेरणीय है। दलित साहित्य पत्रकारिता के इतिहास में अपने इस अवदान के लिए पूर्ण नदलेस परिवार एवं सोच पत्रिका का सम्पादक मण्डल विशेष रूप से डा. अमित धर्मसिंह बधाई के पात्र हैं। संकल्प-पूर्ति के प्रति यह तत्परता सोच पत्रिका-प्रकाशन की निरन्तरता की उम्मीदों को मजबूत करती है कि अम्बेडकरवादी पत्रकारिता का यह साहित्यिक सफर अविलम्ब चलता रहेगा तथा अपने समाना...

कोरोना काल में दलित कविता की दो संक्षिप्त समीक्षा

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1. कोरोना काल संवेदनहीनता के लिए याद किया जाएगा                                               - बिभाश कुमार ...कोरोना काल में दलित कविता ...संपादक डॉ अमित धर्मसिंह की बहुप्रतीक्षित काव्य संग्रह है जिसमें संपादक ने बंगाल बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश के रास्ते दिल्ली, हिमाचल प्रदेश ,राजस्थान और महाराष्ट्र तक के कवियों को जोड़ने का काम किया है। कोरोना त्रासदी एक तरफ मानव इतिहास में भूल चूक और संवेदनहीनता के लिए याद किया जाएगा तो दूसरी तरफ मानवीय संवेदना के चर्मोत्कर्ष और आपसी समानता के लिए भी याद किया जाएगा निःसंदेह। ...संग्रह में कुल 55 दलित कवियों और कवियत्रियों की कविता संकलित है।प्रश्न रोचक है कि संपादक ने कोरोना काल में दलित कविता संग्रह हेतु क्या अनिवार्य अर्हता निर्धारित कर कवियों की कविता का संपादन किया है?संग्रह से गुजरते हुए हम पाते है कि समय की रफ्तार से कदमताल नहीं करते हुए दलित कवि अभी भी हताशा,पीड़ा और दुख की व्यथा का ही रोदन करते आ रहे हैं ,आश्चर्य तो तब होता है कि ...

हमारे गांव में हमारा क्या है! डा. पूनम तुषामड द्वारा लिखी गई की समीक्षा

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                                    डॉ. पूनम तुषामड़ बचपन की दग्ध स्मृतियों के आईने से झाँकता एक कवि                                              - पूनम तुषामड़         अमित धर्मसिंह द्वारा रचित कविता संग्रह हमारे गाँव में हमारा क्या है! सन 2019 में ‘बोधि प्रकाशन’ जयपुर से प्रकाशित हुआ। संग्रह का आवरण पृष्ठ ‘कुंवर रविंद्र ‘ जी ने तैयार किया है, जो अपनी सरलता के साथ शीर्षक को रेखांकित कर देता है। कवि ने यह काव्य संग्रह दलित बच्चों को समर्पित करते हुए लिखा है- ‘उन तमाम बच्चों को जिनका बचपन किसी उत्सव की तरह नहीं, किसी गहरे शोक की तरह बीतता है …’ सदियों के यातनापूर्ण और पीड़ादाई सफर के पश्चात् दलित समाज ने प्रखर संघर्ष के साथ अपनी अभिव्यक्ति को अपनी मुक्ति और स्वाभिमान का हथियार बनाकर प्रयोग करना प्रारम्भ किया है। डा.आंबेडकर ने भी दलितों को गाँव में इसी शोषण उत्पीड़न से म...

पुष्पा विवेक के कविता संग्रह पथरीली राहों पर में लिखी हुई भूमिका

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  पथरीली राहों पर काव्य रूपी मील के पत्थर                                                डा. अमित धर्मसिंह           14 सितंबर 2021 हिंदी दिवस पर नदलेस (नव दलित लेखक संघ) का गठन करने के जब प्रयास शुरू हुए तो संरक्षक के तौर पर डा. राम निवास और डा. कुसुम वियोगी का नाम परिचय का लाभ लेते हुए सूचीबद्ध कर लिए गए। अब एक ऐसी दलित महिला साहित्यकार की जरूरत थी जो दलित चेतना को समझती हो और इसी क्षेत्र में लिखती पढ़ती हो। कई लोगों से इस संदर्भ में बात हुई। लेकिन हल मिला डा. कुसुम वियोगी से बात करके। उन्होंने सदर्भ आते ही जो एक मात्र नाम सुझाया, वह पुष्पा विवेक का था। कुछ ही देर बाद फोन पर पूरी बात बताते हुए संरक्षक बनाने का प्रस्ताव रखा। जिसे उन्होंने यह कहते हुए तुरंत स्वीकार कर लिया कि "मैं तो समाज के लिए काम करती हूं और समाज के हर कार्य में हर किसी के साथ हूं। आप समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं तो मुझे आपसे भी जुड़ने में कोई आपत्ति नहीं। मैं और मेरे...

प्रो. के. एन. तिवारी के उपन्यास उत्तर कबीर नंगा फकीर की समीक्षा

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 विहंगावलोकन कबीर और गांधी के बहाने लोकतांत्रिक भारत की सुध लेता उपन्यास : उत्तर कबीर नंगा फकीर                                               - डा अमित धर्मसिंह           आजादी के अमृत महोत्सव के समय में प्रकाशित होकर आया प्रो. कैलाश नारायण तिवारी का उपन्यास 'उत्तर कबीर नंगा फकीर' असल में कबीर और गांधी के बहाने आधुनिक भारत या कहिए लोकतांत्रिक भारत की गंभीरतपूर्वक सुध लेता है। वह इस समय के लोकतंत्र, समाज और राजनीति की गांठे खोलकर रख देता है। कबीर को देवलोक से उतारना और उसे काशी में भ्रमण करवाना लेखक की मौलिक कल्पना से संभव हो पाया है। देखा जाए तो कबीर के पुनरागमन के बहाने लेखक देश के वर्तमान हालात की स्वयं सुध लेना चाहता है। लेखक की यह सुध बहुआयामी है। उपन्यास मध्यकालीन भारतीय परिवेश और वर्तमान परिवेश के भेद विभेद को भी उजागर करने में सफल दिखाई पड़ता है। कबीर के बहाने लेखक की चेतना सामाजिक और राजनीति रूप से इतनी समृद्ध दिखाई पड़ती है कि भारतीय स...

नव दलित लेखक संघ, दिल्ली की वार्षिकी सोच के प्रथम अंक का संपादकीय

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 संपादकीय सोच                           सोेच का यह पहला अंक                                                  डा. अमित धर्मसिंह यह आप ही नहीं, मैं भी सोचता हूं कि जब पहले ही इतनी पत्र, पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं तो एक और पत्रिका की क्या जरूरत। क्या वाकई पत्र पत्रिकाएं समाज में बदलाव लाने का काम करती हैं। या सिर्फ साहित्यकारों की लिखास और छपास की क्षुदा पूर्ति की ही भेंट चढ़ जाती हैं। आजकल जिस स्तर की पत्र, पत्रिकाएं एक दूसरे की हौड़ में संपादित की जा रही हैं, उससे तो यही अंदाजा लगता है कि सब देखादेखी किसी भी तरह यशकाय हो जाना चाहते हैं। ऐसी मानसिकता रखने वाले साहित्कार और संपादकों का फोकस वैचारिकी और साहित्य से सामाजिक परिवर्तन की ओर जाना या ले जाना नहीं बल्कि वे साहित्य में अपनी पैठ और संबंधों पर अधिक होता है। वे रचना सामग्री पर उतना फोकस नहीं करते जितना कि अपने साहित्यिक और लाभकारी संबंधों पर।...

राजेंद्र कुमार राज़ की पुस्तक, उम्मीदों की किरण तुम्हारे लिए की मेरे द्वारा लिखी गई भूमिका

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इश्क़, जीवन और समाज की गज़लें                                   - डा. अमित धर्मसिंह     साहित्य की जो विधाएं लोक में प्रचलित रही उनमें लगातार लिखा-पढ़ा जाता रहा और जो विधाएं अपनी क्लिस्टता के कारण बिसरा दी गई उनका नामलेवा भी अब कोई नहीं बचा है। हिंदी के न जाने कितने छंद ऐसे हैं, जो "खुल गए छंद के बंद" के बाद से विलुप्तप्राय हैं। यद्यपि छंदमुक्त की अपेक्षा मुक्तछंद रचनाओं का बोलबाला रहा। दोहा, चौपाई, कुंडली, कवित्त, गीत जैसी कुछ पद्य विधाओं को छोड़ दें तो और ऐसी कितनी विधाएं हैं जिनमें लिखा पढ़ा जा रहा है। कुछ छंद तो अकादमिक साहित्य में लिखे जाने से अधिक मंचों से पढ़े और गाए जाने के कारण बचे हुए हैं। वीर, ओज और श्रृंगार की रचनाओं सर्वाधिक मुक्तक, गीत और कवित्त आदि तरह की रचनाएं ही अधिक मशहूर हैं। गीत में तो नवगीत, अगीत और प्रगीत जैसे प्रयोगों ने गीत विधा को नित नवीन और बचाए बढ़ाए रखा है। यही हाल उर्दू की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा ग़ज़ल का है। इसकी व्याप्ति और प्रसिद्धि तो हिंदी और उर्दू की बा...