पुष्पा विवेक के कविता संग्रह पथरीली राहों पर में लिखी हुई भूमिका

 


पथरीली राहों पर काव्य रूपी मील के पत्थर

                                               डा. अमित धर्मसिंह

          14 सितंबर 2021 हिंदी दिवस पर नदलेस (नव दलित लेखक संघ) का गठन करने के जब प्रयास शुरू हुए तो संरक्षक के तौर पर डा. राम निवास और डा. कुसुम वियोगी का नाम परिचय का लाभ लेते हुए सूचीबद्ध कर लिए गए। अब एक ऐसी दलित महिला साहित्यकार की जरूरत थी जो दलित चेतना को समझती हो और इसी क्षेत्र में लिखती पढ़ती हो। कई लोगों से इस संदर्भ में बात हुई। लेकिन हल मिला डा. कुसुम वियोगी से बात करके। उन्होंने सदर्भ आते ही जो एक मात्र नाम सुझाया, वह पुष्पा विवेक का था। कुछ ही देर बाद फोन पर पूरी बात बताते हुए संरक्षक बनाने का प्रस्ताव रखा। जिसे उन्होंने यह कहते हुए तुरंत स्वीकार कर लिया कि "मैं तो समाज के लिए काम करती हूं और समाज के हर कार्य में हर किसी के साथ हूं। आप समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं तो मुझे आपसे भी जुड़ने में कोई आपत्ति नहीं। मैं और मेरे हसबैंड आर सी विवेक लगातार ऐसे सामाजिक कार्यों से जुड़े रहते हैं जो समाज को केवल साहित्यिक ही नहीं बल्कि जमीनी स्तर से भी जागरूक करने के कार्य करते हैं। नव दलित लेखक संघ भी ऐसा ही कुछ करने जा रहा है तो मुझे नव दलित लेखक संघ के साथ जुड़कर कार्य करने में प्रसन्नता होगी।" इस तरह नव दलित लेखक संघ को सक्रिय दलित महिला संरक्षक मिल गई जिनका चुनाव यथासमय निर्विरोध रूप से कर लिया गया। नव दलित लेखक संघ के कार्यक्रमों में उन्हें सुनने और समझने के अवसर मिलने लगे। समझ आया कि आयु के इस वर्ग में पहुंचकर भी पुष्पा विवेक अपेक्षाकृत अधिक ही सक्रिय रहती हैं। कार्यक्रमों में भागीदारी और सामाजिक व साहित्यिक रूप से सक्रिय रहना उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं। यह प्रतिबद्धता उन्हें उन कई महिला रचनाकारों से अलग ठहराती हैं जो मंचों से तो बड़ी बड़ी बातें करती हैं लेकिन समाज के जरूरत मंद तबके से जुड़ने में स्टेटस के गिरने के खतरे से चिंतित रहती हैं। पुष्पा विवेक के साथ यह दोहरे मानदंड वाली समस्या नहीं है।

         साहित्य में यह सवाल हमेशा ही उठाया जाता रहा है कि एक लेखक जिन गुणों और आदर्शों का उल्लेख अपने लेखन में करता है क्या उन्हें वह अपने जीवन में भी अपनाता है या नहीं। कुछ कहते हैं कि किसी व्यक्ति का लेखक या कवि व्यक्तित्व अलग होता है और उसका निजी जीवन अलग। दोनों को एक करके नहीं देखा जा सकता है। लेकिन ऐसा करने से लेखक उन जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाता है जिनका उल्लेख दूसरों के लिए वह अपने लेखन में करता है। यह प्रवृत्ति नौकरीपेशा कवियों और लेखकों में विशेषकर पाई जाती है। उनका लेखन जिस तथ्यों और सत्यों का उद्घाटन करता है वे खुद उनसे विलग होते हैं। ऐसा करने से लेखक और लेखन की विश्वसनीयता को बड़ा आघात लगता है। इसलिए अच्छा तो यही होता है कि लेखक अपने लेखन में जिन मूल्यों को प्रमुखता से उठाए, उन्हें अपने जीवन में भी अपनाएं, फिर दूसरों से अपनाने के लिए कहे। संभव है उनके इस व्यवहार से उनका लेखन और अधिक प्रभावी रूप में सामने आ सकेगा। साहित्य के इतिहास में ऐसे लेखकों की भी कोई बड़ी परंपरा नहीं रही जिन्होंने ऐसे विलक्षण उदाहरण आयुपर्यंत प्रस्तुत किए। अभी भी बहुत से कवि अपने लेखन और जीवन में काफी समानता रखते हैं। भले ही उनकी मंशा और लेखन की समरूपता के आगे उनका कला कौशल फीका पड़ जाता हो, लेकिन उनके अनुभव, जीवन और लेखन की समरूपता उनके लेखन और जीवन दोनों को महत्त्वपूर्ण बना देती है। ऐसी समरूपता की ओर ज्यादा न सही थोड़ा ही, सभी रचनाकारों को ध्यान देने की जरूरत है। खासतौर से दलित साहित्यकारों को, अन्यथा दलित आंदोलन का संवाहक दलित साहित्य अपना असर खो देगा और इसके जिम्मेदार स्वयं दोहरे मानदंडों वाले दलित साहित्यकार ही होंगे।

          हर्ष की बात है कि पुष्पा विवेक के साथ यह असंगति दिखाई नहीं देती है। उनकी कोशिश रहती है कि वे सिर्फ लेखनी के माध्यम से ही समाज को राह न दिखाएं बल्कि लोगों के बीच जाकर भी यथायोग्य समाज सुधार का कार्य करें। वे बहुत मजबूरीवश ही किसी सामाजिक कार्य या गोष्ठी में अनुपस्थित रहती हैं। उनका मानना है कि हमें केवल साहित्य के माध्यम से ही नहीं बल्कि समाज के मध्य जाकर भी दलित समाज को जागृत करने के हर संभव प्रत्यक चाहिए। उनकी इस मान्यता और स्वभाव का सीधा असर उनके रचनाकर्म पर भी परिलक्षित होता है। खासतौर से, स्त्री जीवन से जुड़ी अनुभूति तो जैसे उनके रचनाकर्म की प्राणवायु है। सहज ही है कि यह संगतता उनके खुद एक स्त्री होने के नाते उनके रचनाकर्म में चली आई है। साहित्यिक और सामाजिक जीवन का उनका लंबा अनुभव भी उनके काव्य में बहुत काम आया है। नारी मन की संवेदनाएं, अनुभितियां, इच्छाएं, सामाजिक दशा, जीवन की चुनौतियां, त्रासदियां, स्वयं की तलाश, समाज से संवाद, साहस और नारी जागृति के विविध आयाम आदि सभी कुछ इन कविताओं में आ समाया है।और, यह बात स्त्री के सामाजिक सभी रूप ( मां, बेटी, पत्नी, बहन आदि) के संदर्भ में काफी हद तक यथोचित जान पड़ती है। 'औरत कमजोर नहीं ' कविता में वे लिखती हैं - "जीवन पथ पर गिरकर संभलना सीख लिया है मैंने, औरत हूं, कच्चे धागे में पिरोई, कोई मोतियों की लड़ी नहीं, जो टूटकर बिखर जाऊं मैं! " यह स्वाभिमान और आत्मविश्वास स्त्री चेतना के विकसन का दुर्लभ प्रमाण है। 

          कवयित्री अपनी कविताओं में सिर्फ स्त्री चेतना अथवा सामाजिक दायरों तक ही सीमित नहीं रही हैं। वह समाज के अन्य पीड़ित और शोषित तबके को भी जागृत करने का कार्य बखूबी करती है। वह कहती है - " जागृति पथ पर बढ़ चलो, थाम लो, अधिकारों की डोर।" अधिकारों की डोर मतलब बाबा साहब अम्बेडकर ने जो हमें संवैधानिक अधिकार दिए हैं, उनके लिए सबको कवयित्री संघर्ष पथ दिखाती है और निरंतर आगे बढ़ते जाने का आह्वान करती है। संदेह नहीं कि कवियत्री के जीवन का आदर्श भी बाबा साहब अम्बेडकर है। वे स्पष्ट कहती हैं - " बाबा तुम, पथ प्रदर्शक हो हमारे, हम आभारी हैं तुम्हारे।" इस तरह ये कविताएं दलित चेतना से लबरेज कवितायें हैं। खासकर, संग्रह की अधिकांश कविताएं दलित स्त्री के जीवन और चेतना का सटीक संवाहक बनकर सामने आती हैं। प्रमाणस्वरूप संग्रह में शोषित औरतें, हद, अपमान, शिक्षित नारी, अनकही दास्तां, बेटी, दहेज, कन्या भ्रूण, मां, ममता, आंचल की ठंडी छांव,  विद्रोह के स्वर, अस्तित्व, स्त्री, मां, ममता, विद्रोह के स्वर आदि कविताएं संग्रह में मौजूद हैं।

          इनके अलावा समाज के दूसरे पहलुओं को उजागर करती कविताएं - मेरा देश, रोटी की तलाश, जिंदगी, कांड, भगवान के भक्त, बदलाव, पिता, दंगे, नया इतिहास रचे, व्यवस्था की धरोहर, आदि समाज के प्रासंगिक और समसामयिक मुद्दों को केंद्र में रखकर लिखी गई है। इससे ज्ञात होता है कि कवयित्री की काव्य चेतना और काव्य दृष्टि संकीर्ण और सीमित नहीं अपितु विस्तृत कैनवास लिए हुए हैं, तभी तो जीवन और समाज के छोटे से छोटे और बड़े से बड़े मुद्दे भी आसानी से उनकी कविता के विषय बन जाते हैं। दलित जीवन कैसे बीतता है, उसके मासूम बच्चे कितनी मुश्किल से सरवाइव कर पाते हैं इस भयावह त्रासदी का उद्घाटन कवयित्री ठिठुरती एक रात कविता में करती है। वे लिखती हैं - " अलाव में पड़ते ही कमीज से अग्नि भभक उठी, ठिठुरती ठंड से राहत कुछ मिली, कमीज की वजह से, मिल गया जीवन का, एक दिन और।" इस तरह, संग्रह की कविताएं कहीं स्त्री जीवन और त्रासदी से रूबरू कराती हैं, कहीं दलित समाज की वास्तविकताओं से तो कहीं जागृति और संघर्ष का संवाहक बन जाती हैं। कहीं वे बाबा साहब का गुणगान करती हैं तो कहीं बाबा साहब के पथ पर चलने का सशक्त आह्वान करती हैं। समस्त कविताएं कवयित्री के लंबे संघर्ष और अनुभव का जीवंत दस्तावेज बनकर सामने आती हैं। ये कविताएं कवयित्री के अनुभव, समझ, चेतना और वैचारिकी के जीते जागते प्रमाण हैं, जो संबंधित समाज में जागृति के पहरुए और पथ प्रदर्शक की तरह देखे जा सकते हैं। कह सकते हैं कि प्रस्तुत संग्रह पथरीली राहें काव्य पथ पर कवयित्री द्वारा गाड़े गए काव्य रूपी वो मील के पत्थर हैं जिनके संकेतों से दलित स्त्री और समाज रचनात्मक रूप से लाभान्वित हो सकते हैं।

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07/12/2021



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