प्रवासी साहित्य
प्रवासी साहित्य और हिन्दी का अन्तर्राष्ट्रीयकरण
©अमित धर्मसिंह
आज़ादी के बाद से हिन्दी का पर्याप्त प्रचार-प्रसार हो रहा है। ख़ासतौर से फ़िल्मों, सोशियल मीडिया और साहित्य के माध्यम से। हिन्दी में छपने वाले समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ भी इसके प्रचार-प्रसार में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। ”सूचना तथा ज्ञान के इस युग में भारत की यह ऐसी उपलब्धि है, जिससे हिन्दी के साथ सभी भारतीय भाषाओं का प्रचार-प्रसार बढ़ेगा। हिन्दी के बढ़ते चरण संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वार पर बराबर दस्तक दे रहे हैं। अपने देश में संपर्क भाषा के रूप में उभरकर आने वाली हिन्दी भाषा विश्व के मानचित्र पर अपना दृढ़ स्थान बनाती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ की यूनिवर्सल नेटवर्किंग लैंग्वेज (UNL) के लिए शब्द कोश, एन.कन्वर्टर और जी.कन्वर्टर के विकास करने हेतु जिस संस्थान की स्थापना हुई है, उसकी मुख्य एजेंसी मुंबई का भारतीय प्रोद्यौगिक संस्थान ही है। यह संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय का ऐसा प्रयास है जिसमें विश्व की सोलह भाषाएँ सम्मिलित हैं। हिन्दी भी उनमें से एक है। “सत्रह बोलियों-खड़ी बोली, हरियाणी, ब्रज, बुंदेली, कन्नौजी, अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी, मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती, मालकी, भोजपुरी, मगधी, मैथिली, पहाड़ी पश्चिमी, मध्यवर्ती पहाड़ी तथा गढ़वाली-कुमाउँनी का प्रतिनिधित्व करने वाली हिन्दी में यह योग्यता है कि वह भारत के जनमानस की बोली और साहित्य की भाषा बन सके। कोई भाषा किसी देश व समाज के साहित्य की भाषा बनती भी इसीलिए है कि उसे सम्बन्धित समाज का बृहत्तर हिस्सा बोलता वह समझता है। इतना ही नहीं भाषा किसी राष्ट्र की संस्कृति और उसकी अस्मिता की संवाहक होती है। - ”फादर कामिल बुल्के का कथन इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है - हिन्दी न केवल देश के करोड़ों लोगों की सांस्कृतिक और संपर्क भाषा है वरन् बोलने और समझने की संख्या की दृष्टि से दुनिया की तीसरी भाषा है। भारत के सभी धर्मों और विभिन्न भाषा-भाषियों ने हिन्दी के विकास में योगदान दिया है। वह किसी विशिष्ट वर्ग, प्रदेश या समुदाय की भाषा न होकर भारतीय ‘जनता की भाषा है। निश्चय ही, हिन्दी मात्र एक भाषा ही नहीं है वरन् राष्ट्रीय एकता की कड़ी है, सामाजिक, सांस्कृतिक अस्मिता की भाषा है।“
इसी भारतीय एकता और अस्मिता का एक सजग पहरूआ ‘प्रवासी साहित्य’ है। इसने न केवल देश में अपितु दुनिया के अनेक देशों में भारतीय संस्कृति और सांस्कृतिक पहचान की खुशबू बिखेरी है। विश्व के अनेक देशों में भारतवंशी हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्थान की ध्वज पताका फहराने में लगे हैं। साहित्य के माध्यम से उनकी राष्ट्र और संस्कृति संबंधी सेवाएँ सामने आ रही हैं। इससे न केवल भारत को विदेशी संस्कृति का ज्ञान हो रहा है बल्कि विश्व भी भारतीय-संस्कृति से परिचित हो रहा है। साथ ही, हिन्दी भाषा और साहित्य का निरन्तर प्रचार-प्रसार बढ़ रहा है, जिससे हिन्दी भाषा राष्ट्र की देहरी लाँघकर अन्तर्राष्ट्रीय भाषा बनने की राह पर अग्रसर है। ”हिन्दी के इस प्रवासी साहित्य के इस सर्वेक्षण से हम कुछ महत्त्वपूर्ण निष्कर्षों तक पहुँच सकते हैं। इस प्रकाशित साहित्य ने हिन्दी को वैश्विक रूप प्रदान किया है और अब हिन्दी का कभी सूर्यास्त नहीं होगा। हिन्दी का प्रवासी साहित्य भारतेतर देशों को भारत से जोड़ने का एक सेतु बनता है जिसके मूल में भारतवासियों का स्वदेश-प्रेम, भाषा-प्रेम, संस्कृति-प्रेम के साथ उनकी संलग्नता, सहभागिता एवं सहयोग अटूट रूप में सम्बद्ध है। यह सेतु विश्व-व्यापी हिन्दी साहित्यिक समाज का निर्माण करता है, विभिन्न देशों के हिन्दी लेखक एवं हिन्दी समाज भारत के हिन्दी समाज से जुड़ते हैं और परस्पर एक दूसरे के निकट हिन्दी-विश्व को सबल एवं स्थायित्व प्रदान करते हैं।“
इस तरह की हिन्दी सेवा आज बड़े पैमाने पर भारतवंशी, प्रवासी साहित्यकार कर रहे हैं। बड़े पैमाने पर हिन्दी में साहित्य लिखा व छापा जा रहा है। हालाँकि विदेशी जमीन पर इस सन्दर्भ में काफी कठिनाइयाँ भी आ रही हैं। ख़ासतौर से विदेशों में प्रवासी साहित्य के प्रकाशकों एवं पाठकों को लेकर। बावजूद इसके विभिन्न देशों में बसे प्रवासी साहित्यकार साहित्य की लगभग सभी विधाओं में सृजन कर रहे हैं। वे निरन्तर ऐसे आयोजन कर रहे हैं जिससे कि हिन्दी को विश्वस्तर पर बढ़ावा दिया जा सके। विभिन्न आर्थिक व सामाजिक कठिनाइयों के बाद भी प्रवासी साहित्यकारों ने हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में जो मुकाम हासिल किया है उससे कहना पड़ता है कि - ”भारतेतर देशों में भारतवंशियों के हिन्दी साहित्य ने अपना एक भरा-पूरा संसार निर्मित किया है और उसके आकार, मात्रा एवं स्तर में निरन्तर वृद्धि हो रही है। इस प्रवासी हिन्दी साहित्य ने अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है, क्योंकि वह अपनी संवेदना, सरोकार, जीवन-मूल्यों एवं रूप-रचना में अपनी अलग विशिष्टता रखता है। परदेस में रहते हुए स्वदेश को देखने का दृष्टिकोण बदलता है और वहाँ की परिस्थितियाँ, जीवन-संघर्ष आदि भी जीवन को देखने-समझने-जीने के दृष्टिकोण में क्रान्तिकारी रूप से उद्वेलन एवं परिवर्तन उत्पन्न करता है। प्रवासी लेखक अनेक बार स्वदेश-परदेश के द्वन्द्व में जीता है और नई-नई अनुभूतियों, तनावों ओर विसंगतियों से गुज़रता है और रचना में नये भाव-बोध, नया दृष्टिकोण तथा नये जीवनमूल्यों की सर्जना होती है। हिन्दी को इस प्रकार एक नए प्रकार का साहित्य मिलता है जो भारत में रहते हुए नहीं रचा जा सकता था।“विदेशों की संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था के विषय में जो ज्ञान प्रवासी साहित्य के माध्यम से भारतीय साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को प्राप्त हो रहा है इससे उनके देश व दुनिया के ज्ञान में नित नूतन अनुभव जुड़ रहे हैं। वे साहित्य में जहाँ नई ऊँचाइयाँ छू रहे हैं वहीं दुनिया को समझने के उनके दृष्टिकोण में भी खासे परिवर्तन हो रहे हैं। हिन्दी में रचे जाने वाले प्रवासी साहित्य किन्हीं दो देशों एवं संस्कृतियों के मध्य सेतु का कार्य कर रहा है।” विश्व हिन्दी-रचना के प्रकाशन का मूल उद्देश्य यही है कि भारतेतर देशों में अप्रवासी हिन्दी लेखकों ने जो अपने हिन्दी -प्रेम तथा हिन्दी-निष्ठा से हिन्दी में सर्जनात्मक साहित्य का छोटा-सा, किन्तु विश्व में चारों ओर फैला हुआ आकाश निर्मित किया है, उसे विश्व के हिन्दी-रंगमंच पर प्रस्तुत किया जाये और हिन्दी-संसार को बताया जाये कि तूफ़ानों-आँधियों और भंयकर बाधाओं के बावजूद हमने भी हिन्दी की एक छोटी-सी दुनिया बनाई है। यह दुनिया प्रत्येक देश की अपनी है, परन्तु उसकी आत्मा हिन्दी और भारतीयता की है। इस विश्व-हिन्दी रचना में भारत से बाहर के तेरह देशों में जन्में तथा उनमें रहने वाले हिन्दी-लेखकों की कविता, कहानी, नाटक, एकांकी, निबन्ध, डायरी, पुस्तक-समीक्षा, बाल-साहित्य, भेंटवार्ता, यात्रा-वृत्तांत, व्याख्यान लघुकथा, लोक-साहित्य, संस्मरण तथा संपादकीय विधाओं की सैंकड़ों रचनाओं को संकलित किया गया और पहली बार भारत ही नहीं, भारतेतर देशों के हिन्दी लेखक इससे परिचित हुए कि गद्य एवं पद्य की इतनी विधाओं में भारतवंशियों ने हिन्दी में लिखा है और स्तरीय लिखा है। “दुनिया के तमाम देशों में से आज अनेक देशों में हिन्दी का पठन-पाठन तथा लेखन शुरू हो चुका है। हिन्दी साहित्य की तमाम विधाओं में लेखन भारतीय मूल के रचनाकारों द्वारा निरन्तर जारी है। जिससे गैर भारतीयों का भी हिन्दी और हिन्दुस्तान के साहित्य के प्रति रूझान बढ़ रहा है। हालाँकि जिस मात्रा में हिन्दी का पठन-पाठन होता है। उस मात्रा में साहित्य सृजन नहीं होता; फिर भी भूमंड़लीकरण के इस दौर में हिन्दी का साहित्य पर्याप्त मात्रा में प्रकाशित होकर विश्व में अपनी जगह बनाने में लगा है।” एक विद्वान के अनुसार हिन्दी विश्व की तीन प्रमुख भाषाओं में से एक है। ये भाषाएँ हैं - अंग्रेज़ी, हिन्दी और चीनी। विश्व के 46 से अधिक देशों में हिन्दी भाषा का अध्ययन-अध्यापन होता है लेकिन इन सभी देशों में हिन्दी में साहित्य की रचना नहीं होती है। भारतेतर देशों में रचे जाने वाले हिन्दी-साहित्य को निम्नलिखित वर्गों में बाँटकर देखा जा सकता है -
1. भारत से गिरमिटिया मजदूर बनकर जाने वाले देशों में रचा हिन्दी साहित्यः इन देशों में माॅरीशस, फ़ीजी सूरीनाम, गयाना, ट्रिनीडाड ऐंड टुबेगो।
2. भारत के पड़ोसी देशों में भारतवंशियों द्वारा रचा हिन्दी-साहित्यः नेपाल, पाकिस्तान, बँगलादेश, भूटान, श्रीलंका एवं म्यांमार, बर्मा।
3. विश्व के अन्य महाद्वीपों के देशों में रचा हिन्दी साहित्यः
(क) अमेरिका महाद्वीपः संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, कनाड़ा, मौक्सिकों, क्यूबा।
(ख) यूरोप महाद्वीपः रूस, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, बेल्जियम, हालैण्ड, नीदरलैण्ड, आस्ट्रिया, स्विटजरलैंड, डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन, फिनलैंड, इटली, पोलैण्ड, चेक, हंगरी, रोमानिया, वाल्गारिया, उक्रेन तथा क्रोशिया।
(ग) अफ्रीका महाद्वीपः दक्षिण अफ्रीका, री-यूनियन द्वीप।
(घ) एशिया महाद्वीपः चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, मंगोलिया, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्की, थाइलैंड।
(ङ) अस्ट्रिया, आस्ट्रेलिया“
इन विभिन्न देशों में जो प्रतिष्ठित साहित्यकार हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अपना अभूतपूर्ण योगदान दे रहे हैं उनका नामोल्लेख करना भी उचित होगा। अलग-अलग देशों में बसे भारतीय मूल के रचनाकार क्रमशः इस प्रकार हैं - ”अमेरिकाः सुषम बेदी, अनिल प्रभा कुमार, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, सुधा ओम ढींगरा, पुष्पा सक्सेना, रेणू राजवंशी गुप्ता, आस्था नवल आदि। आस्ट्रेलिया: श्यामली जीजी आदि। कनाड़ा-सुमन कुमार घई, शैलजा सक्सेना आदि। जापान-नीलम मलकानिया आदि। डेनमार्क-अर्चना पैन्यूली आदि। नार्वे - सुरेश शुक्ल शरद आलोक- आदि। ब्रिटेन- दिव्या माथुर, तेजेन्द्र शर्मा, उषा राजे सक्सेना, नीना पाॅल, उषा वर्मा, महेन्द्र दवेसर, कादंबरी मेहरा, नीरा त्यागी आदि। शारजाह - पूर्निमा वर्मन आदि चीन - अनिता शर्मा आदि। नीदरलैण्ड - पुष्पिता अवस्थी आदि। मारीशस - राज हीरामन, राजरानी गोबिन आदि।“ इनके अलावा भी बड़ी संख्या में प्रवासी साहित्यकार हिंदी साहित्य में संलग्न हैं जो निरन्तर हिन्दी - सेवा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कर रहे हैं।
ये साहित्यकार विश्वभर में हिन्दी की सेवा प्रमुख तीन स्तरों पर कर रहे हैं। साहित्य के स्तर पर, साहित्य सर्जन के माध्यम से। पारिवारिक व सामाजिक स्तर पर, घर एवं घर से बाहर के सम्बन्धित समाज के लोगों को हिन्दी लिखना, बोलना व पढ़ना सिखाकर तथा अकादमिक स्तर पर विश्वविद्यालयों में हिन्दी का अध्ययन-अध्यापन कराकर। ”प्रवासियों की पहली पीढ़ी में घर में वे आपस में और बच्चों के साथ अपनी पारम्परिक भाषा का प्रयोग कमोबेश करते ही हैं। अंग्रेजी-प्रधान देशों में यह देखा गया है कि घर में भी अंग्रेजी का प्रयोग अक्सर बढ़ जाता है और अपनी मातृभाषा का प्रयोग कम हो जाता है। अंग्रेजी का प्रभाव होने के बावजूद अधिकतर घरों में ऐसा देखा गया है कि माता-पिता आपस में बातचीत या विचार-विनिमय के लिए अपनी भारतीय मूल की प्रमुख भाषा का प्रयोग कुछ-न-कुछ मात्रा में करते रहते हैं। साथ ही साथ उनमें से अधिकतर प्रवासी जन अपने मन में इस बात की कामना भी करते रहे हैं कि नए देश में आने के बावजूद उनके बच्चे उनकी मूल भाषा जानें, ताकि भारत के लोगों से, भारत की धर्म-संस्कृति से और भारत में पीछे रह गए रिश्तेदारों से उनका सम्बन्ध बना रहे। बहुत-से माता-पिता बच्चों को घर में ही लिखना-पढ़ना सिखाने का प्रयत्न करते हैं। जहाँ समाज भाषा-भाषियों की संख्या पर्याप्त हो, वहाँ लोग मिलकर बच्चों के लिए अपनी संस्कृति सिखाने के निमित्त सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं और इन सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अक्सर भाषा सिखाने का प्रबन्ध सम्मिलित किया जाता है।“ इसी तरह अकादमिक स्तर पर भी हिन्दी को काफ़ी प्रोत्साहन मिल रहा है। एक तरफ जहाँ साहित्यकार विभिन्न कार्यक्रमों, सम्मेलनों तथा संगोष्ठियों के माध्यम से हिन्दी को बहुतायत में प्रयोग करके हिन्दी भाषा के फ़लक का निर्माण कर रहे हैं वहीं विदेशों में कई विश्वविद्यालय भी इसके प्रचार-प्रसार को अनिवार्य मानते हुए इसे पाठ्य-क्रम में जगह दे रहे हैं। ”विशेषकर अमेरिका में भारतीय भाषाओं को सीखने के लिए विशेषकर भारत मूल के विद्यार्थियों को (परन्तु दूसरों को भी) आज चार कारणों से नया प्रोत्साहन मिला है। आज हर विचारशील व्यक्ति यह बात समझता है कि उदीयमान और आर्थिक दृष्टि से सशक्त भारत में लोगों से व्यवहार करने के लिए अंग्रेजी के अलावा हिन्दी जानना बहुत महत्त्वपूर्ण है। और भी भाषाएँ आती हों तो सोने पे सुगाहा है। दूसरा कारण हिन्दी सिनेमा है, जो प्रवासी भारतीयों के मनोरंजन का प्रधान स्रोत है। तीसरा कारण भारत में बसे रिश्तेदार हैं, जिनसे मिलने में दूरी अब व्यवधान नहीं है और फोन पर बातें करना और गप्प मारना इतना सस्ता हो गया है कि उनसे बराबर संपर्क बना रहता है। इन तीन कारणों के अतिरिक्त चौथा कारण है अमेरिका जैसे देश में विदेशी भाषाएँ सीखने के लिए नया प्रोत्साहन, जिसकी वहज से भाषा-संबंधी कुछ अन्य भाषाओं के साथ हिन्दी को भी अमेरिकी स्कूलों और काॅलेजों में पढ़ाए जाने के लिए अपनी योजना का स्पष्टीकरण किया। आर्थिक दृष्टि से बढ़ते हुए भारत के साथ अपने सम्बन्ध मजबूत करने के लिए हिन्दी के महत्त्व का विचार इस योजना के पीछे है। इन सब कारणों की वजह से अपनी पारंपरिक भाषाओं के संरक्षण का और उनके ज्ञान को आगे बढ़ाने का एक नया वातावरण कम-से-कम अमेरिका में तो तैयार हो रहा है।“ इस तरह देखें तो हिन्दी हर स्तर पर आगे बढ़ रही है। इसके पीछे इसका वैज्ञानिक होना, सरल, सुगम होना तो है ही साथ ही इसमें प्रचुर मात्रा में लिखा जाने वाला साहित्य भी है। सर्वविदित है कि भाषा न सिर्फ़ संस्कृति और इतिहास को सहेजने का माध्यम होती है अपितु किसी राष्ट्र की आर्थिक उन्नति का कारण भी होती है। क्योंकि जो भाषा जितनी अधिक आम-बोलचाल से जुड़ी होती है उसमें उतने ही अधिक लोगों के बीच विचार विनिमय होता है, तथा व्यापार के रास्ते खुले रहते हैं। आज विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा अंग्रेजी है। आप देख सकते हैं कि अंग्रेजी मूल के देश आर्थिक रूप से कितने सम्पन्न हैं। इसी के आधार पर अंग्रेजीदां दुनिया के विभिन्न देशों पर राज करते आए हैं। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि राष्ट्र की सामाजिक आर्थिक व सांस्कृतिक उन्नति के लिए अपनी राष्ट्र भाषा का विश्वभर में अस्तित्व बना रहना चाहिए। नव उपनिवेशवाद और सांस्कृतिक साम्राज्यावाद के इस दौर में तो यह और भी अधिक जरूरी है। वर्तमान दौर में बहुत से लोगों को भारतीय भाषाओं का प्रसार और उनकी उन्नति बेकार लग रही है। क्योंकि एक समझ निर्मित कर दी गयी है कि अंग्रेजी ही काम आने वाली भाषा है। प्राच्यविद्या के समर्थक एच.टी.प्रिंसेप ने मैकाले की योजना का विरोध करते हुए याद दिलाना चाहा था कि 1813 के चार्टर की 43वीं धारा के अनुसार आर्थिक अनुदान भारत की जन-भाषाओं की समृद्धि के लिए और भारतीय भाषाओं के प्रसिद्ध विद्वानों के कार्यों पर खर्च करना चाहिए। .... पूर्व स्वीकृत अनुदान को वापस लेना अन्यायपूर्ण कार्य है। विलियम बैंटिक ने मैकाले का पक्ष लिया और मिनट्स में लिख दिया - सम्पूर्ण कोष को अंग्रेजी शिक्षा पर ही व्यय करना सर्वोत्तम होगा। उसने साहित्यिक अनुसंधानों पर भी रोक लगा दी - महामहिम के ध्यान में यह बात आयी है कि कमेटी ने एक बहुत बड़ी निधि प्राच्य कृतियों के प्रकाशन पर व्यय की है। महामहिम निर्देश देते हैं कि अब से कोष का कोई अंश इस प्रकार के कार्य में न लगाया जाये। आज के व्यापारियों ने भी भारतीय भाषाओं की उन्नति से, उनमें दी जाने वाली शिक्षा और उनके साहित्यिक विकास से अपने हाथ खींच लिए हैं।“ इस तरह देखें तो मैकाले के समय से लेकर आज तक हिन्दी के प्रचार-प्रसार में हजार तरह की अड़चने पैदा की जाती रही हैं। ये अड़चने न केवल राष्ट्र-स्तर पर रहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तो और भी जटिल रूप में रही हैं। पराधीन भारत में तो इस तरह के प्रयास सामान्य बात थी, किन्तु स्वतंत्र भारत में हिन्दी विरोधी व्यवहार अधिक असहनीय और गै़र वाजिब है। क्येांकि हिन्दी भाषा में ही भारत के मूल स्वभाव और एकता को वहन करने की क्षमता और सलीका है। इसलिए भारत की पहचान, अस्मिता, संस्कृति, इतिहास और अस्तित्व को बचाने एवं बढ़ाने के लिए हिन्दी भाषा का न केवल राष्ट्रीय वजूद बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय गौरव का फलना-फूलना भी नितान्त जरूरी है। ताकि भारत विश्व के साथ बराबरी से पेश आ सके और अपना आर्थिक उत्थान कर विकास की नित नई ऊँचाइयाँ छू सके।
कहना न होगा कि प्रवासी साहित्य द्वारा हिन्दी के अन्तर्राष्ट्रीयकरण में पर्याप्त रचनात्मक कार्य किए जा रहे हैं। "देश से इतर विदेशों में हिन्दी साहित्य के विकास में, इन साहित्यकारों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। जहाँ एक ओर भारत में रह रही युवा पीढ़ी अंग्रेजी के मोह में अंधी होकर अपनी मातृभाषा को ही गंवार कहती व ख़राब दृष्टि से देखती है। अंग्रेज बन जाने की होड़ में यह पीढ़ी न अपने संस्कारों का महत्त्व जान पाती है, न अपनी भाषा की महानता को, जो कि विश्व में सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली चंद भाषाओं में से हैं। दूसरी तरफ दूर देशों में बसे प्रवासी अपनी मातृभाषा के प्रति आसक्त व अनुरक्त रहते हैं। वहाँ के दूतावास के अधिकारी, प्राध्यापकों व साहित्यकारों के अतिरिक्त आम प्रवासी भी हिन्दी भाषा की हर गोष्ठी, पाठ, कवि सम्मेलन सामूहिक मिलन समारोह में अपनी शत-प्रतिशत भागीदारी निभाते हैं। वहाँ के साहित्यकार वहाँ केवल साहित्य सृजन करके ही अपनी भाषा के प्रति अपने कर्तव्यों की इतिश्री नहीं कर लेते बल्कि वे अनेकानेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी कर रहे हैं, उन्होंने हिन्दी भाषा के उत्थान व विकास के लिए कई संस्थाएँ व संघ भी बनाए हैं। आय दिन संगोष्ठी व सम्मेलन कर रहे हैं। नेट/अंतर्जाल के इस युग में अनेक ई-पत्रिकाओं का भी संचालन कर रहे हैं।" इस प्रकार सूचना और इन्टरनेट की क्रांति के इस युग में जब प्रवासी साहित्यकार हिन्दी के प्रचार-प्रसार में विश्व स्तर पर प्रयास कर रहे हैं, तब हमें भी चाहिए कि न सिर्फ उनको प्रोत्साहन दें, अपितु अपनी योग्यतानुसार हिन्दी को बढ़ाने के लिए रचनात्मक योगदान भी देें।
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संदर्भ -
1. भारतीय भाषा परिचय; केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, दिल्ली; द्वितीय संस्करण 2010, पृष्ठ
संख्या-556
2. वही, पृष्ठ संख्या-553
3. प्रवासी साहित्य जोहान्सबर्ग से आगे; संपादकः कमल किशोर गोयनका; विदेश मंत्रालय, भारत सरकार; प्रथम संस्करण-2015, पृष्ठ संख्या-12
4. वही, पृष्ठ संख्या-16
5. हिन्दी प्रवासी साहित्य; खण्ड तीन; संपादन-संकलनः डाॅ. कमल किशोर गोयनका; यश पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली; प्रथम संस्करण; जनवरी 2016, पृष्ठ संख्या-17-18
6. वही, पृष्ठ संख्या-18
7. प्रवासी साहित्य जोहान्सबर्ग से आगेः सम्बन्धित पेज।
8. हिन्दी प्रवासी साहित्यः खण्ड तीन;पृष्ठ संख्या-95; सुरेन्द्र गंभीर का लेजः प्रवासी भारतीयों
के घरों में हिन्दी का सीखना।
9. वही, पृष्ठ संख्या-97
10. भाषा ओर भूमंडलीकरण; संपादक-रमेश उपाध्याय, संज्ञा उपाध्याय; शब्दसंधान प्रकाशन,
नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-2008, पृष्ठ संख्या-51 लेख-शंभुनाथ।
11. googleweblight.com आलेखः प्रवासी साहित्यकारों का हिन्दी को अवदान; आशा पाण्डे (ओझा); access on 27-09-2017
जानकारी सूचना आलेख सभी बहुत ही ज्ञानवर्द्धक है 👏💐
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया आपका!
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