अभिशप्त कथा
‘अभिशप्त कथा’ में नारी विषयक अध्ययन
अमित धर्मसिंह
शोधार्थी,
दिल्ली विश्वविद्यालय
‘अभिशप्त कथा’ हिन्दी के वरिष्ठ लेखक मनु शर्मा द्वारा लिखित उपन्यास है। ‘कृष्ण की आत्मकथा’, गान्धारी, द्रौपदी, द्रोण, कर्ण आदि पौराणिक पात्रों की आत्मकथा लिखने वाले मनु शर्मा ने प्रस्तुत उपन्यास में मुख्य पात्रों के रूप में दो पौराणिक पात्रों (कच और देवयानी) की कथा को केन्द्र में रखा है। वैसे तो “यह औपन्यासिक कृति पौराणिक इतिहास की जानकारी देने के साथ ही तत्कालीन आर्यावर्त के सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक इतिहास का भी लेखा-जोखा है।” परन्तु इस उपन्यास में जितने भी नारी पात्रों की सर्जना हुई है वे सब समाज में नारी विषयक स्थिति का बड़ा स्पष्ट खाका खींचते हैं। यह खाका राजनीतिक हो, सामाजिक हो अथवा सांस्कृतिक हो, सबमें नारी द्वितीय पुरुष अथवा किसी बिसात पर सजाये हुए मोहरे की तरह नज़र आती है। स्त्री की यह विडम्बना सुर और असुर दोनों में समाज है। यानी स्त्री के सुर, असुर होने से भी उसकी स्थिति में कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। उपन्यास में देवयानी के अलावा जयंती और शर्मिष्ठा दो मुख्य पात्र हैं। जयंती इन्द्र की पुत्री है, देवयानी शुक्राचार्य तथा शर्मिष्ठा वर्षपर्वा की। यानी एक सुरपुत्री, दूसरी ऋषि पुत्री तथा तीसरी असुर पुत्री। तीनों वैसे तो समाज के अलग-अलग कुल और वर्ग से सम्बन्ध रखती हैं लेकिन तीनों की राजनीतिक हैसियत समान है। पितृसत्ता और पतिसत्तात्मक समाज में नारी पुरुष की पश्चगामी के अलावा कुछ नहीं। पश्चिमी विद्वान मिल ने इस सम्बन्ध में काफी गहन विचार किया है- “मिल की आलोचना के केन्द्र में पुंसवादी समाज की प्रचलित व्यवस्था है जो बिना पड़ताल किए, बिना परखे एकांगी ढंग से उस व्यवस्था को श्रेष्ठ मान लेती है जिसमें स्त्री पुरुष के पूर्णतया अधीन रहती है, सार्वजनिक मामलों में उनकी भागीदारी नहीं होती और जिसमें व्यक्गित रूप से प्रत्येक महिला अपने पति की अथवा उस पुरुष की आज्ञा का पालन करती है जिससे उसका भाग्य जुड़ा होता है।” अभिशप्त कथा में तीनों स्त्री ऐसे ही किसी पुरुष पात्र से जुड़ी हुई है जिससे उनका भाग्य जुड़ा होता है। असल में स्त्री को नियति अथवा भाग्यवादी पिंजरे में राज्य सत्ता ने धकेला है क्योंकि “राज्य व्यवस्था के नियम-कानून हमेशा उन संबंधों को मान्यता देकर ही आरंभ होते हैं जो व्यक्तियों के बीच पहले से ही विद्यमान होते हैं। इस धारणा के आधार पर मिल यह निष्कर्ष निकालते हैं कि चूँकि मानव समाज के उदय से ही, हर स्त्री, पुरुषों द्वारा उसके साथ कुछ मूल्य जोड़ देने के कारण (साथ ही शारीरिक बल में तुलनात्मक रूप से कम होने के कारण) किसी न किसी पुरुष के अधीन रही। राज्य व्यवस्था ने स्त्री की इस गुलामी को वैधता प्रदान करने का काम किया।” ‘अभिशप्त कथा’ में जिस पौराणिक काल की राज्य व्यवस्था का चित्रण किया गया है उसमें भी स्त्री को जो स्थान प्राप्त है वह स्त्री को कोई विशेष अधिकार नहीं देता है। वह न सिर्फ राज्य सत्ता से बँधी हुई है अपितु अपने अधिकर्ता पुरुष के अनुसार भी ढ़ली हुई है। वह न राजनीतिक विद्रोह करती है न सांस्कृतिक। इसका परिणाम यह होता है कि इन्द्र, शुक्राचार्य, वर्षपर्वा तथा कच सम्बन्धित स्त्रियों का मनमाना राजनीतिक प्रयोग करते हैं। यानी नारी चारों के राजनीतिक हित साधन बनती है। सर्वप्रथम इन्द्र को लीजिए- वह सुर है और स्वर्ग का राजा है। उसकी दो संताने हैं जयंत और जयंती। इन्द्र का असुर वर्षपर्वा के साथ राज्य सत्तात्मक युद्ध चल रहा है। अपने स्वर्ग राज्य को बचाने के लिए इन्द्र किसी भी हद तक जाने को तैयार है। वह किसी भी नीति (छलनीति, कूटनीति) का प्रयोग करने को तैयार है। यहाँ तक कि वह अपनी पुत्री जयंती तक को कच के साथ इसलिए वर्षपर्वा के राज्य में भेज देता है ताकि कच और जयंती मिलकर किसी भी तरह शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या हासिल कर सके। इन्द्र की इस राज लिप्सा पर वरुण विचार मंथन भी करते हैं कि “हाय री राजलिप्सा! इन्द्र पुत्र छोड़ सकता है, पुत्री छोड़ सकता है, पर सिंहासन नहीं छोड़ सकता।” यही कारण था कि इन्द्र अपने गुरु बृहस्पति के पुत्र कच के साथ अपनी पुत्री जयंती को भेजने से भी गुरेज नहीं करता। अपने सिंहासन के चक्कर में वह यह भी भूल जाता है कि वह एक युवाउम्र लड़के के साथ अपनी नवयौवना पुत्री जयंती को वर्षपर्वा जैसे असुर के राज्य में भेज रहा है। जयंती पिता की इस आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकती थी इसलिए सहर्ष जाने को तैयार हो जाती है। हालाँकि इसका एक कारण जयंती का कच के प्रति आकर्षण भी था किन्तु जयंती का जाना जयंती की एक विशेष मजबूरी के तहत था। मजबूरी यह थी कि एक तो वह जिस राज्य व्यवस्था में रह रही थी उसका विरोध करना उसकी सामथ्र्य से बाहर था। दूसरे वह पुरुष प्रधान समाज में एक स्त्री होने के नाते पिता के अधीन रहने की आदर्शवादी व्यवस्था से बँधी थी। इन तमाम बंधनों की सहजता ने ही जयंती का राजनीतिक प्रयोग होने का विकल्पहीन रास्ता तैयार किया था। इस नाते न केवल पिता इन्द्र जयंती को अपने सिंहासन की सुरक्षा के लिए एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा था अपितु कच भी उसे ढ़ाल स्वरूप वर्षपर्वा के राज्य में ले जा रहा था। यही कारण था कि कच जयंती के हृदय में फूट रहे प्रेमांकुर को नहीं पहचान रहा था। वह तो बस उसको चिकनी-चुपड़ी बातों से अपने उद्देश्य की इतिश्री के लिए अपने साथ बनाए रखे था। जयंती पर पुंसवादी दबाव प्रस्तुत संवाद में स्पष्ट देखा जा सकता है- “हम यहाँ प्रेमालाप करने नहीं आए हैं, वरन् एक दायित्व के बोझ से बोझिल हैं।”
“यदि मैं उस बोझ का न वहन करुँ तो? जयंती ने पूछा।
“तो तुम्हें पिता द्वारा दिए गए वचन के उल्लंघन का पाप लगेगा।” स्त्री के जीवन में आदर्शवादी व्यवस्था का इतना गहरा दबाव होता है कि स्वयं स्त्री भी उससे मुक्त होना नहीं चाहती अथवा यह कहिए कि आदर्शवाद के स्वयं में परिव्याप्त बीज को वह नहीं पहचानती। जयंती द्वारा यह स्वीकारना कि “नारी का अस्तित्व कोमलता में है; कठोरता में नहीं; समर्पण में है, विजय में नहीं; लुट जाने में है, लूटने में नहीं है।” इसी बात अथवा तथ्य को प्रभावित करता है। बहुत हद तक संभव है कि उक्त संवाद में लेखकीय आग्रह हो लेकिन संवाद में जयंती की यह स्त्रिीयोचित गुणों की आत्मस्वीकृति दर्शाती है कि उसने अपने संदर्भ में पुरुषों द्वारा गढ़े सौंदर्य प्रतीकों और नैतिकता को स्वयं भी प्रश्रय दिया है। रमणिका गुप्ता मानती हैं कि “पुरुष एक कमजोर स्त्री की ही कामना करता है, जिस पर वह हावी हो सके, जिसे वह अपने वश में रख सके, किन्तु स्त्री क्यों खुद को पुरुषप्रिय छवि में फिट करने को आतुर रहती है? इसका जवाब स्त्री का पुरुषवादी मानसिकता से आतंकित होना ही है। वह उस पर पुरुष को मोहने का आरोप तक लगाकर खुद को दोषमुक्त कर लेता है।” कच द्वारा जयंती का तिरस्कार इसी ओर संकेत करता है।
शर्मिष्ठा जो असुर वर्षपर्वा की पुत्री है। उसकी स्थिति भी जयंती से अलग नहीं। जिस प्रकार जयंती शुक्राचार्य के सम्मुख एक नर्तकी बनकर समर्पित होने के लिए विवश है उसी प्रकार शर्मिष्ठा भी अपने पिता की राजनीतिक इच्छाओं और महत्त्वकांक्षओं की भेंट चढ़ने को मजबूर है। चूँकि आचार्य शुक्राचार्य को सुरा सुंदरी और सोम में डूबोकर संजीवनी विद्या हासिल करने के वास्ते इन्द्र ने जयंती को आचार्य की सेवा में प्रस्तुत किया था इसलिए वर्षपर्वा भी इसकी काट के लिए अपनी पुत्री आचार्य को जबरन समर्पित करते हैं। आचार्य जिस वक्त नर्तकी के लिए चिंतातुर क्रोधित थे तो उनका शक वर्षपर्वा पर ही गया कि शायद नर्तकी (जयंती) वर्षपर्वा ने ही गायब करवाई है। ऐसे में वर्षपर्वा उन्हें शान्त करने कीे पुरजोर कोशिश करते हैं। आचार्य के क्रोध से “वर्षपर्वा पसीने-पसीने हो चला। उसका सारा शब्द भंडार जैसे चुक-सा गया था। उसके मुख से बस इतना ही निकला, शर्मिष्ठा भी क्षमा माँग रही है। फिर असुरराज ने बाँह पकड़कर उसे आचार्य की ओर ढकेल दिया। वह पंख कटी सारिका सी अरबराकर उनके चरणों पर गिर पड़ी। आचार्य विजयोन्माद में मुस्कुराते रहे।” वर्षपर्वा जिस प्रकार अपनी पुत्री शर्मिष्ठा को आचार्य के चरणों में धकेलता है उससे स्पष्ट होता है कि एक पुरुष की नज़र में स्त्री की क्या औकात है। भले ही वह पुरुष पिता के रूप में हो अथवा आचार्य के। दोनों को शर्मिष्ठा के अस्तित्व अथवा अस्मिता से सिर्फ उतना ही लेना-देना है जहाँ तक उनके अपने हित सधते हैं। शर्मिष्ठा इस संदर्भ में चिंतन भी करती है कि “क्या हमारा जीवन इसलिए है कि पुरुषों का स्वार्थ हमारी अस्मिता की बलि चढ़ाता रहे? ...हम ऐसे कुरूप एकाक्षी बूढ़े की वासना का खिलौना बनते रहें?... आखिर किसलिए? मात्र इसलिए कि हम इसकी विद्या से जीवित रह जाएँगे?.... धिक है ऐसे जीवन और धिक है ऐसी विद्या!” लेकिन शर्मिष्ठा नारी स्थिति पर कितना ही तार्किक चिन्तन करे उसके विचार राजसत्ता और पुरुष सत्ता से टकरा नहीं पाते देवयानी और शर्मिष्ठा के संवाद में यह बात उभरकर सामने आती है सत्ता कोई भी हो नारी पर हमेशा हावी रही है। शर्मिष्ठा विचारती है- “आज मैं जान पाई हूँ कि मेरी स्थिति क्या है!” शर्मिष्ठा क्षण भर के लिए रुकी, “ पर यह नहीं जान पाई कि ऐसी स्थिति क्यों है?” हर राजपुत्री की यही स्थिति होती है, शर्मिष्ठा।” देवयानी मुस्कराई, “जन्म लेते ही उसका भविष्य राजसत्ता को सौंप दिया जाता है।” यह देवयानी नहीं, वरन् उसका युगबोध बोल रहा था।” युगबोध इसलिए कि “स्त्री की दासता का इतिहास दास प्रथा से भी पुराना है।” माक्र्स का उक्त कथन अक्षरशः सत्य है क्योंकि स्त्री को पुरुष के अधीन बनाये रखने के प्रयास प्रत्येक काल अथवा युग विशेष में होते रहे हैं। ये प्रयास न केवल स्त्री को शारीरिक रूप से कमजोर बनाये रखने के लिए हुए अपितु उसे मानसिक रूप से भी आत्मनिर्भर नहीं होने दिया गया। कहीं जाति भेद, कहीं लिंगभेद तो कहीं धर्म के नाम पर उसे जकड़ा गया। यहाँ तक कि उसकी सौंदर्यता तक उसके लिए अभिशाप बनी रही। ऐसा इसलिए कि उसी की सौंदर्यता की प्रसंशनात्मक सीढ़ी-चढ़कर पुरुष उसका वांछित शोषण करता रहा। “स्त्री कितनी ज्ञानवान है, कितनी सामाजिक है, कितनी गुणवान अथवा ईमानदार है, यह पुरुषों के लिए मायने नहीं रखता। बस कितनी मुग्धकारी तस्वीर-सी लगती है वह, यही उनकी कसौटी है।” इस कसौटी के कारण “भावना के स्तर पर नारी की सारी सबलता बहुधा यथार्थ के धरातल पर निरीह हो जाती है। शर्मिष्ठा ने अनुभव किया कि वह नितांत अकिंचन है, मात्र समर्पण की वस्तु। समर्पित होने के लिए ही उसका जन्म हुआ है। एक नारी की नियति भी इससे अधिक और क्या है?.... समर्पण! समर्पण‼ समर्पण‼!” वास्तव में शर्मिष्ठा ऐसा इसलिए सोचती है कि कच ने उसे भी अपनी ओर आकर्षित किया तथा प्रेम के भ्रम में रखा। एक तरफ कच ने उसे अँधेरे में रखा तथा दूसरी तरफ उसके पिता ने उसे आचार्य शुक्राचार्य को समर्पित कर दिया, जिससे न चाहते हुए भी शर्मिष्ठा बच नहीं सकती थी। यही कारण है कि अपने अनैच्छिक समर्पण को ही शर्मिष्ठा अपनी नियति मान बैठती है।
नारी जीवन की यह समर्पण सम्बन्धी त्रासदी न केवल जयंती और शर्मिष्ठा के जीवन में थी अपितु देवयानी भी इससे सर्वथा मुक्त नहीं थी। वह भी कच के मोहपाश में फँसी हुई एक निरीह मछली की तरह थी। उपन्यास में देवयानी आचार्य शुक्राचार्य की पुत्री है। कच देवयानी को अपने प्रेमजाल में इसलिए फँसाता है, जिससे कि वह देवयानी के माध्यम से आचार्य शुक्राचार्य तक पहुँच सके और संजीवनी विद्या हासिल कर सके। कच जानता है कि यदि वह आचार्य से विद्या हासिल करने में नाकाफी रहा तो देवयानी उसके बहुत काम आयेगी। क्योंकि वह कच के लिए अपने पिता को इस बात के लिए विवश करेगी कि वह कच को संजीवनी विद्या सिखाये। कच जानता है कि पुरुष के वांछित उद्देश्य की पूर्ति हेतु नारी को एक शस्त्र और ढाल दोनों की तरह प्रयुक्त किया जा सकता है। कच की मान्यता है कि “रूपसी नारी प्रकृति का सुंदरतम वरदान भी है और अभिशाप भी। मन से वह इन वरदानों को ग्रहण करता है और तन से इन अभिशापों को दूर रखता है।” कच के इन विचारों से स्पष्ट होता है कि कच स्त्री को पुरुष की लाभ-हानि का साधन मात्र समझता है जबकि स्त्री पुरुष की लाभ-हानि का साधन नहीं अपितु स्वतंत्र अस्तित्व होती है; वह भी पुरुष के समान ही इस सृष्टि की उपभागी और उत्तराधिकारी है। किन्तु स्त्री के बारे में ऐसी-ऐसी भ्रामक अवधारणाएँ और मान्यताएँ गढ़ दी गई हैं कि इनसे विमुक्त होना स्त्री और पुरुष दोनों के लिए मुश्किल प्राय है। अपनी सुंदरता के आग्रहों से स्वयं नारी भी आजाद नहीं होती जबकि पुरुष इस संदर्भ में दोहरी मानसिकता के शिकार होते हैं। पुरुष एक तरफ जहाँ कमनीय, संुदर और कोमलांगी स्त्री की कामना करता है वहीं वह यह भी मानता है कि “सुंदर नारी के चक्कर में जो पड़ता है वह चक्रवात में फँसे जलयान की तरह लुप्त हो जता है।” उक्त दोनो विरोधी विचार पुरुष ने अपनी सुविधा के लिए गढ़े हैं ताकि स्त्री को जब चाहे प्रयोग में ला सके और जब चाहे उससे पिण्ड छुड़ा सके। स्त्री दोनों दशा में कुछ खास प्रतिरोध नहीं कर पाती। इसके पीछे उसके समाजीकरण की प्रक्रिया जिम्मेदार है जो पुरुष द्वारा उस पर लिंगभेद के तहत थौपीं जाती है। असल में “भारतीय समाज के पितृवंशीय पितृस्थानिक माहौल में स्त्रीत्व के विकास की प्रक्रिया पर समाज वैज्ञानिकों ने पर्याप्त /यान नहीं दिया है। इस प्रक्रिया की अनेक बारीकियों तथा जलिटताओं को अनेदखा कर दिया गया है। लड़की होने का अर्थ क्या होता है? किस उम्र में कोई लड़की उन सीमाओं के प्रति सचेत होती है जिनके तहत अब उसे रहना होगा? कब वह परिवार में लड़कियों की तुलना में लड़कों को दिये जाने वाले विशेष महत्त्व और उसके औचित्य की धारणा के प्रति सचेत होती है? कब और कैसे वह अपने लिए उपयुक्त भूमिकाओं के सार को हृदयगम करती है? वे कौन-सी प्रक्रियाएँ हैं जिनके मा/यम से स्त्रियाँ उन सांस्कृतिक विचारों और मूल्यों को आत्मसात् करती हैं जो उनकी अपनी छवियों को रूपायित करते हैं तथा उनकी अपने भविष्य के प्रति कल्पनाओं को प्रभावित करते हैं? कैसे वे उन्हें दिये गए मूल्यों और मानदंडों में छिपे अन्तर्विरोधों तथा उन सीमाओं, जिनके भीतर रहकर ही उन्हें काम करना होता है, के प्रति संवेदनशीलता अर्जित करती हैं जो उन्हें खास तरह की रणनीतियाँ अपनाने के लिए बा/य करती हैं? दूसरे शब्दों में किसी तरह स्त्रियों का लिंगभावायित व्यक्तियों के रूप में निर्माण होता है।” या कह सकते हैं कि स्त्री की समाजीकरण की प्रक्रिया पर जानबूझकर /यान नहीं दिया जाता है ताकि उसे अपने अनुसार खास तरह की सभ्यता और संस्कृति में ढाला जा सके।
कच भी इसका अपवाद नहीं; वह भी स्त्री को परम्परागत सांस्कृतिक ढाँचे में देखता, परखता तथा उपयोग करता है। चूँकि वह देवयानी को संजीवनी विद्या के लिए एक साधन की तरह प्रयोग करता है इसलिए वह मानता है- “नारी क्या नहीं कर सकती? बहुत सारा कार्य तो नारी की मादकता भरी मुस्कुराहट कर देती है।” स्त्री के प्रति ऐसा नजरिया पुरुष की संकीर्ण मानसिकता की ओर ही इशारा करता है क्योंकि वह उसमें मादकता देख सकता है, जीते जागते प्राण नहीं। वह उसके उपयुक्त, अनुपयुक्त होने पर विचार कर सकता है उसके मन को नहीं समझ सकता। उसकी इच्छा, अनिच्छा का ख्याल किए बगै़र उसका मनमाना उपयोग कर सकता है। ऐसा इसलिए कि पुरुष स्त्री को किसी भी चीज़ का अधिकारी मानने की अपेक्षा उसे अपने अधिकार की कोई वस्तु मात्र समझता है। यही कारण रहा कि पुंसवादी व्यवस्था ने स्त्री के समाजीकरण के सहज विकास क्रम को उपेक्षित कर उसे अपने अनुसार गति व दिशा दी। जहाँ तक बात पौराणिक काल में स्त्री की स्थिति की है तो “पुराणों के निर्माता नारी के साहस, शौर्य, समाज कल्याण तथा राष्ट्र उत्थान के भावों से परिचित थे, फिर भी वे वैदिक सिद्धांतों तथा सामाजिक एवं नैतिक अनुशासन को, वर्णाश्रम के आधार पर स्थिर करना चाहते थे। अतः वे नारी को पत्नी तथा जननी से अधिक नहीं देख सके, जिसके परिणामस्वरूप नारी का जीवन पुराणों में संकुचित परिधि में घिर कर रह गया। यही कारण है कि पुराणों में कुमारी कन्याओं के जीवन तथा कत्र्तव्यों का उल्लेख नहीं है तथा उनके राजनैतिक, प्रशासकीय और धार्मिक क्षेत्र से सम्बन्धित रूप का चित्रण तो दुष्प्राप्य ही है। इसका कारण यह है कि पुराणों में नारी के धार्मिक, सामाजिक अधिकार तथा स्वाधीनता बहुत सीमित कर दी गयी थी।” यह सीमितता पूर्ण पौराणिक काल से आज तक, समय और परिस्थिति सापेक्ष चली आ रही है। हालाँकि आधुनिक युग में इसके खंडन के लिए भी प्रयास किये जाते रहे हैं। भारत में अथवा विश्वभर में जहाँ महिला अधिकारों को लेकर बहुत से आन्दोलन चले हैं वहीं, भारत में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने ‘हिन्दू कोड बिल’ के माध्यम से स्त्री अधिकारों को लीगल रूप देने का ठोस कार्य किया है। बाबा साहेब ने हिन्दू कोड बिल के सम्बन्ध में एक पत्रकार से संवाद करते हुए कहा था- “हिन्दू कोड बिल में नया कुछ नहीं है। स्मृति और प्राचीन हिंदू विधि में निहित स्त्रियों को उनके अधिकार पुनः प्रदान करने का ही यह प्रयास है। हिन्दू कोड बिल मुख्यतः हिन्दू स्त्रियों की परिस्थिति में प्रगतिशील परिवर्तन करने की दृष्टि से तैयार किया गया है।”
उक्त से स्पष्ट होता है कि स्मृति और प्राचीन हिन्दू विधि में जो स्त्री के अधिकारों का उल्लेख किया गया है, वे प्राचीन समय में स्त्री के पास थे। बाद में राजसत्ता तथा पुरुषसत्ता ने उनका हनन किया, जिसके प्रमाण और उदाहरण पौराणिक समय में भी उपलब्ध होते हैं। अभिशप्त कथा के अनुसार कहा जाये तो कच और शुक्राचार्य इसके सबसे कारगर उदाहरण हैं। ऐसा इसलिए कि इन्द्र और वर्षपर्वा तो पितृसत्तात्मक तरीके से पुत्री का संस्कारजन्य उपयोग प्रत्यक्षता अपने राज्य सत्ता की सुरक्षा के लिए करते हैं। किन्तु कच और शुक्राचार्य सम्बन्धित स्त्रियों का जो उपयोग करते हैं वह किसी भी स्त्री के लिए अधिक घातक है। शुक्राचार्य की बात करें तो वे अपनी संजीवनी विद्या के बल पर जीवन भर सुरा, सुंदरी में खोये रहे। उनके लिए सुरा और सुन्दरी में कोई फर्क नहीं। दोनों उनके उपभोग की वस्तुएँ मात्र हैं। उन्हें एक स्त्री के अस्तित्व और अस्मिता से कोई लेना-देना नहीं है। अपने इस स्वभाव के चलते वे जयंती के रूपजाल में फँसते हैं और अन्त में इसी कारण अपनी संजीवनी विद्या गवाँ बैठते हैं। वे स्वयं भी स्वीकारते हैं- “मेरा सारा भोग-विलास इस विद्या की आड़ में ही तो है। मैंने कभी सात्त्विक और दैवी विद्या के विकास की चेष्टा नहीं की। नीतिज्ञ होकर भी नीतिभ्रष्ट हुआ। ब्राह्मण होकर भी ब्रह्म विद्या से च्युत हुआ। जो था भी उसे भोग के उन्मुक्त आकाश में नादान शिशु-सा धूल की भाँति उड़ाता रहा। सदा ज्वार के सिंधु में ही हिलोंरे लेता रहा। क्या पता था कि परिस्थिति कभी रेत पर लाकर इस तरह पटक देगी।” चूँकि शुक्राचार्य सुरा, सुंदरी, सोम के भोग विलास में आकण्ठ डूबे रहे इसलिए अन्ततः उन्हें अपनी मान-मर्यादा और संजीवनी विद्या दोनों से हाथ धोने पड़े। जहाँ तक बात कच की है तो उसने अपने सम्पर्क में आई किसी भी स्त्री का दैहिक शोषण तो नहीं किया किन्तु उनकी भावनाओं से जमकर खिलवाड़ किया। शुक्राचार्य के लिये स्त्री जहाँ भोग-विलास की वस्तु थी वहीं कच के लिए खेल की। शुक्राचार्य किसी भी स्त्री को जैसे चाहे भोग सकते थे और कच जैसे चाहे नारी-मन से खेल सकता थ। यह बात सही है कि अभिशप्त कथा में उसका एकमात्र उद्देश्य संजीवनी विद्या को प्राप्त करना था लेकिन इसके लिए एक नहीं तीन-तीन स्त्रियों को मोहरा बनाना कहाँ का न्याय है। कच ने जयंती को प्रेम स्वप्न दिखाने और फिर बड़ी निर्दयता से भग्न किये। शर्मिष्ठा के दिल में प्रेम की ज्योत जलाई और बड़ी निर्लज्जता से बुझायी। यहाँ तक कि देवयानी से प्रेम होने की बात, कच ने स्वयं स्वीकारी, किन्तु देवयानी के प्रति भी उसका प्रेम तभी तक रहा जब तक उसे संजीवनी विद्या नहीं मिल गई। कच ने इसके लिए देवयानी का बड़ा ही निर्दयी प्रयोग किया। उसे झूठे सब्जबाग दिखाये, झूठे वादे किये और अन्त में संजीवनी विद्या लेकर चलता बना। परिणमस्वरूप “देवयानी और शमिष्ठा दोनों एक अनकही अभिशप्त कथा-सी” उसे निहारती रह गई। कच के सम्बन्ध में लेखक की यह बात भी श्लाघनीय है कि “परिस्थतियों ने उसे ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ जयंती है, देवयानी है और है शमिष्ठा। वह इन रूप-जालों में उलझता है, पर उसकी चेतना की कटार उसे छिन्न-भिन्न करके अभी तक तो निकालती ही गई, पर उस समय क्या होगा जब कटार पुष्प की सूखी पँखुड़ियों की भाँति झड़ जायेगी? भौंरा फूल के काँटों को झेल लेगा, पर उस समय क्या होगा जब हर फूल के हाथ में एक तलवार दिखाई देगी?” उपन्यासकार के इन शब्दों में स्त्री सम्बन्धी अतीत और भविष्य की तस्वीर साफ दिखाई दे रही है। क्योंकि आज तक स्त्री जिस पुरुष प्रधान व्यवस्था को ढोती आई है यदि पुरुष स्वयं उसे छिन्न-भिन्न नहीं करेगा तो एक दिन स्त्री उसे धराशाही कर देगी। आज तक जिस स्त्री को फूल मात्र समझकर पुरुष रसलोलुप बना रहा है लेखक भविष्य की उसी स्त्री के हाथ में एक तलवार होने की कल्पना करता है। जिससे स्पष्ट होता कि पौराणिक काल में भले ही स्त्री पुरुषों के मुकाबले पिछड़ी रही है मगर भविष्य में भी स्त्री ऐसी ही रहेगी, यह जरूरी नहीं। उपन्यासकार ने चार पुरुष (इन्द्र, कच, शुक्राचार्य तथा वर्षपर्वा) पात्रों तथा तीन स्त्री (जयंती, देवयानी तथा शर्मिष्ठा) पात्रों को लेकर जो कथात्मक ढाँचा बुना है; उसमें भले ही स्त्री किसी अनकही अभिशप्त कथा-सी हो; किन्तु वह सदा ऐसी ही रहेगी, यह उपन्यासकार मानकर नहीं चलता है।
संदर्भ पुस्तकें
1. अभिशप्त कथा (उपन्यास), मनु शर्मा, सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण- 2017
2. ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ, संपादक- सुधासिंह, ग्रंथशिल्पी प्रकाशन, दिल्ली, द्वितीय संस्करण- 2015
3. स्त्री मुक्ति संघर्ष और इतिहास, रमणिका गुप्ता, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण- 2014
4. लिंगभाव का मानववैज्ञानिक अन्वेषणः प्रतिच्छेदी क्षेत्र, लीला दूबे, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, आवृत्ति 2012
5. भारतीय नारी (समाज और साहित्य के ऐतिहासिक संदर्भों में), सुशीला टाँक भौरे, अनिरुद्ध बुक्स, दिल्ली, संस्करण-2015
6. हिन्दू कोड बिल की हत्या, डाॅ. एम.एल. सहारे, सम्यक् प्रकाशन, दिल्ली, द्वितीय संस्करण- 2016
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Amit Ji apke blogs and rachnaye padhkar bada hi Anand aata hai, ese hi apni rachnaye likhte rahiye
ReplyDeleteआपका बहुत आभार! आप टिप्पणी के नीचे अपना नाम भी देते तो बेहतर होता!
Deleteएक जरूरी शाेध किया है आपने...!
ReplyDeleteThanks my dear geeta
ReplyDeleteवास्तव मॆं हमारे देश मॆं युगों युगों से ही नारी दासता की शिकार रही है और सृष्टि की उत्पत्ति से ही वो पुरुष के आधीन रही है ।
ReplyDeleteसमाज मॆं कितना भी बदलाव क्यों ना आ जाये और आज़ की नारी सशक्त व सक्षम भी क्यों न हो जाये लेकिन अधिकांशत पुरुष समाज स्वीकार नहीँ कर पाता और यही चाहता है कि नारी उसके आधीन रहे ।
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बहुत बहुत बधाई
वास्तव मॆं हमारे देश मॆं युगों युगों से ही नारी दासता की शिकार रही है और सृष्टि की उत्पत्ति से ही वो पुरुष के आधीन रही है ।
ReplyDeleteसमाज मॆं कितना भी बदलाव क्यों ना आ जाये और आज़ की नारी सशक्त व सक्षम भी क्यों न हो जाये लेकिन अधिकांशत पुरुष समाज स्वीकार नहीँ कर पाता और यही चाहता है कि नारी उसके आधीन रहे ।
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बहुत बहुत बधाई अमित जी
सविता वर्मा "ग़ज़ल"
जी, सविता जी आपने ठीक ही कहा!
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