समीक्षा: विटामिन ज़िन्दगी



कोई पहाड़ों में चीखता है, निर्जन में भटकता है...!

                                     -अमित धर्मसिंह

विटामिन ज़िन्दगी को पढ़ते हैं, तो पढ़ते ही चले जाते हैं। एक नई दुनिया खुलती चली जाती है। एक ऐसी दुनिया जो हर समय हमारी आंखों के सामने होती है मगर हममें से ज्यादातर लोग उसे देख नहीं पाते हैं। कारण बहुत से हैं - या तो हमारे देखने का दायरा इतना सीमित होता है कि हम अपने अलावा दूसरी चीजें देख ही नहीं पाते, या हम अपनी-अपनी जरूरत और मुसीबतों को लेकर इस कदर घिरे होते हैं कि चाहकर भी हम दूसरों को देखने की जहमत नहीं उठाते, या फिर हमारी सोच और समाज की जो संरचना है उसमें उस तरह की चीजें अभी तक नहीं जोड़ी जा सकी हैं जो आदमी को बेहतर इंसान बनाने का काम कर सके। ऐसे बहुत से सवालों पर सोचने पर मजबूर कर देती है- ललित कुमार की आत्मकथा विटामिन ज़िन्दगी। यह आत्मकथा सामाजिक विसंगतियों और ज़िन्दगी की पेचीदगियों से जुड़ी बेहद मार्मिक किन्तु प्रेरक कहानी है। इसमें पोलियो ग्रस्त बच्चे की त्रासदी के माध्यम से समाज की विक्षिप्त मानसिकता का पुरजोर खुलासा हुआ है। मैं खुद बचपन से महसूस करता आया हूं कि यह कहने के लिए एक दुनिया है किन्तु यहां हर आदमी की एक अलग दुनिया है। विटामिन ज़िन्दगी पढ़ी तो अपनी इस बात पर और अधिक रोना आया कि क्या इतनी अलग भी किसी की दुनिया हो सकती है।
     यह दुनिया उस उम्र में ही अलग हो गई हो जिस उम्र में मां का आंचल भी नहीं छूटता तो यह स्थिति और भी भयावह हो जाती है। चार वर्ष की उम्र में पोलियो से ग्रस्त हो जाने वाले ललित को अभी तो ठीक से चलना और दौड़ना सीखना था कि प्रकृति ने उसके पांवों की शक्ति छीन ली। कितना त्रासद और हृदय विदारक है किसी मासूम बच्चे का इतनी छोटी उम्र में अशक्त हो जाना, भरी पूरी दुनिया में अलग थलग हो जाना। यद्यपि ललित पारिवारिक रूप से असहाय नहीं थे किन्तु उतने मजबूत भी नहीं थे कि ज़िन्दगी की गाड़ी आसानी से चला सके। ललित के पोलियोग्रस्त होने के बाद, परिवार इतनी बड़ी मुश्किल से कैसे उभर पाएगा यह सवाल ललित के परिवार के सामने आ खड़ा हुआ था। अब इस मुश्किल से उभरने में उसे दिन रात लगना था। वह लगा भी, मगर यह लगना ललित की समस्या के सम्मुख अपर्याप्त नहीं तो पूर्ण सफल भी नहीं था; ऐसे में ललित को ज़िन्दगी से स्वयं लड़ना था। एक ऐसी लड़ाई लड़कर जीतनी थी जिसमें वह मानसिक रूप से बिल्कुल अकेला था। बाल्यकाल में ही प्रकृति ने उसकी राह को खारों से इतना भर दिया था कि एक कदम भी बगैर चुभन के नहीं बढ़ा जा सकता था। कहिए कि हर कदम एक नए खार से ललित को सामना करना था। बचकर जाने का कोई रास्ता नहीं था इसलिए खार को अपनी चाल में झेलते जाना था, चीखना था, लहूलुहान होना था, मन मसोसना था, मगर चलते चले जाना था- बगैर किसी से शिकवा शिकायत किए हुए। ललित मानते हैं कि उसकी राह को दुश्वार किसी व्यक्ति ने नहीं बल्कि खुद प्रकृति ने किया। प्रकृति मां ने " बालक के नन्हें हाथ को अपने हाथों में लिया और एक लंबा-सा कांटा उसकी हथेली पर रख दिया। प्रकृति मां बालक की हथेली पर रखे उस कांटे को कई पलों तक दुख के साथ देखती रहीं, जैसे कि वह कुछ करने का साहस जुटा रही हों। बालक का मन बिल्कुल शांत था और वह प्रकृति मां के हाथों की ममता भरी छुअन को आत्मसात कर रहा था। कुछ पल कांटे को निहारने के बाद प्रकृति मां ने बालक की आंखों में करुणामयी दृष्टि से देखा और तेजी से उसकी मुट्ठी को बंद कर दिया। मुट्ठी बंद होते ही हथेली पर रखा कांटा बालक के कोमल हाथ को चीरता हुआ पार निकल गया - दर्द से एक तीखी लहर बालक के शरीर में दौड़ गई और उसके हाथ से रक्त बहकर टपकने लगा। प्रकृति मां का प्रेम उनकी आंखों में आंसू बनकर छलक आया और उन्होंने बालक को गले लगा लिया। तुम मुझे बहुत प्रिय हो...बहुत प्रिय। मैंने तुम्हें चुन लिया। प्रकृति मां ने बालक के कान में धीरे से कहा।" इस प्रकार प्रकृति ने ललित का चयन ज़िन्दगी के असीम कष्टों के लिए कर लिया था। उसने हथेली  (जो कि किस्मत,भाग्य और कर्म का प्रतीक होती है) पर ही कांटा गुभों दिया था। अब ललित को कांटा गुभी हथेली से रिसते हुए लहू से ही अपनी किस्मत लिखनी थी, अथक संघर्ष करना था, हर हालात से दो-चार होना था, टूटना था, बिखरना था, गिरना था, संभलना था; क्योंकि उसका असामान्य से असाधारण बनने का सफर शुरू हो चुका था।
         इस सफर की सबसे बड़ी परेशानी शारीरिक अक्षमता और सामाजिक संकीर्णता थीं और सबसे संबल पारिवारिक सहयोग और ललित का मानसिक बल था। परिवार और अपने मनोबल से ललित को शारीरिक दुर्बलताओं और सामाजिक संकीर्णताओं से भिड़ना था। इनसे भिड़कर जीतना आसान नहीं था। अपने सफ़र में आयी दुश्वारियों का ललित ने जो ब्यौरेवार और सूक्ष्म विवरण प्रस्तुत किया है उसे पढ़ते हुए हैरत और दुख के सागर में बार-बार गोते लगाने पड़ते हैं। मगर इस प्रक्रिया में ललित की जिजीविषा और इच्छा शक्ति न सिर्फ खुद को बचाती चलती है बल्कि पाठक को भी सकारात्मक छोर पकड़ाती जाती है। प्रस्तुत आत्मकथा की यह प्रमुख विशेषता है। संभवतः यही, इस पुस्तक के लिखे जाने का औचित्य और प्रासंगिकता है। आत्मकथा बताती है कि शारीरिक रूप से भिन्न व्यक्ति योग्यता में किसी से कम नहीं होता। औरों की तरह, उसके भी कुछ सपने होते हैं, वह भी मेहनत करना करना जानता है और अपने दम पर वांछित सफलता अर्जित करना चाहता है। मगर उस वक़्त बहुत दुख होता है जब उसके सपनों और उसकी मेहनत को वरीयता न देकर उसका ग़लत मूल्यांकन किया जाता है। जैसा कि अक्सर ललित के साथ हुआ। बानगी देखिए - " और इस वर्ष के सर्वश्रेष्ठ छात्र का पुरस्कार जाता है ललित कुमार को, मंच पर पुरस्कारों की घोषणा कर रहे अध्यापक ने अचानक कहा। मैंने जो सुना उस पर मुझे विश्वास तो नहीं हो रहा, लेकिन जो सुना वो मैंने स्पष्ट सुना है। सर्वश्रेष्ठ छात्र का पुरस्कार मुझे ही दिया जा रहा है!  मैंने मंच की ओर देखा तो अध्यापक मुझे आगे आने का इशारा कर रहे हैं। मैं बेतहाशा धड़कते अपने दिल को थामने की कोशिश में जुटा हूं। स्कूल के बारह वर्षों में मैं आज तक कभी मंच पर नहीं गया, लेकिन आज जब मैं स्कूल के अंतिम पड़ाव पर हूं, तब आखिरकार मैंने स्वयं को सिद्ध कर ही दिया... मैं किसी से कम नहीं हूं। मैं इन्हीं भावनाओं में डूबा अपनी बैसाखियों पर खड़ा होने की कोशिश कर ही रहा था कि... अबे इसे तो ये इनाम इसलिए मिला है क्योंकि ये लंगड़ा है। मुझे पीछे बैठे एक सहपाठी कि आवाज़ सुनाई दी। पुरस्कार मिलने की खुशी में धड़कता मेरा दिल जैसे अचानक रुक गया...अचानक मैंने अपने चारों ओर उसी सन्नाटे और खालीपन को महसूस किया जो इस तरह की बातें सुनाई देने पर मुझे अपने आगोश में ले लेता है। मुझे लग रहा था जैसे मेरा दिमाग सुन्न हो गया हो...मानो किसी ने मेरे पूरे वजूद को एक झटके में मिटा दिया हो।" ललित के जीवन में ये अकेली घटना नहीं थी जिसमें ललित को ऐसा मानसिक आघात लगा हो। इस विषय में ललित का मन उस जापानी भूमि की तरह रहा जिसमें भूकंप के झटके लगते ही रहते हैं। ललित ने लिखा " घूरना भारत की राष्ट्रीय समस्या है" यानी भारत में घूरना एक मानसिक दुष्प्रवृत्ति है। दुष्प्रवृत्ति इसलिए कि लोग घूरने में व्यक्ति को सामान्य नहीं असामान्य मानते हैं। जिसे वे असामान्य मानते हैं, उसके प्रति बिल्कुल सहज नहीं होते। इस कारण वे ऐसा व्यवहार करते हैं, जिससे संबंधित व्यक्ति को बहुत असहज महसूस होता है। मगर लोगों को इसकी परवाह नहीं होती। वे लगातार घूरते हैं। वे सुन्दर लड़कियों को घूरते हैं, जैसे वे उनकी जागीर हों और वे सीधे उनके साथ हमबिस्तर हो रहे हों। वे विकलांगजनों को पूरी दीनता और हीनता की नजर से घूरते हैं। मानों सम्बन्धित व्यक्ति उनके सामने एकदम बेचारा हो। भारत में अधिकार लोग विदेशी नागरिकों की तरह किसी भी विकलांगजन अथवा स्त्री के प्रति सहज नहीं होते।यह प्रवृत्ति इस देश के लोगों की मानसिक विकलांगता है जिसका ललित ने बहुत गहरा विश्लेषण और विवेचन किया है।
            उन्होंने लिखा है कि भारत में विकलांगजनों की सुविधा का ध्यान नहीं रखा जाता है। यह ध्यान न रखा जाना देश अथवा समाज की आर्थिक मज़बूरी नहीं, बल्कि इसलिए है कि विकलांगजनों की सुविधा उनके जेहन का हिस्सा ही नहीं है। तभी तो स्कूल, कॉलेज और इंस्टीट्यूट आदि में विकलांगजनों को ऐसी- ऐसी परेशानी आती हैं, जो देखने और सोचने में बड़ी नहीं लगती लेकिन जरूरतमंद का जीवन उनके अभाव में बहुत प्रभावित होता है। मसलन ललित स्कूल में बनी सीढ़ियों, टॉयलेट्स, और पानी की टंकियों की बात करते हैं, वे बताते हैं कि किस तरह उनका निर्माण किसी विकलांगजन की सुविधाओं को ध्यान में रखकर नहीं किया गया है। वे, न ठीक से सीढियां चढ़ सकते हैं, न टॉयलेट जा पाते हैं और न ही पानी की टंकियों से पानी पी सकते हैं। इसके अलावा बसों का निर्माण भी उनकी सुविधा का ध्यान रखकर नहीं किया गया है। इससे उनके सामने हर समय जानलेवा जोखिम रहता है। अधिकतर बस ड्राइवरों का भी व्यवहार अच्छा नहीं होता। कितने अफसोस की बात है कि रास्तों में विकलांगजनों के लिए बाथरूम, टॉयलेट आदि बनाया जाना, भारत के स्वच्छता अभियान के बावजूद अभी तक एक सपना ही है। समाज में लोगों की अतिशय उदारता भी विकलांगजनों की एक बड़ी समस्या है। इसके चलते लोग इन्हें दया और कृपा का पात्र मान लेते हैं, या इनकी हालत के बारे में किसी दैवीय प्रकोप की कल्पना कर लेते हैं। ऐसे में वे विकलांगजनों को अनावश्यक सम्मान अथवा मदद देने के लिए लालायित रहते हैं। कई मामलों में तो ये खुद पीड़ित की भी नहीं सुनते कि वह क्या चाहता अथवा सोचता है। ललित लिखते हैं - " मुझे गिरा देखकर लोग मुझे उठाने आते थे तो मेरी मुश्किल और अधिक बढ़ जाती थी। ज़मीन पर खड़े होने का मेरा एक विशेष तरीका है, मुझे अपने घुटने पर वजन लेने के लिए उसे एक खास तरह से खोलना होता है। यह बात मैं अच्छी तरह से शब्दों में बयान नहीं कर सकता। इसलिए कुल मिलाकर यहीं कहूंगा कि ज़मीन से उठने का मेरा अपना एक तरीका है और खड़े होने के लिए मेरे पास वही एकमात्र रास्ता है। जब लोग सहायता करते हुए मुझे खड़ा करने की कोशिश करते थे तो मैं खड़ा नहीं हो पाता था। मैं सबसे कहता रहता था कि आप मुझे छोड़ दीजिए। मैं खुद ही खड़ा हो जाऊंगा। लोगों को यह समझाने में कि उनकी मदद दरअसल मेरे लिए मुश्किल का कारण बन रही है, मुझे काफी समय लग जाता था...और इस बीच मैं भरे बाज़ार में एक तमाशा बन चुका होता था।" ऐसा ही एक दूसरा उदाहरण ललित को स्कूल में छात्र जगन द्वारा परेशान करने पर उस समय सामने आता है जब ललित जगन की शिकायत अध्यापक से कर देता है - "अध्यपाक डांट तो जगन को रहे थे, लेकिन ज़मीन में, मैं गड़ा जा रहा था। इसकी वजह? इसकी वजह यह थी कि अध्यापक जगन को यह नहीं कह रहे थे कि उसने कुछ ग़लत किया है, बल्कि यह कह रहे थे कि उसने सताने के लिए गलत बच्चे को चुना है। यह बेचारा तो पहले ही भगवान का सताया हुआ है, इसे और तंग क्यों करते हो।" इस समय ललित के मन पर क्या बीत रही होती होगी, इसका अंदाज़ लगाना मुश्किल नहीं। मन उस समय भी आक्रोश से भर उठत है जब लोग विकलांगता को पूर्व जन्मों का फल बताते हैं। मगर समाज में इन छोटी-छोटी बातों पर कभी ध्यान नहीं दिया जाता है। ललित ने ज़मीन से खड़े होने के लिए जिस अपने तरीके की बात की है, उसी तरह प्रत्येक विकलांग जन का अपना एक तरीका होता है किन्तु समाज में उसकी सहज स्वीकृति कहीं भी दिखाई नहीं देती। सब अपने-अपने हिसाब से विकलांगजनों को देखते, समझते और मूल्यांकन करते हैं, जिसमें विकलांगजनों की सोच और सुविधा का कोई ध्यान नहीं रखा जाता है। यही कारण है कि  "समाज विकलांग व्यक्तियों की जरूरतों, कठिनाइयों और भावनाओं के बारे में ज़रा भी चिंतित न पहले था और न अब है।" यह बेहद चिंता का विषय है।
             पुस्तक का एक पक्ष ऐसा है जो रह-रहकर मन में दुख और भय की लहर उठाता है। वह है ललित के उपचार की जटिल प्रक्रिया वाला पक्ष। यह बचपन से ही इतना जटिल रहा कि इसमें जीवन को ही बचाना बहुत बड़ी चुनौती रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि परिवार की जिस मेहनत और लगन तथा ललित की इच्छा शक्ति से उपचार की जटिल प्रक्रिया संपन्न हुई, उसी से इलाज की जटिल प्रक्रिया से उबरा जा सका है। ललित की चार वर्ष की उम्र से ही माता-पिता, चाचा-चाची, बाबा-दादी सबका ललित के उपचार के लिए समर्पित रहना और ललित द्वारा बड़े से बड़ा शारीरिक कष्ट झेलते चले जाना, कष्टों से उबरने का बड़ा ही विलक्षण उदाहरण है। चूंकि पोलियो को ठीक करने हेतु ललित के दो वर्ष तक ऑपरेशन पर ऑपरेशन होते रहे और इसके बावजूद ललित ने पढ़ाई ज़ारी रखी, इसलिए यह भी कोई कम बड़ी बात नहीं। मगर ललित की त्रासदी देखिए कि ऑपरेशन्स से उभरे तो फिर वर्षों टी बी से जूझते रहे। इस वक़्त लगता है कि ललित के साथ यह कुछ ज्यादा ही हो गया है। सच पूछिए तो मन में यह विचार तक आया कि आखिर इतनी मानसिक और शारीरिक यंत्रणाओं के बावजूद कोई कैसे बचकर आया है। दुनिया भर की तो छोड़िए भारत भर में ही न जाने कितने ऐसे बच्चे अथवा बड़े होते हैं जो आर्थिक अभाव या दूसरी परेशानियों के चलते सर्वाइव नहीं कर पाते और असमय चल बसते हैं। कहना न होगा कि ललित में दुख झेलने का जो अदम्य साहस है, उसी की बदौलत ललित, न सिर्फ ज़िंदा रह पाए बल्कि ज़िन्दगी का वांछित सफर भी तय किया। उन्होंने जो भी सफलता अर्जित की वह इसी अदम्य साहस के दम पर की। ललित के इलाज ( लगातार हो रहे ऑपरेशन के दौरान) की त्रासदी और जटिलता को आप इस उदाहरण से समझ सकते हैं - "लगातार ताज़ा बने रहने वाले घावों से निकलने वाली गंध चीटियों को आकर्षित करती थी। सैकड़ों की संख्या में चींटियां मेरे पलंग पर चढ़ आतीं और घावों को काटने लगतीं। दिन भर इन चींटियों को दूर रखना भी मेरे कार्यों में शुमार होने लगा। मैं दिन रात चींटियों को बिस्तर से झाड़ता रहता। रात को नींद भी नहीं आती थी, क्योंकि आंख लगते ही चींटियां पलंग पर चढ़ आती थीं। कई बार ऐसा हुआ कि रात को चींटियों के काटने पर आंख खुली तो मैंने अपने पूरे पैर को चींटियों से भरा पाया। मेरे घावों से निकलने वाली गंध में चींटियों के लिए कुछ ऐसा खिंचाव था कि वे हर बाधा को पार कर घावों तक पहुंचना चाहती थीं। चींटियों को आने से रोकने के लिए मेरे पलंग के चारों ओर हल्दी और बाज़ार से मिलने वाले एक रसायन से रेखा बनाई जाती थी। चींटियां इस रेखा के आस-पास मंडराती रहती और ज़रा-सा भी रास्ता मिलने पर अंदर आ जाती थीं। कई बार तो ये रेखाएं भी उन्हें रोकने में बिल्कुल नाकामयाब रहती थीं। हारकर मैंने लोहे के पाइपों से बने फोल्डिंग पलंग का प्रयोग शुरू कर दिया। यह पलंग दीवारों से दूर, कमरे के बीचोबीच बिछा रहता था और मैं इसी पर लेटा रहता। इस पलंग के छह पायों के नीचे हम कटोरियां रख देते थे और फिर इन कटोरियां में पानी भर देते थे। इससे चींटियों के पलंग पर चढ़ने के सारे रास्ते बंद हो जाते थे। ऐसे में भी, यदि सोते समय मेरी ओढ़ने की चादर नीचे लटककर ज़मीन छूने लगती तो चींटियां उसी पर से चढ़कर मेरे पैर तक आ पहुंचती थीं।" इसके अलावा ललित के इलाज की कई ऐसी घटनाएं हैं जिन्हें पढ़ते-पढ़ते दिल डूबने लगता है, एक अनजाना भय उत्पन्न होने लगता है। लगता है जैसे कोई असहाय और अशक्त भीतर-भीतर दहाड़कर रो रहा है, कोई पहाड़ों में चीख रहा है, निर्जन वन में भटक रहा है। संदेह नहीं कि ये कोई और नहीं ललित और ललित जैसे देश व दुनिया में न जाने कितने लोग हैं।
       ज़िन्दगी और समाज की पेचीदगियों और जटिलताओं के बीच संघर्ष करते हुए ललित मानते हैं कि "मेरा संघर्ष केवल जीने के लिए नहीं था बल्कि गरिमापूर्ण जीने के लिए था। जी तो हर कोई लेता है, लेकिन रोज़ाना के घोर संघर्ष के बीच अपना आत्म सम्मान बनाए रखते हुए जीना एक बड़ी उपलब्धि होती है।" यही कारण है कि ललित ने अपने लिए कभी आसान रास्ते नहीं चुने। उन्होंने सरकार से अपने लिए विकलांग रिक्शा अथवा विकलांग जनों को मिलने वाली कोई भी सरकारी या गैर सरकारी सुविधाएं नहीं ली।  क्योंकि ललित अपने पैरों पर खड़ा होना चाहते थे, अपनी मंज़िल पर खुद चलकर पहुंचना चाहते थे, इसलिए उसने अपने सफ़र की हमसफ़र रिक्शा को नहीं बल्कि बैसाखियों को बनाया क्योंकि बैसाखियां ललित को रिक्शा की तरह ढोने वाली नहीं थी, मात्र चलने में सहयोग देने वाली थीं। और, ललित को सहयोगी ही चाहिए थे, तारणहार नहीं। पूरा आश्रित तो ललित बैसाखियों पर भी कभी नहीं रहे, बैसाखियों पर भी भारी उनकी इच्छा शक्ति थी, इसलिए ललित की ज़िंदगी बैसाखियों से भी बड़ी रही। चूंकि ललित बैसाखी से भी आगे का सफर करना चाहते थे इसलिए उन्होंने अपनी उच्चतर शिक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ तक की सरकारी नौकरी छोड़ी, ताकि फेलोशिप प्राप्त कर, विदेश में शोध कार्य करने और दुनिया घूमने की इच्छा को पूरा कर सके। स्कूल के दिनों में जिस ललित को अध्यापक बच्चों के टूर में इसलिए शामिल नहीं करते थे कि ललित ठीक से चल नहीं सकता है, उसी ललित ने उन अध्यापकों को अपने दम पर दुनिया घूमकर दिखा दिया। यह ऐसे लोगों के लिए एक नसीहत की तरह है जो समझते हैं कि विकलांगजन क्षमता में दूसरों से कम होते हैं। गांधी ने लिखा है कि "मेरा जीवन ही मेरा सबसे बड़ा संदेश है।" संदेह नहीं कि ललित का जीवन ( स्कूली शिक्षा से चलकर राष्ट्रीय अवार्ड तक पहुंचना) भी किसी बड़े संदेश से कम नहीं। ललित समाज में आज रोल मॉडल बनकर उभरे हैं। ललित की सामाजिक और साहित्यिक सेवाएं अद्भुत हैं। ललित की इच्छा है कि साहित्य में विकलांग विमर्श को शामिल किया जाना चाहिए, इसकी साहित्य और समाज में बेहद जरूरत है। असल में, विकलांग विमर्श तो शुरू हो चुका है और जो स्थान दलित विमर्श में ओमप्रकाश वाल्मीकि की जूठन का है, वही स्थान विकलांग विमर्श में विटामिन ज़िन्दगी का है।
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पुस्तक: विटामिन ज़िन्दगी
लेखक: ललित कुमार
प्रकाशक: एका हिन्द युग्म, चेन्नई

9310044324
amitdharmsingh@gmail.com

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