कोरोना काल में दलित कविता की दो संक्षिप्त समीक्षा



1. कोरोना काल संवेदनहीनता के लिए याद किया जाएगा

                                              - बिभाश कुमार

...कोरोना काल में दलित कविता ...संपादक डॉ अमित धर्मसिंह की बहुप्रतीक्षित काव्य संग्रह है जिसमें संपादक ने बंगाल बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश के रास्ते दिल्ली, हिमाचल प्रदेश ,राजस्थान और महाराष्ट्र तक के कवियों को जोड़ने का काम किया है। कोरोना त्रासदी एक तरफ मानव इतिहास में भूल चूक और संवेदनहीनता के लिए याद किया जाएगा तो दूसरी तरफ मानवीय संवेदना के चर्मोत्कर्ष और आपसी समानता के लिए भी याद किया जाएगा निःसंदेह।

...संग्रह में कुल 55 दलित कवियों और कवियत्रियों की कविता संकलित है।प्रश्न रोचक है कि संपादक ने कोरोना काल में दलित कविता संग्रह हेतु क्या अनिवार्य अर्हता निर्धारित कर कवियों की कविता का संपादन किया है?संग्रह से गुजरते हुए हम पाते है कि समय की रफ्तार से कदमताल नहीं करते हुए दलित कवि अभी भी हताशा,पीड़ा और दुख की व्यथा का ही रोदन करते आ रहे हैं ,आश्चर्य तो तब होता है कि प्रसिद्ध और विद्वान कवि लोग भी उसी भेड़चाल का अनुसरण करते हैं।दलित कविता रोदन की कविता नहीं है और न ही हताशा और कुंठा से प्रेरित अपराधबोध की कविता है,इस सच को हमारे समय के दलित कवि क्यों नहीं समझ रहें है,विचारणीय है।

...संग्रह में संकलित कविताओं को मुख्यतः दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है।प्रथम,कोरोना काल में दलित कवियों के कोरोना विषयक कविताएं और द्वितीय, दलित कविताएँ जिसका कोरोना से कोई मतलब नहीं है,वे कविताएं दलित कवियों द्वारा लिखी गयी है ,बस यही द्वितीय वर्ग की कविताओं का उत्कर्ष है।

बहरहाल,संपादक को थोड़ा ठहर कर मंथनोपरांत संग्रह की कविताओं का चयन करना चाहिए।संपादक का संपादकीय उत्कृष्ट है इसमें कोई संदेह नहीं है। अपनी बात को उन्होंने स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है।

...संग्रह की कविताओं पर बात करें तो कविता क्रम में प्रसिद्ध कवि अजय यतीशajay Ajay Yatish कोरोना के भयावह रूप को देखते हुए कह उठते हैं...क्योंकि हम अपने इतिहास के /बेहद दर्दनाक दौर से गुजर रहे हैं।.. वास्तव में कोरोना काल इतिहास का बहुत ही भयावह समय रहा जहां मानवता शर्मशार होती रही कई कई बार।कवि अरविन्द पासवान Arvind Paswan कोरोना के उस मंजर को अपनी आंखों से देखते हुए जो शब्द चित्र खींचा है ,पठनीय है। डा.कर्मानन्द आर्य,मुसाफिर बैठा Musafir Baithaकी कविताएं आपको बार बार पढने को प्रेरित करेगी क्योंकि यही वह पतली रेखा है जिसको सीमा मानकर आप दलित कविताओं को मुख्यधारा की कविताओं में खुद को स्थापित करते हैं।आर डी आंनद RD Anand की सोच का दायरा कोरोना समय में भी उस विंदु पर कविताओं के माध्यम से पहुँचता प्रतीत होता है जहां समाज सर्वहारा और वर्ग संघर्ष की बात करता है।संपादक अमित धर्मसिंह Amit Dharmsinghकोरोना के बहाने लॉकडौन के दुखों और अभावग्रस्त ज़िंदगी की बात करते हैं और सरकारी तंत्र की चालों को कुरेदने का असफल प्रयास करते हैं।प्रसिद्ध आलोचक कँवल भारती कोरोना पर अपने रागिनी को बहुत ही सधे हाथों से संवारा है। 

..संग्रह की कई कविताएं अधपकी है अर्थात जल्दबाजी में लिखी गयी कई कविताएं जिसमें सृजन के समय के दर्द का अभाव है और बिना दर्द के ,बिना मंथन के तो कविताएं अधपकी ही रहती है। कवियों को थोड़ा सतर्क होने की आवश्यकता है ।प्रसिद्ध कवि जयप्रकाश कर्दम Jai Prakash Kardamकी कविताएं आपदा के क्षणों को बेघर हुए लोगों के लिए कोरोना के खिलाफ की कविता है,पढकर आप कविता के मर्म को समझ जाएंगे और समझ जाएंगे कि कविता के लिएअनुभव की आवश्यकता क्यों है। मोहन दास नैमिशराय बड़े कवि है और दलित साहित्य के स्तम्भ भी,परंतु इस संग्रह में उनकी संकलित कविताओं का क्या औचित्य है यह संपादक ही समझे।इतने प्रख्यात कवि की कविताओं का चयन उनके ऊंचाई के खिलाफ है,ऐसा मेरा मानना है।डॉ नीलम Neelam Jnuऔर डॉ नामदेव Nam Devकोरोना के बहाने दलित की व्यथा भी कहते हैं और कोरोना से उपजे दर्द को बखूबी सहलाते भी हैं।डी के भास्कर Dk Bhaskar की खोज अब भी भारत के भीतर भारत की खोज है अपने प्रियपात्र लिलहड़दास के माध्यम से।दलित कवियों ने कोरोना पर अपनी भाव व्यक्त किये लेकिन अवचेतन में दलित उत्पीड़न असमानता के भाव को तिलांजलि नहीं दिया कहीं ।प्रा .दामोदर मोरे,श्याम निर्मोही ,देवचन्द्र भारती ,टेकचंद,जी सी लाल व्यथित, ज्योति पासवान,धर्मपाल सिंह चंचल, बच्चा लाल उन्मेष,विपिन कुमार,डॉ मुकेश मानस, रामस्नेही विजय तथा कवियत्रियों में सुशीला टाकभौरे,डॉ रानी कुमारी आकर्षित करतें है,परंतु थोड़ा सावधान होइए, कोरोना के बहाने अपना दलित राग आप ज़रूर अलापे परन्तु कविता को कविता ही रहने दें तो बेहतर होगा।

संग्रह में कई प्रतिभाशाली कवि है और कई तो बड़े बड़े नाम वाले भी है परंतु कविता उनकी आकर्षित करने में असफल रही कोरोना के नाम पर जबकि उनकी कविताओं में धार अभी बांकी है।

...फिलहाल इतना ही...समय मिलने पर विस्तृत समीक्षा की जाएगी।

.........बिभाश

8.3.21

समीक्षित कृति : कोरोना काल में दलित कविता

संपादक : डा. अमित धर्मसिंह

समीक्षक : बिभाष कुमार

प्रकाशक : शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली

प्रथम संस्करण : अक्टूबर, 2020

पृष्ठ, 234, मूल्य : 325₹


2. 'लॉकडाउन में दुर्दिनों की ओर बढ़ता देश'

                                  देवचंद्र भारती प्रखर

          डॉ० अमित धर्मसिंह द्वारा संपादित पुस्तक 'कोरोना काल में दलित कविता' का विषय कोरोना वायरस से प्रभावित निर्धन, निर्बल, बेकार, बेरोजगार, वंचित, शोषित, मजदूर एवं मध्यवर्गीय समाज के जीवन-यथार्थ पर केंद्रित है । ध्यातव्य है कि कोरोना वायरस रूपी उत्पाद का निर्माण चीन में हुआ और अन्य देशों में उसका निर्यात किया गया । भारत में भी कोरोना वायरस स्वयं नहीं आया, बल्कि उसे लाया गया था अर्थात् उसका आयात हुआ था । कोरोना वायरस से प्रभावित काल को 'आपदा काल' कहा गया । चूँकि यह आपदा आयातित थी, इसलिए इस आपदा-काल को 'आयातित आपदा काल' कहना अनुचित नहीं होगा । इस आपदा-काल को देश के मालिक द्वारा राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद-352) घोषित कर दिया गया और अनुच्छेद-19 में दिये गये मूल अधिकार (स्वतंत्रता का अधिकार) को अनुच्छेद-358 के तहत स्थगित कर दिया गया । पूरे देश में लाॅकडाउन लगा दिया गया । लॉकडाउन यानी 'तालाबंदी' के दौरान धारा-144 भी लागू कर दी गयी । धारा-144 के लागू होते ही पुलिसराज शुरू हो गया । लोग 'दो गज की दूरी-मास्क है जरूरी' सूक्तिवाक्य का पालन करने लगे । अनावश्यक रूप से घूमने की बात तो दूर है, आवश्यकता पड़ने पर भी लोग लॉकडाउन के समय घर से बाहर नहीं निकल पाते थे । चारों ओर कोरोना वायरस से अधिक पुलिस का आतंक छाया हुआ था । लोग अपने-अपने घरों में रहकर भी प्रसन्न और आनंदित नहीं थे । डॉ० अमित धर्मसिंह की कविता 'लॉकडाउन में दुर्दिनों की ओर बढ़ता देश' इसी त्रासदी की ओर संकेत कर रही है । यथा :

लॉकडाउन आदमियों को घरों में ही कैद नहीं करता 

वह हँसती-गाती, चलती-फिरती 

जिंदगी पर ही ताला मार देता है

वह उन सपनों को बीच राह में मार देता है 

जो या तो आकार ले रहे होते हैं 

या हकीकत में बदलने, बदलने को होते हैं । 

[पृष्ठ 33]

कोरोना वायरस (कोविड-19) को मार भगाने के लिए इस वैज्ञानिक युग में अंधविश्वास पर आधारित और देश के प्रधानमंत्री द्वारा आदेशित 'ताली-थाली बजाओ' अभियान को व्यवस्थित रुप से संपन्न किया गया । इस योजना के पीछे कौन-कौन से कारण थे ? इसका खुलासा तो नहीं हो पाया, लेकिन बुद्धिजीवियों को राजनैतिक षड्यंत्र का आभास अवश्य हुआ । कवि अरविंद भारती ने इसी प्रकार की स्थिति को लक्ष्य करके अपनी कविता 'दोगलापन' में शोषक-वर्ग एवं राजनेताओं के दोहरे चरित्र को रेखांकित किया है । यथा :

वह बोला 

देखा नहीं अभी-अभी उनका दोगलापन 

पहले कोरोना वैरियर्स के लिए ताली बजायी, थाली बजायी 

फिर डॉक्टर, नर्स, स्वास्थ्यकर्मियों को 

मकान खाली करने के लिए दबाव बनाया ।

[पृष्ठ 43]

लाॅकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों की स्थिति सबसे दयनीय थी । प्रवासी मजदूर अपने स्थायी निवास तक पहुँचने के लिए सैकड़ों किलोमीटर की पदयात्रा करने के लिए विवश थे । अधिकांश तो यात्रा के दौरान ही दम तोड़ दिये । जो जीवित बचे, वे अपने घर पहुँच गये, लेकिन उन्हें पूँजीवाद की चक्की में पिसना पड़ा । डॉ० एन० सिंह की कविता 'कोरोना काल' प्रवासी मजदूरों की दयनीय स्थिति का चित्रण करते हुए छद्म राष्ट्रवाद पर तीखा प्रहार करती है । यथा :

फिर भी ये बचते हुए 

भाग आये हैं अपने गाँव में 

अपनों के बीच 

लेकिन नहीं बच पाये 

राष्ट्रवाद के खौफनाक नुकीले दाँतों से 

जिन्होंने चबा लिया है 

सत्तर वर्षों के संघर्ष के परिणाम 

श्रम कानूनों को 

बना दिया है उन्हें फिर से 

बंधुआ पूँजीवाद का ।

[पृष्ठ 52-53]

इस संकलन में संकलित डॉ० जयप्रकाश कर्दम की कविता 'आपदा' अनीश्वरवाद के पक्ष में मानवतावाद की घोषणा है । यह कविता धर्म के नाम पर बँटे हुये लोगों को संवेदनात्मक मानवीय व्यवहार करने के लिए प्रेरित करती है । डॉ० कर्दम जी के शब्दों में : 

आपदा में 

ईश्वर काम नहीं आता

काम आते हैं लोग 

करते हैं सहायता एक दूसरे की 

भुलाकर आपसी दूरियाँ 

और मतभेद 

बाँटते हैं दुःख-दर्द 

बाँटते हैं संवेदनाएँ 

बाँटते हैं प्यार और विश्वास 

एक-दूसरे के साथ ।

[पृष्ठ 74]

इस बात को पूरा भारत जानता है कि कोरोना वायरस को भगाने के लिए 5 अप्रैल 2020 को अंधविश्वास से परिपूर्ण पाखंड-कर्म किया गया था । लोगों के द्वारा रात के नौ बजे नौ-नौ मोमबत्तियाँ अथवा दीपक जलाये गये थे । कवि जी०सी० लाल 'व्यथित' जी की दृष्टि में एक प्रकार से इस कर्मकांड के माध्यम से देश के लोगों को मूर्ख बनाया गया था । उन्होंने अपनी कविता 'गजब का है देश हमारा' में लिखा है :

सुना है 

अब फूल-डे 

पहली अप्रैल को नहीं 

पाँच अप्रैल को मनाया जाएगा 

लोग रात के नौ बजे 

दिमाग की बत्तियाँ गुलकर 

घुप अंधेरे में 

नौ मोमबत्तियाँ/दीपक जलाएँगे ।

[पृष्ठ 75]

13/09/2021

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समीक्षित कृति : कोरोना काल में दलित कविता

संपादक : डा. अमित धर्मसिंह

समीक्षक : देवचंद्र भारती

प्रकाशक : शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली

प्रथम संस्करण : अक्टूबर, 2020

पृष्ठ, 234, मूल्य : 325₹

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