नव दलित लेखक संघ, दिल्ली की वार्षिकी सोच के प्रथम अंक का संपादकीय


 संपादकीय सोच

                          सोेच का यह पहला अंक

                                                 डा. अमित धर्मसिंह

यह आप ही नहीं, मैं भी सोचता हूं कि जब पहले ही इतनी पत्र, पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं तो एक और पत्रिका की क्या जरूरत। क्या वाकई पत्र पत्रिकाएं समाज में बदलाव लाने का काम करती हैं। या सिर्फ साहित्यकारों की लिखास और छपास की क्षुदा पूर्ति की ही भेंट चढ़ जाती हैं। आजकल जिस स्तर की पत्र, पत्रिकाएं एक दूसरे की हौड़ में संपादित की जा रही हैं, उससे तो यही अंदाजा लगता है कि सब देखादेखी किसी भी तरह यशकाय हो जाना चाहते हैं। ऐसी मानसिकता रखने वाले साहित्कार और संपादकों का फोकस वैचारिकी और साहित्य से सामाजिक परिवर्तन की ओर जाना या ले जाना नहीं बल्कि वे साहित्य में अपनी पैठ और संबंधों पर अधिक होता है। वे रचना सामग्री पर उतना फोकस नहीं करते जितना कि अपने साहित्यिक और लाभकारी संबंधों पर। आजकल साहित्य में एक अजीब ही किस्म की दौड़ और होड़ दिखाई पड़ रही है। जिसके चलते कोई भी किसी भी संदर्भ में ठहरकर विचार करने को तैयार नहीं है और न किसी के साथ चलने को तैयार है। न ही किसी का कोई मशवरा मानने को तैयार है। साहित्यकारों के इस व्यवहार और रचना कर्म ने साहित्य और विचार के क्षेत्र में एक अजीब ही किस्म की अराजकता को जन्म दे दिया है। इस अराजकता में जो जितना बड़ा लीक का फकीर है वो उतना ही हा होल्ला मचा रहा है। शायद भीतर से उसे भी ज्ञात है कि लिखने और रचने के लिए जिस ठोस मसौदे की जरूरत होती है, वह उसके पास नहीं है। ऐसे में एक यही रास्ता बचता है कि जितना अधिक शोर मचाया जाये, उतनी ही बात सुनी जायेगी। इसलिए ही पत्र, पत्रिकाएं और रचनाकार अपना अपना राग अलापने में मशगूल हैं। ऊंची आवाज या ऊंचे लोगों के कद और पद के तले सही लोगों की सही आवाजें लगातार दब रही है।

फिर भी पत्र, पत्रिकाओं का सामाजिक और साहित्यिक महत्तव भी होता ही है। आजादी की लड़ाई से लेकर आज तक सामाजिक परिवर्तन में पत्र पत्रिकाओं ने परिवर्तनकारियों का अप्रत्याशित रूप से साथ दिया है। बाबा साहब अंबेडकर ने भी कई पत्र, पत्रिकाओं का संपादन किया और दलित समाज में जागृति लाने का काम किया। यद्यपि उनसे पहले भी कुछ समाज चिंतकों ने यह कार्य बखूबी किया लेकिन बाबा साहब के प्रयासों ने दलित समाज का अपेक्षाकृत कुछ अधिक ध्यान आकर्षित किया। उसी का नतीजा है कि आज दलित साहित्यकारों द्वारा बहुत सी पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन व संपादन किया जा रहा है। यह कार्य किये जाने के दो प्रमुख कारण हैं। एक तो यह कि आजादी के बाद दलित समाज की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में जितने और जैसे परिवर्तन आने चाहिए थे, वे नहीं आये; दूसरे यह कि गै़र दलितों द्वारा जो असंख्य पत्र, पत्रिकाएं प्रकाशित व संपादित की जा रही हैं उनमें दलितों से जुड़ी समस्याओं और उससे जुड़े लेखन को आज तक भी स्थान नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में दलित साहित्यकार अपने साहित्य का प्रकाशन और संपादन का बीड़ा स्वयं ही उठाने लगे हैं। यद्यपि यह उनकी आर्थिक तंगियों के चलते और किसी प्रकार की सरकारी सेवाओं के न मिलने के कारण अत्यंत जटिल कार्य है, फिर भी ऐसा करना उनकी मजबूरी और आवश्कता दोनों हैं। सामाजिक परिवर्तन के पक्के हामी और जुनूनी दलित साहित्कार हर कीमत यह कार्य, जैसे भी बन पड़ रहा है, किये दे रहे हैं। हमारेे लिए भी सोच पत्रिका का प्रकाशन और संपादन कुछ ऐसा ही है। इसके प्रकाशन की भी कोई आर्थिक व्यवस्था न होने के बावजूद नव दलित लेखक संघ से जुड़े साथियों ने इसके प्रकाशन और संपादन का बीड़ा उठाया है। बहुत से साथी तो बेेरोजगारी की कगार पर खडे़ होकर भी नदलेस की इस छमाही दस्तक में अपनी आर्थिक और रचनात्मक उपस्थिति दर्ज करवा रहे हैं। यह उनका दलित साहित्य और दलित समाज के प्रति निस्वार्थ जज्बा ही है जो उन्हें कुछ बेहतर करने के लिए प्रेरित कर रहा है। इसी जज्बें के साथ यदि नव दलित लेखक संघ से जुड़े साथियों ने लगातार रूचि और उत्साह दिखाया तो निश्चित ही आने वाले समय में सोच पत्रिका अपना ऐतिहासिक, साहित्यिक और सामाजिक महत्तव साबित करने में सफल साबित होगी। इस संदर्भ में नदलेस के सभी साथी बधाई और सराहना के पात्र हैं। इनके अलावा वे सभी रचनाकार साथी भी बधाई और सराहना के पात्र हैं जिन्होंने सोच के प्रथम अंक के लिए रचनाएं प्रेषित कीं। उनका यह सहयोग एक नहीं दो दो दृष्टियों से अनमोल है। एक तो इसलिए कि उन्होंने सोच के प्रवेशांक के लिए अपना प्रथम रचनात्मक सहयोग देकर उन्होंने नदलेस और इसकी सोच पत्रिका पर जो भरोसा प्रकट किया है वह काबिले तारीफ है। दूसरे इसलिए कि सोच के प्रथम पायदान पर ही जितने रचनाकारों का रचनात्मक सहयोग मिला है, वह रचना के साथ साथ संख्या बल के आधार पर भी उल्लेखनीय है। रचनाकारों के इस उत्साहवर्धक रचनात्मक सहयोग को देखते हुए और सोच के लिए प्रथम सहयोग के आधार पर सोच की संपादक टीम ने इस बार सभी रचनाकारों की प्रेषित की गई कुल जमा रचना सामग्री को सोच में ससम्मान शामिल किया है। इस अंक में रचना की गुणवत्ता से अधिक रचनाकारों के प्रथम रचनात्मक सहयोग को वरीयता दी गई है। ऐसा समझा गया कि सोच के प्रवेशांक में मिला प्रथम रचनात्मक सहयोग हर रूप में स्वागत योग्य है। जिस तरह नदलेस के गठन में सभी संस्थापक सदस्यों का ऐतिहासिक महत्तव है उसी तरह सोच के प्रथम अंक में उसके सहयोगी प्रथम रचनाकारों का ऐतिहासिक महत्तव है। जिनके प्रति नदलेस परिवार और सोच की संपादक टीम हार्दिक आभार प्रकट करती है।

14 सितंबर, 2021, हिन्दी दिवस, मंगलवार के दिन नदलेस यानी नव दलित लेखक संघ का गठन हुआ। उसी दिन सोच पत्रिका प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया। पत्रिका के नाम के विषय में पहले ही विचारा जा चुका था। असल में यह नाम कोई एक दो दिन में विचारा गया नाम नहीं, बल्कि इस नाम से पत्रिका निकालने का प्राथमिक निर्णय दलित लेखक संघ ने 15 अगस्त, 1997 में अपने गठन के दौरान ही लिया था, लेकिन दलित लेखक संघ से जुड़े दलित साहित्यकारों की उदासीनता और आपसी मतभेदों के चलते इस नाम की पत्रिका का एक भी अंक प्रकाशित व संपादित नहीं किया जा गया। परिणामस्वरूप सोच पत्रिका अपने प्रकाशन के प्राथमिक विचार के साथ ही पूरी तरह विस्मृत कर दी गयी। लेकिन विचार कभी नहीं मरता, अगर वह कहीं दर्ज किया गया है। यही सोच पत्रिका के साथ हुआ। जिस वक्त मैंने दलित लेखक संघ के पच्चीस वर्षीय इतिहास को लेकर एक स्मारिका का लेखन किया तब सोच पत्रिका के विषय में जानकारी सामने आयी। साथ ही यह भी सामने आया कि दलित लेखक संघ अपने आरंभ में अपनी पहचान के जिस मोनोग्राम को साथ लेकर चला था, उसका हुलिया भी पूरी तरह बदल दिया गया है। पहले यह मोनोग्राम उगते हुए सूर्य के सम्मुख रखी एक खुली किताब थी। जिसका सीधा तात्पर्य है कि खुली पुस्तकों से जो ज्ञानोदय होता है, उससे ही समाज में जागृति लायी जा सकती है। पुस्तकों के तेज प्रकाश से अज्ञानता और असमानता के अंधकार को भगाया जा सकता है। कुछ इसी तरह की सोच और विचार को लेकर सोच नामक पत्रिका का प्रकाशन व संपादन किया जाना था। मगर बाद में न तो पत्रिका ही अस्तित्वमान हो सकी और न ही दलेस का मोनोग्राम अपने मूल स्वरूप को बचाये रह सका। कारण साफ है कि दलेस से जुड़े दलित साहित्यकारों ने संगठन की सामूहिक गरिमा और हित निर्णय को वरीयता न देकर अपने व्यक्तिगत निर्णय और विवेक को वरीयता दी। परिणामस्वरूप दलेस का मोनोग्राम और पत्रिका बदल गयी। मोनोग्राम तो पहाड़ों के बीच उगता सूरज हो गया और पत्रिका पहले अपेक्षा और बाद में प्रतिबद्ध हो गयी। बात यहीं तक रूकती तो गनीमत थी। सन् 2019 दलेस का भी विभाजन हो गया और इसी नाम से दलेस के दो ग्रुप बन गये। लेकिन ग्र्रुप दो, नाम एक ही दलेस, दोनों की पहचान, विरासत एक, मोनोग्राम एक, पत्रिका दो लेकिन दोनों का नाम एक। बड़ी ही असमंजस की स्थिति बन गयी; जिसको लेकर नदलेस ने पहल की। जिसका सम्मूर्ण विवरण एक प्रस्ताव पत्र के रूप में प्रस्तुत पत्रिका में नदलेस सोपान के अन्तर्गत संकलित किया गया है। दलेस की इन्हीं तमाम विसंगतियों को देखते हुए नदलेस के गठन की आवश्यकता हुई। जिसने दलेस की मूल विरासत, स्वरूप और पहचान को अंगीकृत करते हुए नव दलित लेखक संघ का नाम अपनाया और पत्रिका का नाम सोच रखने के साथ साथ मोनोग्राम भी वही, नये सिरे से क्रिएट किया जो आरंभ में दलित लेखक संघ का था। इस तरह नदलेस असल में दलेस की विरासत और धरोहर को सहेजता हुआ सर्वथा नवीन किन्तु वही पुरानी पहचान को नया करता हुआ नया संगठन है, जिसे दलित लेखक संघ और दलित साहित्य के अगले चरण के रूप में देखा जा सकता है। अगले चरण के रूप में इसलिए कि यह दलित साहित्यकारों की दूसरी पीढ़ी के उन साहित्यकारों को तो साथ में जोड़ता ही है जो किन्हीं कारणों से दलित लेखक संघ में घोर उपेक्षा के शिकार हुए हैं साथ ही यह दलित साहित्यकारों की तीसरी पीढ़ी के रचनाकारों को भी यथायोग्य स्ािान देता है। ऐसे नौसीखिए दलित रचनाकारों को भी नदलेस जोड़कर चलता है जो स्थापित संगठनों और साहित्यकारों के बीच उचित स्थान नहीं पाते हैं। इस तरह नदलेस ने दलित साहित्य की धीमी पड़ती लौ को पुनः प्रज्जवलित किया और दलित साहित्यकारों को निरंतर पिछड़ते और बिछड़ते जाने से बचाया है। नदलेस ने दलित साहित्य और संगठनों में व्यक्ति विशेष के वर्चस्व और ग्रुपबाजी को खुली चुनौती दी है। इससे दलित संगठन और दलित साहित्यकार काफी सचेत भी हुए हैं। जो सचेत नहीं हुए हैं उनके प्रति दूसरे रचनाकार सचेत हुए हैं। कुल मिलाकर नदलेस ने अपने गठन के साथ ही जो पहली रचनात्मक कार्यवाही की उससे दलित साहित्य के करीब सात दशकीय युग का अंत होने से बच गया। अन्यथा 2014 के बाद से बदले हुए राजनीतिक और सामाजिक संदर्भों में यदि कोई गै़र दलित आलोचक साहित्यिक परिवर्तन की कोई ढंग की पुस्तक लिख मारता तो दलित साहित्य का भी युग परिवर्तन होने से कोई नहीं रोक पाता। अब यदि ऐसा होता भी है तो उसे दलित साहित्य के अगले चरण नव दलित लेखन संघ और दलित साहित्य की तीसरी पीढ़ी का भी संज्ञान लेना पड़ेगा। ऐसा इसलिए कि नव दलित लेखक संघ का गठन, इसकी पत्रिका का आरंभ और दलित साहित्य की तीसरी पीढ़ी का आगमन करीब 2014 के बदले हुए राजनीतिक और सामाजिक परिवेश में ही हुआ। जिसको दलित साहित्य अथवा हिन्दी साहित्य से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। यह भी कि जिसका अध्याय ही अभी शुरू ही हुआ हो उसे समाप्त करना असंभवप्राय है। इसलिए यदि किसी तरह दलित साहित्य पुराने टूल्स और दलेस का समय आउट आॅफ डेट माना भी लिया जाता है तो नदलेस और दलित साहित्य की तीसरी पीढ़ी उसकी उत्तराधिकारी है जो दलित साहित्य और आंदोलन को नये टूल्स और नये सौंदर्यबोध के साथ आगे ले जाने के लिए प्रतिबद्ध भी है और अपेक्षाकृत सचेत भी। इसके अलावा यह दलित साहित्य और संगठनों के भीतरघातियों और संगठन तोड़ू लोगों से भी पर्याप्त सावधान है। कहिए कि नदलेस और दलित सात्यिकारों की तीसरी पीढ़ी ने समय रहते दलित जागरण की साहित्यिक और सामाजिक मशाल अपने मजबूत हाथों में थाम ली है। जिसकी पहली इबारत नदलेस के गठन और सोच पत्रिका के इस प्रवेशांक ने लिख दी है।

इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि सन् 2014 से देश में राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह बदल गया। जब किसी देश में राजनीतिक एवं सत्तात्मक परिवर्तन होता है तो उसमें सामाजिक, वैचारिक और साहित्यिक परिवर्तन भी हो जाते हैं। देश में भी कुछ ऐसा ही हुआ। साहित्य समाज या कहें कि बौद्धिक समाज में भी खासे परिवर्तन देखने को मिलने लगे। 2020 तक आते आते तो साहित्य और समाज का सारा ही परिदृश्य परिवर्तित दिखायी देने लगा। लोगों और उनके विचारों का ध्रुवीकरण जितना दो हजार चैदह के बाद हुआ उतना उससे पहले देखने को नहीं मिला। एक तरफ तो राजनीतिक पार्टियों का वोट बैंक बदल गया दूसरे लोगों के सोचने के तरीके और नजरिये में खासा परिवर्तन हो गया। इससे दलित साहित्य की वैचारिकी और सौंदर्यबोध में भी परिवर्तन नजर आने लगे। ये परिवर्तन जहां विचार के स्तर पर क्षत विक्षत थें तो भाषा और विधा के स्तर पर कुछ सुदृढ़ दिखायी पडे़। इस समय दलित साहित्य और संगठनों में जहां बिखराव देखने को मिला वहीं दलित साहित्यकारों के सामने कुछ नयी तरह की चुनौतियां भी आयीं। ये चुनौतियां जातिगत तो थीं ही, साथ ही रोजगार और शिक्षा के नजरिये से भी बड़ी गंभीर थीं। राजनीतिक परिदृश्य के बदल जाने से दलित साहित्य के स्वरूप और साहित्यकारों के सोचने समझने के तौर तरीकों में भी खासा परिवर्तन हुआ। नोटबंदी, जीएसटी, विभिन्न सांप्रादायिक दंगों, दलितों के बढ़ते उत्पीड़नों और लाॅकडाउन आदि ने तो जनजीवन और उसकी प्राथमिकताओं को ही बदलकर रख दिया। सबका असर दलित साहित्य के साथ साथ देश के संपूर्ण साहित्य पर देखने को मिला; जिसकी जिम्मेदार एक तरफ तो भारतीय सरकार की नीतियां रहीं दूसरी तरफ मीडिया का बदला हुआ चरित्र रहा। दोनों ने मिलकर जनजीवन को त्रस्त तो किया ही साथ ही उसकी जरूरतों और वैचारिकी को भी प्रभावित किया। दो हजार बीस के मार्च के लाॅकडाउन के बाद से तो अधिकांश साहित्य वैश्विक महामारी कोरोना की ही भेंट चढ़ गया। इससे दलित साहित्य और साहित्यकार भी अछूते नहीं रहे। उनकी वैचारिकी और साहित्य में भी कोरोना से उपजी त्रासदी सर उठाये रही। इसी को लेकर दो हजार बीस में ही पुस्तक कोरोना काल में दलित कविता प्रकाशित व संपादित करनी पड़ी। कोरोना त्रासदी ने दलित साहित्यकारों को जातिगत दायरे से बढ़ाकर कोरोना से पीड़ित जनता की सार्वजनिक पीड़ा से जोड़ दिया। इस समय स्पष्ट रूप से नजर आया कि दलित साहित्यकार केवल जातिगत रोना ही नहीं रोते हैं बल्कि उनकी संवेदना देश के हर पीड़ित नागरिक के साथ जुड़ी होती है। देश में हो रहे हर छोटे बड़े सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तन पर उनकी निगाह होती है। खासकर दलित साहित्य में जो दलित साहित्यकारों की तीसरी पीढ़ी उभरकर सामने आयी, उसके सोचने और लिखने में इस तरह का वाजिब बदलाव देखने को मिला। वे दलित साहित्य के अतिवाद, विषय और भाषायी सीमा से कुछ मुक्त दिखायी देते हैं। उनका साहित्यिक और शैक्षिक कैनवास भी कुछ बढ़ा हुआ दिखायी देता है। यही कारण है कि नदलेस ने दलित साहित्य की नव वैचारिकी और नव सौंदर्यबोध की कल्पना की है, जिसे नदलेस जल्दी ही मूर्त रूप देने की रचनात्मक कोशिश करेगा।

आज सोशल मीडिया का दौर है। इसके जहां बहुत से फायदे हैं वहीं बहुत से नुकसान भी हैं। लाॅकडाउन ने जिन संपर्कों को प्रतिबंधित कर दिया था उन्हें सोशल मीडिया के माध्यम से ही बचाया व बढ़ाया जा सका। इससे लाभ यह हुआ कि जहां हम दूर दराज के साहित्यकार एक दूसरे के आभासी संपर्क में आयें वहीं ज्यादातर साहित्यकार सीधे संबंधों से दूर हो गये। संगठनों व साहित्यिक संस्थाओं के साहित्यिक कार्यक्रम अधिकतर आॅनलाइन ही होने लगे। इससे कार्यक्रमों में होने वाले खर्चे से तो बचाव हुआ लेकिन हम कुछ लेजी किस्म के हो गये। सीधे मिलने मिलाने का उत्साह कम हो गया। जमीनी स्तर के प्रयास कम हो गये। साहित्यकारों का साहित्यिक कर्म शौक भर के लिए अधिक दिखायी देने लगा। दलित साहित्य और संगठन भी इसके अपवाद नहीं रहे। ज्यादातर साहित्यकार सोशल मीडिया पर ही रचनाएं पोस्ट करके वाहवाही लूटने के आदि हो गये हैं। संगठन भी कार्यक्रमों को आॅनलाइन करके ही तृप्ति पाने लगे हैं। बहुत कम कार्यक्रम आॅफलाइन हो पा रहे हैं। इससे सांगठिन एकजुटता और सामूहिक संघर्ष को बहुत नुकसान पहुंच रहा है। नदलेस की कोशिश रहती है कि ज्यादातर कार्यक्रम और छोटी से छोटी मीटिंग भी आॅफलाइन करें लेकिन लोगों के कम होते रूझान के कारण ऐसा बहुत कम ही संभव हो पा रहा है। इस पर हम सभी को नये सिरे से सोचने की आवश्यकता है। सोशल मीडिया के मकड़जाल से बाहर निकले बगैर हम कुछ भी बेहतर नहीं कर पायेंगे। इसके अलावा जिस बात पर सबसे अधिक सोचने की आवश्यकता है, वह यह है कि वास्तव में आज हम कहां खड़े हैं। दलित साहित्य और आंदोलन को शुरू हुए आज छह दशकों से भी ज्यादा समय बीत चुका है। इस दौरान बहुत सा दलित साहित्य और बहुत से दलित साहित्यकार प्रकाश में आ चुके हैं। लेकिन सवाल उठता है कि क्या इतने लम्बे संघर्ष के बाद भी हम वहां पहुंच पाये हैं जहां हमें पहुंचना चाहिए था, या उसके कुछ नजदीक भी पहुंच पाये है? संभवतः नहीं! ऐसा किसलिए हुआ, इस पर गंभीरता से विचारने की जरूरत है। यह विचारने की जरूरत है कि क्या दलित साहित्यकार वास्तव में दलित समाज के सामाजिक उत्थान के लिए प्रतिबद्ध हैं? या सिर्फ व्यक्तिगत लाभ और संबंधों के निर्वहन तक ही सीमित होकर रह गये हैं। आज न सिर्फ दलित साहित्यकारों के मूल्यांकन का समय आ गया है बल्कि दलित साहित्य के मूल्यांकन का भी समय आ गया है। यह देखने की बहुत जरूरत है कि दलित साहित्य में उसका मूल स्वरूप कितना बचा रह गया है। यदि इसमें परिवर्तन हुए हैं तो वे किन संदर्भों में और कितने नकारात्मक और कितने सकारात्मक हुए हैं। इस तरह के मूल्यांकन का लाभ यह होगा कि हमें ज्ञात हो सकेगा कि हम कहां खड़े हैं और हमें कहां खड़े होना चाहिए। दलित साहित्य में छद्मवादियों और घुसपैठियों की शिनाख्त की ही जानी चाहिए। ऐसे सभी साहित्यकारों की शिनाख्त की जानी चाहिए जो सिर्फ नाम के लिए साहित्य के क्षेत्र में हैं। ऐसे साहित्यकार बातें तो बड़ी बड़ी करते हैं लिखते भी बड़ा बड़ा है लेकिन असल में वे दलित समाज और उसकी पीढ़ी को गुमराह करते हैं। ऐसे दलित साहित्यकारों और अन्य सभी प्रतिनिधियों को बेनकाब करना बेहद जरूरी है। यह जिम्मेदारी किसी और की नहीं बल्कि दलित साहित्य में उभरकर सामने आ रही तीसरी पीढ़ी की है। नदलेस से जुड़े रचनाकारों ने इस ओर पहल कर दी है। सोच का यह पहला अंक उक्त संदर्भ में पहला दस्तावेज माना जाना चाहिए। नदलेस के गठन के साथ साथ सोच को प्रकाशित करने की जरूरत ही इसलिए सामने आयी कि दलित साहित्य और संगठनों में व्यक्तिवाद और अवसरवादियों ने साहित्य और संगठनों को व्यक्तिकेन्द्रित बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे में तीसरी पीढ़ी के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा, सिवाय इसके कि वे अपनी राह स्वयं लें और समाज में पनप चुकी नयी चुनौतियों के साथ नये संदर्भों से ही मुठभेड़ करें। यह मुठभेड़ दलित साहित्य और आंदोलन का एक नया अध्याय लिखेगी। इस मुठभेड़ से दलित साहित्य और आंदोलन का दिनोंदिन होता क्षरण तो रूकेगा ही साथ ही, उन लोगों पर भी बड़ा अंकुश लगेगा जो या तो दलित साहित्य को किसी दूसरी विचाराधारा का पिछलग्गू बनाने के लिए प्रयासरत हैं, या इसके मूलस्वरूप को क्षति पहुंचा रहे हैं, या फिर दलित साहित्य के छह दशकीय अध्याय को समाप्त करने की पुरजोर कोशिश में हैं।

इस संदर्भ में दलित साहित्य की दूसरी और तीसरी पीढ़ी के कुछेक रचनाकार सतर्क दिखाई देते हैं, मगर दलित साहित्य और संगठनों में उनकी अनदेखी हो रही है और उनकी रनचात्मक एनर्जी और सहयोग दोनों हाशिए पर धकेल दिये गये हैं। अपने ही घर में ऐसी उपेक्षा किसी भी स्तर से उचित नहीं मानी जा सकती है। जो लोग दलित साहित्य और आंदोलन को ठीक से नहीं समझते उन्हें भी इस ओर ध्यान देने की जरूरत है कि दलित साहित्य न तो यशकाय हो जाने का विषय है और न ही उत्सवधर्मिता का। दलित साहित्य की दूसरी पीढ़ी की बात हो या तीसरी पीढ़ी की, वरिष्ठ की बात हो या कनिष्ठ की, सभी को पुनः एकजुट होकर दलित साहित्य और सामाजिक आंदोलन को मजबूत करना चाहिए। छोटे छोटे आग्रह दुराग्रह त्यागकर दलित साहित्य और समाज को मजबूत करने के रचनात्मक प्रयास करने चाहिए। हर्ष की बात है कि प्रस्तुत अंक में ज्यादातर रचनाकार इस संदर्भ में काफी सचेत दिखायी देते हैं, जिन्हें प्रकाशित कर नदलेेस व सोच पत्रिका की टीम हर्षित व गौरवानिवत है। संपादकीय सोच के अतिरिक्त रचना सामग्री को पांच सोपानों में विभक्त किया गया है। विमर्श सोपान, काव्य सोपान, कथा सोपान और नदलेस सोपान। इसके अतिरिक्त पत्रिका का एक स्थायी सोपान जनमत सोपान है जो पाठकीय प्रतिक्रियाओं से जुड़ा सोपान है। पत्रिका के प्रवेशांक में पाठकीय प्रतिक्रियाओं की जगह नदलेस के अध्यक्ष सहित संरक्षकों की शुभेच्छाएं सम्मिलित की जा रही हैं। अगले अंक से इस काॅलम में पाठकीय प्रतिक्रियाओं और चिट्ठी पत्री आदि को ही स्थान दिया जायेगा। पत्रिका के बाकी सोपानों में क्रमशः जो सामग्री सम्मिलित की जाती रहेगी; वह कुछ इस प्रकार मानी जा सकती है। विमर्श सोपान में लेख, आलेख, आलोचना, शोध, समीक्षा, समसामयिक मुद्दों से जुड़े प्रोज आर्टिकल और विभिन्न विमर्शों से जुड़ी गद्य सामग्री आदि। काव्य सोपान में गीत, नवगीत, ग़ज़ल, तेवरी, दोहे, कुंडली और छंदमुक्त या छंदयुक्त गद्य या पद्य कविताएं आदि। कथा सोपान में कहानी, लघुकथा, नाटक या उपन्यास के अंश, निबंध, पत्र, डायरी और आत्मकथा आदि के अंश आदि। नदलेस सोपान के अन्तर्गत नदलेस के प्रमुख कार्यक्रमों की रिपोर्ट्स के साथ अन्य महत्तवपूर्ण समाचार, रिपोर्ट्स और विज्ञापन आदि भी सम्मिलित किये जा सकेंगे। इन पांचों सोपानों के अन्तर्गत करीब करीब हर तरह की साहित्यिक सामग्री समाहित की जा सकेगी। ये पांचों सोपान पत्रिका के स्थायी सोपान होंगे। जिनमें सभी तरह की साहित्यिक सामग्री को वर्गीकृत करके संपादित व प्रकाशित किया जा सकेगा।

इस अंक के विमर्श सोपान में बजरंग बिहारी तिवारी, आर जी कुरील, पुष्पा विवेक, डा. टेकचंद, शीलबोधि, ईशकुमार गंगानिया, भूपसिंह भारती और दीपक मेवाती के लेख आदि शामिल किए गये हैं। बजरंग बिहारी तिवारी ने अपने लेख में हाल ही में सम्मन्न हुए किसान आंदोलन की रचनात्मक सुध ली है। उन्होंने अपने लेख व चिन्तन के माध्यम से सामाजिक आंदोलनों की पारस्परिका की जांच पड़ताल तो की ही है, साथ ही दलित कविता को इस दृष्टि से परखने की कोशिश भी की है। समसामयिकी पर महत्तवपूर्ण लेख है यह। आर जी कुरील ने अपने दो लेखों के माध्यम से लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण की ओर ध्यानाकर्षण किया है, साथ ही हिन्दुत्व के पनपने के खतरों से समुचित परिचय कराया है। उनके लेखों से भारत की वर्तमान राजनीतिक व सामाजिक स्थितियां यथारूप उभरकर सामने आयी हैं। पुष्पा विवेक ने अपने लेख के माध्यम से स्त्री के सामाजिक जीवन और उसके लेखन की समस्याओं को बखूबी उकेरा है। उन्होंने अपने लेख में सामाजिक आंदोलन की अग्रदूत महिलाओं के संघर्षों की विरासत को भी पर्याप्त याद किया है। डा. टेकचंद ने अपने लेख में दलित साहित्य में दर्ज हुए दलित बचपन को जगह दी है, जिससे उन्होंने इस ओर ध्यान आकर्षित किया है कि भारत में दलित बच्चों का जीवन लगभग समान ही होता है। उन्होंने महसूस किया है कि अभी दलित साहित्य में दलित बचपन और उसके लोक खेलों को दर्ज किये जाना बेहद जरूरी है। शीलबोधि ने अपने लेख दलित विमर्श से अगला पड़ाव के जरिये महसूस किया है कि सामाजिक परिवर्तन में दर्शन की महती भूमिका होती है। यानी समाज में आज तक जितने भी सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए हैं, सबमें दर्शन ने अहम भूमिका अदा की है; इसलिए दलित साहित्य और वैचारिकी को भी अपनी दार्शनिक परम्परा को पहचानकर इस तरफ गंभीर संज्ञान लेने की जरूरत है। ईश कुमार गंगानिया और भूपसिंह भारती ने अपने अपने ढंग से रविदास की बेगमपुरा वाली सामाजिक परिकल्पना को समझने और समझााने के प्रयास किये हैं। कइयों का मानना है कि तुलसीदास ने रामराज्य की प्रेरणा रविदास के बेगमपुरा से ही ग्रहण की थी। यद्यपि दोनों में धरती आसमान का अन्तर है। यह अन्तर हमें दोनों के लेखों में भी दिखायी देता है। दीपक मेवाती ने अपने शोध के माध्यम से हरियाणा के रागिनी गायक और कवि महाशय छजजूलाल जी को हरियाणा के साहित्य में अंबेडकरवाद का प्रवर्तक साबित करने का समुचित प्रयास किया है। देश भर में इस तरह के शोध होते रहने चाहिए, जिससे कि अध्ययन और वैचारिकी दृष्टि से दलित साहित्य की स्पष्ट पहचान बनी रह सके। काव्य सोपान के अन्तर्गत आर जी कुरील, समय सिंह जौल, इंदु रवि, आर एस आघात, रामश्रेष्ठ दीवाना, डा कुसुम वियोगी, रामस्वरूप मीणा, डा. प्रिया भारती, राजेश पाल, रामसूरत भारद्वाज, रिछपाल विद्रोही, हरिकेश गौतम, मोहनलाल सोनल मनहंस, कविता भवालिया आध्या, डा. विपुल कुमार भवालिया, बाबूलाल तोंदवाल, कुंवर नाजुक और रवि निर्मला सिंह छोटे बडे़ कुल उन्नीस दलित रचनाकारों की रचनाएं शामिल हैं। सभी को रचना प्राप्त होने के क्रम में रखा गया है, जिसमें रचना की स्तरीयता अथवा रचनाकार की वरिष्ठता या कनिष्ठता का ध्यान नहीं रखा गया है। शिल्प, विधा, कला और भाषा की दृष्टि से ये रचनाएं भले ही हल्की या भारी हों लेकिन सभी का मूल स्वर अंबेडकरवाद के माध्यम से सामाजिक न्याय और परिवर्तन की मांग करना है। इन कविताओं की प्राणवायु दलित समाज के विविध महापुरूषों से आती है और दलित समाज में प्राण फूंकने का सफल प्रयास करती है। रही बात कविताओं के आस्वाद की तो यह पाठकों पर निर्भर है।

कथा सोपान के अन्तर्गत पांच कहानियां संकलित हैं। पांचों कहानियां दलित चेतना की नई इबारत लिखती है। पांचों कहानियों में दलित पात्र अपने न्याय और हक के लिए लड़ते हैं और जीतते हैं। रत्नकुमार सांभरिया की मुक्ति कहानी शिल्प, कथ्य और उद्देश्य में बेजोड़ कहानी है। कहानी में नानकराम द्वारा अपने पुत्र चंदु की धर्म के नाम पर की हत्या का बदला महंत से लिया जाता है। जहां महंत चंदू को धर्म के नाम पर सांड की भेंट चढ़ा देता है, वहीं महंत की साजिश को समझने के बाद नानक महंत को मंदिर में ही तलवार से मौत के घाट उतार देता है। इस तरह धर्म के नाम पर महंत द्वारा जो चंदू की मुक्ति की जाती है उसका बदला नानक महंत की मुक्ति करके ही लेता है। कहानी में नानक की हिम्मत, जोश, आक्रोश और विद्रोह काबिले तारीफ है। अनिल बिडलान कहानी श्मशान घाट में दलितों के लिए द्वारा सामाजिक लड़ाई को कानून के माध्यम से लड़ते हुए दिखाया गया है। कहानी में जातिवादियों द्वारा सूरज को बारात में घोड़ी पर बैठकर बैंड बाजे के साथ बारात निकालने के कारण मौत के घाट उतार दिया जाता है। और तो और जातिवादी दबंग उसका अंतिम संस्कार गांव के श्मशाम घाट पर नहीं होने देते। लेखक की पे्ररणा से गांव वाले डीएम के पास जाकर अपनी शिकायत दर्ज करवाते हैं और न सिर्फ सूरज का अंतिम संस्कार करवाने में कामयाब होते हैं बल्कि हत्यारों को जेल भिजवाने और दलितों के श्मशाम घाट के लिए अलग से सरकारी भूमि आवंटित करवाने में भी कामयाब हो जाते हैं। नन्दलाल कौशल की कहानी आम आदमी के बौद्धिक जागरण की कहानी है। फिर चाहे यह जागरण वोट की ताकत पहचानने का हो, शिक्षा से संबधित हो अथवा दलितों के नाम और उपनाम के संबंध में हो। सभी में लेखक की अच्छी खासी डिबेट एक तथाकथित आम आदमी से होती है। लेखक अपने तर्क और विश्लेषण से आम आदमी को उसकी वास्तविक स्थिति से रूबरू कराता है और अंबेडकरवाद की राह पर चलने की सफल प्रेरणा देता है। मोहरा कहानी में राजेश पाल शिक्षा की सामाजिक और राजनीतिक उपयोगिता का उद्घाटन करने में कामयाब होते हैं। कहानी में नत्थू नाम के एक दलित बच्चे के पढ़ लिखकर मतगणना पर्यवेक्षक बनने का सफर तो दर्ज है ही साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि किस तरह पंचायती चुनाव में जातिवादियों और दंबंगों द्वारा दलितों के भोलेभाले कंडीडेटों को बेवकूफ बनाया जाता है। एस. सी. में प्रधानी का पर्चा आने पर पूर्व प्रधान तेजपाल अपने नौकर सुक्कड़ को इसलिए प्रधानी के इलैक्शन लड़वाकर जितवाना चाहता है कि भले ही प्रधान सुक्कड़ बने लेकिन राज तो उसी का होगा, लेकिन मतगणना पर्यवेक्षक के कारण दलित कंडीडेट पूर्व प्रधान तेजपाल सिंह का मोहरा बनने से बच जाते हैं। कहानी शुद्धिकरण में सतीश खनगवाल सरकारी दफ्तरों और सरकारी अफसरों की कारगुजारियों का बेबाक खुलाशा करते है। फिर चाहे बात सरकारी कामों में बरती गयी लापरवाही की हो अथवा अफसरों की जातिवादी मानसिकता की। कहानी का मुख्य पात्र महेश जातिवादी मानसिकता के अफसर ठाकुर दयाल सिंह और उसके अन्य सवर्ण साथियों का संवैधानिक दायरे में रहते हुए बड़ी ही कुशलता से भंडाफोड़ करता है। साबित करता है कि आदिवासी अफसर के जाने पर आॅफिस का शुद्धिकरण इसलिए करवाया जाता है कि आज भी मनुवादी सवर्ण जातिवाद की मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाये हैं। कहानी में महेश द्वारा सामाजिक न्याय की न्यायसंगत और साहसी मुहिम छेड़ी जाती है। महेश का सफल होना अन्यों को भी जातिवादी भेदभाव के खिलाफ मुखर संघर्ष करने की सफल प्रेरणा देता है। इस तरह सभी कहानियां दलित समाज के लिए अलग अलग तरह की चुनौतियों और संघर्षों में सफल हुए दलित समाज के जागरूक पात्रों की कहानियां हैं। ये कहानियां आश्वस्त करती हैं कि दलित समाज अब अपनी हर एक लड़ाई स्वयं के बलबूते लड़ने और जीतने के लिए मुखर और तत्पर हो रहा है।

नदलेस सोपान के अन्तर्गत नदलेस द्वारा एक ही नाम वाले दो दलित लेखक संघों को एक कराने हेतु चलाई गयी मुहिम का संपुर्ण विवरण प्रस्तुत किया गया है। यह एक ऐतिहासिक मुहिम है जिसने दलित साहित्य और संगठनों में मठाधीशी कर रहे लोगों को बेनकाब किया है। मुहिम में शामिल सभी साहित्यकारों ने एक स्वर में माना कि दलित लेखक संघ का समरूपी विभाजन न सिर्फ गैरजरूरी है अपितु साहित्य और समाज में हास्यास्पद भी है। एक ही नाम दलित लेखक संघ के नाम वाले दोनों दलित लेखक संघों को इस ओर गंभीर संज्ञान लेना चाहिए। दलित लेखक संघ के नाम से दो दो संगठन होने से न सिर्फ वर्तमान में स्वीकार्यता और जुड़ने का संकट उत्पन्न हुआ है बल्कि अध्ययन और पहचान संबंधी भविष्यगामी बहुत सी आशंकाएं भी उत्पन्न हो गयी हैं। नदलेस ने इन सभी समस्याओं के समाधान के लिए प्रस्ताव पत्र तैयार किया जिसमें सैकड़ों साहित्यकारों ने अपने मत और विचार दर्ज करवायें। सभी ने एकजुटता पर जोर दिया और माना कि दोनों दलित लेखक संघों को फिर से एक हो जाना चाहिए। सामाजिक एकता और दलित साहित्य तथा समाज के उत्थान के लिए यह एकजुटता बेहद अनिवार्य हैं। नदलेस प्रस्ताव पत्र में दर्ज सभी की भावनाओं और विचारों की बहुत कद्र करते हुए सभी के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करता है। नदलेस और सोच का संपादकीय मंडल पत्रिका में दर्ज सभी रचनाकारों के प्रति कृतज्ञता भाव प्रकट करता है। नदलेस यथाशीघ्र दलित साहित्य और साहित्यकार कोश निर्माण की महती परियोजना पर कार्य करने जा रहा है। दलित साहित्य में आज इस कोश की महती आवश्यकता है, क्योंकि दलित साहित्य गत सात दशकों से लगातार लिखा व पढ़ा जा रहा है। इस लम्बे समयान्तराल में दलित साहित्य असंख्य साहित्य प्रकाशित हो चुका है और असंख्य साहित्यकार आज दलित साहित्य में लिख पढ़ रहे हैं। हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में इतने लंबे समय तक कोई साहित्यिक धारा जीवंत नहीं रह सकी है इसलिए दलित साहित्य में कोश निर्माण की आज बेहद आवश्कता है। इससे दलित साहित्य तो समृद्ध होगा ही साथ ही दलित साहित्य का ऐतिहासिक महत्तव भी बढ़ेगा। यह कोश न सिर्फ दलित साहित्य और साहित्यकारों की पहचान सुनिश्चित करेगा अपितु दलित साहित्य के अध्येताओं, शोधार्थियों और साहित्यकारों के लिए अपेक्षाकृत सहायक अधिक सिद्ध होगा। उम्मीद जाती है कि कोश निर्माण की इस महती परियोजना में नदलेस को आप सभी रचनाकारों का रचनात्मक सहयोग प्राप्त होगा। अंत में उन सभी साथी रचनाकारों के प्रति आभार ज्ञापित किया जाता है, जिन्होंने नदलेस के गठन, सोच पत्रिका के निर्धारण, संपादन और प्रकाशन में किसी भी प्रकार से सहायता की है। पत्रिका की टाइप सैटिंग करने के लिए अग्रज मित्र परमेन्द्र्र सिंह और पत्रिका का आवरण बनाने के लिए आदरणीय कुंवर रवीन्द्र जी का अतिरिक्त आभार। पाठक अपनी प्रतिक्रियाएं पत्रिका में दिये गये संपादकीय पते या पत्रिका की ईमेल पर भिजवा सकते है। पत्रिका पर मिली प्रत्येक प्रतिक्रिया को अगले अंक में जनमत सोपान के अन्तर्गत यथारूप ससम्मान प्रकाशित किया जायेगा।

संपादक, सोच

डा. अमित धर्मसिंह

07/04/2022

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