राजेंद्र कुमार राज़ की पुस्तक, उम्मीदों की किरण तुम्हारे लिए की मेरे द्वारा लिखी गई भूमिका



इश्क़, जीवन और समाज की गज़लें

                                  - डा. अमित धर्मसिंह    

साहित्य की जो विधाएं लोक में प्रचलित रही उनमें लगातार लिखा-पढ़ा जाता रहा और जो विधाएं अपनी क्लिस्टता के कारण बिसरा दी गई उनका नामलेवा भी अब कोई नहीं बचा है। हिंदी के न जाने कितने छंद ऐसे हैं, जो "खुल गए छंद के बंद" के बाद से विलुप्तप्राय हैं। यद्यपि छंदमुक्त की अपेक्षा मुक्तछंद रचनाओं का बोलबाला रहा। दोहा, चौपाई, कुंडली, कवित्त, गीत जैसी कुछ पद्य विधाओं को छोड़ दें तो और ऐसी कितनी विधाएं हैं जिनमें लिखा पढ़ा जा रहा है। कुछ छंद तो अकादमिक साहित्य में लिखे जाने से अधिक मंचों से पढ़े और गाए जाने के कारण बचे हुए हैं। वीर, ओज और श्रृंगार की रचनाओं सर्वाधिक मुक्तक, गीत और कवित्त आदि तरह की रचनाएं ही अधिक मशहूर हैं। गीत में तो नवगीत, अगीत और प्रगीत जैसे प्रयोगों ने गीत विधा को नित नवीन और बचाए बढ़ाए रखा है। यही हाल उर्दू की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा ग़ज़ल का है। इसकी व्याप्ति और प्रसिद्धि तो हिंदी और उर्दू की बाकी सभी विधाओं से दस कदम आगे की है। उर्दू ग़ज़लों में जहां शिल्प की अपेक्षा कथ्य और उसकी ज़मीन में खासा परिवर्तन हुआ है वहीं हिंदी में आकर ग़ज़ल में करीब करीब आमूलचूल परिवर्तन ही हो गया है। एक तरह जहां हिंदी ग़ज़लों में हिंदी के व्याकरणिक गणों और मात्राओं की समायोजना हुई है वहीं दूसरी ओर इसे और भी अधिक सरल करते हुए इसे क़ाफिया रदीफ के मिलान तक सीमित कर दिया गया है। यह ग़ज़ल की लोकप्रियता ही है कि आज हिंदी का हर दूसरा या तीसरा कवि हिंदी ग़ज़ल कहने की जद्दोजहद में है। कविता और शायरी के मंचों के अलावा ग़ज़ल को सर्वाधिक बढ़ावा सोशल मीडिया के माध्यमों (फेसबुक, वॉट्सएप, इंस्टाग्राम, ट्विटर आदि) ने दिया है। देखादेखी सब ग़ज़ल लिखने और पढ़ने में मशगूल हो गए हैं। इसमें एक तरफ ग़ज़ल की जहां लोकप्रियता बढ़ी है वहीं इसके वास्तविक ढांचे को विधागत क्षति भी पहुंची है। इसके अतिरिक्त ग़ज़ल में कुछ अच्छे और नए प्रयोग भी सामने आए हैं। सबसे बढ़िया बात तो यह हुई है कि ग़ज़ल अब सिर्फ महबूब से बातचीत का माध्यम नहीं रह गई है। इसमें जीवन के दूसरे रंग भी बखूबी उकेरे जाने लगे हैं। बात चाहे उर्दू ग़ज़ल की हो या हिंदी ग़ज़ल की दोनों तरफ नित नवीनता देखने को मिल रही रही। हालांकि उर्दू गज़लों में अभी भी वज़न, बहर और दूसरे मानदंडों का काफी हद तक पालन किया जाना बरकरान है। जबकि हिंदी गजलों में तो अपनी अनुभूति और अभिव्यक्ति को सर्वप्रमुखता से आगे रखा जाता है। हिंदी ग़ज़ल अपने कला कौशल में भले ही कुछ पिछड़ी हुई दिखाई देती हो किंतु अपने कथ्य और अनुभूति में वह काफी विस्तृत दिखाई देती है। यही कारण है कि हिंदी में आकर ग़ज़ल तेवरी, गीतिका और हिंदी ग़ज़ल आदि कई नामों से प्रचलित हुई है। यह ग़ज़ल की लोकप्रियता और सर्वग्रह्यता ही है कि यह लगातार उर्दू ही नहीं हिंदी के साथ साथ अन्य भाषाओं में लिखने पढ़ने वालों को लगातार बांधे हुए हैं। इसके आकर्षण में इसके शिल्प में आए परिवर्तन से भी कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। सर्वविदित है कि साहित्य में जो भी विधा अथवा विषय नित नवीन होकर समय और साहित्य के साथ संगत करता है, वह निरंतर जीवंत और गतिमान बना रहता है। ग़ज़ल निश्चित ही ऐसी एक विधा है जो लगातार अपने पढ़ने लिखने वालों के साथ समय सापेक्ष अपना वजूद न सिर्फ बचाए हुए है बल्कि नित नवीन विस्तार भी प्राप्त कर रही है।

हिंदी में आकर ग़ज़ल करीब तीन श्रेणियों में विभक्त होकर रह गई है। या कह सकते हैं कि हिंदी ग़ज़ल लिखने वालों की तीन श्रेणियां हैं। एक में वो गजलकार आते हैं जिन्होंने ग़ज़ल को हिंदी के व्याकरण के आधार पर साधने की कोशिश की है। ऐसे शायरों ने ग़ज़ल की जमीन को गीत की जमीन तक घसीट दिया है। इन गजलों में गण और छंद तथा काफिया और रदीफ का तो पूरा पूरा निर्वाह है लेकिन ग़ज़ल की पहचान और असर को संभालने में ऐसी ग़ज़लें कुछ अधिक सफल नहीं हो पाई हैं। दूसरी श्रेणी में वे ग़ज़लें या गजलकार आते हैं जिन्होंने ग़ज़ल में ग़ज़ल के सम्पूर्ण मानदंडों का तो प्रयोग नहीं किया है लेकिन वे अपने कथ्य को ग़ज़ल में विस्तार देने में काफी हद तक सफल दिखाई देते हैं परंतु अनुभूति और भाव प्रवणता की गहराई का अभाव इन ग़ज़लों में दिखाई देता है। तीसरी श्रेणी के गजलकारों ने न तो हिंदी ग़ज़ल का रुख किया है और न ही उर्दू ग़ज़ल का। उन्होंने अपनी अनुभूति और भावों को अभिव्यक्त करने का माध्यम ग़ज़ल को चुना लेकिन उसे भाषा और व्याकरण की क्लिष्टता के साथ नहीं अपितु सहज और सरल बोधगम्यता के साथ स्वीकार किया। ऐसे शायर भले ही तालीमयाफ्ता न हो और भले ही वे ग़ज़ल की दुनिया में उस्ताद शायर और इसलाह जैसे रास्ते पर न चले हों लेकिन उनके यहां अनुभूति की गहराई और अभिव्यक्ति की ईमानदारी मौजूद है। आज जबकि ग़ज़ल की दुनिया में ही नहीं बल्कि समूर्ण साहित्य की दुनिया में चर्बा सरका की परंपरा का विकास हो चला है, ऐसे में इस तरह के शायर अधिक खरे नजर आते हैं। मुझे लगता है राजेंद्र कुमार राज ऐसे ही एक शायर हैं। इनकी ग़ज़लों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि वे भले ही ग़ज़ल के हिंदी और उर्दू व्याकरण तथा उसके किताबी इतिहास से नावाकिफ हो लेकिन अपनी ग़ज़लों में अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों स्तर से बेहद ईमानदार और सफल शायर हैं। उनके यहां न किसी उस्ताद शायर की उस्तादी को घुसपैठ है और न ही किसी ख्यातिलब्ध शायर की शायरी की कोई जमीन है। ये गज़लें राजेंद्र कुमार राज़ की अपनी गज़लें हैं, उनकी अपनी अनुभूति और अभिव्यक्ति की ग़ज़लें हैं। जिनमें राजेंद्र कुमार राज़ शायरों की इस भीड़ में अलग से पहचाने जा सकते हैं। यह पहचान उनकी अपनी मौलिक पहचान है जो उनकी मौलिक ग़ज़लों में उभरकर सामने आती हैं। इनमें शिल्प की कसावट, बहर और वज़न की बुनावट और शब्दों का चमत्कार भले ही न हो लेकिन कहन का मौलिक अंजाज और संप्रेषण का कौशल पर्याप्त दिखाई देता है। 

अस्मिता मूलक साहित्य और विमर्शों के इस दौर ने भाषा सौष्ठव और छंदों, अलंकारों ने तो जैसे दम हो तोड़ दिया है। दलित साहित्य में तो स्पष्ट मान्यता है कि दग्ध अनुभवों और गहन पीड़ा को दर्ज करने का कोई भी साहित्यिक पैमाना नहीं हो सकता है। भुक्तभोगी जिस भी रूप में पीड़ा भोगता है वह उसे उसी रूप में अपनी अनुभूति और अभिव्यक्ति के सापेक्ष दर्ज करता है। राजेंद्र राज़ की प्रस्तुत रचनाएं भी इसका अपवाद नहीं है। राजेंद्र जी भी अपने जीवन में होने वाले अपने अनुभवों को बगैर किसी लाग लपेट और शिल्प चमत्कार के ज्यों का त्यों प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। यद्यपि उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति ग़ज़ल रूपी विधा में ढालने का सहज प्रयास किया है। हर शेर उनके मौलिक अंदाज का प्रमाण है। ग़ज़ल का यह पाक पाठकों और आलोचकों को भले ही न सुहाए लेकिन राजेंद्र राज़ जी का अपना शायर इन्हें दर्ज करके भीतर तक तृप्ति पाता हुआ दिखाई देता है। आज लेखन का यह भी एक गुण विशेष हो चला है। इसने साहित्य को भले ही एक तरफ व्यक्तिकेंद्रित बनाया हो लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि सोशल मीडिया के अंतरजाल में साहित्य का दम घुटने से लेखकों की इसी प्रवृत्ति ने बचाया है। और, यह प्रवृत्ति न सिर्फ साहित्य के लिए अपितु साहित्यकारों के लिए भी लाभप्रद है क्योंकि जीवन, समाज तथा सत्ता की जितनी पेचीदगियों में इस समय जनमानस है, उसमें तृप्ति के छोटे से छोटा माध्यम भी विशेष गणनीय हो जाता है। लेखक के पास तो संघर्ष करने का लेखन ही एकमात्र माध्यम होता है। वह इसी से आवाज़ बुलंद करता है, अपने को जीने का हौसला देता है। सकारात्मकता से आगे बढ़ने की प्रेरणा और ऊर्जा भी लेखक अपने लेखन कर्म से प्राप्त करता है। कह सकते हैं कि विषम से विषम परिस्थिति में लेखक अगर किसी के सहारे बचता है तो वह उसका लेखन ही है इसलिए किसी के भी लेखन को शिल्प या भाषा के स्तर पर हल्का या भारी होने पर नकारा नहीं जा सकता है। उसकी स्वीकृति जीवन के एक विशेष स्वरूप के स्वीकृति देने जैसी ही होती है। इसके अतिरिक्त इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि जब कोई लेखक लगातार लिखने का उपक्रम करता है तो उसमें न जाने जीवन और समाज के कितने रूप आ समाने लगते हैं। 

राजेंद्र राज़ की गज़लों में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिलता है। यद्यपि ये इश्क के शायर हैं, उसमें भी जुदाई के जज़्बात और अहसास इनकी शायरी के केंद्र में हैं। फिर भी इनकी शायरी में जीवन के दूसरे पहलू और समाज व सत्ता की विविध विविध त्रासदियां भी इनकी गज़लों में आ समाई है। ऐसा इसलिए भी सहज रूप से हुआ है कि राजेंद्र राज़ सिर्फ एक शायर ही नहीं बल्कि एक एक्टिविस्ट भी हैं। जमीन से जुड़कर आंदोलन करना और विविध जनांदोलनों में भाग लेना इनकी जीवन का हिस्सा है। रंगमंच से जुड़ा होने और अभिनय से सीधा रिश्ता होने से भी इनके एक्टिविस्ट और शायर दोनों को रचनात्मक बल मिला है। कहिए कि इनके भीतर का शायर, अभिनेता और एक्टिविस्ट तीनों आपस में घुले मिले है। इन्हीं के सम्मिश्रण से इनकी शायरी तैयार होती है जो विविध आयामों से पाठकों का ध्यान आकर्षित करती है।

इन विविध आयामों में तीन प्रमुख आयाम हैं। जिन्हें सुविधा की दृष्टि से हृदयोन्मुखी, जीवनोन्मुखी और समाजोनमुखी के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। इसमें सर्वाधिक विस्तार लिए हुए हृदयोन्मुख वाला आयाम है। इसमें हाल ए इश्क़ को विस्तार से दर्ज हुआ है। कहने का मतलब यह है कि प्रस्तुत संग्रह में अधिकतर गज़लें इश्क़ के आगाज़ और अंजाम से जुड़ी हुई हैं। जिनसे साबित होता है कि राजेंद्र मूलतः इश्क के शायर हैं। राजेंद्र जी इस संबंध में स्वयं लिखते हैं - "हां कैफियत ए इश्क मैं पिए फिरता हूं। यादों की लाश कांधे पर लिए फिरता हूं।।" एक दूसरी ग़ज़ल में वे लिखते हैं - "मेरी नज़रों में सिर्फ इश्क़ रहता है, उनकी तस्वीर बदलती रहती है।"... यह भी कि "रंग सारे आशिकों वाले अब चढ़ गए हैं, बाल बिखरे हैं और नाखून बढ़ गए हैं।" देखने वाली बात यह है कि उनका यह इश्क़, 'इश्क़ मजाज़ी' वाला इश्क़ है न कि इश्क़ हकीकी वाला! इसलिए इनकी गजलों में रोमानियत की कोई कमी नहीं। यद्यपि कुछेक शेरों में रूहानियत का जिक्र भी आया है। जैसे वे लिखते हैं - "ऐसे डूबा मुहब्बत के दरिया में रूह फना हो गई, वो बस चलते रहे, खुश्क किनारों के साथ-साथ।"...या "मेरा इश्क़ रूहानियत की इबादत में ढल गया, औरों की तरह जिस्मफरोश क्यों नहीं होता।" यानी इस तरह के ख्यालात ने इश्क़ के अंदरूनी रस में डूबना और खुश्क किनारों पर चलकर इश्क को हासिल करने के अंतर को स्पष्ट कर दिया गया है। इनका हमदम शायद इनके इश्क को समझने में नाकाम रहा। जिसका अंजाम इश्क में जुदाई के रूप में सामने आया इसलिए इनकी गज़लों में विसाल ए यार/वस्ल ए यार से हिज्र ए यार बहुत अधिक दिखाई देता है। मतलब कि इनकी गज़लों में आगाज़ ए इश्क से अधिक अंजाम ए इश्क दर्ज हुआ है। विसाल ए यार की अगर बात की जाए तो कुछेक शेर देखे जा सकते हैं- "ये तुम्हारी मुस्कुराहटें, मेरी खुशियों की आहटें।"... मैं मैं न रहा ये जादू है तेरे आगोश का। मैं हूं तू है तो अब काम क्या है जोश का।। मेरे चेहरे पर तेरी जुल्फें ये चमकती आंखे, मैं अब तलबगार नहीं रहा फिरदौस का। इश्क़ की कश्ती खरामा खरामा चलने दो, कहां की जल्दी है क्या करना है जोश का।।"... "तुम्हारी आंखे बोलती हैं भाषा प्रेम की। तेरा मेरा मिलना है परिभाषा प्रेम की।।"... "नैनों से समझो नैनों की भाषा, प्यार है प्यार की परिभाषा। आदि शेर वस्ल ए यार के उदाहरण हैं। लेकिन जैसा कि मिर्ज़ा ग़ालिब साहब ने लिखा है कि "ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता। अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता।।" बस ऐसा ही कुछ राजेंद्र राज़ की गज़लों में दिखाई देता है। यही कारण है कि संग्रह की सैकड़ों गज़लों में ऐसी गज़लें बमुश्किल दशक भर भी नहीं हैं।

इसके विपरीत सत्तर फीसदी गज़लों में हिज्र के हालात अलग-अलग ढंग से दर्ज हुए हैं। शायरा शबनम दुर्रानी की ग़ज़ल का मतला है कि- "हिज्र के क्या लिखूं तुमको हालात मैं। याद करती हूं तुमको ही दिन रात मैं।" कुछ ऐसा ही हाल प्रस्तुत गज़लों के शायर का है। वे कहते हैं- "कोई छीन ले मुझसे यादों के जखीरे, दम घोटती हैं ये खूबसूरत जंजीरें।" मगर यादों से पीछा छुड़ाना इतना आसान कहां होता है। राजेंद्र राज़ भी नहीं छुड़ा पाते और लगातार महबूब के ख्यालों में उलझे हिज्र से जूझते रहते हैं। अलग-अलग अहसास और ख्यालात के कुछ शेर देखें जा सकते हैं- "बुरा किया दिल का कहा मान लिया, बेकार ही मुहब्बत का अहसान लिया।"... "दिल मर गया है धड़कन चल रही है, रफ्ता रफ्ता जिंदगी रंग बदल रही है।"... "वो उनकी चाहते वो राहतें खत्म हुई, अब सलाम की भी रवायतें खत्म हुई।"... "अब उगलूंगा लहू तुम दूर रहना, कत्ल होंगी आरज़ू तुम दूर रहना।"... "कोई चाहने की भी सजा देता है क्या, तुझे मेरा तड़पना भी मज़ा देता है क्या।"... "हां मुझे जान जाने तक का सब्र है, इस दिल में तेरी जुस्तजू की कब्र है।"... "काश मेरी मुश्किलों को आसान कर देता, कोई उनको मेरे हालात बयान कर देता।"...हालांकि राज़ यह भी मानते हैं कि "मुहब्बत का राज़ होना अच्छा है, खामोश दिल का साज होना अच्छा है।" लेकिन कहावत है कि इश्क़ और मुश्क छुपाए नहीं छुपते। बात अगर शायर के इश्क़ की हो तो फिर तो इश्क़ को छुपा पाना नामुमकिन ही है। वह जुबां से न सही लेखनी से बयान होता ही रहता है। और हालत बयानी में शायर यहां तक कह उठता है - "ज़ख्मों सा उघड़ न जाऊं तो क्या करूं, टूटकर बिखर न जाऊं तो क्या करूं। तुम पास थी तो धड़कनों से प्यार था, मैं तेरे बिना मर न जाऊं तो क्या करूं।" वह यह भी इल्तिजा करता है कि "मुझे भी कच्चे रंग से रंग देता, बदल सकता मैं भी ख़ुदा ऐसे ढंग देता।" लेकिन शायर का इश्क़ कच्चा नहीं बल्कि वह बेहद गाढ़ा और पक्का होता है। जिसमें शायर की रूह तक रंगी होती है। यही कारण है कि हिज्र के मुश्किल से मुश्किल हालात में भी शायर की ख्वाहिश होती है कि "न छीनो अब मेरा इक हमदम तो रहने दो, न रहो दिल में तुम अपना गम तो रहने दो।"... और वह इश्क़ को एक बड़ी नेअमत मानते हुए लिखता है -"हो गया है इश्क़ तो मज़ा लीजिए, फिर ये लज़्जत दोबारा मिले न मिले। डूबकर हो फना उनकी आंखों में में तू कि फिर ये किनारा मिले न मिले।।" यानी शायर इश्क़ के आग के दरिया में डूबी जाने को भी इश्क़ के साहिल का दर्जा देता है और तमाम कष्टों के बाद भी इश्क़ की पैरवी करता है। इस तरह राजेंद्र राज़ की गज़लों में हिज्र के हालातों को बड़े ही गहरे अहसास के साथ दर्ज किया गया है। इन गज़लों में तरह तरह से दास्तान ए हाल बयान किया गया है। जिसके अंतर्गत कहीं आगाज़ ए इश्क़ है। कहीं दीवानगी का आलम है। कहीं गम ए जुदाई को शिद्दत से दर्ज की गई है। कहीं इश्क़ का संदेश है। कहीं इश्क में इल्तिज़ा है। कहीं इश्क़ में ख़्याल ए यार है। कहीं इश्क़ की परदेदारी है। कहीं जीस्त पर इश्क़ का असर है। कहीं इश्क़ में मन्नते हैं। कहीं इश्क़ और वस्ल की किस्सागोई है। कहीं इश्क़ होने की तस्दीक है। कहीं इश्क़ में तरह तरह की गुजारिशें हैं। कहीं इश्क़ में जिक्र ए यार है। कहीं इश्क़ में बगावत के आवाज़ बुलंद है। कहीं इश्क़ में बेवफाई और धोखे को दर किया गया है। कहीं इश्क़ को पींगे बढ़ाई गई हैं। कहीं इश्क़ में होश ओ हवास तक के गुम होने का जिक्र है। कही इश्क़ को इबादत मानकर खुदा से भी बड़ा दर्जा दिया गया है। कुल मिलाकर शायर ने हिज्र को जिस भी रूप में महसूस किया, उसी रूप में दर्ज कर दिया है। जिसमें इश्क़ अपने आगाज़ से अंजाम तक काफी हद तक आ समाया है।

जीवन के विकास क्रम या पथ पर हमें जो प्रोत्साहन या ठोकरें, सफलता या असफलता, उत्थान या पतन, उपलब्धि या हानि, मित्र या शत्रु, अपने या पराए अथवा प्रसंशाएं या नसीहतें आदि मिलती हैं, उन्हीं की दी हुई शिक्षाओं से हमारे जीवन और व्यक्तित्व का निर्माण होता है। राजेंद्र राज़ भी इसके अपवाद नहीं। उन्हें जीवन के उतार और चढ़ाव ने जो शिक्षाएं दी उनसे मिलकर ही इनके भी जीवन और व्यक्तित्व का निर्माण हुआ। जिसकी झलक हमें इनकी अनेक गज़लों में मिलती है। एक तरह से ये ये जीवन में हुए इनके व्यक्तिगत अनुभव के जीते जागते सबूत हैं। ऐसी जितनी भी ग़ज़लें संग्रह में संग्रहित हुई हैं उन्हें जीवनोन्मुखी गज़लों की श्रेणी में रखा जा सकता है। रात दिन की असफलताओं के बीच शायर अपने आप को हौसला देते हुए लिखता है -"खुशियां तू बीन ले आसुओं के ढेर से, मिट गई उम्मीद तो क्या फिर नई आस ले।" शायर अपनी वास्तविक हालात को जमाने से छुपाकर जीता है, क्योंकि उसे मालूम है कि जमाना वफादार कम ही होता है। इसलिए वह लिखता है -"मैं खुद को कहीं छुपाकर मिलता हूं। जिससे मिलता हूं मुस्कराकर मिलता हूं।।" यद्यपि जीवन में शायर ने बड़ी ठोकरें खाई हैं लेकिन वक्त का सार्वजनिक तौर से वह रोना नहीं रोता बल्कि इसके लिए वह ग़ज़ल का रास्ता इख्तियार करता है। वह लिखता है -"वक्त ने मारी लाख ठोकरें संभल न सका। किसी सूरत अपना मिज़ाज बदल न सका।।" यह जो विपरीत परिस्थितियों में भी मिज़ाज न बदलने की जिद है असल में यही एक शायर के स्वाभिमान और चरित्र का वास्तविक परिचय होता है, जिसकी आग में तपकर वह कुंदन की तरह निखरता है। अपनी इसी खूबी के दम पर वह किसी को भी कह सकता है कि "तू गैरों का है मेरा खुदा नहीं। पता लगा तुझे मेरा पता नहीं।।" निश्चित ऐसा हस्सास और स्वावलंबी शायर दूसरों से गिला नहीं करता बल्कि अपनी तलाश अपने भीतर करता है। अपने सुख दुख का संबल खुद को ही बनाता है। भले ही जीवन पर्यंत उसके सामने यह चुनौती रहे कि "न मिला मैं खुद को खुद से मुलाकातें बहुत की। आज फिर तन्हाई में मैंने खुद से बातें बहुत की।।" उसको यह भी अनुभव हुआ कि जिंदगी किताबों जैसे जी जाती नहीं, सब समझा यही मैं नादान समझा नहीं।" जीवन में होने वाले ऐसे तीखे अनुभवों के कारण ही कई बार शायर को लगता है कि "अब इन लफ्जों की बिसात खत्म हुई। बात से बात बनती नहीं बात खत्म हुई।।" यानी जीवन के ठोस धरातल पर एहसासों, जज़्बातों और हुनर भर से काम नहीं चलता, इसके लिए कुछ भौतिक किस्म की दौड़ और होड़ जितना भी जरूरी होता है। ऐसे अनुभवों के बीच शायर लगातार सोचता है कि "अब गुम मेरा ये होश क्यों नहीं होता। बहुत बोलता हूं, खामोश क्यों नहीं होता।। सारी गलतियां मेरी ही मिलती हैं हर बार, कभी किसी दूसरे का दोष क्यों नहीं होता।।" ऐसे दग्ध अनुभवों अनेक गज़लें संग्रह में मौजूद हैं। जैसे सपनों का कारवां निकल गया दूर कहीं। मेरी नींद भी भटक रही है मजबूर कहीं।।"... "न होश बाकी है, न हवाश बाकी है। जान निकल गई बस लाश बाकी है।।"...बावजूद इसके जीवन में उबर जाने की कोशिश बरकरार रहती है। यही जीवन है और यही मनुष्य मात्र का कर्तव्यबोध भी। राजेंद्र राज़ भी इसी के हामी हैं। वे लिखते हैं -"सपनों की चाशनी मीठी सी, कोशिशें चिपटी हैं चींटी सी।" और "हवाएं सारी तूफानों में बदल गई हैं, बुझता नहीं मैं मुश्किलों के बुझाने से।" कायदे में यही जीवन का संदेश होता है और यही लिखने पढ़ने का कि जीवन में कैसे भी हालात क्यों न हो उनसे पार पाने की कोशिशों में कमी नहीं आनी चाहिए। तभी हम अपने जीवन और व्यक्तित्व का वांछित निर्माण कर सकते हैं। राजेंद्र राज़ की संबंधित गज़लों में भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर से यही संदेश छिपा हुआ है।

समाजोन्मुखी गज़लों में समाज में हो रहे छोटे बड़े परिवर्तन पर शायर की निगाह है। सत्ता की दमनकारी नीतियों पर शायर की निगाह है। बदलते रिश्ते हों या लोगों के बदलते चरित्र हों आदि बहुत कुछ इन गज़लों में स्थान पा गया है। यद्यपि इस तरह की गज़लें संग्रह में अधिक नहीं है लेकिन जितनी भी हैं उनमें समाज के प्रति राजेंद्र राज़ जी की चिंताएं उभरकर सामने आती हैं। समाज के वर्तमान हालात और परिवेश पर वे लिखते हैं -"खो गया है था कोई शहर सा, धुंआ धुंआ हवा में है जहर सा।" सामाजिक रिश्तों में आई उदासीनता या एकाकीपन को वे इस तरह दर्ज करते हैं -"जब मैं रोया तो न कोई आया साथ में। मैं मुस्कराया तो जग मुसकाया साथ में।" इस तरह के कटु अनुभव के कारण ही वे लिख पाते हैं कि "अच्छा नहीं होता हर बात का जवाब होना, कभी-कभी अच्छा होता है थोड़ा खराब होना।" निश्चित ही यह ज़माना और जमाने वाले किसी पहेली से कम नहीं होते। ये मतलबपरस्ती के इस दौर में किसी की सही पहचान कर पाना अत्यंत मुश्किल कार्य है। यही कारण है कि अपनी एक ग़ज़ल में राजेंद्र राज़ लिखते हैं -"कोई ऐसा है कोई वैसा है, न जाने ये ज़माना कैसा है।" इन हालातों में कई बार चुप्पी ही एक मात्र उपाय रहा जाता है। क्योंकि सरकार के दमन के आगे किसी की नहीं चलती। "खामोश रह अदालत जारी है, इंसाफ पर जुर्म की पहरेदारी है।" बदलते सामाजिक परिवेश और प्राकृतिक वातावरण के कारण दिल्ली जिसे महानगर को ध्यान में रखकर लिखते हैं -"धुएं धुएं धकड़ वाली दिल्ली, रेट लोहा लकड़ वाली दिल्ली। मॉल के चमकीले रैपर में लिपटी, फुटपाथी फक्कड़ वाली दिल्ली।।" सत्ता पर काबिज तानाशाह के संबंध में राज़ के विचार स्पष्ट हैं -"वो कातिल है हर एक कत्ल को जायज़ ठहराएगा, जो भी मुखालफत करेगा उसकी वो मारा जायेगा।" इसी क्रम में कुछ और शेर देखें जा सकते हैं -"हां उनकी आंखों में सियासत का गर्द था, मारा गया दाढ़ी वाला, इसलिए दहशतगर्द था।"... "शांति नहीं अब लड़ाई करते हैं, पाकिस्तान पर चढ़ाई करते हैं। मरने दो जो सैनिक मरते हैं, लोग घर बैठे देशभक्ति करते हैं।" इन तमाम खौफनाक सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों और परिस्थितियों में खुद को बचाए रखना भी एक चुनौती है। जिसके लिए कई तरह को सावधानियां और एकजुटता की जरूरत है। यही कारण है कि शायर ने अपनी कई गज़लों में आवाम को कई तरह के सकारात्मक संदेश भी दिए हैं। जैसे वे श्रमिक वर्ग के लिए कहते हैं -" ये बूंद पसीने की तू आंसू में न घोलना, रोना धोना बंद कर सीख इंकलाब बोलना।" इसी तरह रास्ता नामक नज़्म में वे लिखते हैं -"रास्ता कहीं नहीं जाता, रास्ता वहीं रहता है, रास्ते पर लोग चलते हैं। रास्ता बदलता भी नहीं, लोग अपना रुख बदलते हैं। रास्ता होता है पहाड़ में, जंगल में, झाड़ में।" जिसे मनुष्य को खोजना पड़ता है। विकट से विकट परिस्थितियों का हल निकलता नहीं निकालना पड़ता है। इसके लिए जरूरी होती है सामाजिक एकजुटता। और बकौल शायर इस एकजुटता के लिए जरूरी होता है -"वाद रहे विवाद रहे, पर जिंदा संवाद रहे। सवाल है तो पूछना जरूर, जुबान तेरी आजाद रहे।" अब यह सवाल चाहे जिंदगी के सवाल हो, रोज़ी रोटी के सवाल हो या सत्ता की निरंकुशता के सवाल हो। संबंधितों से यथासमय पूछे जाने जरूरी है। तभी हम किसी हल तक पहुंच सकते हैं।

अंत में यदि संग्रह की भाषा की बात की जाए तो इसकी गज़लें हिंदुस्तानी भाषा में लिखी गई हैं l जिसमें हिंदी, उर्दू ,अरबी, फारसी आदि भाषाओं की शब्दावली प्रयुक्त हुई है। यद्यपि लेखक में किसी भी भाषा के प्रति कोई विशेष आग्रह दिखाई नहीं देता है। वह आमबोलचाल के शब्दों को सहज रूप से प्रयोग करता है। अर्थात जो शब्दावली लोक में प्रचलित है वही इनकी गज़लों में स्थान पा गई है। किसी किसी ग़ज़ल में उर्दू शब्दों के प्रयोग की विशेष योजना अवश्य दिखाई देती है किंतु वह भी क्लिष्टता की हद तक नहीं है। प्रतीक प्रयोग में देखा जाए तो कुछेक अपवाद को छोड़कर कुछेक प्रयोग चमत्कृत करते हैं, जैसे सपनों का आंसुओ में घुलना आदि। यद्यपि आंखों की चाशनी जैसे प्रयोग खटकते हैं। सटक, लटक खटक जैसे काफियों का इस्तेमाल भी नागवार गुजरता है। इसके अतिरिक्त विचारधारा के स्तर से रूह, खुदा, राम इबादत, उपवास, सांवरो (कृष्ण) आदि जैसे शब्द प्रयोग अखरने वाले लगते हैं। हालांकि गज़लों में इन प्रयोगों को परंपरागत मानकर छूट दी जा सकती है। ईश्वर, खुदा जैसी मान्यताओं को लेकर शायर में अंतर्द्वंद्व की स्थिति दिखाई देती है। यद्यपि एक रचना में स्त्री विशेष को संबोधित करते हुए लिखा है -"तू कर्म मानती है, तू शर्म मानती है, तू धर्म मानती है, तू भ्रम मानती है, तू नरम मानती है, तू बेरहम मानती है, खाली जगह में हुकुम है, समाज के, सर लादकर चलती है बोझ रिवाज के, तू ये सब मानना छोड़ दे, गुलामी की जंजीर तोड़ दे।" इस तरह की मान्यताओं से रचनाओं में प्रगतिशीलता के तत्त्व दिखाई देते हैं जिनका अभी और अधिक स्पष्ट होना बाकी है। संग्रह में अधिकांश गजलनुमा रचनाएं हैं, कुछेक नसरी नज्म भी लेखक ने संग्रह में समाहित की है। यह अच्छी बात है कि इन रचनाओं के लेखक ने प्रस्तुत संग्रह के माध्यम से किसी भी प्रकार की दावेदारी प्रस्तुत नहीं की है। अर्थात न तो वह स्वयं को शायर की बहुत बड़ी पदवी से खुद को नवाजता है और न ही अपनी गज़लों को ग़ज़ल की परंपरागत कसौटी पर कसी हुई मानकर चलता है। न ही वह स्वयं को गज़लों का बहुत बड़ा अध्येता मानता है और न ही किसी उस्ताद से ग़ज़ल की तालीम लेने या इसलाह आदि लेने लेने की तस्दीक करता है। मेरे अपने अध्ययन के दायरे में, पूरे ग़ज़ल संग्रह में सिर्फ दो शेर ऐसे दिखाई देते हैं, जिनको पढ़कर दो अन्य शायरों के संबंधित शेर बरबस याद आ जाते है। दुष्यंत कुमार का एक शेर है- "तू किसी रेल सी गुजरती है, मैं किसी पुल-सा थरथराता हूं।" कुछ ऐसा ही एक शेर राजेंद्र जी ने कहने की कोशिश की है। वे लिखते हैं - "लम्हे गुजरते रहे रेल जैसे, छाती पटरी सी धड़कती रही।" इसी तरह कुंवर बेचैन के दो मिसरे कुछ इस प्रकार हैं -"शाख से तोड़े गए फूल ने हँस कर ये कहा, अच्छा होना भी बुरी बात है इस दुनिया में।" इसी के समकक्ष राजेंद्र राज लिखते हैं -"अच्छा नहीं होता हर बात का जवाब होना, कभी कभी अच्छा होता है थोड़ा खराब होना।" दोनों शेरों में जो कहन का साम्य और एक जैसा प्रतीक प्रयोग है, वह महज इत्तेफाक माना जा सकता है। कुल मिलाकर राजेंद्र कुमार राज़ का यह प्रथम ग़ज़ल संग्रह उनकी अनुभूति की सच्ची और खरी अभिव्यक्ति है, जिनमें सहज संप्रेषण का गुण विद्यमान है। यही कारण है कि प्रस्तुत संग्रह, शायर और उसकी शायरी के संबंध में अपार संभावनाओं को जन्म देता है। इस आधार पर संग्रह स्वागत योग्य है।

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