हमारे गांव में हमारा क्या है! डा. पूनम तुषामड द्वारा लिखी गई की समीक्षा
बचपन की दग्ध स्मृतियों के आईने से झाँकता एक कवि
- पूनम तुषामड़
अमित धर्मसिंह द्वारा रचित कविता संग्रह हमारे गाँव में हमारा क्या है! सन 2019 में ‘बोधि प्रकाशन’ जयपुर से प्रकाशित हुआ। संग्रह का आवरण पृष्ठ ‘कुंवर रविंद्र ‘ जी ने तैयार किया है, जो अपनी सरलता के साथ शीर्षक को रेखांकित कर देता है। कवि ने यह काव्य संग्रह दलित बच्चों को समर्पित करते हुए लिखा है- ‘उन तमाम बच्चों को जिनका बचपन किसी उत्सव की तरह नहीं, किसी गहरे शोक की तरह बीतता है …’ सदियों के यातनापूर्ण और पीड़ादाई सफर के पश्चात् दलित समाज ने प्रखर संघर्ष के साथ अपनी अभिव्यक्ति को अपनी मुक्ति और स्वाभिमान का हथियार बनाकर प्रयोग करना प्रारम्भ किया है। डा.आंबेडकर ने भी दलितों को गाँव में इसी शोषण उत्पीड़न से मुक्त होने के लिए कहा था दलितों गाँव छोड़ो!
दलित रचनाकारों ने दलित-जीवन के दग्ध अनुभवों को साहित्य की अलग-अलग विधाओं में व्यक्त करना प्रारम्भ किया। शुरुआती दौर में कविताएं एवं आत्मकथा ही मुख्य माध्यम बनीं। दलितों द्वारा लिखी गई अनेक रचनाओं में दलित बच्चों की ग्रामीण जीवन की दुर्दशा का मर्मस्पर्शी वर्णन मिलता है। फिर चाहे ओम प्रकाश वाल्मीकि जी की आत्मकथा जूठन का बालक ‘ओम प्रकाश’ हो या फिर श्योराज सिंह बेचैन जी द्वारा लिखित आत्मकथा मेरा बचपन मेरे कन्धों पर में बालक ‘श्योराज’। दोनों में छुआ-छूत के साथ घोर गरीबी से जूझता दलित बचपन अंतर् को झकझोर देता है।
इसी तरह दलित कविताओं में भी ‘दलित बचपन की पीड़ा को दलित रचनाकारों ने अभिव्यक्त किया है, किन्तु अमित धर्मसिंह का यह कविता संग्रह अब तक लिखित दलित बचपन की दारुण कथा से कई मायनों में विशिष्ट ठहरता है। इस संग्रह में कुल इकतालीस कविताएं हैं। ये इकतालीस कविताएं कवि के अभावपूर्ण मासूम बचपन की पीड़ादाई स्मृतियाँ हैं, जिन्हे दर्ज करना कवि के लिए आसान नहीं रहा होगा, क्योकि इन दुखदायी स्मृतियों को दर्ज करना उस यातनापूर्ण जीवन से दोबारा गुजरने जैसा ही हैं। बचपन में सुभद्रा कुमारी’ चौहान (हिंदी की कवयित्री) द्वारा लिखित कविता मेरा नया बचपन बेहद प्रभावित करती थी। बिना इस बात का एहसास किये कि हमारे बचपन की सच्चाई इस कविता से कोसों दूर है। कविता की पंक्तियाँ थी- बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी/ कहां ले गया तू जीवन की सबसे मस्त ख़ुशी मेरी…चिंता रहित खेलना खाना, वह फिरना निर्भय स्वछन्द /कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद। जाहिर है सामाजिक असमानता और जाति-व्यवस्था का ऐसा निर्मम दंश कवयित्री ने अपने बचपन में नहीं झेला जैसा दलित कवि अमित की कविताओं में अभिव्यक्त हुआ है। जिसे न तो भुलाया जा सकता है और न ही याद रखा जा सकता है क्योंकि उसे याद रखना बेहद तकलीफदेह है।
कवि की पहली ही कविता गाँव की धूल -धूसरित दलित बस्ती की जीर्ण-शीर्ण जीवन शैली में पलते मासूम मन की प्रश्नाकुलता की प्रखर अभिव्यक्ति है- दूसरों के कुबाड़े से माचिस के तास चुगकर खेले, दूसरों की कुर्डियों से पपैया फाड़के बजाया, दूसरों के खेतों से बथुआ तोड़के लाए /आलू चुगकर लाए, दूसरों के खेतों में ही गन्ने बुवाते/ धान रोपते / काटते, दफ़न होते रहे हमारे पुरखे /दूसरों के खेतों में ही...कवि आगे कहता है- ये खेत मलखान का है / वो ट्यूबवेल फूलसिंह की है, ये दुकान लाला की है… और इस तरह गाँव के मंदिर, धर्मशाला, बाग़ ,कोल्हू आदि स्थान पर भी दूसरों का कब्ज़ा है तो कवि का बाल मन व्यथित होकर पूछता है कि जहाँ कुछ भी अपना नहीं तो वह गाँव हमारा कैसे हुआ? यहाँ हमारा क्या है ? वैसे तो दलित बच्चो का जीवन गाँव हो या शहर आर्थिक तंगी में बहुत कुछ एक जैसा ही होता है किन्तु गाँव में ये स्थिति और भी क्रूरतम रूप अख्तियार कर लेती है। जैसा आप कवि अमित की इन कविताओं में देख सकते हैं। एक कविता है ‘बचपन के पकवान’ जिसमें कवि बेहद साहस से वह भी कह जाता है, जो शायद कोई भी रचनाकार इतनी सहजता से नहीं कह सकता अथवा स्वीकार सकता है – आज तो हद ही हो गई /एक गांडा तोड़ने पर घटानिया ने / सोनबीरी बुढ़िया पर बजाते- बजाते/गांडा ही तोड़ दिया/हम माँ को निगाह से टटोलते/कहीं माँ लंगड़ा तो नहीं रही/…माँ हमें जंगल में जाने पर डांटती/ जंगल में चोर था/जंगली जानवर होने की बात कहती /जगबीरी ,सोनबीरी बुढ़िया की कहानियां सुनाती/इस पर हम भी गुस्सा करते/ फिर तू क्यों लाती है चोरी के कद्दू तोड़के/ माँ चुप हो जाती, मजाल कि उसने कभी वजह बताई हो। भारतीय गाँव शोषण के वीभत्स केंद्र हैं, जहाँ दलितों की स्थितियां दो दशक पहले तक भी बेहद क्रूर रही हैं। ये कितनी बड़ी विडम्बना है कि एक माँ को दूसरों के यहाँ जी-तोड़ मेहनत करने के पश्चात् भी अपने बच्चों का पेट भरने के लिये खाने की वस्तुओं की चोरी करनी पड़े। पढाई के टोटके कविता में कवि बेहद मासूमियत के साथ अपनी पारिवारिक दरिद्रता को दर्शा जाता है- घर पर भूखे पेट स्कूल जाने की महिमा बताई जाती/ कुछ खाने को मांगते तो डांटा जाता/ जब सूबा सुबाई पेट में रोट्टी ठूंस लोगे तो दिमाग में क्या गोबर भरेगा?
इन कविताओं में आप न तो भाषिक चातुर्य देखते हैं और न ही शब्दों की जादूगरी। ये कवि के दग्ध बचपन के अनुभव से उपजी मार्मिक अभिव्यक्ति है। जिसमें केवल कवि की अपनी गंवईं जीवनशैली और उसी गंवई परिवेश में रची-बसी भाषा है, जिसे कवि ने ज्यों का त्यों यहाँ रख दिया है। कवि की कविताओं में ग्रामीण परिवेश की रोज-बरोज की वस्तुओं के ऐसे नाम व शब्द प्रयोग हुए हैं जिनसे शायद आम पाठक या जनमानस परिचित भी नहीं है। किन्तु कविता का पाठ करते हुए ये शब्द अपने अर्थ स्वयं बयां कर जाते हैं। जैसे एक कविता है लुभाया /रूंगा। इस कविता में आये इन शब्दों से स्वयं मैं भी परिचित नहीं थी। किन्तु इन कविताओं को पढ़कर ऐसे अनेक शब्दों के अर्थ आपको, न केवल पता चलते हैं, बल्कि ये शब्द अपने अर्थों के साथ जुडी कथा से भी भावात्मक जुड़ाव महसूस करा देते हैं। इस संग्रह की कविताओं की ये खासियत है कि किसी एक क्षेत्र विशेष के ग्रामीण परिवेश में बोले जाने वाले उन शब्दों ,वस्तुओं के नामों को एक जगह बड़ी ही तरतीब से प्रयोग किया गया है, जो तेजी से बढ़ते शहरीकरण और बाजारवाद के कारण अपने वास्तविक नाम और अर्थ खोते जा रहे हैं या बाज़ार ने जिन नामों और शब्दों को अपनी सुविधानुसार बदल दिया है। परिणामस्वरूप भाषा को समृद्ध करने वाले ये शब्द विलुप्त होने के कगार पर हैं। मगर इन शब्दों को बचाने का कार्य इस संग्रह की कविताओं में बड़े ही खूबसूरत ढंग से हुआ है। इसका बेहद सुन्दर उदहारण कविता घास में देखा जा सकता है- चांदनी, बेकस, भांतल, मौथा, बरटा, बर्टी, तमाखू, दूबड़ा, भंगरा, भांग, रूस, कांस, पपोटन, दिदोफाड़ी, भभोलन, बेल, खरैटी, बंदरी, पालक, घेवड़, जरघा, कनवा, सेरु, दाब, बेंघला... और न जाने कितने ही ऐसे शब्द इस एक कविता में संजोये गए हैं, जिनका देसीपन कविता में बचा हुआ है। जबकि आजकल ग्रामीण अंचलों में लिखी जाने वाली रचनाओं से भी शब्दों की ये ख़ूबसूरती गायब हो रही है।एक अन्य उदाहरण… दोनों हाथ अंजुली बने फ़ैल जाते/दूकानदार के आगे /बाब्बा जी ‘लुभाया’? बाब्बा जी लुभाया दे दो/ मुरमुरे ,चने ,दालसेल या बहुत सी चीजों का कचूरा / होता था लुभाया/ लुभाया हमारे लिए बाकी सामान से/ ज्यादा एहमियत रखता था…
कवि अमित धर्मसिंह की कविताओं में बेशक आपको कविता की लयात्मकता, भाषिक संस्कार, छंदबद्धता या छन्दमुक्त कविता की प्रभावित शैली नहीं दिखेगी, क्योंकि ये कविताए कवि के दलित बचपन के वे भिन्न-भिन्न पहलू हैं, जिनसे कवि हमें परिचित कराता चलता है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज तक भी दलितों को शिक्षा से दूर रखा जाता है। कहीं-कहीं तो ‘बंधुआ ‘मजदूरी प्रथा आज तक भी विद्यमान है। गाँवों में दलित बच्चों के काम करने को सहजता से लिया जाता है। स्वयं परिवार के लोग भी उनकी शिक्षा के प्रति बहुत जागरूक नहीं होते, इसलिए बच्चों से काम में हाथ बंटाने को लेकर कोई प्रतिवाद नहीं होता; किन्तु अनजाने में ही मासूम बचपन ‘शिक्षा’ के अलावा और कौन-कौन से भार उठा रहा है इसका अंदाज़ा तक किसी को नहीं होता। इस संग्रह की एक कविता घास को पढ़कर ग्रामीण बच्चों के जीवन की संघर्षमई चुनौतियों को समझा जा सकता है- “गर्मियों में स्कूल आठ बजे का होता- स्कूल जाने से पहले घास लाना होता/ मोहल्ले के कई बच्चे थे हम/ जो सुबह पांच बजे उठके हाथ में दांती -चाल लिए/ घास को जाया करते… आज सरकार शहरी स्कूलों में ‘वोकेशनल एजुकेशन’ के माध्यम से बच्चों को कार्य-कुशल बनाने के अनेक तरह के कोर्स शुरू कर रही है, जिनका जिक्र ‘केंद्रीय शिक्षा नीति’ में किया गया है। किन्तु क्या कभी सरकार ने इतनी गंभीरता से ग्रामीण स्कूलों में पढ़ रहे दलितों के मासूम बचपन का मूल्यांकन किया है? कवि अमित की ये कविता इसका सशक्त उदाहरण हैं। ये कविताएं उनके जिए-भोगे यथार्थ का सजीव चित्रण है। जिसे शब्दबद्ध कर पाना कवि के लिए भी सहज नहीं रहा होगा। क्योंकि इस संग्रह की कई कविताएं आपको पाठ करते हुए भावविह्वल कर देंगी। जैसे इस संग्रह की एक कविता है बरसात। बरसात में टपकते हुए घर /छत या छप्पर का जिक्र हिंदी साहित्य और दलित साहित्य दोनों में अनेक बार आया है। किन्तु जो स्थिति ‘बरसात’ कविता के माध्यम से अमित धर्मसिंह की कविता में व्यक्त हुई है, ऐसी स्थिति की कल्पना मात्र से देह में अजीब-सी सिंहरन पैदा हो जाती है। जब कवि कविता के अंत में कहता है- रिजाइ पर पड़ती बारिश की एक-एक बून्द हमें/ भूरी भैंस की पीठ पर पड़ते ओले की तरह महसूस होती/ मन भीतर-भीतर रींकता रहता। ऐसी ही एक अन्य कविता है नुस्खे, जिसमें कवि दरिद्रता की उन स्मृतियों को भी बेबाकी से बयान करता है जो स्थितियां दलित साहित्य में आज तक स्थान पाने का साहस नहीं कर सकी हैं- एक जोड़ी कपड़े /कई-कई दिन पहनने से /कपड़ों में जुंएं और बदन में खाज हो जाना आम बात थी/ ऐसा अक्सर सर्दियों में होता…/नेकर पहनने वाली जगह तो/ बुरा हाल हो जाता/ लगातार खाज आती रहती वहां/ खुजाते तो मजाक बनती/ न खुजाते तो जान पर बनी रहती… इस तरह के मर्माहत करने वाले न जाने कितने ही अनुभव इन कविताओं में दर्ज़ हैं।
कवि ने बचपन में सुने जाने वाले बहुत से किस्सों और अंधविश्वासों का जिक्र भी बहुत बारीकी के साथ किया है और बड़ी निर्ममता से कई अंधविश्वासों को तोड़ा भी है। टोट्टे की निशानी, छलावा, टोटके, और ‘डागडर’ कवि के जीवन में घटित ऐसी ही घटनाओं पर लिखी कविताएं हैं। कविता टोट्टे की निशानी की बानगी इन पंक्तियों में देखि जा सकती है- बड़े-बूढ़े टोट्टे की तीन निशानी बताते -टूटी खाट, फूटे बर्तन, फटे पुराने कपडे/तीनों हमारे घर में थीं! कवि अमित इस पूरी कविता में बताते हैं कि जिन्हें समाज में ‘टोट्टे की निशानी’ कहा जाता है। दरअसल, यह तो हमारे घर और जीवन की नियति थी। संदेह नहीं कि ये कविताएं बचपन को आधार बनाकर रची गई हैं, इसलिए इन कविताओं में दलित चेतना की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। ये कवि के बाल मन में अंकित वे दृश्य हैं, जिन्हें स्मृति से मिटा पाना कवि के लिए सरल नहीं रहा। कवि अमित के बचपन की इन स्मृतियों में रिश्तों के प्रति एक सहज निश्छलता है। यहाँ माँ -पिता भाई -बहन ,चाचा, ताऊ और ननिहाल के सभी रिश्तों का व्यवहारिक वर्णन है, जो कवि की संवेदनशीलता और बालक अमित की अभाव जनित विवशता को दर्शाता है। ‘ख़ामोशी’ कविता में ‘पिता’ का जिक्र करते हुए कवि कहता हैं- हमने पापा से बहुत ज्यादा बात नहीं की/
उसके सुख-दुःख के बारे में/ उनकी इच्छा-अनिच्छा के बारे में/ उनकी थकन के बारे में तो बिलकुल नहीं!…पापा छोटे थे तो/ होश सँभालने से पहले/ माता पिता छोड़ गए/ भाई-भाभी ने पाला/…हमसे अपना दुःख क्या कहते पापा/ हम तो बच्चे थे उनके/ और एक बच्चे का दुःख क्या होता है/ पापा से बेहतर कौन समझ सकता है। प्रलाप-एक और ‘प्रलाप-दो शीर्षक से छोटी बहन ‘अनीता’ और छोटे भाई ‘पिन्नु’ की मृत्यु का विह्वल विलाप या कहें कि कवि का आत्म प्रलाप दर्ज है… उस दिन शाम को/पापा काम से आए/माँ जंगल से आई/ हम भी कहीं -कहीं धक्के खा कर घर आए/ मगर अनीता घर से जा चुकी थी/ हमारा दिया खटोला छोड़कर। प्रलाप दो – रिक्शा आधी किलोमीटर भी न चली थी/ कि पिन्नु शांत हो गया/ और घर वाले बैचैन…/ एक दूसरे का मुंह ताकते नानी और माँ, दहाड़े मारने लगीं।
ये रुदन, ये विलाप न जाने कितने दलित बचपनों के जीवनानुभवों में निहित सामूहिक विलाप होगा, किन्तु संवेदना के चरमोत्कर्ष तक पहुंचने का साहस जैसा कवि अमित के इस संग्रह में दीखता है, वह अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं देता। फिर भी इस संग्रह को पढ़ते हुए एक बात ने मुझे बार-बार कचोटती रही कि काश! अमित ने अपने बचपन की इन सब घटनाओं को कविता के रूप में न लिखकर साहित्य की किसी अन्य विधा में अभिव्यक्त किया होता तो ये अनुभव शायद ज्यादा प्रभावशाली शैली में दर्ज़ किये जा सकते थे। मसलन संस्मरण, डायरी या फिर आत्मकथ्य की शैली में बचपन की इन घटनाओं को आत्मकथा के एक अंश के रूप में प्रकाशित किया जा सकता था…किन्तु ये कवि का अपना चयन है कि उन्होंने अपने बचपन की हर छोटी से छोटी घटना का वर्णन काव्य रूप में बेहद बारीकी से किया है। ऐसा नहीं है कि कवि अमित धर्मसिंह को कविता का अनुभव नहीं है या वे कविता की शैली नहीं जानते। इस संग्रह की अंतिम कविता के रूप में स्कूल की कॉपी में लिखी गई उनके बचपन की “पहली कविता” ही कविता की कसौटी पर खरी उतरती है…देख नीरस संसार के सुख/बन्दे क्यों ललचाता है?/होकर पागल इनके पीछे/ क्यों अपना मान घटाता है/ इस संसार में कोई भी खुद की तेरी चीज़ नहीं!/अकेला आता है अकेला जाता/ क्या इससे आई तमीज़ नहीं? कुल मिलाकर। हमारे गाँव में हमारा क्या है! संग्रह को कवि अमित धर्मसिंह की आत्मकथ्य का एक पड़ाव बचपन की दग्ध स्मृतियों के रूप में देखा जा सकता है, जो पाठकों के मन-मष्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ता है।
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काव्य संग्रह : हमारे गांव में हमारा क्या है!
कवि : अमित धर्मसिंह
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर,
पृष्ठ, 168, मूल्य : 175₹
पूनम तुषामड़ चर्चित युवा कवियत्री और आलोचक हैं।
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