प्रो. के. एन. तिवारी के उपन्यास उत्तर कबीर नंगा फकीर की समीक्षा

 विहंगावलोकन



कबीर और गांधी के बहाने लोकतांत्रिक भारत की सुध लेता उपन्यास : उत्तर कबीर नंगा फकीर

                                              - डा अमित धर्मसिंह

          आजादी के अमृत महोत्सव के समय में प्रकाशित होकर आया प्रो. कैलाश नारायण तिवारी का उपन्यास 'उत्तर कबीर नंगा फकीर' असल में कबीर और गांधी के बहाने आधुनिक भारत या कहिए लोकतांत्रिक भारत की गंभीरतपूर्वक सुध लेता है। वह इस समय के लोकतंत्र, समाज और राजनीति की गांठे खोलकर रख देता है। कबीर को देवलोक से उतारना और उसे काशी में भ्रमण करवाना लेखक की मौलिक कल्पना से संभव हो पाया है। देखा जाए तो कबीर के पुनरागमन के बहाने लेखक देश के वर्तमान हालात की स्वयं सुध लेना चाहता है। लेखक की यह सुध बहुआयामी है। उपन्यास मध्यकालीन भारतीय परिवेश और वर्तमान परिवेश के भेद विभेद को भी उजागर करने में सफल दिखाई पड़ता है। कबीर के बहाने लेखक की चेतना सामाजिक और राजनीति रूप से इतनी समृद्ध दिखाई पड़ती है कि भारतीय समाज और उसका राजनीतिक परिवेश, उपन्यास के बढ़ते क्रम में एक-एक करके खुलता चला जाता है। एक बानगी (जिसमें कि कबीर दृष्टा के रूप में मौजूद है) देखिए -"कबीर उन लोगों का संवाद सुन हतप्रभ थे। उनके भाषण से एक ऐसा भारत नजर आ रहा था, जहां लोकतंत्र के नाम पर कोई कुछ भी कह सुन सकता है। वे गंभीर होकर सोचने लगे - हिंदुओं और मुसलमानों में तो मेरे जमाने में भी मतभेद थे। कट्टरता थी। दूरियां थीं। लोग एक दूसरे से डरे सहमे भी थे। परंतु खुलेआम घृणा फैलाने की छूट किसी को नहीं थी। क्या इसी को लोकतंत्र कहते हैं?" (पृष्ठ, 31) कबीर के बहाने उठाया गया यह प्रश्न निराधार नहीं है। कबीर अपने समय में जिस प्रकार का लेखन कर पाए क्या आज वैसा लेखन संभव है? हिंदू मुस्लिम एकता के जितने बेजोड़ उदाहरण मध्यकालीन भारत में मिलते हैं क्या वैसे उदाहरण आज देखने को मिलते हैं? सभवतः नहीं; क्योंकि भारत की आजादी की लड़ाई के दौरान ही कुछ कट्टरपंथियों ने हिंदू मुस्लिम के बीच की खाई को इतना बढ़ा दिया था कि उसे आज तक पाटा नहीं जा सका है। इस संदर्भ में कबीर की बेचैनी या कहिए लेखक की चिंता स्पष्ट देखी जा सकती है -"कबीर को अहसास हुआ - भारतीय समाज कई मायनों में अभी भी जड़ता में ही जी रहा है। सचमुच खुदा इन पर रहम करें। इन्हें सद्बुद्धि दे। कबीर का आहत मन चैन नहीं ले रहा था। रात दिन एक ही बात पर विचार करते - धर्म क्या है? जाति क्या है? जब खालिक में खलक और खलक में खालिक तो भेद कैसा? जब एक ही तत्त्व की है प्रधानता तो झगड़ा किस बात का? धर्म तो लोगों को प्रेम और सहिष्णुता की भाषा सिखाता है। फिर यह कैसा विचार? कैसी सोच? कबीर अपने प्रश्नों में डूबे हुए थे। लगातार उत्तर की तलाश कर रहे थे। सत्ता प्राप्ति करने वाले दलों की करतूतों में उलझे हुए थे।" (वही पृष्ठ 31) इन्हीं उलझनों, चिंतनाओं और प्रश्नों से जूझते हुए उपन्यास आगे बढ़ता है या कहिए कि कबीर की काशी भ्रमण यात्रा आगे बढ़ती है।

          यह यात्रा समाज के विविध पहलुओं से होकर गुजरती है। स्कूलों में शिक्षा के गिरते स्तर की बात करें या राजनीति के गिरते स्तर की, सभी में कबीर को निराशा हाथ लगती है। कबीर देखते हैं कि राजनीति में भाई भतीजावाद, जातिवाद का बड़ा बोलबाला है। जनता राजनेताओं के द्वारा किए गए विभाजनों में बंटने को मजबूर है। किसी को भी देश की चिंता नहीं रह गई है। सब अपने-अपने हितों और संबंधों के गुलाम हो चले हैं। आजादी के बाद भारतीय राजनीति का जो परिवेश उभरकर सामने आया, उसमें जातिवाद के अलावा हिंदू मुस्लिम के सामाजिक विभेद बहुत अधिक उभरकर सामने आएं हैं। दोनों एक दूसरे पर हावी होने के लिए न सिर्फ प्रयासरत दिखाई पड़ते हैं बल्कि एक दूसरे से सत्ता शासन छीनने को भी आतुर दिखाई देते हैं। दोनों का देश के सर्वजनीन विकास पर जरा भी ध्यान केंद्रित दिखाई नहीं देता है। समाज और राजनीति के इस बिगड़े स्वरूप को देखकर कबीर को अफसोस होता है। वे दिन रात एक ही बात सोचते हैं - "जहां पीने को पानी नहीं, रहने को घर नहीं, रोज़ी रोटी के लिए कल कारखाना नहीं। बल्ब जलाने के लिए बिजली नहीं। वहां इतनी बड़ी खामोशी? घर के सामने से बहती मलमूत्र से बजबजाती नालियां, टूटा-फूटा अधखुला मेनहाल और उबड़ खाबड़ टूटी-फूटी सड़कें इन बेचारों को क्यों नहीं दिखती? क्यों इन्हें जाति और धर्म ही दिखता है? क्यों नहीं ये अपनी घृणित, संकीर्ण सोच से ऊपर उठते?" (पृष्ठ 35) कबीर की ऐसी चिंता अपने पूर्व स्वभाव के अनुरूप ही दिखाई देती है। जिस तरह उत्तर मध्यकाल के समय कबीर हिंदू और मुसलमान दोनों को समान रूप से फटकार लगाते हैं, ठीक उसी तरह काशी भ्रमण पर निकले आज के कबीर भी सबकी गलतियों को निरपेक्ष भाव से जांचते परखते हुए चलते हैं। कबीर दोनों के कटरपंथी स्वभाव पर बड़े खिन्न होते हैं। विवेक तथा मतीन के बहाने दोनों से सवाल करते हैं लेकिन कबीर को दोनों ही ओर से कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिलता और न ही दोनों ओर संतोषजनक हालात नजर आते हैं। वे पूर्व की तरह फिर से सोचने पर मजबूर हो जाते हैं। "अनेक स्मृतियां उनके जेहन में धमा चौकड़ियां मचाने लगीं। उन्हीं में से एक वह थी जिससे कबीर जूझते हुए स्वयं से पूछ रहे थे -"साधो ! विवेक और मतीन के रिश्ते कब सुधरेंगे? अब तो यहां लोकतंत्र है। कानून का शासन चलता है - भारत में। फिर विवेक का 'विवेक' कब जागेगा साधो? कब? कब मतीन को समझ आएगी? कब शंभू की पीड़ा समाप्त होगी? कब नेताओं की स्वार्थपूर्ण भावना राष्ट्रहित में बदलेगी? महंगाई, सफाई और पढ़ाई में कब सुधार होगा? कब? कब?" (पृष्ठ 51) 

          देश की उक्त तीन बड़ी समस्याएं तो हैं ही साथ ही एक समस्या और है जिसकी ओर लेखक का ध्यान जाता है। कबीर को जो समस्या आज के भारत में दिखाई पड़ती है। वह समस्या है - बेरोजगारी। बेरोजगारी किसी भी देश के युवाओं की सबसे बड़ी समस्या होती है। इसकी वजह से न सिर्फ युवा पिछड़ते हैं बल्कि देश को भी इसका नुकसान उठाना पड़ता है। इस ओर कबीर के माध्यम से लेखक ने संज्ञान इन शब्दों में लिया है- "लाखों-लाखों बेरोजगार युवक हाथ पसारे खड़े हैं। करने को इनके पास कोई काम नहीं। न ही रोजगार पाने का कोई जरिया। देश के नवयुवक करें भी तो क्या करें? कहां जाएं? किससे कहें? राहें दिख नहीं रही थी। नेता लोग वादे पर वादे करते जा रहे थे। पर परिणाम तो हमें शून्य ही नजर आ रहा था।" (पृष्ठ, 56) इतनी विकट स्थिति और कुछ कहते न बने तो स्थिति और अधिक भयावह हो जाती है। ऐसी ही कुछ लोकतांत्रिक देश की स्थिति है। इसमें निरंतर हालात बिगड़ते जा रहे हैं, जिसके विरुद्ध आवाज उठाना कुछ इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि देश की आधे से अधिक जनता अपनी मूलभूत समस्याओं को लेकर इतनी उलझी हुई है कि वह किसी भी प्रकार का विद्रोह करने में अशक्त है। इसकी जितनी जिम्मेदार निरीह और अशक्त जनता है उतने ही जिम्मेदार छुटभैये नेता हैं जो देश की आजादी। के बाद से भारतीय राजनीति में सक्रिय रहे हैं। इन्होंने गांधी की मनमाफिक व्याख्या तो की ही है साथ ही गांधी का राजनीतिक उपयोग भी किया है। कुछ तो स्वयं को गांधी का प्रतिरूप बताते आ रहें हैं लेकिन असल में वे हैं बहुरूपिए। उपन्यास के प्रथम परिच्छेद में जब कबीर काशी भ्रमण करके वापस देवलोक लौटते हैं तो उनकी भेंट और विस्तृत संवाद राष्ट्रपिता गांधी से होती है। दोनों में उक्त संदर्भ को लेकर बात होती है। इसी में कबीर गांधी को उनके दुरुपयोग के विषय में बताते हैं। "जब मैं काशी में था तो कई गांधियों का नाम सुनता था। वहां दो चार तो अपने ही मुहल्ले में मिले थे। उनका भी नाम गांधी ही था। लेकिन वे आप जैसे नहीं दिख रहे थे। उन्हें देखकर लगता था कि वे नाम से गांधी हैं, कर्म से बिलकुल सड़क छाप।" (पृष्ठ, 60) इससे साफ पता चलता है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी गांधी के स्वराज का सपना अभी अधूरा ही है। आज जबकि देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है ऐसे समय में यह उपन्यास देश की वास्तविक आजादी के संदर्भ में वाजिब सवाल खड़े करता है।

          इतना ही नहीं उपन्यास के तीसरे परिच्छेद में गांधी को भी सवालों के कटघरे में खड़ा किया गया है। खासतौर से देश के विभाजन के संदर्भ में। गांधी के दुख और कमियों की पड़ताल के संदर्भ में लेखक, कबीर को पुनः काशी की गलियों और अड़ियों का भ्रमण करता है जहां विमर्शकार विमर्श किया करते हैं। ये विमर्शकर मानों कबीर से पूछ रहे हैं -"कहो भाई संत! गांधी से सिर्फ सपनों वाली ही बातें करोगे या हम लोगों का भी दर्द बतलाओगे? पूछोगे नहीं उनसे कि भारत को बेवजह क्यों बांट दिया गया? और यदि बांट भी दिया गया तो आज भी समस्याओं का हल क्यों नहीं हुआ? सांप्रदायिकता क्यों नहीं खत्म हुई? आपके लोग आपकी नीतियों पर क्यों नहीं चलें? बांटें भी तो क्या जरूरत थी देश के सीमावर्ती प्रांतों को अलग दर्जा देने की? चौंतीस करोड़ देशवासी क्या कम थे जो जन - नियंत्रण हेतु कानून नहीं बनाएं?" (पृष्ठ 134)। देश के विभाजन और गांधी के बाद भी देश के बहुत से ऐसे मुद्दे और समस्याएं हैं जो अनसुलझे रह गए हैं। फिर चाहे बात सांप्रदायिक की हो, कश्मीर की समस्या की हो या कि जनसंख्या नियंत्रण आदि की हों। सबको लेकर गांधी की भूमिका की पड़ताल उपन्यास में की गई है। साथ ही गांधी के देशव्यापी योगदान पर भी विस्तृत विचार किया गया है। इसके अलावा लेखक के चिंतन में जनता की भूमिका भी रही है। इसके विषय में उपन्यास का एक पात्र विनोद कहता है -"इस देश की तो यही मुसीबत है। लोग जहालियत की जिंदगी जीते हैं। पर प्रतिरोध नहीं करते। आक्रोश तो दिखता ही नहीं किसी में। जानना ही नहीं चाहते कि उनकी कठिनाइयों का जिम्मेदार कौन हैं? वे खुद या सत्ता? या कोई और? सबकुछ ईश्वर की देन समझ चुप बैठे रहते हैं। और रात दिन अपनी किस्मत को कोसा करते हैं।" (पृष्ठ, 136) कबीर और गांधी अपने-अपने समय और अपने-अपने संदर्भों में बड़े चिंतक और समाज सुधारक रहे लेकिन दोनों के प्रयासों का संतोषजनक हल आज तक नहीं निकला। इसके जिम्मेदार जितने स्वनामधन्य नेतागण हैं उतनी ही जिम्मेदार देश की मूर्ख जनता है। तभी तो देश आज भी अधर में लटका हुआ है। इस विषय में प्रो. कैलाश नारायण तिवारी जी का यह उपन्यास बड़ी बारीकी से पाठक का ध्यान आकर्षित करता है और देश की जनता के सामने कई महत्त्वपूर्ण सवाल रखता है। लेखक स्वयं भी इन सवालों से लगातार जूझता है और हल तलाशने की कोशिश करता है। साथ ही कबीर और बापू संवाद के माध्यम से भारतीय जनमानस के साथ, तथाकथित लोकसेवकों को यह सलाह भी देता है कि " भारतीय लोकसेवक यदि सोच सकें तो यह सोचें कि गलतियां कहां हुईं। आपके दृष्टिकोणों को क्यों नकारा? आपकी ग्राम्य योजनाओं में क्या कमियां थीं? आम लोगों में भ्रष्ट आचरण की भावना कैसे बढ़ती गईं? क्या संविधान से न्याय पाने की उम्मीद नहीं थी? महत्मा! यदि लोग सोच सके तो यह सोचना चाहिए कि जो देश अपनी विरासत में सत्य और निष्ठा का का पालक था, सात्विक और सहिष्णु भावों से लबालब था- वह धीरे-धीरे घोर पतन की ओर कैसे बढ़ता गया?" (पृष्ठ, 202)।

          इस प्रकार देखा जाए तो उत्तर कबीर नंगा फकीर उपन्यास लोकांत्रिक भारत की विविध संदर्भों में सुध लेता है और संबंधितों को सवालों में घेरता है। यह आजाद भारत के नेताओं और जनता, दोनों की भूमिका पर सवाल खड़े करता है। कबीर के समाज सुधार और गांधी के सपनों के भारत को समाजोन्मुख रखता है। कांग्रेस और उसकी राजनीति व नीतियों की तरफ बड़ी बारीकी से ध्यान आकर्षित करता है। काशी की गलियों और अडियों में चलने वाली विमर्शकारों की बहसों को जनसम्मुख रखता है। आम जन की राजनीतिक समझ और बहसों को सामने लाता है। वर्तमान लोक-परिवेश, लोकशाही और लोकसेवकों की पोल खोलता है। इसके विपरीत कुछेक सवाल को भी जन्म देता है जैसे देवलोक का चित्रण किया जाना क्या आज के साहित्य और दृष्टियों के अनुकूल है? कबीर द्वारा गांधी को बापू कहलवाना कहां तक संगत है जबकि कबीर गांधी से करीब चार शतक पूर्व जन्में थे। दोनों की निर्गुण और सगुण उपासना के सम्मिलन को किस प्रकार लिया जाए? कांग्रेस, नेहरू और गांधी परिवार को प्रमुख रूप से सवालों के कठघरे में रखना, जबकि हर चीज के जिम्मेदार तो वे भी नहीं हैं आदि कई और ऐसे सवाल हैं जिनके माध्यम से प्रस्तुत उपन्यास की कथावस्तु पर प्रश्नचिह्न लगाए जा सकते हैं। हालांकि, कथावस्तु का चयन करना और उसे अपने ढंग से बुनना लेखक का व्यक्तिगत और साहित्यिक अधिकार होता है, इस आधार पर उपन्यास पर लगाए जाने वाले तमाम सवाल निराधार भी हो सकते हैं। बहरहाल, उपन्यास न सिर्फ देश के वर्तमान हालात के जिम्मेदारों पर वाजिब सवाल खड़े करता है बल्कि कई प्रकार के सवालों में स्वयं भी आ घिरता है। यह भी कि उपन्यास कई गुत्थियां सुलझाता भी है और कई नई बहसों को जन्म भी देता है। इस आधार पर पाठक, समीक्षक, आलोचक आदि अपने-अपने ढंग से उपन्यास का पाठ और व्याख्या कर सकते हैं। कुल मिलाकर, ज्वलंत विषय, इतिहास और देश को केंद्र में रखकर लिखा गया यह उपन्यास निश्चित ही पठनीय और विचारणीय है।

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15/11/2022

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