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Showing posts from June, 2019

प्रवासी साहित्य

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प्रवासी साहित्य और हिन्दी का अन्तर्राष्ट्रीयकरण                                         ©अमित धर्मसिंह आज़ादी के बाद से हिन्दी का पर्याप्त प्रचार-प्रसार हो रहा है। ख़ासतौर से फ़िल्मों, सोशियल मीडिया और साहित्य के माध्यम से। हिन्दी में छपने वाले समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ भी इसके प्रचार-प्रसार में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। ”सूचना तथा ज्ञान के इस युग में भारत की यह ऐसी उपलब्धि है, जिससे हिन्दी के साथ सभी भारतीय भाषाओं का प्रचार-प्रसार बढ़ेगा। हिन्दी के बढ़ते चरण संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वार पर बराबर दस्तक दे रहे हैं। अपने देश में संपर्क भाषा के रूप में उभरकर आने वाली हिन्दी भाषा विश्व के मानचित्र पर अपना दृढ़ स्थान बनाती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ की यूनिवर्सल नेटवर्किंग लैंग्वेज (UNL) के लिए शब्द कोश, एन.कन्वर्टर और जी.कन्वर्टर के विकास करने हेतु जिस संस्थान की स्थापना हुई है, उसकी मुख्य एजेंसी मुंबई का भारतीय प्रोद्यौगिक संस्थान ही है। यह संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय का ऐस...

मोब लिंचिंग

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मोब लिंचिंग के प्रतिरोध में कविता। @Prof. Gopeshwar Singh sir की वाल से साभार 1.प्रक्रिया मैं क्या कर रहा था जब सब जयकार कर रहे थे? मैं भी जयकार कर रहा था- डर रहा था जिस तरह सब डर रहे थे। मैं क्या कर रहा था जब सब कह रहे थे, 'अजीज मेरा दुश्मन है ?' मैं भी कह रहा था, 'अजीज मेरा दुश्मन है।' मैं क्या कर रहा था जब सब कह रहे थे, 'मुँह मत खोलो?' मैं भी कह रहा था, 'मुँह मत खोलो बोलो जैसा सब बोलते हैं।' ख़त्म हो चुकी है जयकार, अजीज मारा जा चुका है, मुँह बंद हो चुके हैं। हैरत में सब पूछ रहे हैं, यह कैसे हुआ? जिस तरह सब पूछ रहे हैं उसी तरह मैं भी, यह कैसे हुआ?            -श्रीकांत वर्मा, 'जलसाघर' (1973) से (अजीज की जगह तबरेज पढ़िए। यह कविता आज भी प्रासंगिक लगती है) 2. ...इस भयानक समय में कैसे लिखूं कैसे नहीं लिखूं! सैकड़ों वर्षों से सुनता आ रहा हूँ घृणा नहीं, प्रेम करो- किससे करूँ प्रेम? मेरे चारों ओर हत्यारे हैं! नागरिको! सावधान, रास्ते के दोनों ओर बधिक हैं- --- कुहरे में डूब गए हैं कुछ नारे, धूल में पड़े...

बिसात

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समीक्षा साहित्य और समाज की पोल खोलता उपन्यास: बिसात                                                    - अमित धर्मसिंह ‘बिसात’ हास्य-व्यंग्य के कवि नेमपाल प्रजापति का सद्यप्रकाशित उपन्यास है। ‘बिसात’ की सर्वाधिक अच्छी बात यह है कि यह सुपाठ्य है। इस पर चर्चा-परिचर्चा की जा सकती है। कोई पुस्तक पठनीय हो और उस पर चर्चा के विभिन्न मार्ग खुले हों, यह बात इसलिए भी खास है कि संचार क्रांति के इस युग में पुस्तकों का हाल क्या है, किसी से छिपा नहीं। मोबाइल-इंटरनेट के आकर्षण को परास्त करती कोई पुस्तक यदि पाठक को बाँध लेने में सक्षम और सफल साबित होती है तो यह साहित्य और साहित्यकार दोनों की उपलब्धि मानी जानी चाहिए। यह जानना रुचिकर होगा कि ‘बिसात’ में ऐसा क्या है जिसके कारण पाठक इसे पूरा पढ़कर ही दम लेता है। संभवतः इसलिए कि यह पुस्तक अपने आपमें कई पाठ समाहित किये हुए है। उत्तर-संरचनावाद के इस दौर में ‘बिसात’ न सिर्फ पाठ-केन्द्रित है बल्कि पाठक-केन्द्रित भी है। पाठक ...

अभिशप्त कथा

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‘अभिशप्त कथा’ में नारी विषयक अध्ययन अमित धर्मसिंह शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय ‘अभिशप्त कथा’ हिन्दी के वरिष्ठ लेखक मनु शर्मा द्वारा लिखित उपन्यास है। ‘कृष्ण की आत्मकथा’, गान्धारी, द्रौपदी, द्रोण, कर्ण आदि पौराणिक पात्रों की आत्मकथा लिखने वाले मनु शर्मा ने प्रस्तुत उपन्यास में मुख्य पात्रों के रूप में दो पौराणिक पात्रों (कच और देवयानी) की कथा को केन्द्र में रखा है। वैसे तो “यह औपन्यासिक कृति पौराणिक इतिहास की जानकारी देने के साथ ही तत्कालीन आर्यावर्त के सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक इतिहास का भी लेखा-जोखा है।”  परन्तु इस उपन्यास में जितने भी नारी पात्रों की सर्जना हुई है वे सब समाज में नारी विषयक स्थिति का बड़ा स्पष्ट खाका खींचते हैं। यह खाका राजनीतिक हो, सामाजिक हो अथवा सांस्कृतिक हो, सबमें नारी द्वितीय पुरुष अथवा किसी बिसात पर सजाये हुए मोहरे की तरह नज़र आती है। स्त्री की यह विडम्बना सुर और असुर दोनों में समाज है। यानी स्त्री के सुर, असुर होने से भी उसकी स्थिति में कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। उपन्यास में देवयानी के अलावा जयंती और शर्मिष्ठा दो मुख्य पात्र हैं। जयंती इन्द्...

जनमत

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https://samkaleenjanmat.in/elegy-for-the-dying-children-of-our-country/ समकालीन जनमत समकालीन जनमत कविता • जनमत बच्चों की मृत्यु पर प्रतिरोध की कविताएँ 22 hours agoby समकालीन जनमतAdd Comment154 Views Written by समकालीन जनमत 1. मरते हुए बच्चों के देश में जन्म दिन – देवेंद्र आर्य मेरे अनाम अपरिचित बच्चों कितना त्रासद है यह जन्मदिन इधर मर रहा है बचपन उधर मैं तिरसठ का हो रहा हूं घुट रही हैं सांसें और कवि अगले तीन सौ पैंसठ दिनों की सांसों की मुबारकबाद बटोर रहा है चाहूं तो भी तुम्हारी घुटती सांसों को अपनी एक भी बूढ़ी गाढ़ी सांस नहीं दे सकता बच्चों कैसे देख पा रहे होंगे तुम्हें तड़प तड़प के मरते तुम्हारे परिजन आंखों के सामने अब उड़े कि तब उड़े हाथों के तोते मेरी मां मेरी गोद में मरी तुम अपनी मां की गोद में मैने आग दी अपने पिता को पचास पार तुम्हें तुम्हारे पिता ने ! कैसे ? ? ? कैसे नदी ने स्वीकारा होगा तुम्हारा अवशेष ? ? ? उफ़ ! तुम भी वहीं जा रहे हो बउवा जहां के बारे में तुमने कभी कुछ सुना भी नहीं वहीं जा रहे हो जहां पांच साल पहले मखाने के लावे सा तुम्हारा...