जनमत
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समकालीन जनमत
समकालीन जनमत
कविता • जनमत
बच्चों की मृत्यु पर प्रतिरोध की कविताएँ
22 hours agoby समकालीन जनमतAdd Comment154 Views
Written by समकालीन जनमत
1. मरते हुए बच्चों के देश में जन्म दिन
– देवेंद्र आर्य
मेरे अनाम अपरिचित बच्चों
कितना त्रासद है यह जन्मदिन
इधर मर रहा है बचपन
उधर मैं तिरसठ का हो रहा हूं
घुट रही हैं सांसें और कवि
अगले तीन सौ पैंसठ दिनों की सांसों की मुबारकबाद बटोर रहा है
चाहूं तो भी तुम्हारी घुटती सांसों को
अपनी एक भी बूढ़ी
गाढ़ी सांस नहीं दे सकता बच्चों
कैसे देख पा रहे होंगे तुम्हें तड़प तड़प के मरते
तुम्हारे परिजन आंखों के सामने
अब उड़े कि तब उड़े हाथों के तोते
मेरी मां मेरी गोद में मरी
तुम अपनी मां की गोद में
मैने आग दी अपने पिता को पचास पार
तुम्हें तुम्हारे पिता ने ! कैसे ? ? ?
कैसे नदी ने स्वीकारा होगा तुम्हारा अवशेष ? ? ?
उफ़ !
तुम भी वहीं जा रहे हो बउवा
जहां के बारे में तुमने कभी कुछ सुना भी नहीं
वहीं जा रहे हो जहां पांच साल पहले मखाने के लावे सा तुम्हारा भाई गया था
वहां शायद तुम्हें गोरखपुर का पनियाले से बच्चे मिलें
अभी दो साल पहले ही घुटी थीं उनकी सांसें
जी नहीं घोंट दी गई थीं सांसें
खाली सिलिंडरों वाले अस्पताल में
बाहर रहे होते तो शायद पेड़ों ने पंखा करके उन्हें बचा लिया होता
इलाज के नाम पर बिना इलाज मरना कितना त्रासद है
विश्व गुरु !
कैसे तो सबर कर रही होंगी तुम्हारी मांएं
बचपन में अपनी मां खो देने वाले बेटों से पूछो
कैसे तो ठेल रहे होंगे दुख का पहाड़ तुम्हारे पिता
जैसे कोई पीछा छुड़ाता पिता की यादों से
जैसे कोई रस्म निभाता है उंगली पर स्याही लगवाने का
ऐन पिता दिवस पर चले गए तुम !
रुक जाते थोड़े दिन
तो शायद मातृ दिवस आ जाता
मर रहे बच्चों के देश में ज़िंदा हैं पिता लोकतंत्र से
मांए जिंदा हैं मर रहे बच्चों के देश में सरकार की तरह
जी रहे देश के मरते हुए बच्चों
तुम्हारा इस तरह जाना मैं तो कहूं अच्छा ही है
बजाय इसके कि किसी अंकल जी ने टाफी के लिए
फुसलाकर अकेले में तुम्हारी दुर्गत की होती
तुम अस्पताल के फर्श पर नहीं
किसी कूड़े के ढेर में पाए गए होते नुचे-चिथे
मर रहे बच्चों के देश में जी रहे लोगों
तुम्हे तुम्हारे कवि के जन्म दिन की कसम
बताओ तो सही कि इन बच्चों के नन्हे नन्हे दिमागों का कसूर क्या था ?
मौत क्यों बुखार बन कर चढ़ आई है इनपर
उतरती ही नहीं साहूकार के कर्ज की तरह
बैंक के ब्याज की तरह चढ़ता ही जाता है बुखार
बच्चों का दिमाग खाने वालों
बच्चों ने तो कभी आपका दिमाग खाया ही नहीं
रोटी के लिए माई को तंग भी तो नहीं किया
बाऊ से भात भी नहीं मांगा
भूखे थे दो चार लीचियां ही तो खाईं
उसी पोखर में ही तो नहाए जिसमें पूरा गाँव नहाता है कुम्भ की तरह
क्या पता था बच्चों को कि अब धान के खेत में
ककहरा सीखती है मौत
उन्हें क्या पता कि वे टीके नहीं गए हैं
कि वे आयुष्मान भारत में बीमित नहीं हैं
वे तो उसी साल पैदा हुए जब देश
गांधी के चश्मे में स्वच्छ हो रहा था
ये दुधमुंहों के हाथ में नहीं
कि झोपड़ों में जनमने से मना कर देते
पैदा होते किसी फ्लैट में
मरणासन्न बूढ़ों के देश में ये बच्चे कर भी क्या सकते हैं
अगर उन्हें वोटर लिस्ट में आने ही न दिया जाए
फूल की तरह हंसने और
गौरैया की तरह गाने के अलावा कर भी क्या सकते हैं
ये नरम नरम बच्चे
भार हो गए थे क्या धरती मां ?
अरे मुझे उठा लेतीं !
तिरसठ की उम्र में चौसठ कीलो
बताओ कितने बच्चे बच जाते
और तुम्हारा कोटा भी पूरा हो जाता
मिड डे मील वाला रजिस्टर भी भर जाता
बच्चों ने तो पृथ्वी को
माई के अचरा की तरह पकड़ना चाहा
पिता के गमछे से झाड़नी चाही पृथ्वी पर जमी धूल
बहन के साथ घुमरी परइया सा नचाना चाहा पृथ्वी को
गेंद की तरह लोकना चाहा
नहीं जानते थे कि पृथ्वी कोल्हू का बैल है
ठीहे पर घूमती
मुह में जाबा लगाए चबाती-पेरती
दिन होता है पर दिन नहीं होता
रात आती है पर रात नहीं आती
मर रहे बचपन के देश में कैसे जीवित रह सकता है कोई सपना
कोई लोरी
कैसे ज़िंदा रह सकता है
मर रहे बच्चों के देश में कवि ?
मर रहे मेरे देश के निवासियों
मत दो मेरे जन्मदिन पर आज मौत की मुबारकबाद !
2. हम बच्चों का ख़्याल नहीं रख सके
– पंकज चतुर्वेदी
बच्चे अपने
खिलौने का भी
ख़याल रखते हैं:
उसने खाना खाया
या नहीं
पानी पिया या नहीं
वह सो पाया
या नहीं
बच्चे अपने
खिलौने का भी
ख़याल रखते हैं
हम बच्चों का
ख़याल नहीं रख सके”
3. बच्चे मर रहे हैं ‘चमकी बुख़ार’ से
– अदनान कफ़ील दरवेश
मौत बरहक़ है
लेकिन क़त्ल एक संगीन जुर्म
एक अक्षम्य अपराध
राष्ट्रीय अख़बार लिखते हैं
बिहार के सूबे मुज़फ़्फ़रपुर में
बड़ी तादाद में ‘चमकी बुख़ार’ से
बच्चे लगातार मर रहे हैं
बच्चे मर रहे हैं और लगातार मर रहे हैं
क्या इतना भर ही है सच ?
क्या इतनी सी ही है बात ?
कोई चैनल या अख़बार, नहीं बतलाता सच
कि बच्चों की हत्या हो रही है
बच्चे ज़िबह किए जा रहे हैं
बीमार बच्चों में नहीं होती इतनी भी ताक़त
कि मौत की चीख़ से
सुन्न कर दें वे हत्याघरों को
ठप्प कर दें वे देश की रफ़्तार
गर्द-ओ-ग़ुबार बन कर छा जाएँ देश पर
एक तूफ़ान, एक चक्रवात बन कर उखाड़ डालें मुर्दा क़ौमों को
वे तो बस आँखें मूँद कर ; चुप हो रहते हैं हमेशा के लिए
लेकिन एक स्त्री के विलापों में टहलते रहते हैं उम्र भर
एक पिता की चुप्पी में बड़े होते रहते हैं
बुलवाओ तारीख़दानों को !
अख़बारनवीसों को बुलवाओ !
मेरा बयानिया लिक्खें
उन हत्यारे हुक्मरानों के लिए
कि बच्चों की मौत
रायगाँ नहीं जाती
उनकी मुलायम साँसें
कई सदियों तक
तुम्हारी नींदों में
नेज़ों की तरह चुभती रहेंगी…
एक नदी यूँ ही नहीं सूखती
एक नगर यूँ ही नहीं उजड़ता
एक सभ्यता यूँ ही नहीं मरती
एक देश यूँ ही नहीं ढहता
एक देवता यूँ ही नहीं करता आत्महत्या
एक कवि यूँ ही नहीं रोता
उसके लिए किए जाते हैं जघन्य अपराध
हत्या और हत्या के षड्यंत्र
दी जाती हैं लातादाद मासूमों की नृशंस बलियाँ
मौत बरहक़ है
तो हम सब क्यूँ अब तक ज़िंदा हैं ?
4. “इतनी बड़ी हो गयी कि हर चीज में असहाय पाती हूँ खुद को . किस भाषा में प्रतिरोध दर्ज करूँ, किस भाषा में शोक व्यक्त करूँ कभी -कभी समझ में नहीं आता .”
– अनुपम सिंह
“उनके बच्चे छोड़ रहे हैं
मछलियों-सा सेहरा
अम्हौरिओं का
चुनचुनाहट को पीठ में दबाये
निखरहरे सोये हैं बच्चे
भूख से चिपक गयी हैं उनकी आतें
सांसे फंसी हैं अतड़ियों में
कोरों में जमा है रात का कीचर
कीचर में बझी हैं कोमल पलके उनकी
पत्तों से ऐंठकर
झुलस जाते हैं बच्चे
जिन्दा रहने की ज़िद में
अधखुली रह जातीं हैं उनकी आँखें
सरकारी आंकड़ों में दर्ज़ है
मौत का सार्वभौम कारण
‘मौत अटल सत्य है’
‘यह संसार मिथ्या है’
फिर भी वे सिखाते हैं अपने बच्चों को
जीवित रहना
मौत से लड़ना
और अड़े रहना
सिखातें हैं भरोसा बनाए रखना
जिद्दी बच्चे
कभी-कभी नहीं मानते बात
5. बच्चे
–अमित धर्मसिंह
बच्चे गरीब की दौलत होते हैं!
तो क्या इस दौलत को कोई लूट रहा है?
बच्चे भगवान का रूप होते हैं!
तो क्या भगवान अपना रूप खो रहे हैं?
बच्चे घर की रौनक होते हैं!
तो क्या घर की रौनक खत्म हो रही है?
बच्चे निश्छल और मासूम होते हैं!
तो क्या देश में इनके लिए कोई जगह नहीं?
बच्चे देश का भविष्य होते हैं!
तो क्या देश का भविष्य खतरे में है?
एक लीची से भी नहीं बचा सकता देश खुद को
तो हम कौन से मजबूत राष्ट्र का स्वप्न देख रहे हैं??
इस श्रृंखला के कवियों का परिचय
कवि देवेंद्र आर्य केंद्र सरकार के मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का विजयदेव नारायण साही सम्मान से सम्मानित हैं। वे कवि होने के साथ साथ आलोचक, संपादक, नाटककार और संस्कृतिकर्मी भी हैं।
भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (1994) , देवीशंकर अवस्थी सम्मान (2003) से सम्मानित कवि पंकज चतुर्वेदी, कविता संग्रह : एक संपूर्णता के लिए, एक ही चेहरा। आलोचना : आत्मकथा की संस्कृति , निराशा में भी सामर्थ्य ।
कवि अदनान कफ़ील दरवेश भारत भूषण अग्रवाल 2018, रविशंकर उपाध्याय स्मृति कविता पुरस्कार 2018 से सम्मानित, पहला काव्य संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
अनुपम सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं। उभरती हुई चर्चित कवयित्री हैं।
अमित धर्मसिंह दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं।
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बच्चों की मृत्यु पर प्रतिरोध की कविताएँ
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1. मरते हुए बच्चों के देश में जन्म दिन
– देवेंद्र आर्य
मेरे अनाम अपरिचित बच्चों
कितना त्रासद है यह जन्मदिन
इधर मर रहा है बचपन
उधर मैं तिरसठ का हो रहा हूं
घुट रही हैं सांसें और कवि
अगले तीन सौ पैंसठ दिनों की सांसों की मुबारकबाद बटोर रहा है
चाहूं तो भी तुम्हारी घुटती सांसों को
अपनी एक भी बूढ़ी
गाढ़ी सांस नहीं दे सकता बच्चों
कैसे देख पा रहे होंगे तुम्हें तड़प तड़प के मरते
तुम्हारे परिजन आंखों के सामने
अब उड़े कि तब उड़े हाथों के तोते
मेरी मां मेरी गोद में मरी
तुम अपनी मां की गोद में
मैने आग दी अपने पिता को पचास पार
तुम्हें तुम्हारे पिता ने ! कैसे ? ? ?
कैसे नदी ने स्वीकारा होगा तुम्हारा अवशेष ? ? ?
उफ़ !
तुम भी वहीं जा रहे हो बउवा
जहां के बारे में तुमने कभी कुछ सुना भी नहीं
वहीं जा रहे हो जहां पांच साल पहले मखाने के लावे सा तुम्हारा भाई गया था
वहां शायद तुम्हें गोरखपुर का पनियाले से बच्चे मिलें
अभी दो साल पहले ही घुटी थीं उनकी सांसें
जी नहीं घोंट दी गई थीं सांसें
खाली सिलिंडरों वाले अस्पताल में
बाहर रहे होते तो शायद पेड़ों ने पंखा करके उन्हें बचा लिया होता
इलाज के नाम पर बिना इलाज मरना कितना त्रासद है
विश्व गुरु !
कैसे तो सबर कर रही होंगी तुम्हारी मांएं
बचपन में अपनी मां खो देने वाले बेटों से पूछो
कैसे तो ठेल रहे होंगे दुख का पहाड़ तुम्हारे पिता
जैसे कोई पीछा छुड़ाता पिता की यादों से
जैसे कोई रस्म निभाता है उंगली पर स्याही लगवाने का
ऐन पिता दिवस पर चले गए तुम !
रुक जाते थोड़े दिन
तो शायद मातृ दिवस आ जाता
मर रहे बच्चों के देश में ज़िंदा हैं पिता लोकतंत्र से
मांए जिंदा हैं मर रहे बच्चों के देश में सरकार की तरह
जी रहे देश के मरते हुए बच्चों
तुम्हारा इस तरह जाना मैं तो कहूं अच्छा ही है
बजाय इसके कि किसी अंकल जी ने टाफी के लिए
फुसलाकर अकेले में तुम्हारी दुर्गत की होती
तुम अस्पताल के फर्श पर नहीं
किसी कूड़े के ढेर में पाए गए होते नुचे-चिथे
मर रहे बच्चों के देश में जी रहे लोगों
तुम्हे तुम्हारे कवि के जन्म दिन की कसम
बताओ तो सही कि इन बच्चों के नन्हे नन्हे दिमागों का कसूर क्या था ?
मौत क्यों बुखार बन कर चढ़ आई है इनपर
उतरती ही नहीं साहूकार के कर्ज की तरह
बैंक के ब्याज की तरह चढ़ता ही जाता है बुखार
बच्चों का दिमाग खाने वालों
बच्चों ने तो कभी आपका दिमाग खाया ही नहीं
रोटी के लिए माई को तंग भी तो नहीं किया
बाऊ से भात भी नहीं मांगा
भूखे थे दो चार लीचियां ही तो खाईं
उसी पोखर में ही तो नहाए जिसमें पूरा गाँव नहाता है कुम्भ की तरह
क्या पता था बच्चों को कि अब धान के खेत में
ककहरा सीखती है मौत
उन्हें क्या पता कि वे टीके नहीं गए हैं
कि वे आयुष्मान भारत में बीमित नहीं हैं
वे तो उसी साल पैदा हुए जब देश
गांधी के चश्मे में स्वच्छ हो रहा था
ये दुधमुंहों के हाथ में नहीं
कि झोपड़ों में जनमने से मना कर देते
पैदा होते किसी फ्लैट में
मरणासन्न बूढ़ों के देश में ये बच्चे कर भी क्या सकते हैं
अगर उन्हें वोटर लिस्ट में आने ही न दिया जाए
फूल की तरह हंसने और
गौरैया की तरह गाने के अलावा कर भी क्या सकते हैं
ये नरम नरम बच्चे
भार हो गए थे क्या धरती मां ?
अरे मुझे उठा लेतीं !
तिरसठ की उम्र में चौसठ कीलो
बताओ कितने बच्चे बच जाते
और तुम्हारा कोटा भी पूरा हो जाता
मिड डे मील वाला रजिस्टर भी भर जाता
बच्चों ने तो पृथ्वी को
माई के अचरा की तरह पकड़ना चाहा
पिता के गमछे से झाड़नी चाही पृथ्वी पर जमी धूल
बहन के साथ घुमरी परइया सा नचाना चाहा पृथ्वी को
गेंद की तरह लोकना चाहा
नहीं जानते थे कि पृथ्वी कोल्हू का बैल है
ठीहे पर घूमती
मुह में जाबा लगाए चबाती-पेरती
दिन होता है पर दिन नहीं होता
रात आती है पर रात नहीं आती
मर रहे बचपन के देश में कैसे जीवित रह सकता है कोई सपना
कोई लोरी
कैसे ज़िंदा रह सकता है
मर रहे बच्चों के देश में कवि ?
मर रहे मेरे देश के निवासियों
मत दो मेरे जन्मदिन पर आज मौत की मुबारकबाद !
2. हम बच्चों का ख़्याल नहीं रख सके
– पंकज चतुर्वेदी
बच्चे अपने
खिलौने का भी
ख़याल रखते हैं:
उसने खाना खाया
या नहीं
पानी पिया या नहीं
वह सो पाया
या नहीं
बच्चे अपने
खिलौने का भी
ख़याल रखते हैं
हम बच्चों का
ख़याल नहीं रख सके”
3. बच्चे मर रहे हैं ‘चमकी बुख़ार’ से
– अदनान कफ़ील दरवेश
मौत बरहक़ है
लेकिन क़त्ल एक संगीन जुर्म
एक अक्षम्य अपराध
राष्ट्रीय अख़बार लिखते हैं
बिहार के सूबे मुज़फ़्फ़रपुर में
बड़ी तादाद में ‘चमकी बुख़ार’ से
बच्चे लगातार मर रहे हैं
बच्चे मर रहे हैं और लगातार मर रहे हैं
क्या इतना भर ही है सच ?
क्या इतनी सी ही है बात ?
कोई चैनल या अख़बार, नहीं बतलाता सच
कि बच्चों की हत्या हो रही है
बच्चे ज़िबह किए जा रहे हैं
बीमार बच्चों में नहीं होती इतनी भी ताक़त
कि मौत की चीख़ से
सुन्न कर दें वे हत्याघरों को
ठप्प कर दें वे देश की रफ़्तार
गर्द-ओ-ग़ुबार बन कर छा जाएँ देश पर
एक तूफ़ान, एक चक्रवात बन कर उखाड़ डालें मुर्दा क़ौमों को
वे तो बस आँखें मूँद कर ; चुप हो रहते हैं हमेशा के लिए
लेकिन एक स्त्री के विलापों में टहलते रहते हैं उम्र भर
एक पिता की चुप्पी में बड़े होते रहते हैं
बुलवाओ तारीख़दानों को !
अख़बारनवीसों को बुलवाओ !
मेरा बयानिया लिक्खें
उन हत्यारे हुक्मरानों के लिए
कि बच्चों की मौत
रायगाँ नहीं जाती
उनकी मुलायम साँसें
कई सदियों तक
तुम्हारी नींदों में
नेज़ों की तरह चुभती रहेंगी…
एक नदी यूँ ही नहीं सूखती
एक नगर यूँ ही नहीं उजड़ता
एक सभ्यता यूँ ही नहीं मरती
एक देश यूँ ही नहीं ढहता
एक देवता यूँ ही नहीं करता आत्महत्या
एक कवि यूँ ही नहीं रोता
उसके लिए किए जाते हैं जघन्य अपराध
हत्या और हत्या के षड्यंत्र
दी जाती हैं लातादाद मासूमों की नृशंस बलियाँ
मौत बरहक़ है
तो हम सब क्यूँ अब तक ज़िंदा हैं ?
4. “इतनी बड़ी हो गयी कि हर चीज में असहाय पाती हूँ खुद को . किस भाषा में प्रतिरोध दर्ज करूँ, किस भाषा में शोक व्यक्त करूँ कभी -कभी समझ में नहीं आता .”
– अनुपम सिंह
“उनके बच्चे छोड़ रहे हैं
मछलियों-सा सेहरा
अम्हौरिओं का
चुनचुनाहट को पीठ में दबाये
निखरहरे सोये हैं बच्चे
भूख से चिपक गयी हैं उनकी आतें
सांसे फंसी हैं अतड़ियों में
कोरों में जमा है रात का कीचर
कीचर में बझी हैं कोमल पलके उनकी
पत्तों से ऐंठकर
झुलस जाते हैं बच्चे
जिन्दा रहने की ज़िद में
अधखुली रह जातीं हैं उनकी आँखें
सरकारी आंकड़ों में दर्ज़ है
मौत का सार्वभौम कारण
‘मौत अटल सत्य है’
‘यह संसार मिथ्या है’
फिर भी वे सिखाते हैं अपने बच्चों को
जीवित रहना
मौत से लड़ना
और अड़े रहना
सिखातें हैं भरोसा बनाए रखना
जिद्दी बच्चे
कभी-कभी नहीं मानते बात
5. बच्चे
–अमित धर्मसिंह
बच्चे गरीब की दौलत होते हैं!
तो क्या इस दौलत को कोई लूट रहा है?
बच्चे भगवान का रूप होते हैं!
तो क्या भगवान अपना रूप खो रहे हैं?
बच्चे घर की रौनक होते हैं!
तो क्या घर की रौनक खत्म हो रही है?
बच्चे निश्छल और मासूम होते हैं!
तो क्या देश में इनके लिए कोई जगह नहीं?
बच्चे देश का भविष्य होते हैं!
तो क्या देश का भविष्य खतरे में है?
एक लीची से भी नहीं बचा सकता देश खुद को
तो हम कौन से मजबूत राष्ट्र का स्वप्न देख रहे हैं??
इस श्रृंखला के कवियों का परिचय
कवि देवेंद्र आर्य केंद्र सरकार के मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का विजयदेव नारायण साही सम्मान से सम्मानित हैं। वे कवि होने के साथ साथ आलोचक, संपादक, नाटककार और संस्कृतिकर्मी भी हैं।
भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (1994) , देवीशंकर अवस्थी सम्मान (2003) से सम्मानित कवि पंकज चतुर्वेदी, कविता संग्रह : एक संपूर्णता के लिए, एक ही चेहरा। आलोचना : आत्मकथा की संस्कृति , निराशा में भी सामर्थ्य ।
कवि अदनान कफ़ील दरवेश भारत भूषण अग्रवाल 2018, रविशंकर उपाध्याय स्मृति कविता पुरस्कार 2018 से सम्मानित, पहला काव्य संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
अनुपम सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं। उभरती हुई चर्चित कवयित्री हैं।
अमित धर्मसिंह दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं।
Bahut khub Likha hai Amit ji Aapne gareeb bachcho par padhkar achcha laga
ReplyDeleteधन्यवाद। आप अपनी टिप्पणी के नीचे अपना नाम भी लिखते तो अच्छा होता!
Deleteबीमारी पर मरते देख देश के इंसान को
ReplyDeleteनीन्द कैसे आ रही है देश के प्रधान को
सही कहा आपने! अपनी पंक्तियों के नीचे अपना नाम भी लिख देते आदरणीय!
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