मोब लिंचिंग

मोब लिंचिंग के प्रतिरोध में कविता।



@Prof. Gopeshwar Singh sir की वाल से साभार

1.प्रक्रिया

मैं क्या कर रहा था
जब
सब जयकार कर रहे थे?
मैं भी जयकार कर रहा था-
डर रहा था
जिस तरह
सब डर रहे थे।
मैं क्या कर रहा था
जब
सब कह रहे थे,
'अजीज मेरा दुश्मन है ?'
मैं भी कह रहा था,
'अजीज मेरा दुश्मन है।'

मैं क्या कर रहा था
जब
सब कह रहे थे,
'मुँह मत खोलो?'
मैं भी कह रहा था,
'मुँह मत खोलो
बोलो
जैसा सब बोलते हैं।'

ख़त्म हो चुकी है जयकार,
अजीज मारा जा चुका है,
मुँह बंद हो चुके हैं।

हैरत में सब पूछ रहे हैं,
यह कैसे हुआ?
जिस तरह सब पूछ रहे हैं
उसी तरह मैं भी,
यह कैसे हुआ?

           -श्रीकांत वर्मा, 'जलसाघर' (1973) से
(अजीज की जगह तबरेज पढ़िए। यह कविता आज भी प्रासंगिक लगती है)

2. ...इस भयानक समय में कैसे लिखूं
कैसे नहीं लिखूं!
सैकड़ों वर्षों से सुनता आ रहा हूँ
घृणा नहीं, प्रेम करो-
किससे करूँ प्रेम? मेरे
चारों ओर हत्यारे हैं!
नागरिको! सावधान, रास्ते के दोनों ओर
बधिक हैं-
--- कुहरे में डूब गए हैं कुछ नारे,
धूल में पड़े हैं
कुछ शब्द,
उठाओ, इन शब्दों को उठाओ,
क्रांति की प्रतीक्षा करती हुई
जनता सो गई है!

अमूर्त! कितनी अमूर्त है, कविता!
कहाँ है
इन सारी कविताओं में वह चेहरा,
जो जितना मेरा है
उतना ही दूसरे का!

हृदय! मेरा हृदय! मैं कहाँ
बेच आया अपना हृदय!
आँखे! मेरी आँखें! मैं
कहाँ छोड़ आया अपनी आँखें-
नंगी घुमाई जा रही है
जुए में हारी हुई स्त्री!
.........................
न्यायालय बन्द हो चुके हैं, अर्जियाँ हवा में
उड़ रही हैं,
कोई अपील नहीं,
कोई कानून नहीं,
कुहरे में डूब गई हैं प्रत्याशाएँ
धूल में पड़े हैं
कुछ शब्द!
जनता थक कर सो गई है!

-श्रीकांत वर्मा ('प्रजापति' कविता का अंश, 'जलसाघर' संग्रह से)

@Vihag Vaibhav जी की वाल से साभार

एक हत्यारे नेतृत्व में देश
___________________________

अब यह कहने की बात तो नहीं है
पर कह देने में कोई हर्ज भी नहीं है

हत्यारा नेता हत्यारे अनुयायी पैदा करता है
और यदि उनका नेता शीर्ष पर हो
तब वे हर उसको मारते-काटते चले जाते हैं
जिनसे उनका नेता घृणा करता है

अनुयायी अपने नेता का अनुसरण करते हैं

यदि नेता की उपलब्धियों में मुसलमानों की बेरहम सामूहिक हत्याएँ शामिल हो
तो अनुयायी पूरी निर्भीकता से मुसलमानों को मारना-काटना शुरू करते हैं
वे जानते हैं उनका नेता शीर्ष पर है
और वो उन्हें राज्य या कानून से बचा लेगा

हम आप समझते हैं कि किसी देश का नेतृत्व कर रहा हत्यारा
एक सामान्य हत्यारे जैसा पेश आएगा
और अपने विरोधियों का जिनसे वह घृणा करता है उनकी सरपट हत्या करता चला जायेगा

ऐसा नहीं है ,
वह अपने हत्या कौशल के दम पर देश का नेता बना है
जाहिर सी बात है हत्या-संस्कृति में उसके विशिष्ट योगदान होंगे
उसके पास हत्या के नायाब तरीके होंगे

मैं समझता हूँ पहले वह छोटी छोटी हत्याओं से
हमारी ,आपकी , सामान्य जन की संवेदनाओं का क़त्ल करेगा
वह हमें हत्याओं के लिए आदी बनाएगा
वह न्यायिक प्रक्रियाओं को कमजोर और अपर्याप्त बताकर उसका गला घोटेगा

फिर एक दिन अपने गुलाम नर-पिशाच अनुयायियों को
हत्या की खुली छूट का इशारा दे देगा

कहने में हलक़ सूख रहा है पर ये सच है
तब वह एक दिन पूरे देश को बदलकर रख देगा
क्रूरतम क़त्लगाह में ।
                        ©Vihag Vaibhav

@Adnan Kafeel Darwesh जी की वाल से साभार

हिन्दू राष्ट्र महान
°•°•°•°•°•°•°•°

बना है हिन्दू राष्ट्र महान
कि जिसको कहते हिंदुस्तान
कि जिसपे था हमको अभिमान
उसे अब लिंचिंग का बरदान
कि काटो गटई मूसलमान
कहो जी जय श्री राम हनुमान !

बढ़ाओ खंजर की तुम सान
रगड़ दो गर्दन बूढ़ जवान
अरे हाँ जय श्री राम हनुमान

यही है कलमा और अज़ान
यही कानूना संबीधान
यही हम हिंदुओं की शान
मिटा दो तिलचट्टा इस्लाम
बना दो बस्ती को श्मशान
नया वधस्थल क़ब्रिस्तान
अजी हाँ जय श्री राम हनुमान
अजी हाँ भारत...
सॉरी, हिन्दू राष्ट्र महान
            ©अदनान कफ़ील दरवेश

@डॉ राजेंद्र गौतम सर की वाल से साभार

1.)
सोख कर संवेदना का जल
आग का खूनी समन्दर
दूर तक हुंकार भरता है

चुक गईं सम्भावनाएँ सब निकल पाने की
दग्ध लपटों के मुहाने से
झुलसना केवल बदा है अब
कुछ नहीं होना अब व्यर्थ में यों छटपटाने से
जो मछलियों से भरा था कल
ताल जायेगा वही मर
यहाँ लावा रोज झरता है!

सन्दली ठंडी हवाओं के काफिले को भी
यहाँ रेगिस्तान ने लूटा
इस लिये हर आँख का सपना
चोट खाकर काँच-सा टूटा
बालकों-सा सहमता जंगल
खड़ा लोगों के रहम पर
आरियों से बहुत डरता है!

एक मीठी आँच होती है अलावों की
बाँटती है जो कि अपनापन
वह लपट पर और होती है
फूल, कलियों, कोंपलों का लीलती जो तन
पड़े हैं रिश्ते सभी घायल, जिस्म इनके खून से तर
कौन लेकिन साँस भरता है!

2.)
आग चूल्हों की बुझी है
छू रहा आकाश को
नरमेध का कड़ुवा धुआ है!

अब समिध की जा रही है
हवन-कुंडों को समर्पित
रक्त से सिंचित शवों की
एक तीखी गंध भरती
जा रही नासापुटों में
झुलसते शिशु-किसलयों की
अादमी ने भूल से
अंगार-से दहके समय को
मोम के हाथों छुआ है

दिख रही लेती उसारा
कौन-सी तहज़ीब की है
यह इमारत
लिखी जिसकी नींव के
सब पत्थरों पर
खून से ही है इबारत
क्या भला फरियाद करते
दौर में इन हादसों के
खुद खुदा सहमा हुआ है
                           ©डॉराजेन्द्र गौतम

@मेरी पोस्ट पर मोहित कौशिक द्वारा किए गए कमेंट से साभार

......ये सिर्फ हत्यारे हैं
--------------------------
हत्यारे घूम रहे हैं
हर गली, मुहल्ले, चौराहे पर
वे ताक में हैं
नुक्कड़ों पर
घर के पिछवाड़े और दरवाजे पर भी

हत्यारे घूम रहे हैं
और तुम्हारी हत्या होनी है

हालांकि वे नहीं जानते कि
जिनकी हत्या की जानी है
वे पहले से ही मरे हुए हैं
फिर भी वे तुम्हारी हत्या करेंगे

हत्यारे घूम रहे हैं..........

बस दुःख इस बात का है कि
उनकी शक्ल न तो हिन्दुओं जैसी है
न ही मुसलमानों जैसी
ये सर विहीन लोग हैं
ये सिर्फ हत्यारे हैं।
        © कुंवर रविन्द्र

@मेरी खुद की पोस्ट की गई कविता

भीड़ एक प्रशिक्षित सेना!

बरसों पहले सुना था
भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता।

यह उन दिनों की बात है
जब सीसीटीवी कैमरे नहीं होते थे,
जब वीडियो नहीं बनाई जाती थी,
जब भीड़ कानून से डरती थी,
वह छूटते ही आक्रामक नहीं होती थी,
वह किसी को मारने नहीं दौड़ती थी,
घर से लाठी डंडे लेकर नहीं निकलती थी,
उसके मुंह में गगनचुंबी नारे नहीं होते थे।
उसमें किसी एक जाति या
धर्म के लोग नहीं होते थे।

मगर, अब ऐसा नहीं-
बरसों पहले सुना हुआ कथन
आज गलत साबित हो चुका है।
भीड़ की अब जाति होती है,
एक धर्म होता है,
मरने वाले की भी एक जाति होती है,
एक धर्म होता है।
दोनों की पहचान की जा सकती है,
दोनों क़ैद होते हैं सीसीटीवी कैमरे में।
भीड़ खुद भी बनाती है
अपनी क्रूरता की वीडियो,
क्योंकि वह अब डरती नहीं -
न धर्म से,
न कानून से,
न संविधान से।
लोकतंत्र की तो जरा भी परवाह नहीं उसे।

जिस किसी को
भीड़ का चेहरा दिखाई नहीं देता,
उसे अपनी आंखे टेस्ट करवानी चाहिए!
हो सकता है- उसे कलर ब्लाइंडनेस हो,
हो सकता है - वह सावन का अंधा हो,
हो सकता है- उसे एक खास रंग का ही दिखता हो,
हो सकता है- वह एक खास रंग को ही पहचानता हो।
हो सकता है- उसे दूसरे रंग नज़र ही न आते हों,
नजर आते हों तो पहचानता न हो,
या पहचानना न चाहता हो,
ऐसे आदमी को अपनी आंखें जल्दी ठीक करवानी चाहिए
आंखें ठीक हों तो अक्ल की खैर-खबर लेनी चाहिए।

देखना चाहिए कि भीड़ का चेहरा है-
बेहद वीभत्स, क्रूर और घिनौना।
उसके हाथ हैं, उनमें लाठी डंडे हैं,
उसके पांव हैं, वह कहीं से भी,
कभी भी आ सकती है,
वह हर जगह छुपी बैठी है, घात लगाए,
उसका एक नारा है!
वह जिसके नाम का नारा लगाती है,
मरने वाला उसी के नाम को उल्टा करके
जान की दुहाई देता है।
मगर भीड़ पर असर नहीं होता,
क्योंकि वह भीड़ नहीं एक सेना है,
किसी की भेजी हुई प्रशिक्षित सेना।।
                            ©अमित धर्मसिंह

@संबंधित अपील पर प्राप्त कविता

भीड़

भीड़ बस भीड़ नहीं है
वो तब्दील हो गई है ,संगठनों में
भीड़ को होने लगा है फंड मुहैया
भीड़ अब हो गई है संस्कृति की वाहक
भीड़ को प्राप्त है राज्य का सरंक्षण
मेरा भी मौन समर्थन
कहीं न कहीं भीड़ ने मुझे भी खींच लिया है
ले ली है मेरी गवाही अपने पक्ष में
मैंने भी स्वीकार ली है
भीड़ की सार्वभौमिक सत्ता
मैं भीड़ का हिस्सा होता जा रहा हूँ
मैंने भीड़ को बाबरी विवाद में भी बचा लिया
गोधरा में भी मैं चुप रहा
मालेगांव ये तो होता रहता है
मुजफरनगर हम क्या कर सकते हैं
शब्बीरपुर अब बस करो
भीड़ अब अकेला करके न्याय करती है
भीड़ ने बना लिए हैं
अपनी पुलिस
अपने न्यायालय
अपने जज
भीड़ त्वरित फैसला करती है
भीड़ को मौका भी पूरा दिया जाता है
भीड़ अब अर्दली की तरह पुकारती है
भीड़ अब अकेला करके मारती है
अख़लाक़ नजीब तबरेज़ कहीं न कहीं मैं भी
पानसरे दाभोलकर गौरी लंकेश
सबके फैसले अब इन्होंने अपने हाथ में ले लिए हैं
कहीं एनकाउंटर तो कहीं सरेआम
होने लगा है न्याय
मैं बहुत खुश हूँ
अंग्रेज़ों की अदालतों के काम करने लगी है भीड़
लेकिन कल अगर मुझे भी अपराधी मान लिया गया तो
क्या ये सुनेंगे मेरी फरियाद
क्या ये मानेंगे कि
मैंने इनके हर न्याय में दिया था मूक समर्थन।
                          © Ravi Prakash

@सुनील मानव की वाल से साभार

*कहानी - लिंचिंग*
✍ असग़र वजाहत

बूढ़ी औरत को जब यह बताया गया कि उसके पोते सलीम की 'लिंचिंग' हो गई है तो उसकी समझ में कुछ न आया। उसके काले, झुर्रियों पड़े चेहरे और धुंधली मटमैली आंखों में कोई भाव न आया। उसने फटी चादर से अपना सिर ढक लिया। उसके लिए 'लिंचिंग' शब्द नया था। पर उसे यह अंदाजा हो गया था कि यह अंग्रेजी का शब्द है। इससे पहले भी उसने अंग्रेजी के कुछ शब्द सुने थे जिन्हें वह जानती थी। उसने अंग्रेजी का पहला शब्द 'पास' सुना था जब सलीम पहली क्लास में 'पास' हुआ था। वह जानती थी के 'पास' का क्या मतलब होता है। दूसरा शब्द उसने 'जॉब' सुना था। वह समझ गई थी कि 'जॉब' का मतलब नौकरी लग जाना है। तीसरा शब्द उसने 'सैलरी' सुना था। वह जानती थी 'सैलरी' का क्या मतलब होता है। यह शब्द सुनते ही उसकी नाक में तवे पर सिकती रोटी की सुगंध आ जाया करती थी। उसे अंदाज़ा था कि अंग्रेजी के शब्द अच्छे होते हैं और उसके पोते के बारे में यह कोई अच्छी खबर है।

बुढ़िया इत्मीनान भरे स्वर में बोली- अल्लाह उनका भला करें..
लड़के हैरत से उसे देखने लगे। सोचने लगे बुढ़िया को 'लिंचिंग' का मतलब बताया जाए या नहीं। उनके अंदर इतनी हिम्मत नहीं थी की बुढ़िया को बताएं कि 'लिंचिंग' क्या होती है ।
बुढ़िया ने सोचा कि इतनी अच्छी खबर देने वाले लड़कों को दुआ तो ज़रूर देनी चाहिए ।
वह बोली- बच्चों, अल्लाह करे तुम सबकी 'लिंचिंग' हो जाए.... ठहर जाओ मैं मुंह मीठा कराती हूं।
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Comments

  1. बेहद प्रासंगिक और समय की सटीक व्याख्या करती कविताएँ...

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  2. बिल्कुल सही कहा परमेंद्र जी!

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  3. इस समय का सच बहुत ही तीखेपन से बयान करती ये कविताएँ। इस प्रतिरोध की बहुत जरूरत है इस समय।

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  4. सभी कविताए अपना अपना संप्रेषण दे रही है रवि प्रकाश जी की कविता और सुनींल माधव जी की लघुकथा झकझोड़ देने वाली है ।इनसभी कविताओं में लोकतंत्र की शिक्षित होने सभ्य और समझदार मतदाता होने पर प्रश्न दागे गए ।इंसानियत शब्द की व्याख्या घर घर अज़ान और मंदिर में होने वाली आराधना से कहीं अधिक लाज़मी कर देने की ज़रूरत है।🙏💐

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    1. सही कहा आपने! लघुकथा असगर वजाहत साहब की है सुनील मानव जी ने पोस्ट की थी।

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