बिसात


समीक्षा

साहित्य और समाज की पोल खोलता उपन्यास: बिसात

                                                   - अमित धर्मसिंह

‘बिसात’ हास्य-व्यंग्य के कवि नेमपाल प्रजापति का सद्यप्रकाशित उपन्यास है। ‘बिसात’ की सर्वाधिक अच्छी बात यह है कि यह सुपाठ्य है। इस पर चर्चा-परिचर्चा की जा सकती है। कोई पुस्तक पठनीय हो और उस पर चर्चा के विभिन्न मार्ग खुले हों, यह बात इसलिए भी खास है कि संचार क्रांति के इस युग में पुस्तकों का हाल क्या है, किसी से छिपा नहीं। मोबाइल-इंटरनेट के आकर्षण को परास्त करती कोई पुस्तक यदि पाठक को बाँध लेने में सक्षम और सफल साबित होती है तो यह साहित्य और साहित्यकार दोनों की उपलब्धि मानी जानी चाहिए। यह जानना रुचिकर होगा कि ‘बिसात’ में ऐसा क्या है जिसके कारण पाठक इसे पूरा पढ़कर ही दम लेता है। संभवतः इसलिए कि यह पुस्तक अपने आपमें कई पाठ समाहित किये हुए है। उत्तर-संरचनावाद के इस दौर में ‘बिसात’ न सिर्फ पाठ-केन्द्रित है बल्कि पाठक-केन्द्रित भी है। पाठक इसका पाठ अपनी सुविधानुसार कर सकता है। प्रस्तुत-अप्रस्तुत का, कल्पना और  यथार्थ का जैसा समायोजन ‘बिसात’ में है, वैसा बहुत कम पुस्तकों में देखने को मिलता है। स्थानीय साहित्य में तो ‘बिसात’ उन कमतर पुस्तकों में से एक है, जो बहुत तेजी से पाठक जगत् को प्रभावित कर लेती हैं। यह प्रभाव सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार का हो सकता है। पुस्तक में पक्ष-विपक्ष और सहमति-असहमति दोनों के लिए सहज अवकाश उपलब्ध है। पुस्तक की शैली और भाषा भी सहज आकर्षित करने करने वाली है, जिसका संगुफन कथानक के अनुरूप प्रयोगधर्मी आधार पर प्रयुक्त किया गया है।
समाज ऊपर से देखने में जितना सरल दिखाई देता है, उतना है नहीं। समाज में बहुत से समाजों का अन्तर्जाल है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में तो यह और भी पेचीदा है। यहाँ तो समाज के इतने वर्गीकरण हैं कि इन्हें गिन पाना तक संभव नहीं। धर्म हैं, जातियाँ हैं, उपजातियाँ हैं, क्षेत्र हैं, संस्कृतियाँ और भाषाएँ हैं। आर्थिक, राजनीतिक और साहित्यिक आधार भी समाज को वर्गीकृत करने के कारक हो सकते हैं। ‘बिसात’ का जो मुख्य नायक ‘नेकीराम’ है, उसका संबंध सामाजिक तौर पर निम्न म/यमवर्ग से है। व्यावसायिक तौर पर नेकीराम सी-ग्रेड का कर्मचारी है और अपनी कवि-प्रतिभा के कारण नेकीराम का रिश्ता साहित्यिक समाज से भी बनता है। इसी समाज में नेकीराम का मन रमता है। नेकीराम अपने यश की तलाश इसी साहित्यिक समाज में करता है। इसके लिए वह भरपूर हाथ-पाँव मारता है। कुछ नया सर्जने की प्रबल इच्छा प्रस्तुत पुस्तक के प्रथम अंश में ही दिखाई देने लगती है। ‘जुनून’ नामक इस अंश में लेखक ने उपन्यास लिखने की बारीकियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, जिसमें पारिवारिक, साहित्यिक और सामाजिक सीमाएँ आड़े आती हैं और व्यक्तिगत क्षमताएँ भी।  उपन्यास लिखने में जिन भी तत्त्वों की आवश्यकता होती है, उन पर लेखक ने बहुत बारीकी से विचार किया है, उसने इन्हें न केवल पूर्व अध्ययन के संदर्भ में परखने का प्रयास किया, बल्कि इनके औचित्य और समसामयिकता को भी तर्क की कसौटी पर कसने की पुरजोर कोशिश की है। कोशिश करते-करते लेखक उपन्यास के मूल भाव तक पहुँच जाता है। वह सहज रूप से स्वीकार करता है - ‘‘निंदा वृत्ति अब मेरे अंदर घर कर चुकी है।’’ इस वृत्ति के अनुरूप लेखक का वांछित उपन्यास स्वरूप ग्रहण करने लगता है और निंदारस उपन्यास का केन्द्रीय भाव बनकर सामने आता है। निंदारस स्वतः स्फूर्त नहीं होता, इसके पीछे चेतन-अवचेतन में पडे़ दमित भाव होते हैं जो धीरे-धीरे आग्रहपूर्ण मान्यताओं में तब्दील हो जाते हैं, बाद में ये मान्यताएँ एक प्रकार की ग्रंथि में परिवर्तित हो जाती हैं। इस ग्रंथि के चलते निंदारस का सर्जन होता रहता है। यानी ग्रंथि निंदारस का उद्गम स्रोत होती है। लेखक ने उपन्यास लिखने के पीछे इस ग्रंथि का तर्पण करना उद्ेश्य माना है। वह लिखता है - ‘‘मुझे  तो उपन्यास लिखकर मात्र अपनी एक छोटी-सी ग्रंथि का तर्पण करना है।’’ यह लेखक की अतिशय विनम्रता कहिए या साफगोई का आग्रह जो वह अपने उपन्यास में उक्त बातों को स्वीकार करता है। जबकि ऐसा पूर्ण सत्य नहीं माना जा सकता। इसके दो कारण हैं। एक - ग्रंथि साहित्य को व्यापक दृष्टिकोण नहीं दे सकती। दो - ग्रंथि व्यक्ति का जन्मजात गुण अथवा स्वभाव नहीं होती। दोनों बातों के प्रकाश में ‘बिसात’ को जाँचा-परखा जाए तो ये बातें सिर्फ कहने भर की लगती हैं। उपन्यास में साहित्य और समाज की संरचनात्मक जटिलताएँ दिखाई देती हैं। यदि लेखक में उपन्यास लिखने के पीछे ग्रंथि, कुंठा और निंदा जैसे तत्त्व विद्यमान भी हैं तो भी उनके सामाजिक, साहित्यिक कारणों को पहचानना जरूरी होगा।
उपन्यास के मुख्य नायक नेकीराम का जन्म जिस माहौल और समय में हुआ, उसमें सामाजिक और आर्थिक दोनों प्रकार की त्रासदियाँ रहीं। नेकीराम को जहाँ आर्थिक अभाव के चलते उचित पालन-पोषण और उचित शिक्षा से वंचित रहना पड़ा, वहीं उसे परिवार नियोजन के अतिक्रमण के कारण भी कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ा। ये परेशानियाँ तब और भी विकराल रूप धारण कर लेती हैं, जब इनमें सामाजिक जटिलताएँ आ मिलती हैं। आर्थिक अभाव या किसी जाति विशेष में पैदा होना  उतना मायने नहीं रखता जितना समाज द्वारा इन समस्याओं को बनाए रखने के षड्यंत्र रचना। यह एक षड्यंत्र ही है कि व्यक्ति की पहचान कर्मणा न होकर जन्मना बना दी गई है। इसके आधार पर किसी व्यक्ति विशेष का मूल्यांकन करना एक सामाजिक षड्यंत्र है। इस सामाजिक षड्यंत्र का एक रूप यह भी सामने आता है कि तथाकथित उच्च वर्ग निम्न वर्ग को बढ़ते नहीं देख पाता। पोस्टमैंन पंडित ब्रह्मप्रकाश शर्मा द्वारा नेकीराम को काॅललैटर न दिया जाना उच्चवर्ग के षड्यंत्र को सामने लाता है। यद्यपि सभी ऐसे नहीं होते, फिर भी नेकीराम के संदर्भ में यह घटना रूह कँपा देने वाली है। एक तरफ नेकीराम अपनी आर्थिक और पारिवारिक स्थितियों से बामुश्किल उबरने का प्रयास करता है तो दूसरी तरफ उसे ब्रह्मप्रकाश जैसे कितनी आसानी से अंधकार की ओर धकलेने की कोशिश करते रहते हैं। यदि नेकीराम इस प्रकरण में उचित कार्रवाई न करे तो निश्चित ही वह हाथ आई नौकरी गँवा सकता था।
सामाजिक विसंगति और रूढ़िवाद के चलते शुरूआती नौकरी के दौरान भी नेकीराम से मुनीमगिरी की अपेक्षा घरेलू कामकाज या कहिए बेगार के काम अधिक लिये जाते हैं। ‘‘नेकीराम को नौकरी तो मिली दुकान के बहीखाते लिखने और उसका हिसाब-किताब रखने की। लेकिन उस जैसा कोई काम उससे लिया नहीं गया। उससे काम लिया गया दुकान पर आए ग्राहकों, आढ़तियों को पानी पिलाने का, सुबह दुकान की झाड़-पोंछ करने का और बाहर से आकर ठहरने वाले आढ़तियों की सेवा-सुश्रूषा करने का।’’ इसके अतिरिक्त घर की साग-सब्जी लाने और कपड़े इस्तरी करवाने आदि का काम भी नेकीराम से ही लिया जाता। कारण, पूर्वसंयोजित संस्कार। ये संस्कार उच्चवर्ग में जिस तरह से कार्य करते हैं, वैसे निम्नवर्ग में नहीं करते। भारतीय धर्म और नीतिशास्त्र के परम्परावादी और रूढ़िवादी संस्कार एक तरफ जहाँ उच्चवर्ग को दंभी, अनुदार और धृष्ट बनाते हैं, वहीं ये निम्नवर्ग में निराशा, कुंठा और हीनता का बीजारोपण करते हैं। कह सकते हैं कि निम्नवर्ग भाग्यवादी और यथास्थितिवादी हो जाता है, जिसे बनाए रखने के लिए उच्चवर्ग निरन्तर क्रियाशील रहता है। वह स्वयं तो अर्थ और सत्ता का उपभोग करता है, किन्तु निम्नवर्ग को रूढ़िवाद की कारा में धकेले रहता है। विडम्बना यह है कि निम्नवर्ग भी इसको अपनी नियति मानकर कोई ठोस कदम नहीं उठाता। ‘बिसात’ उपन्यास में नेकीराम भी मुनीमगिरी की नौकरी में बेगार को अपनी नियति मान लेता है। हालाँकि प्रेमप्रसंग मंे ठोकर खाकर नेकीराम कुछ सँभल भी जाता है। इस ठोकर से उसे अपने और लाला की लड़की के बीच की सामाजिक खाई नजर आने लगती है।
समाज में यह जो असामानता की खाई है, इसे उच्चवर्ग ने खोदा अवश्य है, किन्तु इसके बने रहने में उच्च और निम्न दोनों वर्ग जिम्मेदार हैं। एक इसे इसलिए नहीं पाटता कि इसके बने रहने में उसके सामाजिक और राजनीतिक हित अंतर्निहित हैं। दूसरा इस खाई के बने रहने का इसलिए जिम्मेदार है कि वह इसके खिलाफ न कोई वैज्ञानिक दृष्टि अपनाता है और न ही कोई सक्रिय कदम उठाता है। यही कारण है कि परम्परावादी, रूढ़िवादी संस्कार नष्ट नहीं हो पाते। नेकीराम जिन संस्कारों में पला-बढ़ा, वे भी सामान्यतः उच्चवर्ग द्वारा ही थोपे गये हैं, जिनका निम्नवर्ग सदा से शिकार रहा है, बल्कि यह कहिए कि वह इनका इतना आदी हो चुका है कि खुद उसे अपने सामाजिक पतन के कारण दिखाई नहीं पड़ते। नेकीराम में भी कुछेक ऐसे ही संस्कार जड़ जमाए हुए हैं। उदाहरण के लिए, वह ईश्वर और भाग्य के अस्तित्व को नहीं नकार पाता है, जबकि इन दोनों ने कम से कम नेकीराम जैसों को तो कुछ नहीं दिया। अपने जन्म की तुलना में भगवान श्रीकृष्ण को रखना, नेहा द्वारा ठुकराए जाने पर आदर्शवाद का सहारा लेना तथा प्रेम में यह कहना कि ‘‘इस संग्राम में मर भी गये तो अमर हो जाएँगे और जिये तो प्यार में जिएँगे, दोनों तरफ जीत ही जीत है।’’ खुद को बहलाने और भरमाने के  अतिरिक्त कुछ भी नहीं। नेकीराम के इन आदर्शवादी मूल्यों के पीछे ईश्वरवाद, नियतिवाद तथा यथास्थितिवाद जैसे रूढ़ तथा जड़ संस्कार ही हैं जो उसे समाज तथा परिवार से मिले हैं। हालाँकि नेकीराम पूरी तरह इन पर आश्रित नहीं फिर भी इनकी सत्ता का कोई नकार नेकीराम में दिखाई नहीं देता। कहावत है - हारे को हरिनाम। यह कहावत सरासर गलत है क्योंकि इसमें असहायों और पीड़ितों के तुष्टिकरण के अलावा कुछ भी नहीं। शोषितों और निम्नवर्गीय समाजों का उत्थान केवल शिक्षा, संघर्ष और संगठनात्मक शक्ति में है। इसलिए नेकीराम का जो भी आर्थिक और सामाजिक विकास होता है, वह उसके अपने संघर्ष और शिक्षा के दम पर होता है, न कि भाग्यवादी या आदर्शवादी होने से।
अपने औसत दर्जे के संघर्ष और रुकी हुई शिक्षा को पूर्ण करके नेकीराम आखिर बौद्धिक कहे जाने वाले समाज (साहित्य समाज) से जुड़ जाता है।यहाँ भी वह धीरे-धीरे अनुभव करता है कि विद्वान् कहे जाने वाले लोगों के भी दोहरे एजेंडे हैं। इनके भी कई-कई मुखौटे हैं। ये भी अपनी स्वार्थ सिद्धि में संलिप्त हैं। सबके अपने-अपने अहम हैं जिसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं, चाकरी कर सकते हैं, धोखा दे सकते हैं, एक-दूसरे से छद्म सम्मान ले-दे सकते हैं आदि। नेकीराम यह सब अपनी आँखों से देखता है तो नेकीराम के सामने एक तरह से साहित्य का समाजशास्त्र खुलता है। यहीं उसे अपने साहित्य के प्रति पाठक, आलोचक और प्रकाशकों के रवैये का पता चलता है। जिस उपेक्षा का सामना नेकीराम अपनी शिक्षा और नौकरी के दौरान करता है, वैसा ही कुछ उसे साहित्य के समाज में भी करना पड़ता है। नेकीराम जिस वर्ग विशेष से संबंध रखता है, उसकी त्रासदी उसके लेखन में आनी स्वाभाविक थी, जिससे साहित्य का आभिजात्य वर्ग खासा परहेज करता है क्योंकि उसमें नेकीराम के यथार्थ का सामना करने की हिम्मत नहीं होती। परिणामस्वरूप नेकीराम और साहित्य के इस समाज के बीच एक अदृश्य दूरी खिंच जाती है। इस दूरी का आभास नेकीराम ने काॅलेज के दिनों में भी महसूस किया था। बाद में इसका विकराल रूप स्थानीय साहित्यिक संस्था वाणी से जुड़ने के बाद सामने आया। इस संस्था के मा/यम से जो भी साहित्यकार नेकीराम के संपर्क में आए, उनमें से ज्यादातर ने नेकीराम से अपना उल्लू सीधा करने के प्रयास किये। कहीं धाँसू कवि ने अटैची उठवाई तो कहीं वाणी की मासिक गोष्ठियों में साहित्यकारों ने उपेक्षित किया। इस तरह का बर्ताव नेकीराम के साथ न सिर्फ वाणी की स्थाानीय गोष्ठियों में हुआ, बल्कि कवि-सम्मेलनों के कई बड़े मंचों पर भी हुआ। शोषितों के साहित्य से जैसे आलोचक और पाठक वर्ग नाक-भौं सिंकोड़ता है, उसी तरह प्रकाशकों के भी अपने नखरे होते हैं। यह परेशानी नेकीराम के सामने भी आई। नेकीराम जैसे कवियों-साहित्यकारों को न उचित आलोचक मिल पाते हैं, न प्रकाशक। क्योंकि यथार्थ कड़वा, दुरूह और बदसूरत हुआ करता है तो वह खोखले आदर्शवादियों को कैसे रास आ सकता है? नेकीराम का साहित्य भी रास नहीं आता। कुल मिलाकर नेकीराम का जीवन और साहित्य समाजशास्त्रीय और साहित्य के समाजशास्त्र के आधार पर असंगति और विसंगति का शिकार बना रहता है, जिसका विवरण प्रस्तुत उपन्यास ‘बिसात’ में हुआ है। जैसा कि ‘बिसात’ का अर्थ क्षमता, औकात अथवा चैसर (शतरंज की बिसात) है, इस आधार पर देखें तो ‘बिसात’ साहित्य और समाज की पोल खोलता है। खुद नेकीराम भी इसका शिकार होता है। वह भी कहीं न कहीं साहित्य की बिसात का खिलाड़ी बनना चाहता है। तभी वह धाँसू, यदुनाथ पिपासा, तबलीराम, खरेराम, कवि भूषण तथा तुरंगनाद जैसे कवियों को कहीं दारू पिलवाता है तो कहीं लैगपीस खिलवाता है। खुद को नारद की भूमिका में रखना भी नेकीराम में मानवीय दुर्बलताओं की ओर इशारा करता है। भले ही इसके ठोस राजनीतिक कारण बिसात में उपलब्ध न हों, फिर भी उपन्यासकार द्वारा नेकीराम को नायकवाद के आधार पर उपन्यास में रखना एक राजनीतिक कारण तो है ही। यही कारण है, लगभग आधे उपन्यास के बाद ‘खुजली रोग’ से उपन्यासकार का चिंतन एकांगी होने लगता है और वह उपन्यास के शिल्प से व्यक्ति-चित्र पर आ जाता है। यह लेखक अथवा नेकीराम का नायकवादी आग्रह ही है। जबकि यह समझा जाना जरूरी है कि नायकवाद उसी व्यवस्था का हिस्सा है, जिससे नेकीराम अथवा उपन्यासकार टकराना चाहता है। बहरहाल, साहित्य और समाज  में कैसे शतरंजी खेल खेले जाते हैं, कैसे किसी को मोहरा और राजा बनाया जाता है, इसकी काफी सटीक बानगी ‘बिसात’ में उभरकर सामने आती है।
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पुस्तक - बिसात (उपन्यास); लेखक - नेमपाल प्रजापति; संस्करण - प्रथम (2017),
प्रकाशक - सहज प्रकाशन, 113 लाल बाग, गांधी कालोनी, मुजफ्फरनगर-251001 (उ.प्र.)
पृष्ठ संख्या - 152; मूल्य - 200₹





Comments

  1. सही विश्लेषण किया, कुंठा ग्रस्त व्यक्ति कभी भी अच्छा साहित्यकार नही हो सकता| साहित्यकार बन जाये मगर अपनो के खिलाफ सबमे कमियाँ तलाशता साहित्यकार, खुद का विश्लैषण सर्वोत्तम साधन है| आपकी समीक्षा से पढने की जिज्ञासा पैदा होती है|

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  2. धन्यवाद! जरूर पढ़िए!

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  3. बिसात लगभग 75 प्रतिशत पढ़ी हैं मैंने नेमपाल जी की कटाक्ष कहने और व्यंग करने की शैली की कविताओं में मैं फ़ैन हूँ ।किन्तु लेखक ने नेकीराम चरित्र को व्यक्तिगत रूप से शिकायत और व्यसनों से उबरने के लिए प्रेरित नही किया सब कुछ करने के बाद आप स्वयं की गलतियों को सुधारें इस पर चर्चा नही हुई एक बार भी हृदय परिवर्तिन कि ओर नही उद्गृत होना थोड़ी निराशावादी सोच हो सकती है ।सिस्टम में हमेशा से ही खामियां थी और हैं किंतु जब आप समर्थ हो गए तब आप उसी मानसिकता विचार को ढो नहीं सकते ठीक उसी तरह जैसे चोट का दर्द हरा रखने की मानसिकता होती है चोट उतना दर्द हमेशा नही दे सकती ।सिस्टम में आज सवर्ण भी आरक्षित वर्ग की प्रताड़नाओं का शिकार है इस पर कोई नहीं लिखना चाहता क्योंकि बिकेगा नहीं ।पढ़ा नहीं जाएगा किन्तु नियमों का दुरुपयोग पर भी चर्चा होनी चाहिए ।इसीलिए मुझे बिसात उपन्यास से कहीं ज्यादा निजी संस्मरण लगा ।लेखक की रचनाशीलता को नमन जिसने आधे से ज्यादा भाग पढ़ने को मुझे मजबूर किया ।हार्दिक बधाई समीक्षा उत्कृष्ट लिखी शुभकामनाये।🙏😊

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    1. आपकी टिप्पणी के मध्यांतर आयी कई बातों से नाइत्तेफाकी है, जिन पर मिलकर बात होगी कभी। फिलाहल समीक्षा पाठ और कॉमेंट के लिए हार्दिक धन्यवाद।

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