एस. एन. प्रसाद द्वारा लिखी गई 'हमारे गांव में हमारा क्या है!' की समीक्षा
एस एन प्रसाद, लखनऊ, उत्तर प्रदेश
पुस्तक की समीक्षा
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पुस्तक का नाम- हमारे गांव में हमारा क्या है
(काव्यात्मक आत्मकथा)
लेखक/रचयिता- डॉ0 अमित धर्मसिंह
समीक्षक- एस.एन.प्रसाद
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व्यक्ति जहां जन्म लेता है, जिस मिट्टी, परिवेश तथा परिस्थितियों में पलता बढ़ता है, उनकी खट्टी मीठी यादे और अनुभव आजीवन उसके स्मृति पटल पर हमेशा तरोताजा रहती हैं। भारत गांवों का देश है।इसकी सर्वाधिक आबादी आज भी गांवों में ही रहती है। इसीलिए अनेकानेक साहित्यकारों द्वारा साहित्य के विभिन्न विधाओं के माध्यम से अपनी सोच और समझ के दायरे में गांवों का चित्रण किया गया है। गैर दलित साहित्यकारों विशेषकर कवियों ने गांवों को आदर्श रूप में चित्रित किया हैं।उन्हें गांव में रहनेवाले सदियों से उपेक्षित,शोषित, पीड़ित, साधन विहीन, निर्धन,सामंती व्यवस्था की क्रूरता, जाति-पाति, ऊंच -नीच,छुआ -छूत आदि सामाजिक बुराइयाँ/विसंगतियां कभी दिखाई नहीं देती। युगों से अमानवीय हदों को पार करने वाले सामंतवादी ताकतों ने दलितों से उनके खेत,खलिहान तथा बाग बगीचे छीन कर पशुओं से भी बदतर जीवन जीने के लिए हासिये पर ढकेल दिया है। वर्चस्ववादी समाज के कवियों की कविताओं में प्रताड़ित किये गए बहुसंख्य दलित समाज की पीड़ा का स्वर सुनाई नहीं देता।
अपने पुरखों के दर्द और दुखों तथा उन्हीं निर्मम व्यवस्थाओं में रहने वाले बंचित समाज के कवियों ने कालांतर से चली आ रही सामाजिक आर्थिक विषमताओं एवं विसंगतियों के विरुद्ध अपनी रचनाओं का विषय बनाते रहे हैं। गांवों में रहने वाले दलित समुदाय पर लिखी गयी कविताओं /आत्मकथाओं में दलित कवि/लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि और सूरजपाल चौहान की अहम भूमिका रही है। आज भी इस समाज के साहित्यकार आत्मकथाएं लिख रहे हैं।किन्तु किसी ने अब तक कोई काव्यमय आत्मकथा नहीं लिखा है। डॉ0 अमित धर्मसिंह पहले दलित कवि हैं जिन्होंने काव्यमय आत्मकथा लिख कर नया इतिहास बनाया है।
डॉ0 अमित धर्मसिंह का जन्म पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कस्बा ककरौली में हुआ तथा ग्राम वहलना जनपद मुजफ्फरनगर में पले बढ़े। जन्म से लेकर किशोरावस्था तक उसी गांव में अपने माता पिता तथा बहन भाइयों के साथ घोर अभावों में रहते हुए प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण की। उस बाल मन पर गांव का जो चित्र अंकित हुआ उन सबका 41 शीर्षकों द्वारा अपनी काव्यमय आत्मकथा " हमारे गांव में हमारा क्या है " में तत्समय की स्थितियों एवं परिस्थितियों की सशक्त अभिव्यक्ति दी है।
गांव के आदमी की पहचान उसके निजी मकान, खेत, खलिहान,बाग-बगीचे दुकान, सम्मानजनक पेशा और जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की उपलब्धता से होती है। जिनके पास ये सब नहीं हैं वे साधन संपन्न दूसरों की विशिष्टियों के सहारे अपनी अस्मिता को कैसे स्वीकार कर सकते हैं। कवि जिस सामाजिक वर्ग से आता है उसकी यह भयावह स्थिति पूरे देश में है। " हमारे गांव मे हमारा क्या है" काव्यात्मक आत्मकथा डॉ0 अमित धर्मसिंह द्वारा अपने गांव में बचपन के समय भोगे हुए गरीबी और अभावों तथा उनसे उत्पन्न व्यथा का कथात्मक शैली में रची गयी कविताओं का समृद्ध संग्रह है। इस संग्रह के अंतर्गत प्रत्येक शीर्षक में अपने कटु अनुभवों तथा एहसासों को चित्रित किया है। वास्तव में कवि द्वारा व्यक्त पीड़ा सम्पूर्ण दलित, बंचित और शोषित समाज के आर्थिक,समाजिक एवं सांस्कृतिक त्रासदी का दस्तावेज है।
" हमारे गांव में हमारा क्या है " शीर्षक कविता में अपना खेत न होने की पीड़ा का एक बानगी देखिये-
हर सुबह दूसरों के खेतों में /फारिग होने गये/तो पता होता कि खेत किसका है/उसके आ जाने का डर/बराबर बना रहता। इसी शीर्षक में कवि आगे लिखता है -
दूसरों के खेतों से बथुआ तोड़ कर लाये/आलू चुग कर लाए/दूसरों के खेतों से ही/गन्ने बुवाते,धान रोपते,काटते/ दफन होते रहे हमारे पुरखे/दूसरों के खेतों में ही।
अंत में कवि कहता है-
हमारे गांव में हमारा क्या है/ये हम आज तक नहीं जान पाए।
कितना वाजिब है उसका कहना। जब अपना खेत हीं नहीं तो उसकी पहचान कैसी। अत्यंत मार्मिक ढंग से अपनी विवशता को प्रकट करते हुए प्रभु समाज को बिना आरोपित किये एक अहम प्रश्न भी खड़ा करता है।
" बचपन के पकवान " शीर्षक कविता में भूख और गरीबी का आलम गौर तलब है-
स्कूल से आते आते/पेट कमर से मिल जाता/दिमाग मे दो चीजें चलती/गर्मियों में लहसुन की चटनी/सर्दियों में बथुए और सरसों का साग। कवि यहीं नही रुकता वह आगे बताता है कि- कभी कभी /ऐसा भी वक्त आता/जब चटनी,छाछ और साग तो क्या/गंट्ठी रोटी भी न मिलती/खून सुख जाता पल में/ बारी बारी से।
पेट की भूख बड़ी अजीब होती है। इंसान भूख मिटाने के लिए क्या क्या नहीं करता ।कभी कभी दूसरों के खेतों से पापडे,गन्ना,कद्दू,बथुआ,अमरूद,कच्चे आम, गाजर मूली आदि की छोटी मोटी चोरियां भी करता है । ये सब गरीबी के कारण ही होते हैं।
" मेला " शीर्षक कविता में धनाभाव के कारण मेला न जा पाने की एक बाल मन की कसक का एक उदाहरण पठनीय है-
खाट पर/पड़े-पड़े चुपचाप/मेले में आने जाने वालों को देखते रहे/देखते देखते मेला उजड़ गया था/गांव से भी/और जिंदगी से भी।
बच्चों के लिए मेला मनोरंजन का साधन होता है। साथ ही उनके खाने पीने की चीजें भी उपलब्ध रहतीं हैं। किंतु गरीबों के बच्चों को यह सब मयस्सर कहां।
"शौक " शीर्षक में कवि अपने शौक का विवरण प्रस्तुत किया है। उसे वीसीआर देखना रुचिकर लगता है। कवि कहता है-
मतवालों में/या हमारे मोहल्ले में/ जहां कहीं भी वीसीआर आता/ हमारा जाना तय
होता।
कट्टा आदि बिछा कर/या जमीन पर ही बैठ कर/
धूल-धक्कड़ होते हुए/रात भर वीसीआर देखते।
सूर्या, जाने नहीं दूंगा, दूध का कर्ज आदि दो दर्जन से अधिक फिल्मों का नाम गिनाया गया है। देखे गए फिल्मों के विषय में कैसे अगले दिन चर्चा होती,बानगी देखिये-
जिनकी स्टोरी अगले दिन/दूसरों को बड़े गुमान से सुनाई जाती।
जब वीसीआर नही देख पाता है तो उसका मलाल भी होता यथा-
वीसीआर न देख पाना/बड़े अफसोस कि बात होती।
अभावों में भी बच्ची द्वारा कैसे शौक पूरा कर लिया जाता है, इस शीर्षक की कविता वास्तविकता बताने के लिए काफी है।
"ललक" शीर्षक की कविताओं में फ्री के खेल जैसे कंचे, गिल्ली डंडा,कांई पत्ता,आईस-पाइस,कबड्डी, ऊंची कूद, सांप सीढ़ी आदि दर्जनों ग्रामीण खेलो का वर्णन मिलता है।प्रायः इन खेलों में धन की आवश्यकता नहीं होती। गरीब बच्चे इन्ही खेलो से संतुष्टि पा लेते हैं जिसे कवि ने बड़ी सहजता से प्रदर्शित किया है।
" नुस्खे " शीर्षक में छोटी मोटी बीमारियों को मिटाने के लिए घरेलू उपचार की युक्ति का विवरण कुछ इस प्रकार बताया गया है-
खुजली से निपटने के लिए नीम के पते पानी में उबाल कर नहाया जाता/गन्धक चूर्ण में सरसों का तेल मिलाकर एलर्जी वाले स्थानों पर लगाया जाता।
इसी प्रकार अन्य विमारियों के लिए अनेकशः उपाय बताए गए हैं। आज भी इन देशी उपायों से गरीब जन अपना इलाज करते मिल जाते हैं।
"घास" शीर्षक की कविता इस संग्रह की सर्वाधिक संवेदनशील कविताओं में शुमार है। गरीब परिवारों में पुरुषों और स्त्रियों के अतिरिक्त छोटे बच्चे भी शारीरिक सामर्थ्य से परे जिंदगी के जद्दोजहद में अपना बचपन खपा देते हैं। अभावों में पलने वाले बच्चों का भयावह सच कवि की अपनी कहानी है। कवि कहता है-
स्कूल जाने से पहले घास लाना होता/मोहल्ले के कई बच्चे थे हम/जो सुबह पांच बजे उठ कर/हांथ में दांती-चाल लिए/घास को जाया करते।
आगे की कड़ियों में घास की विभिन्न प्रजातियों का नाम जो अब तक कवि को याद है उनका विस्तृत विवरण देखें-
चांदनी,बेककम,भांतल,मोथा,बरटा,तमाखू भंगरा,भांग,रूस, कांस,पपोटन,दिद्दोफडी, भभोलन,बेल,खरैटी,बन्दरी,पालक,घेवड़,जरघा,कनवा,सेरू,दाब,बेगला,गजरा,चुलाई,सुरबाल,जोड़-तोड़,मुचमुचा,दुद्धी,पान्नी,चटोला,लाल फूल,धौला फूल,चंगेरी, मुरला,अंधा उल्लू,कंघी,सांठ,बकुम्बर,चिरचिटा,पोग्घी,
बथवा,लोभिया,पनियाला और कंदूरी आदि।
इन घासों को जानवरों के चारा के रूप में प्रयोग होता है।
कवि पुनः कहता है -
कभी कभी झोल भरने के लिए/खेतों में खड़ी फसल मुंजो,बाजरा,चेरी,जौ,बरसी/आदि काटने का भी खतरा उठाया जाता।
यह सब कार्य वास्तव में कवि की जीवनचर्या का ही अंग है। वह जिन परिस्थितियों में जिया है, जो अनुभव किया है उनका यथावत विवरण प्रस्तुत किया है। उसकी व्यथा का एक झलक देखें--
घास लाने के बाद/स्कूल जाया जाता/तो दुखती पीठ पर बस्ता/घास की गठरी की तरह ही महसूस होता/वजूद से भारी।
खेलने खाने की उम्र में मुफ़्लिश बच्चों को अपनी क्षमता से भी अधिक काम करना पड़ता है। इस देश की आर्थिक असमानता का इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति और क्या हो सकती है।
" काली नदी " शीर्षक में नदी के पानी से होने वाले उपचार,पशु, पक्षियों से लेकर किसान मजदूरों द्वारा पानी पीने तथा नहाने धोने का हवाला देते,मछलियां आदि पकड़ने के साथ ही बाद के समय में प्रदूषित होने का जिक्र करता है।यथा-
इसी के पानी से तृप्ति पाते/नहाने धोने से लेकर पीने तक/खांसी होने पर काली नदी का पानी/बोतल में भर कर लाया जाता/खांसी के रोगी को/सुबह शाम एक-एक ढक्कन पिलाया जाता।
चोरी छिपे जाते रहते काली नदी पर/कभी कचरे, सेंदी,फूट खाने/कभी केकड़े पकड़ने/कभी मच्छी मारने।
उसी नदी को प्रदूषित हो जाने के कारण कवि कितना दुखित है, एक बानगी ध्यातव्य है-
काली नदी पर अब/हरा सोख समंदर नहीं/बल्कि सख्त लैटरिंग के गुल्ले/और निरियल पानी के खाली खोक्के तैरते हैं।
आज भी नदी नालों की यही स्थिति है। इस कविता में कवि का प्रकृति से अगाध प्रेम दृष्टिगत होता है। नदी के जल को प्रदूशित होते देख वह चिंतित हो उठता है।
" बरसात " शीर्षक की कविता गरीबी और अभावों का हृदय विदारक मंजर पेश करती है। यथा-
हमारे कमरे की छत/घण्टे दो घण्टे की बारिश ही सह पाती/झड़ लगता तो हमारी शामत आ जाती।
पापा चुप चाप/कपड़े सँगवाने में लगे रहते/पूरी पूरी रात ऐसे ही निकल जाती।
मां के आंखों से टपकते आंसू/बारिश के पानी में धुलते रहते।
सर्दियों की बारिश में/रजाई का निचोड़ना सबसे भारी पड़ता।
पापा द्वारा पूर्व में ओला पड़ने के किस्से सुनाए थे कि किस तरह ओले की मार से भूरी भैंस रेंकती रही और खाल तक नहीं बची ।सुबह होते होते अंततः मर गयी।
उस किस्से के परिपेक्ष्य में सर्दियों की बरसात का स्मरण करते हुए कवि की बेचैनी निम्न पंक्तियों में देखी जा सकती है--
रिजाई पर पड़ती/बारिश की एक एक बूंद हमें/भूरी भैंस की पीठ पर पड़ते/ओले की तरह महसूस होती/मन भीतर भीतर रेंकता रहता।
एक कमरे में पूरे परिवार का रहना और बरसात होने पर उसी कमरे में खाना बनाया जाना बहुत मुश्किल काम है। गीली लकड़ियों को जलाना और उससे निकलने वाले धुवा से होने वाली दिक्कतों को भलीभांति समझा जा सकता है। वर्तनां में भी दलितों को ऐसी ही पीड़ा झेलनी पड़ती है।
" ईंधन " शीर्षक कविता में बरसात के दिनों में ईंधन की समस्या के अतिरिक्त खाद्यपदार्थों का अभाव , उधारी का जंजाल ,मां बाप द्वारा निरन्तर खाने पीने के सामानों की जुगत में लगे रहना, बच्चों के संभावित सहयोग के बाद भी स्थिति में परिवर्तन न होना परिवार के लिए परेशानियों का सर्वाधिक चिंता का सबब है। कवि ने इनके सम्बन्ध में कुछ इस प्रकार अपनी भावना व्यक्त किया है-
एक तो ईंधन गिला/ऊपर से हम सब/उसी कमरे में धुकडे रहते/बरसात बाहर न निकलने देती/धुवां कमरे में न जाने देता/चूल्हे में फूंक मार मार कर/मां का दम निकलता रहता।
कवि मां और पिता की बेबसी का मर्मान्तक विवरण देते हुए आगे लिखता है-
हमने मां-बाप को/किसी के शादी -ब्याह में/या किसी तीर्थ पर जाते नहीं देखा/बारह मास पापा की दिहाड़ी/मां का घास लाना चलता/और चलता/आलू,कद्दू,साग का कलेश/
इनसे निपटने के लिए /दोनो अपने अपने ढंग से जुटे रहते।
भोजन सामग्री के अनुपलब्धता के समय अक्सर पड़ोसी से उधार लिया जाता रहा।इस पर कवि के दारुण दुखों की अभिव्यक्ति देखिये-
जब तक पिछला उधार /लौटाने का वक्त आता/आगे उधार लेने की नौबत आ जाती/परचुनिया अलग से ,उगाही के लिए/घर गाहता रहता।
बावजूद इसके माँ-पापा जी-जान से/आटे और सब्जी के जुगत में लगे रहते/मगर रसोई का कलेश न कटता/दोनो चुपचाप आटे-सब्जी के जुगाड़ में/रसोई के ईंधन की तरह/फूंकते रहते।
" खामोशी " शीर्षक की कविता पूर्णरूप से पिता को समर्पित किया गया है।अपने पापा के वातशल्य प्रेम और त्याग के प्रति अभिभूत कवि के अमूल्य भाव निसन्देह सम्मानास्पद है। पापा के विविध स्वरूपों के विनम्र प्रस्तुति के दृश्य बेजोड़ हैं।यथा-
हमने पापा से बहुत ज्यादा बात नहीं की/उनके सुख दुख के बारे में/हमने जब भी उनसे बात की/अपने या अपनी जरूरतों के बारे में की/ पहली बार पापा स्कूल बैठाने गए/तो हम रोये/उन्होंने हमें चुप किया पैसे देकर/और कहा डरो नहीं मैं हूँ।
और हम डरे नहीं ,कि पापा हैं।
स्कूल की फीस चुकता न होने पर
पापा कहते,तुम चलो/मैं स्कूल में ही आ रहा हूं/कभी आते,कभी नहीं/मगर हम निश्चिंत होकर स्कूल जाते कि पापा हैं।
पिता के मनोभावों को अनूठे ढंग से व्यक्त करते हुए कवि आगे कहता है-
वे दुखी होते भी/दुखी नहीं दिखे/कि हम दुखी न हों/इसलिए खामोश रहे/पहले की तरह/
उससे ज्यादा।
हमने पापा से बहुत ज्यादा बात नहीं की/ कि बहुत ज्यादा बात करते/ही नहीं पापा/कि बहुत ज्यादा /समझ ही कहाँ पाए/हम पापा को/उनकी खमोशी को।
इसी प्रकार "किरड़ी" शीर्षक में सोने की जगह की कमी होने के कारण उससे उपजी पिता की कठिनाइयों के कारुणिक ब्यथा पर कवि कितना आहत है , उसका एक उदाहरण प्रस्तुत है-
कमरे में एक तरफ/एक खाट बिछने/और दूसरी तरफ डंगरों के बंधने के बाद/बीच में जो जगह बचती/वो दूसरी खाट बिछाने के लिए/थोड़ी पड़ती/मजबूरन नीचे खुले पुराल पर/कपड़ा बिछा कर सोते पापा। ये बुनियादी सवाल अब भी बंचित समाज के लिए नासूर बने हुए हैं।
" प्रलाप (एक)" शीर्षक की कविता में कवि अपनी छोटी अपाहिज बहन अनिता की बीमारी का जो दयनीय दृश्य प्रस्तुत किया है उससे पाषाण हृदय भी द्रवीभूत हो जाएगा। बहन की तबियत अत्यधिक खराब होने के कारण छोटी उम्र का एक बालक बदहवास होकर अपने माता पिता को ढूढ़ता फिरता है कि उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत करा सके। इस सम्बंध में कवि के अंतर्मन में अवस्थित पीड़ा का भाव देखे-
चिलचिलाती दोपहरी का दिन था/झिंगला खटोले पर पड़ी थी अनिता/निस्तेज
उसकी आंखें खुली थी,अपलक /सांस अटक कर आ रही थी/में घबरा गया।
इस भयावह स्थिति को देख कर कवि अपने पिता और माँ को ढूंढ़ता फिरता है,जिसकी बानगी देखिये-
पापा किसका घर/बनाने में लगे थे,पता नहीं/माँ किसके खेतों में/घास काट रही थी,पता नहीं/फिर भी मैँ जंगल की ओर बढ़ा माँ को खोजने/सोचा माँ को चल कर बताऊं/अनिता की तबियत ज्यादा खराब है।
लेकिन कवि न तो पापा को खोज पाया और न ही माँ को। अंततः शाम हो जाती है।
अगली पंक्तियों में कवि लिखता है -
उस दिन शाम को /पापा काम से आये/माँ जंगल से आई/ हम भी कहीं कहीं/ धक्के खाकर /घर आ गए/ मगर अनिता/घर से जा चुकी थी/हमारा दिया हुआ/खटोला छोड़ कर।
अनिता कवि की अकेली छोटी बहन थी । माँ ने बेटी के लिए मन्नत मानी थी। लेकिन शारीरिक अक्षमता के कारण अनिता जिंदगी से लड़ते हुए आखिरकार इस संसार को छोड़ देती है, हमेशा हमेशा के लिए। धनाभाव के कारण लाखों दलित बच्चे समुचित उपचार न मिलने से आजीवन या तो अपाहिज रहते या फिर असमय काल कवलित हो जाते हैं।
[ ] इसी प्रकार अन्य सभी शीर्षकों की कविताएं तत्कालीन ग्रामीण परिवेश और अभावग्रस्त जीवन की विवशताओं को उजागिर करने में शतप्रतिशत सक्षम और सफल हैं। स्थानीय बोलियों में पात्रों का सम्बाद तथा खड़ी हिंदी भाषा का आवश्यकतानुसार प्रयोग जिस तरह अपनत्व की अनुभूति कराती है,काबिले तारीफ है। यथार्थ की अभिव्यंजना इस संग्रह का सौंदर्य है । बिना किसी सामाजिक विद्वेष,आरोप प्रत्यारोप तथा दूसरों के प्रति कटुता के, अपने गांव, परिवार और प्रतिवेसियों का जो वास्तविक खाका खींचा गया है,अन्यत्र दुर्लभ है। आर्थिक सामाजिक समस्याओं के साथ ही मानवीय मनोभावो का चित्रण अन्य कवि/लेखकों से अलग और व्यक्तिगत अभावों तथा निर्धनता के कारण उपजी समस्याओं को निर्वैयक्तिक फलक देने में कवि डॉ0 अमित धर्मसिंह की काव्यमय आत्मकथा " हमारे गांव में हमारा क्या है" निसन्देह उत्कृष्ट ग्रन्थ है। यह काव्य संग्रह सदियों से दलित बहुजन समाज के निर्मम त्रासदी के विरुद्ध क्रांति की मशाल प्रज्ज्वलित करता है।इसमें संघर्ष करने की अद्भुत माद्दा है। निर्विवाद रूप से सभी इकतालीस कविताओं में अम्बेडकरवादी चेतना पूर्णतःपरिलक्षित है।इस संग्रह में
[ ] "मेरे " के बजाय " हमारे" का प्रयोग अनायास नहीं है। " हमारे " शब्द से समुदाय विशेष की व्यापकता को विस्तार मिलता है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इस बहुआयामी संग्रह ने डॉ0 अमित को दलित साहित्य के सर्वोच्च शिखर पर स्थापित कर दिया है। यह संग्रह एक तरफ जहां आम जन के लिये प्रेरणास्पद, नई पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक है तो दूसरी तरफ शोधार्थियों के लिए सन्दर्भ ग्रन्थ है। अंत में काव्यमय आत्मकथा संग्रह " हमारे गांव में हमारा क्या है!" तथा इसके सर्जक डॉ0 अमित धर्मसिंह जी के प्रति मंगल कामनाएं सम्प्रेषित करता हूँ।
- एस.एन.प्रसाद, लखनऊ
31/10/2023
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