मदनलाल राज़ द्वारा लिखी गई हमारे गांव में हमारा क्या है ! की समीक्षा

 


              मदनलाल राज़, अंबेडकनगर, दिल्ली

मदन लाल राज़


हमारे गांव में हमारा क्या है! एक अनूठी आत्मकथा है


'हमारे गांव में हमारा क्या है!' एक अनूठी आत्मकथा है, जिसे अमित धर्म सिंह जी ने काव्य के रूप में अभावग्रस्त प्रारम्भिक ग्रामीण जीवन को बहुत ही खूबसूरती के साथ उकेरा है। इसको पढ़ते- पढ़ते पाठक साधारण धर्म को जी रहा होता है। खुदरंग भाव की चासनी में डूबे शब्द जो कविता की आत्मा को परिलक्षित करते हैं। भाषा शैली  एक  दम सीधी - सपाट और रोचक लगी । जो भी कविता पढ़ी वह पूरी पढ़ी बीच में कोई कविता अधूरी नहीं छोड़ी। कई कविताएं तो दो-तीन बार पढ़ी, फिर भी पढते - पढ़ते मन नहीं भरा।  

भूमिहीन किसान  किसी दूसरे के खेत में सुबह शौच के लिए बैठता है तो उस समय भी भयभीत रहता है कि कहीं खेत का मालिक ना आए। वह जब चारों तरफ देखता है तो अपने सिवा सब कुछ दूसरों का ही दिखाई देता है। वो भी किसी के अहसानों से दबा, तो किसी के कर्जे में फंसा। 

बचपन के पकवानों कविता में गांव के शोषित लोगों के मासूम बच्चों की याद दिलाती है कि जिस गांव में रहते हैं उसमें पेट भरने के लिए कितनी जुगत लगानी पड़ती है । गांव के साधन संपन्न लोग तो ठाट- बाट का जीवन जी रहे हैं पर  आम आदमी कुण्ठा ग्रस्त है।  गांव की बहुतायत जनसंख्या केवल पेट भरने की जद्दोजहद  कर रही है तो कुछ लोगों का  धनाढ्य होना  तो अच्छी बात है पर  गांवों की सुन्दरता पर निर्धनता का पैबंद भी लगा हुआ है। कहते हैं कि  गांव में कोई भूखा नहीं मरता लेकिन ये बात भी सब जानते हैं कि गरीब का पेट भी आसानी से भी नहीं भरता है।  इसके लिए धनहीन व्यक्ति कभी अपमान का घूंट पीता है तो कभी बेवजह झिड़कियां खाता है। मगर  क्या मजाल जो बेचारा  अपना मेहनताना मांग ले। यदि कोई मजबूरीवश ऐसी गस्ताखी कर दे तो सुनने को मिलता है  " हम तेरा खाकर मर रहे हैं या गांव छोड़कर भाग रहे हैं जो सौ रूपये के लिए हमारे सिर पर खड़ा हो गया, जा जब होंगे तो दे देंगे। " उल्टे लानत  सुनने को मिलती हैं। 

 गरीब के बच्चों का तो पेट भरने का संघर्ष तो बचपन में ही शुरू हो जाता है। भूख लगने पर बच्चे जब माँ से पूछते हैं " कि रोटी क्यों नहीं बनाई " पंक्तियाँ दिल को अंदर तक कचोटती है । मां कातर दृष्टि से बच्चों को देखती तो उसकी आँखों में विवशता झलकती है। मां का बस चले तो औलाद को अपना कलेजा निकाल कर दे दे ?

 पढ़ाई के टोटके कविता में दरिद्रता ही पढ़ाई करने के लिए प्रेरित करती है कि पढ़- लिखकर कुछ बन जायेंगे कुछ जबकि भूखे- पेट पढ़ने वाले दीन- हीन बच्चों का एक बड़ा इम्तिहान भी सिद्ध होता है।

काली नदी कविता के माध्यम से कवि ने बताया कि शहरों के बीच से गुजरती नदी ही प्रदूषित नहीं है अब तो गांव और जंगलों के बीच से गुजरने वाली नदियां भी इस भयावह स्थिति से बची नहीं है। हम ही नदियों को गंदा करते हैं और हम ही उसको स्वच्छ बनाने का ढोंग रचते हैं जबकि नदी साफ करने के लिए ना कोई ठोस कदम उठाते हैं और ना कोई रचनात्मकता अपने जीवन में लाते हैं । जैसा चल रहा है वैसा ही चलता जा रहा है। परिणाम के नाम पर वही ढाक के वही तीन पात। 

 नुस्खे कविता में गरीब  मजदूर लोगों के बच्चे कठिन जीवन जीने को मजबूर है। नाम मात्र की देशी दवा  के बल पर कष्टमय जीवन जिया करते हैं । नन्हीं- नन्हीं जानों में  भी गज़ब की प्रतिरोधक क्षमता , व्यावहारिकता और सपाट जीवन की झलक दिखाई देती है। मां- पिता  अबोध बच्चों के बीमार होने पर बेअसर टोटके करते हैं,  दिल को तसल्ली देने के लिए। जबकि वो जानते हैं कि कुछ नहीं होने वाला , लाचार हैं पर कर भी क्या सकते हैं ?  डॉक्टर के पास जाना ,  दवाई लाना उनके बस की बात नहीं है। कई बार ऐसा लगता है कि इस दुनिया में गरीब होना और ऊपर से दलित होना भी एक मानवीय सजा है।  यहां भारतीय ग्रामीण परिवेश में तंगहाल बचपन का नग्न चित्रण है।

जरूरत कविता में बेगार करवाने वाली दुष्ट बुढ़िया का और छोटे बच्चे  जो सरल स्वभाव लिए आत्मनिर्भर बनने का सपना संजोते हैं, उनके भोलेपन में ठगे जाने का संदर चित्रण  है। सारा दिन भट्टी में खोई बच्चे इस लालच में झोंकते रहे कि शाम को गुड़ खाने को मिल जाएगा लेकिन  धूर्त जग्गो बुढ़िया जानती थी कि काम करवा कर एक डांट ही तो मारनी है। थोड़ा - सा गुड बचाने के लिए क्योंकि उसे मालूम है कि गरीब और कमजोर लोगों के बच्चों की मानसिकता भी  दबी होती है ।  बच्चों की तो छोड़िए इनके मां-बाप में भी इतनी हिम्मत नहीं कि वह कुछ बोल सकें ?

 बचपन में मिट्टी खाने का जिक्र किया गया है जो की एक गंदी आदत मानी जाती है । गरीब परिवारों के बच्चे ही मिट्टी क्यों खाते  हैं । हमने  भी तो अभिजात्य वर्ग के कई कवियों और लेखकों की भी आत्मकथाएं पढ़ी हैं उन सभी में एक ही सामान्य बात थी कि उनको बचपन में पोष्टिक और संतुलित आहार मिलता था । उनमें से किसी ने भी स्वयं के मिट्टी खाने की बात नहीं कही। जबकि गरीबों के बच्चे मिट्टी खाते हैं कारण स्पष्ट है कि शरीर में जिन खनिज लवणों  की कमी होती थी, वह मिट्टी में पाए जाने वाले तत्वों से ही पूरी होती है।

किताबें कविता में कवि ने बताया कि बचपन में कुछ मास्टरों का हौवा सभी बच्चों के दिमाग में होता था। कवि ने गांव के क्रूर स्वभाव वाले अध्यापकों  का चित्रण किया है  कि किस प्रकार वे बच्चों को मार- पीटकर, डरा- धमका कर रखते थे। गुस्सैल प्रवृत्ति वाले मास्टर साठ से नब्बे के दशक में लगभग हर विद्यालय में पाए जाते थे। हम और हमारे अभिभावक कभी नहीं समझ पाये कि स्कूल का ऐसा खौफनाक माहौल क्यों बना कर रखते थे ? पढ़ाई को इतनी जटिल क्यों बना दिया। ज्यादातर अध्यापकों में थोड़ी- बहुत  जातिवादी मानसिकता अवश्य होती थी। बीसवीं सदी तक पढ़ने के दौरान हमारे अनपढ़ मां-बाप उनके इस मनोविज्ञान को समझ नहीं पाते थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि मेरे पिताजी बताया करते थे कि गांव में स्कूल के नाम पर एक छोटा सा कमरा था जिसमें बनिए और ब्राह्मणों के बच्चे पढ़ते थे। जहाँ उनके जूते- चप्पल उतरते थे उनके पास अपने घर से लाये टाट पर  बैठा करते थे ।  कमरे में  जो बोला जाता था उस आवाज को हम लोग बाहर बैठ करके सुनते थे। थोड़ा बहुत जो सीखा बाहर बैठ कर सीखा।जिस दिन मास्टर जी को किसी छात्र को पीटने का मन होता या फिर  किसी छात्र के मन में पढ़ाई के प्रति खौफ़ पैदा करना होता तो उसके सामने उल्टे -सीधे अतार्किक प्रश्न पूछे जाते ।जिनका वह अबोध बालक अक्सर उत्तर नहीं दे पता था फिर मास्टर जी उस प्राइमरी के छोटे से बच्चे,  फूल- सी जान को रूई तरह धुनते थे । इस दृश्य को देखकर बाकी बच्चों की रूह काँप जाती थी । पहली बात ये कि बहुजनों के बहुत कम बच्चे स्कूलों का रुख़ करते थे।उनमें से ज्यादातर  बच्चे  ऐसे मंजरो को देख कर विद्यालय छोड़ देते थे। कुछ जान- बूझकर नहीं आते थे । कुछ बच्चे अपने माता-पिता के काम में हाथ बटाते थे तो भी इस कारण उनका स्कूल छुट जाता था । कुछ बच्चे तो ये सोच कर आते थे कि  स्कूल जायेंगे तो कुछ तो सीखेंगे ही। जो कुछ शांत स्वभाव के थे वे पीटने के बाद भी लगातार आते  रहते थे। मास्टर जी  भी यह सोच करके पास कर दिया करते थे कि इनको कुछ आता -जाता तो है ,नहीं बड़े होकर क्या कर लेंगे ?

 ठेकेदारों और जमीदारों की नजर में मजदूरों की कोई अहमियत नहीं होती वह एक बार जानवर के बारे में तो भला सोच सकते हैं पर गरीबों के बारे में सोचने की उनको फुर्सत नहीं । सिकंजा कविता में भट्टे पर जवान लड़के के पांव आव में धंस गया। कुछ ईंटों का नुकसान मलिक के लिए ज्यादा कीमती था पर उसे लड़के के जीवन का कोई मूल्य नहीं था। उस जवान लड़के को ठेकेदार ने आव में और धंसा दिया, जिंदा जला दिया। थोड़ी- सी ईंटों के लालच में। कितना कठिन रहा होगा उस लड़के के लिए जिसकी कल्पना मात्र से बदन सिहर उठता है। बहुत ही कारूणिक और  लोमहर्षक कविता थी। ठेकेदार के द्वारा एक अमानवीय कृत्य किया गया । ठेकेदारों का इतना खौफ लोगों में व्याप्त था कि किसी ने भी उस अभागे के मां-बाप को इस हृदय विदारक घटना को बताने की हिम्मत सालों- साल तक नहीं की। मां-बाप बेचारे सीधे और सरल थे जो इस भ्रम में  क्रूर ठेकेदार के यहां ईंट पाथते रहे कि शायद एक दिन उनका बेटा वापस जरूर आएगा जो कि जिंदा जला दिया गया था। ऐसी घटनाएं गांव में अक्सर होती रहती हैं जो कि आम बात है। ये देश के ये वे गाँव हैं , जिनकी मिसालें दी जाती हैं आदर्श गाँव के रूप में। 

 बरसात कविता में वर्षा ऋतु में अपने जानवरों को चारा न होने पर भूखा मरता बेद्दू से  नहीं देखा ने गया। मजबूरीवश वेद्दू  सुब्बड़ के खेत में चेरी काटने चला गया। इस बात का पता जब खेत के मालिक सुब्बड़ को लगा तो वह जानवरों के प्रति बेद्दू का दया भाव ना देख पाया । सुब्बड़ के शैतानी दिमाग ने केवल जानवर का चारा काटने का दुस्साहस करने पर बेद्दू के लिए सज़ा मुकर्रर कर दी। उसने जानबूझकर बेद्दू को ज्यादा चेरी काटने दी। वह जानता था कि बारिश में चिकनी मिट्टी में ज्यादा बोझ बेद्दू उठा कर चल नहीं पाएगा । बेद्दू चेरी की भारी गठरी  को सिर पर लेकर बड़ी मुश्किल से चला तो बारिश के मौसम में फिसल कर पानी से भरे बरसाती नाले में गिर पड़ा । अब बेद्दू मरे या जिए सुब्बड़ की बला से। 

 कवि अमित धर्म सिंह जी ने स्वयं शीत ऋतु में अपने परिवार को ठिठुरता देखता है । इस हड्डी जमा देने वाली ठंड को खुद भोगा है ऊनी वस्त्रों के अभाव में। यहां प्रेमचंद का वह हरकू नहीं जो पूस की रात में सर्दी से ठिठुर रहा है जिसका की श्रेष्ठ कहानी कार प्रेमचंद ने केवल  वर्णन किया है कि हरकू ठंड में कैसे कुसमुसाता है?  पर स्वयं कवि  अमित धर्मसिंह तो हर रात को ठंड से स्वयं आत्मसात करता अपने परिवार के साथ । वह खुद सर्दी में एक गठरी बनकर घर के कोने में पड़ा रहता है ?

 यहां फिर कवि की माँ गोदान की धनिया नहीं है जो पात्र मात्र है, एक महान उपन्यास की। बल्कि एक बेटा मां को दिन- रात देख रहा है।जो संघर्ष कर रही है अपने लिए नहीं, अपने परिवार के लिए । कवि ने अपनी मां के संघर्ष को अवलोकित किया है ,उस संघर्ष को जिया है । माँ  के चेहरे पर सुबह से ही शाम के खाने की चिंता को देखा है । परिवार के पेट की भूख को उग्र होते देखा है। माँ को थमने का अधिकार तो था ही नहीं और ना ही बीमार होने का । घर का काम कदलीवन के समान था ,जितना काम को काटती थी उतना ही  काम आगे तैयार रहता था। कार्य की मूर्ति, दया की मूर्ति वह ममतामयी संघर्षों का पर्याय थी । हमें कवि की आत्मकथा में सरलता और सौम्यता झलकती है । ग्रामीण अंचल का ऐसा देसी क्लेवर लिए हुए हैं जिनमें उनका खुद रंग झलकता है।

 टोटे की निशानी कविता नहीं बल्कि इस देश के 99% मजदूरों की सच्ची कहानी है। गरीबी में आटा गीला युक्ति को चरितार्थ करती है। गांव में अक्सर कहा जाता है कि - लोग बड़े भोले होते हैं पर ऐसा होता नहीं है। भुक्तभोगी बताते हैं कि भोले नहीं भाले भी होते हैं जो कभी ना कभी आपको चुभेंगे जरूर।

 गुल्लक से पासबुक कविता के माध्यम से  हम सभी मानते हैं कि बेईमानी इस देश के  कुछ  लोगों के खून में व्याप्त है। वे कभी भी ,कोई भी मौका नहीं चूकते । गांव के गरीब लोग एक-एक, दो-दो रूपया जोड़ते हैं पेट काट करके और इन कंपनियों के पास। इस उम्मीद से जमा करते हैं कि साल भर में काफी पैसा इकट्ठा हो जाएगा। बड़ी उम्मीदों के पुल भी बांधते हैं फिर एक दिन ठगे -से रह जाते हैं। इन लुटे- पिटे लोगों का हृदय बड़ा विशाल होता है , इस बात को इस देश के बेईमान अच्छी तरह जानते हैं। ये भोले लोग बदनामी और हंसी का पात्र न बनने के ख्याल से शिकायत तक नहीं  करते हैं और ना ही एक दूसरे को बताते हैं कि किसको  कितने की चपत लग गई ? बस यही अफसोस करते हैं कि पिछले जन्म का उसका कर्जा था जो ले गया। जबकि इस देश का भला मानस सर्वहारा वर्ग जानता ही नहीं की जो पिछला  किसी ने जन्म देखा ही नहीं। उसका यकीन हम कैसे कर लेते हैं? यही नियति है यही उसके साथ उनके पूर्वजों के साथ छल- कपट होता चला आ रहा है बस हर जन्म में तरीके बदल जाते हैं। अपने अधिकारों के प्रति उदासीनता और कर्तव्य परायणता में लीनता बेबसी और लाचारी में बड़े से बड़े आर्थिक और सामाजिक धोखे सदियों से  चले आ रहा है। ऐसा लगता है कि इस देश की बहुतायत जनता को गरीब और न्याय विहीन बनाने की कोई साजिश है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है हालांकि उनके बराबर मेहनती, अनुशासन में बंधे लोग हैं। परिवार के किसी बड़े की हर बात को मानते चले आ रहे हैं ? चाहे वह बात कितनी ही अहितकारी क्यों ना हो? ऐसा लगता है इनकी मानसिकता को बस इस प्रकार बना दिया गया है कि क्या सही है और क्या गलत ? कोई फर्क मालूम नहीं होता। अगर थोड़ा बहुत इस बात का भान या इल्म हो जाता है तो उसको अपने भाग्य का लिखा मान लेते हैं। हम भले लोग हैं भले का अर्थ  भला  होता है परंतु  कुटिल मानसिकता के लोग भले का पर्यायवाची मूर्ख भी मानते। हर युग में  वो इस बात को जानते हैं।

 रखवाली कविता में कवि ने अपने ताऊ का जिक्र किया है कि कलेसर में अपना पांव गंवा बैठे हैं। कलेसर मलिक ने अंग -भंग होने पर कोई भी हरजाना नहीं दिया बल्कि अपने खेतों पर रखवाली करने के लिए रखकर एहसान और जता दिया।  किस तरह खेतीहर मजदूर का शोषण जारी है ?  माना कि पहले तो गरीबों के, मजदूरों के ,किसानों के  कोई हक नहीं थे। सब जमीदारों के रहमों करम पर जिंदा रहते थे । इस एहसान का बदला पीढ़ी दर पीढ़ी इन सभी के सिर पर बोझ बना रहता था आजाद भारत में सभी को अधिकार तो मिले पर सब मुफलिस और अभागे इनसे अनभिज्ञ रहे। बेशक आजादी का अमृत काल चल रहा है। परंतु पिछड़े गांवो में, दूर दराज के इलाकों में सामंतवादिता आज भी सिरचढ़ कर बोल रही है। संवैधानिक हक कागजी पुलंदे बनकर रह गए हैं।

 प्रलाप कविता के माध्यम से तंगी में पल रहे देश की बहुतायत आबादी का नग्न चित्रण है। गरीब आदमी अपना पेट भरने की जद्दोजहद में परिवार के सभी सदस्यों का पूरा ख्याल नहीं रख पाता। जन्म से दिव्यांग बहन अनीता को बेबस भाई अपनी आंखों से तिल -तिल करते मरते देखता है। वह कुछ नहीं कर पाता । कुछ करने के लिए है ही नहीं  उसके पास। उस समय वह संसार का सबसे बड़ा असहाय है।जिस प्रकार जंगल में कोई जानवर घायल हो जाए ,अपंग हो जाए, बीमार हो जाए तो उसकी समय से पूर्व मौत निश्चित है । 

शोषण करने वाली इस व्यवस्था ने लोगों को इतना चूसा  गया है कि सब कुछ खोखला कर दिया है । लोग अपनी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित हैं। पेट भर जाए वही काफी है। गरीब का बीमार होना अभिशाप से कम नहीं। दवा- दारू की सोचना तो दूर की कौड़ी होती है । अपाहिज, अनीता बहन नहीं इस देश की व्यवस्था है जो नागरिकों को स्वास्थ्य जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर सकती। फिर हम किस मुँह से इसकी महानता के गीत गाते रहते हैं। 

ग्रामीण पृष्ठभूमि पर लिखी काव्यमय आत्मकथा आमजनमानस के ह्रदय पर अमिट छाप छोड़ती है। आम आदमी के लिहाज से उसके जीवन से जुड़े अनुभवों को जीवन में बीते पलों में ले जाने का कार्य करती है। 

अमित जी की कविताएँ ठेठ देशीपन लिए हुए हैं। कविता पढ़ते समय ऐसा प्रतीत होता है कि ये शब्द उनके प्रारम्भिक जीवन की आवाज बन कर पृष्ठों पर अंकित हो रहे हों। 

कवि ने हमारे गाँव में हमारा क्या है आत्मकथा में अपने साथ- साथ अपने अभिभावकों, अपने रिश्तेदारों के संघर्षमयी जीवन की व्यथा को शाब्दिक काव्यात्मक रूप है। अपने हृदय की भावना को बहुत ही मार्मिक तरीके से सहज भाव में कलमबद किया है जो पाठकों के मन को झंकृत कर देता है।

देश के निचले पायदान पर अपना जीवन यापन करने वाले बहुत से जनों का पूर्ण रूप से उद्धार होने के आसार दिखाई तो दे रहे हैं पर अभी वो दूर हैं। उन पात्रों को साहित्य के पटल पर स्थापित करने काम हुआ।  पाठकों को कविताएँ पढ़ने में नैसर्गिक आनंद की अनुभूति होगी। अपने आप को अपने गाँव से जुड़ा पायेगा। आमजनमानस की काव्यात्मक आत्मकथा का सुंदर प्रयास है जो सभी  को प्रेरित करेगी। हिन्दी साहित्य के इतिहास में ये पहल मील का पत्थर साबित होगी। नये आयाम स्थापित करेगी। नदलेस परिवार की ओर से मैं इस सहज, सुलभ भाव से सृजित काव्यमयी आत्मकथ्य की हृदय की गहराईयों से भूरी-भूरी प्रशंसा करता हूँ।

*****

अंबेडकर नगर, दिल्ली।

30/10/2023


Comments

Popular posts from this blog

प्रवासी साहित्य

अभिशप्त कथा

साहित्य अनुशीलन मंच का गठन, दिनांक 10/08/2019