डॉ. राजन तनवर द्वारा लिखी गया हमारे गांव में हमारा क्या है! की समीक्षात्मक शोध पत्र
*हमारे गांव में हमारा क्या है - वर्ण संघर्ष का दस्तावेज*
भारतीय संस्कृति में गांव का विशेष महत्व है। गांव में बसने वाले लोग- लोक संस्कृति के संवाहक होते हैं। ये लोग गांव एवं शहरों में विलासितापूर्ण जीवन जीने वालों के लिए सुविधाएं जुटाने को सदैव तत्पर रहते हैं। ये भूपतियों की भूमि में अपने श्रम से विभिन्न खाद्य पदार्थों का उत्पादन करके देश- विदेश के लोगों के पेट की क्षुधा को मिटाने, संपन्न लोगों को विलासी जीवन जीने के लिए सुख सुविधाएं उपलब्ध करवाने में अपना जीवन लगा देते हैं। जिस संपन्न समाज के लिए ये सुविधाएं जुटाते हैं वह इन्हें सदैव हेय दृष्टि से देखता है। इनका कदम - कदम पर अपमान करता है। उनका अपमान सहने के ये अभ्यस्त हो जाते हैं। उनके द्वारा किए गए अपमान को अपना भाग्य समझकर अपनाते हैं। यदि आक्रोश स्वरूप कभी किसी का प्रतिकार करने का कोई साहस कर लेता है तो उसकी दशा को दारुण करने में संपन्न समाज के लोग कोई कोर कसर नहीं छोड़ते।
यदि ये कामगार समाज के निम्न वर्ग से संबद्ध हो तो वर्गीय संघर्ष तथा जातीय दंश और अधिक बढ़ जाता है। जिस गांव में इन्होंने पहली सांस ली होती है तथा पलक खोली होती है वे गांव उन्हें वहां होने का नाम तो देते हैं किंतु वहां पर उनका कुछ नहीं होता । उनकी सांसे भी संपन्न एवं धनाढ्य जमीदारों, उद्योगपतियों तथा स्थानीय नेताओं की कृपा दृष्टि पर निर्भर करती है ।
कवि अमित धर्म सिंह की काव्यात्मक शैली में लिखी गयी आत्मकथा *हमारे गांव में हमारा क्या है* हिंदी दलित साहित्य में सृजनात्मकता के नए प्रयोग करते हुए आगे बढ़ती है। कवि के मन मस्तिष्क पर बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था में अभाव एवं शोषण के दौरान पड़ी छाप के अनुभव के प्रतिबिंब पर चली लेखनी सहृदय पाठक को भाव विभोर कर देती है। कवि की यथार्थवादी सृजनात्मकता समाज का असली रूप पाठकों के सम्मुख रखने में सफल होती है।
दलित वर्ग का कामगार उच्च जाति के लोगों के खेतों एवं घरों में काम करते हुए अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है - कि ये हमारे गांव है हम इन गांवों में जन्मे हैं जबकि वास्तविकता कुछ और ही होती है। हमारे देश के कुछ राज्यों में राज्य सरकार द्वारा दलितों को काश्तकारी करने के लिए जमीन पट्टे पर दी गई है किंतु ज्यादातर गांवों तथा पंचायतों में अधिकतर दलितों के नाम पंचायत अभिलेख में अंकित तो होते हैं किंतु ये गांव कभी भी इन्हें अपना नहीं समझते। अधिकतर राज्यों के राजस्व अभिलेख में इनके नाम न तो जमीन होती है न घर होते हैं। दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी इन्हें जमीदारों के खेतों खलियानों पर निर्भर रहना पड़ता है। जातीय दंश की ऐसी पीड़ा - कि अभद्र गाली गलौज भी यह बिना किसी प्रतिरोध के चुपचाप सुनते हैं-
"हर सुबह दूसरों के खेतों में
फारिग होने गए
तो पता होता कि खेत किसका है उसके आ जाने का डर
बराबर बना रहता। तोहर के पापड़ों पर लपके
या गन्ने पर रीझे
तो मां ने आगाह किया -
खेत वाला आ जाएगा।
दूसरों के कुबाड़े से
माचिस के तास चुगकर खेले
दूसरों की कुड़ियों से पपैया फाड़कर बजाया
दूसरों के खेतों से बथुआ तोड़कर लाये,
आलू चुगकर लाये
दूसरों के खेतों से ही;
गन्ने बुवाते, धान रोपते, काटते, दफन होते रहे हमारे पुरख़े दूसरों के खेतों में ही।
ये खेत मलखान का है
वो ट्यूबवेल फूल सिंह की है
यह लाला की दुकान है ,
वो फैक्ट्री बंसल की है ,
ये चक धुम्मी का है, वो ताप्पड़ चौधरी का है ,
ये बाग खान का है, वो कोल्हू पठान का है
वो धर्मशाला जैनियों की है ,
वो मंदिर पंडितों का है ,
कुछ इस तरह जाना हमने अपने गांव को।
हमारे गांव में हमारा क्या है! ये हम आज तक नहीं जान पाए।"¹
'बचपन के पकवान' काव्य रचना में कवि ने बड़े मार्मिक ढंग से मां का बच्चों के पेट की क्षुधा को मिटाने के लिए जमींदारों के खेत से चोरी छिपे हरी सब्जी चुरा कर ले आने का मार्मिक वर्णन किया है। कवि कहता है कि कभी - कभार ऐसी भी स्थिति आती कि हम बच्चे स्कूल से आते हैं किंतु घर में खाने के लिए कुछ न मिलता। हम मां की मजबूरी नहीं समझ पाते। उल्टे मां को ही कोसते कि क्यों मां रोटी बनाकर नहीं गई? मां जब जंगल से घास लेकर आती तो चुन्नी की पोटली में जंगली बेर , घास के बीच छुपाए गए पापड़े, फटकन और गन्ने के टुकड़े काट कर लाती थी। कद्दू और बथुआ तो वह हमेशा लेकर के ही आती थी।
मां कद्दू की चोरी करने या गन्ने के टुकड़े चुराकर लाने पर जमीदार गांव की स्त्रियों को कैसे प्रताड़ित करते हैं, उनकी पिटाई भी कर देते हैं ऐसा भी बच्चों को बातों बातों में बता देती।
हमें शक रहता कि कहीं मां की भी पिटाई तो नहीं हुई है। मां ने कभी भी हम बच्चों को समय पर रोटी न परोसने की वजह नहीं बताई। बच्चे ही मां को कई बार भला बुरा कह देते । किंतु मां ने कभी भी अपने अंतर्मन में चल रहे द्वंद्व की पीड़ा को हम सब बच्चों के सामने नहीं आने दिया। मां कभी भी बच्चों को रोटी परोसने के पीछे किए गए संघर्ष की वजह नहीं बताती -
"हम मां को निगाह से टटोलते
कहीं मां लंगड़ा तो नहीं रही,
सब कुछ ठीक पाने पर
मां के साथ बराबर की लड़ाई बजती-
मां हमें जंगल में जाने पर डांटती
जंगल में चोर या
जंगली जानवर होने की बात कहती जगबीरी और सोनबीरी बुढ़िया की कहानी दोहराती
इस पर हम भी गुस्सा करते
फिर तू क्यों लाती है चोरी से
किसी के कद्दू- तोरी तोड़के?
मां चुप रहती
हम रोटी न बनाने पर भी मां को भली- बुरी कहते
और चिल्ला - चिल्ला कर पूछते रोट्टी न बनाने की वजह।
मगर क्या मजाल कि मां ने कभी वजह बताई हो।"²
'मेला' काव्य रचना निर्धन दलित बच्चों की निर्धनता के कारण दयनीय स्थिति को दर्शाती है कि किस तरह से स्वतंत्रता के बाद भी ग्रामीण दलितों की स्थिति यथावत बनी हुई है। इन काव्य पंक्तियों में कवि ने दर्शाया है कि दलितों के बच्चों को मेला देखने का सपना साकार करने के लिए कितना तड़पना पड़ता है , प्रयास करने पड़ते हैं यह काव्य रचना मुंशी प्रेमचंद की ईदगाह कहानी में उठाई गई समस्या से मेल खाती हुई प्रतीत होती है कि आज भी अधिकतर गांवों में दलितों की स्थिति में विशेष सुधार नहीं हो पाया है। मेला देखने के लिए ग्रामीण बालकों का उत्साह उस समय कम हो जाता है। जब पापा को समय पर मजदूरी के रुपए नहीं मिलते तथा उनके द्वारा इकट्ठे किए गये कबाड़ को लेने कबाड़ी नहीं आता।
"घर की दीवारों पर
पोतना फेरकर
नील से आड़े - तिरछे फूल लिकाड़े जाते, लोहा - लंगड़ इकट्ठा किया जाता।
जिसे बेचकर पैसा जमा किया जाता। जैसे-जैसे
मेला नज़दीक आता,
हमारी बेचैनी और
परेशानी बढ़ती जाती ।
कभी पापा को पैसे न मिलते
कभी लोहा- लंगड़ लेने कबाड़ी न आता।
नए कपड़ों का उत्साह धीरे-धीरे कम होता चला जाता,
हम अपने पुराने कपड़ों को नया बनाने में लग जाते, फटे होते तो सिले जाते,
गंदे होते तो रगड़- रगड़कर धोए जाते, फिर बेल्ले में आग लेकर प्रेस की जाती ।"³
हमारे देश के गांवों के बाहर दलित बस्तियां तो बहुत बसाई गई हैं किंतु इन दलित बस्तियों में रहने वाले, जीवन व्यतीत करने वाले दलितों की झोंपड़ी या एक दो कमरे के घर आज भी इनके नहीं हो पाए हैं। सामंती परंपरा आज भी दलितों पर थोपी जाती है गांव के जमींदार एवं सम्पन्न लोग अपनी जमीन एवं घर का कामकाज करवाने के लिए उनसे श्रम करवाते हैं। किंतु उनके नाम जमीन का टुकड़ा तक नहीं होता। सरकार द्वारा पचास- सौ गज के प्लाटों के आवंटन में भी तरह-तरह की धांधलियां होतीं - अधिकतर ऐसे में प्लाटों के भी वे मालिक नहीं बन पाते। जीवन भर घर बनाने का सपना अधूरा रहता इसी तरह संसार छोड़कर चले जाते । घर! जिसके साथ उनका नाम जुड़ सके वह जीवन भर नहीं बन पाता-
" तंग होकर मां अक्सर कहा करती-
अपना घर हो तो जो मर्जी कर लो,
अपनी जमीन में तो आदमी
झूपड़ी में भी राजा होता है।
मगर हमारी कोई जमीन न थी"⁴
बरसात के दिन दलित बस्ती में रहने वालों के लिए सबसे अधिक पीड़ा दायक होते हैं। सर्दियों की वर्षा तो बरसात से भी अधिक कष्ट कारक होती। पूरी पूरी रात बैठ के गुजारी जाती। सभी एक दूसरे पर अपनी खीज निकालते। छोटे - बड़े सभी पापा को ही उलाहना देते हुए पापा को ही उत्तरदाई ठहराते । मां घर का काम करते-करते आंसू बहाती रहती। मां उलाहना देते हुए कहती कि - हमारे पापा अपनी कारीगरी से औरों के असंख्या घरों का निर्माण करते, छतों की छवाई करते। किंतु अपना घर बरसात एवं सर्दियों में टपकता रहता। टपकने वाले स्थान पर तसला, परात आदि बर्तन रखे जाते। सभी किस्मत को कोसते हुए पापा को ही इस स्थिति के लिए उत्तरदाई ठहराते। पापा चुपचाप सुनते रहते कोई भी सफाई नहीं देते शायद यही उनकी स्वीकारोक्ति होती -
"भीगते भीगते हम
एक - दूसरे पर, अपनी - अपनी खीज निकालते
मां कहती-
'इत्ते दिन हो गए नास गए को
दूसरों के घर बनाते-बनाते,
आज तक अपनी छान पर
ढंग का फूस तक नी डाल सका।'
हममें से कोई कहता-
हर बार का यो ही ड्रामा है
एक पन्नी तक नी ला के रखी जा सकती?' पापा चुपचाप कपड़े संगवाने में लगे रहते; मां बड़बड़ाती हुई
बर्तन - भांडे संवारती।
मां की आंख से टपकते आंसू
बारिश के पानी में धुलते रहते ।"⁵
कवि अमित धर्म सिंह 'किताबें' शीर्षक काव्य रचना के माध्यम से दलित समाज की अनपढ़ महिलाओं द्वारा शिक्षा के महत्व को समझना तथा अपने बच्चों को विषम परिस्थितियों में भी शिक्षित करवाने का जज्बा साफ झलकता है। कवि अपनी जन्मदात्री का उदाहरण देते हुए कहता है कि मां ने जिस भी पाठशाला में हमारा प्रवेश करवाया उस पाठशाला में दहशत वाला शिक्षक आवश्य होता अर्थात जिसके भय से बच्चे पढ़ाई में पीछे न रहें। सीधे तौर पर अध्यापकों से कह देती कि इन बच्चों को पढ़ाना है, अच्छे इंसान बनाना है चाहे इसके लिए आप इन्हें शारीरिक दंड तक दे दें। वह अध्यापकों को इतनी छूट तक दे देती कि यदि बच्चों को सभ्य एवं शिक्षित नागरिक बनाने के लिए उनकी चमड़ी भी नोच दी जाए तो भी उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। वह अध्यापकों को इतनी छूट तक दे देती कि मांस आप शिक्षकों का है हड्डी हमारी है अर्थात अगर हड्डी रहेगी तो मांस तो दोबारा भी आ जाएगा किंतु शिक्षा रूपी गहना जिसे डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने दलित एवं समस्त वर्गों की महिलाओं के लिए सुगमता से उपलब्ध करवाया है उस गहने से बच्चे अवश्य अलंकृत होने चाहिए-
"हमारी मां को हमसे ऐसा बैर था
कि जूनियर हाई स्कूल तक
हमने चार स्कूल बदले,
मगर हर बार दहसतखोर मास्टर के ही स्कूल में ही
दाखिला दिलवाया।
पापा तो कह भी देते-
बच्चों के हाथ न लगाना मगर मां का तो हर बार वही डायलॉग होता मांस- मांस तुम्हारा हाड़- हाड़ हमारे।"⁶
कवि अमित धर्म सिंह की काव्यात्मक शैली में लिखी गई आत्मकथा दलित समाज की वास्तविक पीड़ा को सामने रखती है। कवि इस आत्मकथा में अपने जीवन काल की किशोरावस्था तक भोगे गये कटु सत्य का यथार्थ पाठकों के सम्मुख रखता है - शायद समय आने पर यह सामाजिक दीवार ढह जाए जिसकी वजह से व्यक्ति व्यक्ति को इंसान नहीं समझता उसके साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार होता है । कुत्ते - बिल्लियों को अधिकतर सवर्ण समाज के लोग अपने पास बैठाकर दुलार करते हैं । किंतु इंसान को इंसान नहीं समझते यही वर्णवादी व्यवस्था की पीड़ा है जिसे दलित वर्ग का समाज युगों - युगों से झेलता आया है और आज भी कुछ हद तक झेलने के लिए बाध्य है । वर्ग संघर्ष से तो व्यक्ति पार पा सकता है किंतु वरण संघर्ष तो शायद! सदैव बना ही रहेगा।
1. हमारे गांव में हमारा क्या है - अमित धर्म सिंह, पृष्ठ 15 -16
2. वही, पृष्ठ 19
3. वही, पृष्ठ 27
4. वही, पृष्ठ 32
5.वही, पृष्ठ 53
6.वही, पृष्ठ 75
-डॉक्टर राजन तनवर
एसोसिएट प्रोफेसर, राजकीय महाविद्यालय अर्की,
हिमाचल प्रदेश।
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