ई. रूप सिंह रूप जी द्वारा लिखी गई 'हमारे गांव में हमारा क्या है!' की समीक्षा

 


             ई. रूप सिंह रूप, आगरा, उत्तर प्रदेश


'हमारे गाँव में हमारा क्या है!' : डॉ. अमित धर्मसिंह की आत्मकथा

‘हमारे गाँव में हमारा क्या है!’, यह आत्मकथा मुझे दिनांक 10 अक्टूबर 2023 को भेंट स्वरूप प्राप्त हुई. इसके लिए डा० अमित धर्मसिंह जी का बहुत बहुत हार्दिक धन्यवाद, और पुनः धन्यवाद कि उन्होंने मुझे इसकी समीक्षा करने के लिए चुना। हालाँकि मैं तो विज्ञान व तकनीकी का विद्यार्थी रहा हूँ , साहित्य का कभी नहीं, फ़िर भी जिस दृष्टिकोण से मैंने इस आत्मकथा को देखा है उसी दृष्टिकोण के अनुसार अपने विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ।

वैसे बहुत सारे दलित साहित्यकारों ने अपनी आत्मकथाएँ लिखी हैं लेकिन काव्यमय आत्मकथा न के बराबर हैं। इस पुस्तक के कथानक में कविताएँ चार चाँद लगाती हैं। इसकी खूबसूरती में काव्य तो है ही, इसके अलावा ये अभिधा शैली में, सरल, सीधे-सपाट शब्दों में और स्थानीय देशी शब्दों की प्रचुरता से यथावत् प्रयोग करते हुए लिखी गई हैं। इससे इसकी विश्वसनीयता, प्रभावशीलता व महत्ता और बढ़ गई है। ये आत्मकथा लिखकर डॉक्टर साहब ने, न सिर्फ़ अपने बचपन में झेली मुसीबतों व ग़रीबी के दिनों में विषम परिस्थितियों के अनुरूप किये गये क्रिया-कलापों का वर्णन किया है बल्कि कुछ ज्वलंत मुद्दों को, समस्याओं को व प्रश्नों को भी जन्म दिया है। 
जब कोई जीवनी, घटना, संस्मरण, यात्रा-वृतांत आदि को कोई साहित्यकार शब्दबद्ध कर देता है और वह प्रकाशित हो जाती है तो वह साहित्य का हिस्सा बन जाती है; बशर्ते उसमें साहित्यिकता का गुणधर्म हो। सबसे बड़ा गुण धर्म है कि उसमें समाज का दर्पण बनने की क्षमता या योग्यता है कि नहीं, क्योंकि अच्छा और सच्चा साहित्य समाज का दर्पण माना जाता है। जैसे दर्पण व्यक्ति के चेहरे को हुबहू दिखाता है, वैसे ही साहित्य समाज के चेहरे को यानी हालातों को समवेत रूप से सही-सही उजागर कर देता है। जहाँ उसकी अच्छाइयों पर प्रशस्ति के स्वर उभरते हैं वहीं कमियों व बुराइयों पर प्रश्न चिन्ह लग जाते हैं। इन्हीं संदर्भों में इस आत्मकथा की विवेचना प्रस्तुत है।

'हमारे गाँव में हमारा क्या है!' इस कृति में विद्वान डा० अमित जी ने अपने बचपन में अपने व गाँव के बीच कुछ संबंध ढूँड़ने का प्रयास किया है। कुछ ऐसा संबंध जिसकी वजह से गाँव को अपना कहा जा सके। परंतु बहुत खोजने पर भी, ऐसा एक भी कारण नज़र नहीं आता जो गाँव से संबंध स्थापित कर सके। क्योंकि उन्हें गाँव में जो कुछ भी दिखाई दिया वह दूसरों का ही निकला। जैसे- ‘ये खेत मलखान का है/ वो ट्यूबवेल फूलसिंह की है/ ये लाला की दुकान है/ वो फ़ैक्ट्री बंसल की है/ ये चक धुम्मी का है/ वो ताप्पड़ चौधरी का है/ ये बाग खान का है/ वो कोल्हू पठान का है/ ये धर्मशाला जैनियों की है/ वो मंदिर पंडितों का है/ ‘ जब उन्हें अपना कुछ नहीं दीखा तो हताश होकर कहते हैं- ‘कुछ इस तरह जाना हमने अपने गाँव को/ हमारे गाँव में हमारा क्या है!/ ये हम आज तक नहीं जान पाये।‘ 

प्रश्न सिर्फ़ ये नहीं है कि हमारे गाँव में हमारा क्या है। ये तो वस्तु स्थिति है कि लेखक के अपने ही गाँव में लेखक का कुछ नहीं है। यह तो एक समस्या है। प्रश्न जो इस कथन में अंतर्निहित हैं वे तो ये हैं- ऐसा क्यों हुआ? कैसे हुआ? किसने किया? किन परिस्थितियों में हुआ? कौन ज़िम्मेदार है? और इस समस्या का हल क्या है? कैसे होगा? कौन करेगा? कब करेगा? इत्यादि। ये प्रश्न सिर्फ़ पहली व प्रतिनिधि कविता के ही नहीं हैं बल्कि आगे की सभी कविताएँ ऐसे ही प्रश्न उछाल रही हैं। 

इस पुस्तक को प्रारम्भ में मैंने सरसरी नज़र से पढ़ा लेकिन उसके बाद गम्भीरता से पढ़ना प्रारम्भ किया। इसका कारण यह है कि प्रारम्भिक चंद कविताओं ने मुझे भी मेरे बचपन में व मेरे गाँव में पहुँचा दिया। जिनमें बचपन के पकवान, आलू का ठप्पा, घास, नुस्ख़े, बरसात, ईंधन इत्यादि कई कविताओं का योगदान रहा। मैं समझता हूँ कि इस पुस्तक की कविताएँ कोई व्यक्तिगत प्रश्न नहीं उठातीं। यह असंख्य गाँवों में बसे असंख्य दबे, कुचले, तिरस्कृत और अभावग्रस्त लोगों का सामूहिक प्रश्न उठाती हैं। जिसका हल निकालने की कभी किसी नेता, समाज-सुधारक या सरकार ने ज़रूरत ही महसूस नहीं की। सिर्फ़ बाबा साहब डा० आम्बेडकर ने इस दिशा में सोचा था। वे ऐसे लोगों को या तो शहरों के क़रीब या लाखों एकड़ ख़ाली पड़ी ज़मीन पर बड़े-बड़े गाँव बनाकर बसाना चाहते थे, लेकिन दुर्योग से वे हमारे बीच नहीं रहे।

इस पुस्तक में विद्वान लेखक ने, गाँव के जिस निम्नतम स्तर से वे स्वयं गुजरे, उसका किसी ग्लानि, संकोच व हीनभावना के, हुबहू सच सच वर्णन किया है। यह हर एक के वश की बात नहीं है। इसके लिए अदम्य साहस, ईमानदारी, मज़बूत मनः स्थिति और अपने को सही-सही अभिव्यक्त करने की उत्कट अभिलाषा की ज़रूरत है। ‘बचपन के पकवान’ में आप लिखते हैं- "अमरूद, कच्चे आम, जामुन, रेंटे ( लिसोड़े), शहतूत/ गाजर, मूली, छोटी छोटी हरी सरसों की डंठल / मौसम के अनुसार जो भी मिल जाता / चुराते और नमक के साथ चटकारे लेते।" आगे लिखते हैं- "जंगल से आने पर/ माँ की घास की गठरी से/ हमारे लिए कुछ न कुछ निकलता/ घास की चद्दर के एक पल्लू में/ पोटलीनुमा बँधे जंगली बेर/ घास के बीच में छुपाये गये पापडें, फटकन/ या फिर गन्ने के काटकर लाये / छोटे छोटे टुकड़े/ कद्दू या बथुआ निकलना तो आम बात थी।"
ये सारी चीज़ें जो लेखक स्वयं या उनकी माँ चुराके लाते थे वे दूसरों के खेतों या बागों से ही लाते होंगे क्योंकि उनके पास तो अपना कुछ था ही नहीं। ये चोरी, जो बहुत अपराधबोध वाला शब्द है, वस्तुतः चोरी नहीं थी, एक मजबूरी थी। विषम परिस्थितियों में अभावग्रस्त जीवन को आगे खिसकाने के लिए एक जिद्दो-जहद थी। ये पंक्तियाँ पूछती हैं कि निरीह मानवता के साथ ऐसे हालात कैसे बने और कौन इसके लिए उत्तरदायी है। निश्चित रूप से सरकारें और वे सम्पन्न लोग जो देश के सभी संसाधनों पर कुंडली मारके बैठे हैं और अपने को देश का मालिक समझते हैं, इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। जबकि सत्यता ये है कि ये दबे-कुचले, शोषित-पीड़ित, तिरस्कृत- प्रताड़ित और अपमानित लोग ही इस देश के मूल निवासी हैं।

‘ज़मीन’ नामक कविता में लिखा है कि ‘प्रधान सौ-सौ गज के प्लाटों की रसीद तो काट देता है, मगर वहाँ भी दबंगों व दलालों के चलते किसी को क़ब्ज़ा नहीं मिला।’ लेखक ने यहाँ न सिर्फ़ अपने गाँव बल्कि आम गाँवों में रहने वाले भूमिहीनों की समस्या को उठाया है क्योंकि हर जगह ऐसा ही होता है दबंगों के चलते ग़रीबों को झोंपड़ी तक के लिए जगह नहीं मिलती।

‘भक्ति’ नामक कविता में देखिये- बच्चों के सरल हृदय में अंधभक्ति को कैसे पैठाया जाता है। स्कूल का रिक्शा जब शिवजी या पीर के पास से गुजरता है तो लेखक कहते हैं- ‘हमें हाथ जोड़कर सलाम करने को कहा जाता/ नींद में होने पर/ जबरन हमारे हाथ जोड़कर मुण्डी सिबजी या पीर की तरफ़ झुकाईं जाती।’ हालाँकि परिवार वाले या रिक्शावाला कोई पंडित नहीं है पर ये अंधविश्वास कभी उनके हृदय में भी भरा गया होगा और वे बच्चों के साथ ऐसा ही कर रहे हैं। यह एक परंपरागत खेल है, एक षड़यंत्र है कि बचपन से ही बच्चों के कोमल हृदय में पाखंड व अंध विश्वास भर दिया जाता है।

‘नुस्ख़े’ और ‘डागदर’ में कितनी बेबाक़ी से लेखक ने असह्य परिस्थितियों का वर्णन किया है- एक जोड़ी कपड़े कई-कई दिन पहनने से कपड़ों में जुएँ व बदन में खाज हो जाना आम बात थी। बग़ैर धुले कपड़ों में / सिलाई की पट्टियों के किनारे-किनारे / एक सत्रा भूरे रंग की जुएँ भर जातीं / जो न दिन में चैन लेने देतीं न रात में/ सारी पीठ, पेट और हाथ पाँव खुजा-खुजाकर सुजा लिए जाते।" इस प्रकार चाहे कोई भी रोग हो - खुजली हो, काली खाँसी हो, गला दुखता हो, बुख़ार हो, हिचकियाँ हों, नज़र लगी हो, बच्चों के मलद्वार में चुन्ने पड़ जाना, दस्त हो जाना, हसली उतर जाना आदि; इन तमाम तकलीफ़ों को देशी टोटकों से जैसे नीम के पत्ते, गंधक, चीनी, नमक की डली, लिस्पिट के मोले हुए पत्ते, अदरक, लहसुन, गर्म तवे का पानी आदि के द्वारा ठीक करने का उपक्रम किया जाता। तेल में भीगी बत्ती को जलाकर नज़र का इलाज किया जाता। इस काम में महाराज्जी दादी का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता जो इस तरह के देशी इलाजों की माहिर थी। ये सब दर्शाता है कि ग़रीब-गुरबों के गाँवों तक उचित दवाइयाँ व उचित उपचार का पहुँचना नामुमकिन था, इसीलिए टोने-टोटके व नीम हकीम खतरिये जान वाले तरीक़े अपनाये जाते थे।

‘बरसात’ व ‘ईंधन’ नामक कविताओं में घर व झोंपड़ी का चूना, टपकों में सो भी नहीं पाना, भूरी भेंस का ओलों से पिट-पिटकर खाल उधड़ जाना और मर जाना। पड़ौस से एक भगौना या टिफ़िन आटा माँगकर लाना, गीले ईंधन की वजह से मुश्किल से रोटी बनना, चावल के मांड या किसी के घर से मँगाई हुई छाछ से सब्ज़ी का काम चलाना, एक ही कमरे में धुएँ में घुटना, मात्र सौ रुपये की दिहाड़ी में रहन-सहन का सारा प्रबंध करना इत्यादि ऐसी जटिल समस्याएँ थीं जिनका तत्कालीन परिस्थितियों में कोई स्थायी समाधान नहीं था। दरअसल ये समस्याएँ नब्बे के दशक की ही नहीं आज भी हैं लेकिन गरीब-गुरबों  की समस्याएँ सरकार या सामर्थ्यवान लोगों की नज़र में कोई समस्या नहीं होतीं।

‘ज़रूरत’ व ‘लोहा’ नामक कविताओं से ज्ञात होता है कि बचपन की स्वाभाविक बाल इच्छाएँ पूरी करना बहुत कठिन था, जैसे फेरीवालों से बर्फ़, बर्फ़ी, चूरन, चटनी या कटारे आदि खाना। इसके लिए भी खुद ही बड़ी मशक़्क़त करनी पड़ती थी। माँ ने मुट्ठी भर अनाज या दो चार आने दे दिये तो ठीक, वरना खेतों पर बिखरी पड़ी बाल बीनकर या गत्ते वाली फ़ैक्ट्री से लोहे की पिनें इकट्ठा करके या सरिया की फ़ैक्ट्री में आने वाली लोहे की गाड़ियों से गिरा लोहे का बुरादा चुम्बक द्वारा इकट्ठा करके और उन्हें बेचकर बाल इच्छाओं की पूर्ति की जाती। यही नहीं इस प्रकार जोड़े गये पैसों से अपनी किताबें व कपड़ों का भी इंतज़ाम किया जाता। यहाँ तक कि घर के लिए परचून की दुकान से सामान भी लाया जाता। अब देखिये जिस उम्र में बच्चों की हर आवश्यकता माँ-बाप पूरी करते हैं, उस उम्र में लेखक ने मेहनत मज़दूरी करके अपनी निजी आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ-साथ घर के प्रबंधन में भी सहयोग किया, और हिम्मत देखिये अपने काम व अपनी हुलिया के बारे में निःसंकोच होकर लिखते हैं- "घर से आँख बचाकर निकल पड़ते थे/ गाँव की टूटी फूटी सड़कों पर/ चुम्बक लेकर /नंगे पैर, ढीली शर्ट/ बटन कुछ खुले, कुछ टूटे/ झबले नेकर में / पतली-पतली मैली टाँगें/ ये ही हुलिया था हमारा।"

‘टोट्टे की निशानी’ नामक कविता में आप लिखते हैं- "बड़े बूढ़े टोट्टे की तीन निसानी बताते/ टूटी खाट/ फूटे बर्तन/ फटे पुराने कपड़े/ तीनों हमारे घर में थीं। दुखदायी बात ये थी कि ज्यों-ज्यों इनके माता-पिता कठिन मेहनत करके सँभलने की कोशिश करते त्यों-त्यों ही विभिन्न रिश्तेदार- ताई-ताऊ, नाना-नानी, मामा-फूफा किसी न किसी तरह इनको ठग लेते और नुक़सान पहुँचाते रहते और ये हमेशा टोटे में ही रहे। मैं समझता हूँ ये ठगने की उनकी आदत स्वभावजन्य नहीं बल्कि परिस्थितिजन्य रही होगी। क्योंकि दलित समाज के सभी लोग एक ही नाव के यात्री थे, कोई सम्पन्न नहीं था। जीवन यापन के कोई उचित व स्थायी साधन नहीं थे। येन केन प्रकारेण गुज़र बशर हो जाती थी। जिसे कहीं से कुछ मिल गया तो अपने व बाल बच्चों के खाने-पीने में खर्च कर दिया। न लौटाना उनकी मजबूरी हो जाती।

‘छलावा’ नामक कविता में कुछ भूतों की, भगत सयानों की, घाल की व छलावों की सुनी हुई या बड़े बूड़ों द्वारा अनुभव की हुई घटनाओं का ज़िक्र आता है। हो सकता है इनमें कुछ सचाई हो या कोरा भ्रम हो। पर यह सब परम्परागत रूढ़िवाद व अंधविश्वास एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण व वैज्ञानिक सोच के अभाव के भ्रमात्मक परिणाम ही हैं। आजकल तो ऐसा कुछ नहीं होता। 
अन्य कविताओं में ग्रामीण परिवेश की सामान्य परम्पराओं का वर्णन मिलता है। जैसे- गाँव में नई टीवी का आना और सबका इकट्ठे होकर देखना, कोई वीसीआर या डैक वाला आ गया, उसके गाने सुनना, लगातार साइकिल चलाने वाले के करतब देखना, साँग की मंडली आई उसका खेल देखना, व्रत रखना, ख़ासकर जन्माष्टमी का, देहाती खेल खेलना जैसे कंचे, गिल्ली-डंडा, कांईपत्ता, डेसफोड़, पापीट्टा, आइस-पाइस, कबड्डी, साँपसीड़ी, लूडो इत्यादि। इन सबका वर्णन बड़े रोचक ढंग से किया गया है कि आदमी पढ़ना शुरू करे तो पढ़ता ही चला जाये। 

कुछ कविताओं से ज्ञात होता है कि बचपन में बड़ी उठापटक की ज़िंदगी रही। कभी घोलू मास्टर द्वारा मुर्ग़ा बनाया जाना, कभी माँ द्वारा पढ़ाई के लिए पीटा जाना, परेशान होकर दो चार साथियों के साथ घर से फ़रार हो जाना, पैसों के अभाव में वापिस लौट आना, गत्ते की पेटी में बर्फ़ की फ़ैक्ट्री से बर्फ़ ख़रीद कर बेचना, टोकरी लेकर गली मुहल्ले का कूड़ा उठाकर अलाव के लिए घेर में डालना, लोहे का बुरादा व लोहे की पिनें इकट्ठा करना, खेतों से बाल चुनना, अभाव में खाने तक के लाले पड़ना, कपड़ों व किताबों का भी अभाव झेलना, कॉमिक्स की किताब चोरी से किराये पर लाना और चोरी से छुपाकर पढ़ना इत्यादि।

बचपन में ऐसी विषम एवं बाधा व कठिनाइयों से भरी परिस्थितियों से गुजरते हुए भी लेखक ने अपना अध्ययन बखूबी जारी रखा और पूर्ण किया। आज आप पीएचडी करके दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन और स्वतंत्र लेखन से जुड़े हैं। कहा जाता है कि सोना तपकर निखरता है। वही दशा लेखक के साथ रही। आप दलित वर्ग के गरीब-गुरबों के बच्चों के लिए अनुकरणीय है। आदर्श हैं। मुझे विश्वास है कि कोई भी बच्चा जो विषम व कठिन हालातों में रह रहा होगा, आपकी आत्मकथा पढ़कर साहस व आत्मविश्वास से भर जायेगा तथा अपने कार्य में शत प्रतिशत सफलता हासिल कर लेगा।

इस काव्यमय आत्मकथा ने डा० अमित को दलित साहित्यकारों की अगली पंक्ति में खड़ा कर दिया है। ये एक विडम्बना ही है कि जहाँ सवर्ण साहित्यकार प्रकृति पर, बादल-वर्षा पर , नायक-नायिकाओं पर, खूब सूरत बादियों पर, नदी-झरनों पर, चाँद-तारों इत्यादि पर ढेर सारा लिखने में व्यस्त रहते हैं। ये ऐसे विषय हैं जिनका ग़रीबी से, शोषण से, अन्याय से अत्याचारों से , उत्पीड़न से, ऊँचनीच व छुआ छूत से, अभावग्रस्त ज़िंदगी से , ग़ुलामी से बेगारी से, जुल्म-ज़्यादतियों से , अपमान व तिरस्कार इत्यादि बहुत से मसलों से कोई लेना देना नहीं है। क्योंकि उन्होंने दलित जीवन को कभी जिया ही नहीं। इसलिए दलित साहित्यकारों ने इन विषयों पर कलम चलाने का बीड़ा उठाया है। वे इन विषयों से बुरी तरह प्रभावित हैं क्योंकि ये सीधे सीधे उन्हीं के जीवन से सम्बंधित हैं। डा० अमित धर्मसिंह जी ने इन्हीं विषयों पर लिखना अपना कर्तव्य समझा है और लिखते रहते हैं। इसी कड़ी में अपनी काव्यात्मक आत्मकथा ‘ हमारे गाँव में हमारा क्या है’ लिखकर एक मील का पत्थर गाड़ दिया है। मैं उनके कुशल भावी जीवन की मंगल कामना करता हूँ।

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ई. रूप सिंह रूप
आगरा, उत्तर प्रदेश।
15/10/2023

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