जसवंत सिंह जनमेजय जी की पुस्तक पत्रकारिता में प्रतिक्रिया की संक्षिप्त समीक्षा

 विहंगावलोकन

जिम्मेदार नागरिक के विचारों को सहेजने वाला दस्तावेज- 'पत्रकारिता में प्रतिक्रिया' : डॉ. अमित धर्मसिंह

          'पत्रकारिता में प्रतिक्रिया' संवेदनशील पाठक और जिम्मेदार नागरिक के विचारों को सहेजने वाला दस्तावेज है। साहित्य में, समीक्षा पर समीक्षा और प्रतिक्रिया पर प्रतिक्रिया की परंपरा, न के बराबर रही है। मगर कुछ विषय ऐसे होते हैं या उन्हें इस ढंग से प्रस्तुत किया जाता है कि उन पर विचार करने अथवा संवाद करने को बाध्य होना पड़ता है। स्वराज प्रकाशन से, डॉ. जसवंत सिंह जन्मेजय की सद्य प्रकाशित पुस्तक 'पत्रकारिता में प्रतिक्रिया' एक ऐसी ही पुस्तक है जो प्रतिक्रियाओं का संकलन, लेकिन उन्हें इस ढंग से लिखा और प्रस्तुत किया गया है कि उन्हें पढ़ने पर पाठक पर सार्थक प्रभाव पड़ता है। वह अपनी राय देने पर भी विवश होता है। साथ ही, पाठक अपनी, 'सामाजिक प्राणी', जिम्मेदार नागरिक, संवेदनशील लेखक या पाठक आदि होने की भूमिका तलाशने लगता है। जसवंत सिंह जनमेजय में उक्त सभी खूबियां दिखाई पड़ती हैं। वे तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक मुद्दों से पूरी संवेदनशीलता और पैनी दृष्टि के साथ जुड़ते हैं। उनकी प्रतिक्रियाओं का संकलन आना, दूसरे लेखकों और पाठकों को भी प्रेरित करने जैसा है। आज जिस स्तर की पत्रकारिता हो रही है; उससे तो, हम सबकी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। पराधीन भारत में अंग्रेजों ने पत्रकारिता का आरंभ राजसत्ता के हित के मद्देनजर किया था। किंतु, भारतीय पत्रकारिता देश की आजादी और जनसरोकारों को लेकर आरंभ हुई थी। देश आजाद होने के बाद पत्रकारिता का एकमात्र उद्देश्य, देशहित और जनहित में मत बनाने और पीड़ित, शोषित जनता की आवाज बनने का हो गया था। किंतु, आज पत्रकारिता के जनसरोकार कहां हैं? देश में शिक्षितों का ग्राफ बढ़ने के साथ सामाजिक और राजनीतिक जागृति बढ़नी चाहिए थी। लेकिन हुआ उल्टा, शिक्षा के समानुपात मूक-बधिर लोगों की संख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ी। नतीजा हम सबके सामने है। इस अवांछित नतीजे से निपटने के लिए, हम सबको अपनी-अपनी भूमिका की तलाश करनी ही चाहिए और निरंकुश मीडिया तथा राजसत्ता पर अंकुश लगाने के सामूहिक प्रयास करने चाहिए। पत्रकारिता में प्रतिक्रिया (जनसरोकारों वाली प्रतिक्रिया) इसका रचनात्मक माध्यम हो सकती है। जनमेजय की पुस्तक, इस ओर स्पष्ट इशारा करती है।

           इन प्रतिक्रियाओं में लेखक की समझ और विचार खुलते हैं। तत्कालीन समय के अनेक मुद्दे सामने आते हैं। इन मुद्दों से पत्रकारिता कैसे मुठभेड़ करती है अथवा नहीं करती है; इस संदर्भ में लेखक की प्रतिक्रियाओं को पढ़कर, सटीक अंदाजा लगाया जा सकता है। एक शिक्षित और विचारवान पाठक अपने समय के ज्वलंत मुद्दों से कैसे जुड़ता है, उनको किस रूप में लेता है, दोनों की बानगी प्रस्तुत पुस्तक में है। प्रतिक्रियाओं के इस संकलन से कई और रचनात्मक बातें सामने आती हैं। एक तो यह कि संबंधित विषयों पर अपना पक्ष जरूर रखना चाहिए। इसमें लोकतंत्र की खूबसूरती और औचित्य दोनों अंतर्निहित होते हैं। इसके अभाव में राजसत्ता या समाज सत्ता निरंकुश हो जाती है। उन पर जरूरी अंकुश लगाने के लिए विपक्ष (संवेदनशील और जिम्मेदार नागरिक) का जागरूक और वैचारिक रूप से मजबूत होना आवश्यक है। दूसरा यह कि सहमति-असहमति से ही किसी क्षेत्र की सृजनात्मकता और निरंतरता बनी रह सकती है। बगैर इसके, न तो सृजन शक्ति बढ़ायी जा सकती है और न वह आगे ले जायी जा सकती है। यहां सहमति या असहमति का स्वस्थ और रचनात्मक होना अनिवार्य है। तीसरा, विलुप्त होती पत्र शैली को बचाया व बढ़ाया जाना चाहिए, ताकि वॉट्सएप के जमाने में खत्म हो रही एक साहित्य विधा यानी पत्र विधा को बचाया जा सके। जनमेजय के सभी पत्र इस दिशा में सार्थक प्रयास करते हैं। ये पत्र उनके लंबे अनुभव और लंबी विचार यात्रा के चलते तैयार हुए हैं इसलिए इनमें साहित्य समाज और जीवन का बहुत कुछ आ समाया है। हर्ष की बात है कि जनमेजय ने पाठकीय और चिंतनीय प्रतिक्रियाओं में उक्त सभी बातों का खास ध्यान रखा है। उन्होंने किसी भी प्रतिक्रिया में व्यक्ति के व्यक्तिगत हित या अहित को वरीयता न देकर, देश के चहुंमुखी विकास और सामूहिक हित को वरीयता दी है।

          उनके चिंतन और प्रतिक्रियाओं के दायरे में उनके समय के जरूरी और ज्वलंत मुद्दे रहे हैं। उन पर सार्थक टिप्पणियां करना, उनका रचनात्मक कौशल रहा है। मुद्दा राजनीतिक हो, साहित्यिक हो अथवा सामाजिक हो, सभी में सार्थक दखल, उनकी विस्तृत समझ का द्योतक है। यही कारण है कि उनकी प्रतिक्रियाओं का अच्छा खासा (164 पृष्ठीय) संकलन बनकर तैयार हो गया है। संकलन में दर्ज प्रतिक्रियाओं को चार खंडों में विभाजित किया गया है -'सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संदर्भ।', 'कला साहित्य और सांस्कृतिक संदर्भ।', 'बुद्ध-अंबेडकर-दलित प्रसंग।' और 'विविध प्रसंग।' टिप्पणियों को विषयानुरूप वर्गीकृत किया गया है, कालक्रम का ध्यान नहीं रखा गया है। इस कारण प्रतिक्रिया स्वरूप लिखे गए पत्र संकलन में लिखे जाने के आरोह क्रम में संकलित नहीं हो पाए हैं। पत्रों के विषयानुरूप संकलित होने से विषय संबधी एकरसता तो बनी रहती है, किंतु समय की क्रमबद्धता भंग हो जाती है। बहरहाल, टिप्पणियों को विषय की संबद्धता के अनुरूप जिन चार खंडों में वर्गीकृत किया गया है, उनमें संबंधित विषयों के विविध विचार आ समाये हैं।

           'दो शब्द' (प्रस्तावना) में डॉ. ममता देवी ने ठीक ही कहा है - "विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, समाचार पत्रों में समसामयिक मुद्दों पर चाहे वह सामाजिक हों, राजनीतिक हों, आर्थिक हों, सांस्कृतिक हों या फिर रोजमर्रा की समस्याएं जैसे जल समस्या, बिजली समस्या जैसे मुद्दों को भी एक सजग पाठक एवं संवेदनशील नागरिक के रूप में देखने का प्रयास किया गया है। किसी भी ज्वलंत मुद्दे पर पाठक की निष्पक्ष राय एवं पूर्वाग्रहमुक्त नजरिया इनके लेखन की विशेषता है।" इस संदर्भ में लेखक की स्वीकारोक्ति भी संज्ञान लेने लायक है। भूमिका (अपनी बात) में उन्होंने लिखा है कि "मेरी अवधारणा अपने पत्रों में यही रही है कि व्यक्ति, जाति, समाज, धर्म, संप्रदाय विशेष के प्रति मैंने किसी भी प्रकार का कोई भेद-भाव नहीं रखा। सामाजिक सरोकारों के चिंतन में समरसता बनी रहे ताकि देश में मैत्री, बंधुता, समता, शांति और सद्भाव कायम रहे। इस उद्देश्य से समाज और सरकार को समय-समय पर अपने अमूल्य सुझावों से अवगत कराता रहा हूं।" यानी पत्रकारिता के जो जनसरोकार होते हैं, वही जनमेजय अपनी पाठकीय टिप्पणियों में प्रयुक्त करते रहे हैं। इस कारण वे समय-समय पर विभिन्न सस्थानों से पुरस्कृत भी होते रहे। पुरस्कार और सम्मान स्वरूप मिली मानदेय राशि प्रस्तुत संकलन को प्रकाशित करने में सहयोगी साबित हुई है।

          जिस प्रकार विषय की दृष्टि से जनमेजय का दायरा विस्तृत रहा, उसी प्रकार उनका पढ़ने और छपने का दायरा भी काफी विस्तृत रहा।। नव भारत टाइम्स, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला, नवोदय टाइम्स, दैनिक भास्कर जैसे प्रतिष्ठित अखबारों से लेकर हंस, वागर्थ, कथादेश, आउटलुक, दलित अस्मिता और क्रांतिसूर्य जैसी ख्यातिलब्ध पत्रिकाओं के वे न सिर्फ गंभीर पाठक रहे, अपितु इनमें छपने वाले लेखक भी रहे। समय-समय पर, उक्त सभी में इनकी रचनात्मक प्रतिक्रियाएं प्रकाशित होती रहीं। 'केंद्र में नई सरकार', 'आयु सीमा में परिवर्तन क्यों?', 'सम्पूर्ण क्रांति को सम्मान', 'विदेशी मूल का प्रसंग', 'भारतीयों की रक्षा जरूरी' और 'आरक्षण का मुद्दा' आदि शीर्षक से लिखी गई उनकी प्रतिक्रियाएं उनकी राजनीतिक चेतना की द्योतक हैं। 'कलाकार का अपमान क्यों', 'हबीब तनवर', 'विरासत का बंटाधार', 'नारी उत्पीड़न का दर्पण', 'वंचितों और मजलूमों की आवाज', 'हम सब साथ-साथ', 'भारतीय नारियों की प्रेरणता क्रांति ज्योति सावित्री बाई फुले', 'मोबाइल के विकास से हिंदी का ह्रास', 'संस्कृति विमर्श', और 'दलित चिंतन' आदि विषय पर उनकी प्रतिक्रियाएं सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और विविध विमर्श संबंधी चेतना की परिचायक हैं। प्रस्तुत संकलन का समग्रता में अध्ययन और चिंतन करने से ज्ञात होता है कि मानसिक गुलामी तोड़नी के लिए, न सिर्फ शैक्षिक प्रगति, बौद्धिक जागृति जरूरी है बल्कि सामयिक मुद्दों में सार्थक हस्तक्षेप भी जरूरी है। डॉ. जसवंत सिंह जनमेजय का चिंतन और लेखन शिक्षित और बौद्धिक पाठकों का इसी रूप में आह्वान करता है। इसका जीवंत प्रमाण 'पत्रकारिता में प्रतिक्रिया' में दर्ज है।

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21/07/2023

पुस्तक : पत्रकारिता में प्रतिक्रिया

लेखक : डॉ. जसवंत सिंह जनमेजय

समीक्षक : डॉ. अमित धर्मसिंह

प्रकाशक : स्वराज प्रकाशन, दिल्ली

प्रथम संस्करण (पेपरबैक) : 2023

पृष्ठ : 164

मूल्य : 395₹

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