तेजपाल सिंह तेज की आत्मकथा फ्लैश बैक बियोंड पैराडाइम की समीक्षा


 अतिवाद, आग्रह और ग्रंथिरहित आत्मवृत्त है 'फ्लैश बैक :  बियोंड पैराडाइम'    - डा. अमित धर्मसिंह

       तेजपाल सिंह तेज का नाम हिंदी दलित साहित्य में किसी परिचय का मोहताज नहीं; ऐसा, उनके अपने लेखन से संभव हो पाया है। वे हिंदी दलित साहित्य की प्रथम पीढ़ी के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हिंदी पट्टी से जुड़े दलित साहित्यकारों के नाम सूचीबद्ध किये जाए तो तेजपाल सिंह तेज का नाम अग्रणी पंक्ति में शामिल किया जाएगा। ग़ज़ल, कविता तथा विचार विमर्श की, वे दो दर्जन से भी अधिक पुस्तकें लिख चुके हैं। उन्होंने विपुल साहित्य सृजन किया है। उन्होंने हिंदी साहित्य की अधिकतर विधाओं जैसे कविता, ग़ज़ल, आलोचना, शब्दचित्र, निबंध, गीत, बालगीत, नवगीत आदि में लेखन किया है। हिंदी ग़ज़ल और कविता में उनका विशेष दखल है। मौलिक सृजन के अलावा उन्होंने संपादन कार्य भी कुशलतापूर्वक किया। दलित साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिका अपेक्षा में उपसंपादक रहने के साथ उन्होंने साप्ताहिक पत्र 'ग्रीन सत्ता', 'आजीवक विजन' और 'अधिकार दर्पण' त्रैमासिक जैसे पत्र पत्रिकाओं का संपदान किया। हाल ही में 'फ्लैश बैक : बियोंड पैराडाइम' नाम से, दो भागो में उनका आत्मवृत्त प्रकाशित होकर आया है जो खासा चर्चा में है। यहां दो बातें उल्लेखनीय है। एक, आत्मवृत्त किसी प्रकार का आदर्श नहीं रचता। दो, यह आत्मकथा की अपेक्षा आत्मवृत्त है। दूसरी बात को लेखक ने स्वयं स्वीकारा है। इसे स्वीकारने के पीछे खास वजह रही है। वे मानते हैं कि "मेरी यह कहानी केवल आत्मकथा नहीं है। मेरी एक ऐसी कहानी है जिसमें मेरे जीवन के आस-पास के परिवेश के घटनाक्रम भी किसी न किसी रूप में शामिल हैं। अतः मैं अपनी इस कहानी को आत्मकथा के बदले आत्मवृत्त कहना ज्यादा पसंद करूंगा और पाठकों से भी निवेदन करूंगा कि वे भी इसे इसी भाव के साथ पढ़ें।" (फ्लैश बैक : बियोंड पैराडाइम, भाग- 1, प्राक्कथन, 7) यद्यपि, जब कोई आत्मकथाकार अपनी आत्मकथा लिखता है तो उसमें उसके जीवन की घटनाओं के साथ उसका सामयिक परिवेश और देशकाल स्वतः ही आ समाता है। फिर भी, तेजपाल सिंह तेज द्वारा की गई पूर्वघोषणा संकेत करती है कि उन्होंने अपने आत्मवृत्त में अपनी नायकी और आत्ममुग्धता को ध्वस्त करते हुए, अपने समय, प्रमुख घटनाओं और परिवेश को प्रमुखता दी है। अधिकतर आत्मकथाकारों ने अपनी आत्मकथा में येन, केन प्रकारेण, स्वयं को नायक साबित करने के लिए एडी चोटी के जोर लगाये हैं। उन्होंने घटनाओं को तोड़ने मरोड़ने के साथ, कल्पना का भी पर्याप्त सहारा लिया है। तेजपाल सिंह तेज इस आग्रह से मुक्त दिखाई देते हैं। वे न तो किसी और को और न स्वयं को ही अनावश्यक वरीयता देते हैं। वे अपने कालखंड की प्रमुख घटनाओं को अपनी कहानी का बेजोड़ हिस्सा बनाते हैं। इसी वर्णन में अपनी और दूसरों की भूमिका को रखते चलते हैं। वे अपनी कहानी को आदर्शवाद के शिखर पर स्थापित नहीं करते बल्कि धरातल पर खड़ा करते हैं। अपनी कहानी को रुचिकर बनाने के लिए, वे शैल्पिक प्रयोग की अपेक्षा वास्तविक अनुभव की कसौटी पर कसते हैं। इसका असर यह होता है कि पाठक किसी हैरतअंगेज तथ्यों से आश्चर्यचकित नहीं होता और न ही लिखने की चमत्कृत कर देने वाली कला में उलझता है। अपितु, जीवन और समाज के वास्तविक स्वरूप से रूबरू होता चलता है।

          उत्तर प्रदेश के जिला बुलंदशहर के छोटे से गांव 'अला बास बातरी' में सन 1949 में जन्मे तेजपाल सिंह तेज का बचपन, दूसरे दलित बच्चो के जैसा ही रहा। इनके जन्म के समय कुछ समय पूर्व ही देश अंग्रेजी दासता से आजाद हुआ था। कहने को हम आजाद हो गए थे लेकिन दलितों के लिए उस आजादी के कुछ मायने नहीं थे। दलित तो आजादी के बाद भी आर्थिक रूप से विपन्न और अशिक्षित रहे। इस कारण उनके जीवन में आजादी से कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं आया। हां, उनके बदलाव और आगे बढ़ने की राह कुछ वर्षों उपरांत संविधान से तय हुई। परंतु, यह भी नई जन्मी पीढ़ी के लिए हितकर था, पूर्व की पीढ़ी का संघर्ष और सामाजिक, आर्थिक स्थिति तो जस की तस रही। यानी वह न सिर्फ आर्थिक रूप कमजोर रही अपितु शिक्षा के प्रकाश से भी उज्ज्वल न हो सकी। इसकी गहरी पीड़ा तेजपाल सिंह तेज ने इन शब्दों मे दिखाई देती है- "मेरे माता-पिता की मेरे बचपन में ही मृत्यु हो गई थी और आज जब मैं अपने बचपन की कहानी लिख रहा हूं, मेरे भाई व बहनें भी जीवित नहीं हैं। यदि होते भी तो कोई फायदा न होता क्योंकि उनके लिए काला अक्षर भैंस बराबर था। सबके सब अनपढ़ जो थे, वैसे भी अनपढ़ माता-पिता के लिए बच्चे का जन्म ही महत्त्वपूर्ण होता है न कि उसकी जन्मतिथि। उसकी जन्मतिथि से क्या लेना देना उन्हें। घर में काम करने वाले और दो हाथ निकल आने को ही गांव देहात में बड़ी बात समझा जाता है।" अभी भी दलित साहित्यकारों के साथ, यह बहुत बड़ी विडंबना है कि उनके लिखे को वे ही लोग नहीं पढ़ पाते जिनके साथ उन्होंने संघर्ष किया होता है। यह समस्या आजादी के पूर्व जन्मी पीढ़ी के साथ ही नहीं थी, आजादी के बाद जन्मी पीढ़ी के साथ भी रही। अभी भी दलित समाज के अधिकतर अभिभावक अशिक्षित हैं। कारण साफ है कि आर्थिक संकट से जूझते हुए भरे पूरे परिवार में कोई एक दो ही शिक्षा की राह ले पाते हैं। उनमें से भी कोई इक्का दुक्का ही लिखने के कर्म से जुड़ पाता है। ऐसे में उसे पढ़ने वाले अपने समाज में तो क्या अपने घर में ही अनुपलब्धप्राय रह जाते हैं। फिर भी जो लेखक हैं उन्हें अपने जीवन, परिवेश और संघर्ष को लिपिबद्ध करते रहना चाहिए। इसी से उनका अस्तित्व और ऐतिहासिक पहचान सुरक्षित रह सकती है। इसका वैज्ञानिक लाभ यह भी है कि गत यात्रा को समझकर आगे की राह लेने में सुगमता रहती है। यह बात और है कि साधन व शक्ति संपन्न लोग इसका दुरुपयोग करते चलते हैं। बहरहाल, तेजपाल सिंह तेज ने अपने आत्मवृत्त में अपने जीवन, समाज और परिवेश का जीवंत दस्तावेज तैयार किया है।

          अपने गांव और उसके परिवेश के विषय में उन्होंने लिखा है- "सच कहूं तो मेरे गांव वाले किसी जाति, किसी धर्म, किसी समुदाय या फिर किसी वर्ग के लोगों में विशेष के खिलाफ नहीं थे। बस! उन्हें नाइंसाफी पसंद नहीं थी। उनका अंगूठा छाप होना बेशक उनकी प्रगति में बाधक था किंतु सामाजिक सौहार्द बनाने में काफी हद तक कामयाब था।" (फ्लैश बैक : बियोंड पैराडाइम, भाग -1, मेरा गांव, पृष्ठ 29-30) ऐसा जिन दो प्रमुख कारणों से था उनका उल्लेख भी लेखक ने किया है। एक तो यह कि लेखक का गांव आजादी से, एक डेढ़ दशक पहले ही बसा था जिसमें जगह-जगह से लोग और उनके रिश्तेदार आकार बसे हुए थे। दूसरा कारण यह कि इन बसने वाले लोगों में करीब करीब सब जाटव समूह के परिवार थे। ऐसे में उनके बीच सामाजिक भेदभाव, यानी जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव की गुंजाइश ही नहीं थी। ऐसी जगहों पर शक्ति संघर्ष अवश्य पाया जाता है। धनबल, बाहुबल और बुद्धिबल के बीच होने वाला संघर्ष। गांव में शिक्षा के अभाव के चलते बुद्धिबल-संघर्ष तो नहीं था किंतु धनबल और बाहुबल के बीच होने वाले संघर्ष के  एक दो उदाहरण तो स्वयं लेखक ने दिए हैं। जगराम, केसरी, महराज और प्रह्लाद चार भाइयों के बाहुबल के सामने कोई ऊंची आवाज में बात तक न कर सकता था। इस संदर्भ में लेखक के गांव के लोगों का भी अपना ही दबदबा था। जिसके चलते सठला गांव में रामलीला तभी शुरू हो पाती थी जब लेखक के गांव बातरी के लोग रामलीला मैदान में पहुंच जाया करते थे। क्योंकि इनके सामने टिकने की या इनका सामना करने की किसी में हिम्मत नहीं होती थी। लिहाजा बातरी गांव के लोगों के पहुंचने के बाद, रामलीला शांतिपूर्ण ढंग से सम्पन्न हो जाया करती थी। अपने गांव की इंसाफ पसंद प्रवृत्ति पर लेखक ने एक घटना का उल्लेख किया है। इस घटना में एक फौजी द्वारा एक घसियारी महिला के साथ किए गए दुर्व्यवाहर की सजा उसे उसी का पेशाब पिलाकर और उसके मूंछों के बाल उखड़कर दी जाती है। इसके अलावा लेखक ने गांव के भौतिक आकर-प्रकार का भी समुचित उल्लेख किया है। जैसे घरों का कच्चा होना। कच्चे घरों की दीवार को भुस, गोबर और चिकनी मिट्टी के गारे से लेहसना आदि...। आजादी पूर्व के इस वर्णन के अतिरिक्त लेखक ने अपने गांव के वर्तमान हालात पर लिखा है कि "शिक्षा के प्रसार से अब मेरे गांव की सूरत भी बदल गई है। कच्चे घर ईंटों के हो गए हैं। बहुत से बच्चों का रुझान शिक्षा की ओर बढ़ा है। शिक्षा के हर क्षेत्र/स्ट्रीम में शिक्षारत है। बहुत से लोग आज अच्छी खासी नौकरियों पर लगे हैं। गांव में प्राथमिक स्कूल तो है ही, गांव वालों ने अपने पुरखों की यादों को संजोने के भाव से भव्य 'अंबेडकर भवन' का निर्माण भी कर लिया है।" (पूर्व, पृष्ठ, 30) कह सकते हैं कि लेखक ने अपने जीवन के शुरुआती गांव के हालात पर ही कलम नहीं चलाई बल्कि गांव के हालात में हुए बदलाव के प्रत्येक पहलू को भी दर्ज किया है। यह लेखक की खुली आंखों का दर्शन है कि वह चीजों को उनके वास्तविक स्वरूप और उसके स्वरूप में हो रहे परिवर्तन को देख लेता है। न सिर्फ देखता है बल्कि लेखनी के माध्यम से लिपिबद्ध भी कर देता है।

          जीवन का सबसे संघर्षपूर्ण और चुनौती भरा शिक्षा अर्जित करने का सफर होता है। खासकर, आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े छात्रों के लिए। उनके जीवन में उच्च शिक्षा किसी ख्वाब से कम नहीं होती। इस ख्वाब का हकीकत में बदलना किसी चमत्कार से कम नहीं होता। ऐसा इसलिए कि शिक्षा प्राप्त करने के लिए दो मूलभूत आधार आवश्यक होते हैं। ये दोनों आधार होते हैं-  पारिवारिक पृष्ठभूमि का शिक्षित होना ताकि अभिभावक कुशल निर्देशन कर सके; दूसरा, आर्थिक और सामाजिक रूप से संपन्न होना ताकि शिक्षा की राह में साधन संसाधनों की कमी न रह सके और न ही किसी के भी द्वारा विद्यार्थी विशेष को जाति, धर्म आदि के आधार पर उपेक्षित किया जा सके। किंतु, खेद का विषय है कि अधिकतर दलित विद्यार्थियों के पास उच्च शिक्षा अर्जित करने लिए उक्त दोनों ही मूलभूत साधन अनुपलब्ध होते हैं। या होते हैं तो बहुत कमजोर होते हैं। तेजपाल सिंह तेज के सामने भी यही विकट समस्या थी। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि अशिक्षित और सीमित साधन संसाधनों वाली थी। बचपन में माता-पिता का साथ छूट जाना भी तेजसिंह के लिए कम मुश्किल भरा नहीं था। वो तो, भला हो उनके उनके बड़े भैया डालचंद और भाभी जी का, जिन्होंने तेजसिंह की शिक्षा में कुछ खास व्यवधान नहीं आने दिया। इस संदर्भ में तेजसिंह लिखते हैं- "माता-पिता मेरी उम्र के पंद्रहवें वर्ष में ही धराशाही हो गए और मेरे बचपनी महल की बुनियादें जैसे बुरी तरह हिल गईं। अब केवल भाई और भाभी का ही आसरा शेष रह गया था। मां के गुजरने के बाद बस्ती वालों से एक खिताब जो मुझे मिला वह था 'बेचारा अभागा', शायद इसमें उनका मेरे प्रति प्यार और मेरे भविष्य के प्रति चिंता का भाव निहित था। किंतु मां के गुजरने के बाद भी मेरे प्रति, भाई भाभी के व्यवहार में कोई अंतर नहीं आया था।... फलतः पढ़ाई के प्रति मेरा रुझान जस का तस बना रहा।" (पूर्व, पृष्ठ, 41) किंतु यह सिलसिला दसवीं के बाद डगमगाने लगा। इनके भाई नल गाड़ने का काम किया करते थे। इनके काम से परिवार का खर्च तो अवश्य चल जाता था लेकिन उच्च शिक्षा का भारी भरकम बोझ उठाना उनकी आय से संभव नहीं हो पाता था। लिहाजा दसवीं के बाद भाई डालचंद द्वारा हाथ खड़ा करने के बाद तेजसिंह को भी मजदूरी की राह लेनी पड़ी। नल का कार्य इस दौरान इन्होने सीख ही लिया था। यही काम इनकी आगे की शिक्षा में काम आया। शिक्षा अर्जित करने के दौरान पारिवारिक हालत और इनका अपना संघर्ष तो उभरकर सामने आता ही है, साथ ही स्कूल, कॉलेज और अध्यापकों के विषय में भी पर्याप्त जानकारी उपलब्ध होती है। एक अध्यापक बाबूराम शर्मा के विषय में लेखक ने लिखा कि किस तरह उन्होंने गरीब छात्रों की ड्रेस की कमी को पूरा करने में उन्हें एनसीसी दिलवा दी थी ताकि उन्हें एनसीसी की ड्रेस उपलब्ध हो सके। कहने का मतलब यह है कि लेखक ने यह आत्मवृत्त लिखते समय किसी के भी प्रति, किसी भी प्रकार की मानसिक ग्रंथि या कुंठा नहीं रखी है। जहां भी उन्हें जिसके भी योगदान को स्वीकारने की जरूरत पड़ी, बगैर किसी लागलपेट के स्वीकार की। भले ही योगदान करने वाला दलित हो अथवा गैर दलित। कुल मिलाकर, तेजसिंह तेज का शैक्षिक सफर, दूसरे दलित छात्रों की तरह ही कठिन और संघर्षमय रहा जिसमें कुछ परेशानी आई तो कुछ राहत भी मिली। मजदूरी करने से लेकर, बीमारी के कारण बारहवीं में पढ़ाई का छूट जाना, उनके लिए बहुत पीड़ादायी और चुनौती भरा समय रहा। मगर उन्होंने कुछ तो अपनी सूझ बुझ से, कुछ परिवार से तो कुछ अध्यापकों की मदद से बारहवीं तक का सफर तय किया। इस दौरान, जिस किसी ने जिस भी रूप में उनकी मदद की उसे उन्होंने खुले दिल से स्वीकार किया और अपने आत्मवृत्त में दर्ज किया।

          जो छात्र बमुश्किल शिक्षित हो पाते हैं, उनके सामने नौकरी की जरूरत भी जल्दी ही पेश आने लगती है। तेजपाल सिंह तेज की नौकरी संबधी तलाश भी दसवीं पार करने के साथ ही शुरू हो गई थी। कह सकते हैं कि जिस दौर में इन्होंने दसवीं की, उस दौर में सामान्यतः शिक्षा का ग्राफ बहुत कम था। दलित समाज की हालत तो और भी खस्ता थी। यही कारण था कि उस समय दलित समाज के बच्चे पढ़ाई के लिए कामकाज यानी मजदूरी तो करने ही लगते थे, साथ ही नौकरी भी जल्दी ही तलाशने लगते थे। तेजपाल सिंह तेज भी इसके अपवाद नहीं रहे। अनेक उतार-चढ़ाव के बाद इन्होंने पहली नियुक्ति 1972 में 'कर्मचारी भविष्य निधि आयोग (भारत सरकार)' में लिपिक के रूप में हासिल की लेकिन इससे इन्हें संतुष्टि नहीं मिली। ये आगे बढ़ने के निरंतर प्रयास करते रहे। परिणाम यह निकला कि 1974 में ये बदरपुर (दिल्ली) में भारतीय स्टेट बैंक में पहले टंकक लिपिक और कुछ माह उपरांत शाखा प्रबंधक के सहायक के रूप में नियुक्त हुए। इसके लिए उन्होंने अंग्रेजी की शिक्षा अलग से ली। अक्सर, यह देखा जाता है कि दलित समाज में जब कोई आगे बढ़ने लगता है तो, न सिर्फ गैर दलित बल्कि उसके अपने समाज के लोग भी उससे ईर्ष्या भाव रखने लगते हैं और उसे आगे बढ़ने से रोकने के लिए उसकी टांग खींचने लगते हैं। अर्थात, तरह तरह से उसे पिछाड़ने का यत्न करने लगते हैं। तेजपाल सिंह तेज के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा- "शाखा प्रबंधक के सहायक के रूप में मेरी तैनाती अन्य लिपिकों को खलने लगी क्योंकि इस शाखा में मेरे साथ भर्ती हुए सभी कर्मचारी स्नातक या फिर स्नातकोत्तर थे। वे सब थे भी दिल्ली के ही और अपने दलित समाज के भी। उनमें मैं ही बारहवीं पास था और दिल्ली के बाहर के गांव का भी। मेरे शैक्षिक स्तर को लेकर वो आपस में कुछ न कुछ अप्रिय बातें करने से बाज नहीं आते थे।" (पूर्व, पृष्ठ 57- 58) इनकी नौकरी के बाद दूसरी अप्रिय घटना यह घटी कि उनकी नौकरी लगने से चिढ़कर उनके जीजा के दोस्त रामभज (दिल्ली में जिनके घर पर ये रहते थे) ने भी इन्हें घर से निकाल दिया। उसके बाद इन्हें गोविंद पूरी जो कि बादलपुर और ओखला के निकट पड़ती है, में किराए का कमरा लेना पड़ा। बावजूद इसके इन्होंने हिम्मत नहीं हारी और नौकरी के साथ-साथ पढ़ाई भी जारी रखी। परिणामतः मेरठ की चौधरी चरणसिंह यूनिवर्सिटी की पत्राचार पद्धति से 1977 में इन्होंने स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। यह शिक्षा इनके शैक्षिक उन्नति के साथ साथ पदोन्नत होने में भी काम आई। साहित्यिक संस्कार भी इससे मजबूत हुए।

         मनुष्य के ज्ञान, संस्कार और सफलता की पृष्ठभूमि के विषय में तेजपाल सिंह तेज की यह भी मान्यता है कि "हमारी संस्कृति और सभ्यता की पहचान के बारे में मूल ज्ञान, हमारे परिवार से ही आता है। मगर मैं ऐसा कतई नहीं मानता क्योंकि कोई भी मनुष्य परिवार से कम परिवेश से ज्यादा प्रभावित होता है, ऐसा मेरा मानना है। यह भी माना जाता है, बच्चों को सभी अच्छी बुरी आदतें और शिष्टाचार अपने परिवार से ही मिलते हैं। किंतु मेरी दृष्टि में यह उक्ति भी अक्षरशः सही नहीं है। इसमें भी देश, काल और परिस्थितियों का बहुत योगदान होता है। हां! इन उक्तियों पर वो लोग जरूर विश्वास कर सकते हैं जो परंपरागत बातों में उलझे रहते हैं और अपने बच्चों को पिंजरे का तोता समझते हैं।" इसमें कोई संदेह नहीं कि जब लेखक ऐसा लिख रहा है तो गहरे और यथार्थ अनुभव के आधार पर लिख रहा है। दलित समाज के लोगों के उत्थान में, आज भी उनकी परिस्थितियां ही बड़ी भूमिका अदा करती हैं। यह बात और है कि बहुत-सी प्रतिभाएं परिस्थितियों के प्रस्तर के नीचे दबकर असमय ही दम तोड देती हैं। किंतु ऐसा अधिकांश उनके साथ होता है जो अपनी परिस्थितियों से, समय रहते कुछ बेहतर नहीं सीख पाते और न ही उसके आधार पर आगे बढ़ पाते हैं। तेजपाल सिंह तेज का जीवन, परिस्थिति और सफलता में उक्त तथ्य अंतर्निहित है। इन्होंने अपने देश, काल और परिस्थितियों से बहुत कुछ सीखा और आगे बढ़े। इनके अलावा उनके आगे बढ़ने में या सीखने में दो लोगों की भूमिका को लेखक ने अलग से याद किया है। इन दो लोगों में पहले उनकी मां और मां के बाद भाभी मां है। संदेह नहीं कि लेखक में जो दृढ़ संकल्प और चरित्र की ताकत मिली, वो उनकी अपनी मां से मिली और दया, त्याग तथा सहयोग की भावना, भाभी मां की देन कही जा सकती है। दोनों के विषय में लेखक ने जिस ढंग से लिखा है उससे ज्ञात होता है कि लेखक का परिवार मातृ प्रधान परिवार रहा। उनकी मां गृहिणी के साथ-साथ दबंग महिला थीं। पैसे के लेन-देन से लेकर लड़ाई-झगडे सुलटाने तक में उनकी भूमिका प्रथम और निर्विवाद थी। रही बात भाभी मां की तो उनकी मां के बाद लेखक का एक मां की तरह किसी ने साथ दिया तो वह उसकी भाभी मां ही थी। उसने लेखक की पढ़ाई से लेकर, हारी-बीमारी तक में उसका भरपूर साथ दिया। मां और भाभी मां दोनों का लेखक के जीवन में इतना बड़ा योगदान रहा कि लेखक चाहकर भी उसे भुला नहीं पाया है। यही कारण है कि उनसे जुड़े अनेक किस्से लेखक ने अपने आत्मवृत्त में लिपिबद्ध कर डाले हैं। यहां, यह बात गौर करने की है कि उनके वर्णन में लेखक ने किसी प्रकार की अतिश्योक्ति या अतिवाद का सहारा नहीं लिया है। यह बात और है कि स्वप्न संबधी वर्णन और उनके कर्मकांडी उपायों में पाठक को अनावश्यक तौर से उक्त आभास हो सकता है। किंतु, यह बड़ी बात है की लेखक ने इस तरह के वर्णन भी क्यों के त्यों रख दिए हैं। अपनी तरफ से किसी भी तरह का परिष्कार या परिमार्जन नहीं किया है।

          जीवन में प्रेम और विवाह दो अनिवार्य संस्कार हैं। जरूरी नहीं कि मनुष्य इनमें सफल ही हो। भारत में तो दोनों के लिए ही अनुकूल वातावरण का अभाव रहा है। प्रेम में सामाजिक बाध्यताएं हैं तो विवाह में असंगतता की विवशता। आज तो फिर भी ये दोनों संस्कार कुछ सरल हुए हैं किंतु तेजपाल सिंह तेज के दौर में तो ये दोनों काफी जटिल संस्कार थे। लेखक के साथ भारी विडंबना यह रही कि वह दोनों में बुरी तरह असफल रहा। बल्कि यह कहिए कि उसके जीवन में इन दोनों की अनुकूलता दूर की कौड़ी ही रही। कक्षा आठ नौ के दौरान एक लड़की के साथ प्रेम जैसा कुछ शुरू होने से पहले ही समाप्त हो जाना, लेखक के लिए सहजता से घट जाने वाली बड़ी दुर्घटना रही। इसका प्रभाव लेखक पर हमेशा बना रहा। कहावत है कि बद से बुरा बदनाम। प्रेम के मामले में लेखक के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। वह बद तो नहीं हो सका किंतु बदनाम अवश्य हुआ। विवाह के मामले में तो लेखक की स्थिति और भी विचारणीय रही। लेखक का विवाह उनकी मर्जी और पसंद के विपरीत उनके बड़े भाई डालचंद ने तय किया और करवाया। लेखक विवाह करने के पक्ष में नहीं था। उनका बड़ा भाई अपनी जिम्मेदारी से जल्द से जल्द फारिग होना चाहता था। इस नाते वह हाईस्कूल के बाद से ही उसका विवाह करने के पीछे पड़ा रहता। एक दो मामलों में, किसी तरह लेखक ने अपनी जान भी बचाई किंतु 1973 में उनके बड़े भाई ने उनकी शादी उनकी इच्छा अनिच्छा, पसंद नापसंद और बगैर किसी देख-दिखावे के कर ही दी। नतीजा लेखक के इन शब्दों के रूप में निकला - "मेरी पत्नी न तो कभी मेरे दुख में शामिल हुई और न ही कभी सुख में मेरा साथ निभाया। कभी कभी मुझे इस बात की खुशी भी होती है कि मेरे मां-बाप मेरे बचपन में ही गुजर गए अन्यथा उनका बुढ़ापा पत्नी के व्यवहार के चलते शायद बहुत बुरा ही गुजरता। दरअसल, मेरी पत्नी खुद और खुद के लिए जीती है। जीवन भर एक ही अफसोस सालता रहा कि हम जहां कहीं भी रहें, पत्नी का पड़ोसियों के साथ सदा झगड़ा बना रहा।" (पूर्व, पृष्ठ 87) ऐसा लिखना मात्र प्रमाणित करता है कि तेजपाल सिंह तेज का वैवाहिक जीवन किस कद्र दुख, संताप और क्षोभ से भरा हुआ रहा। लाख मनाही के बाद, पत्नी द्वारा प्लॉट लेने के लिए दबाव बनाना। कर्ज पर प्लॉट लेना। फिर उसी प्लॉट के बाहर छोटे बेटे विवेक का ट्रक एक्सीडेंट में मारा जाना। बेटी शिखा का लिव इन रिलेशनशिप में रहते हुए कोर्ट मैरिज करना और असफल होना। लेखक का शराब में डूबकर लीवर की गंभीर बीमारी से जूझना और पत्नी का साथ न देना। तबादलों की समस्या, स्टाफ के साथ तनाव की समस्या, बार बार घर लेने, बदलने की समस्या आदि बातें लेखक के जीवन की विडंबनाओं को पराकाष्ठा की हद तक बढ़ा देती हैं। व्यक्ति अपनी शिक्षा, नौकरी और अपनी आर्थिक स्थिति को दुरुस्त करने के लिए अथक परिश्रम इसलिए करता है ताकि बाद का जीवन आसानी से कट सके। पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वहन आसानी से कर सके। इसके लिए वह अथक परिश्रम और संघर्ष तो करता ही है साथ ही अपने जीवनसाथी और परिवारजनों से नैतिक बल और सहयोग की अपेक्षा भी करता है। इनके अभाव में व्यक्ति नितांत अकेला पड़ जाता है। तेजपाल सिंह तेज अपने जीवन और संघर्ष में सफल व्यक्ति होने के बावजूद, ऐसे ही अकेले पड़ जाने वाले व्यक्ति रहे। बावजूद इसके वे अकेले ही जीवन के हर मोर्चे पर अनवरत लड़ते रहे, बगैर हार जीत की परवाह किए। उनके इसी गुण और क्षमता को देखते हुए, ईश कुमार गंगानिया ने उन्हें 'वन मैन आर्मी' की समुचित संज्ञा से नवाजा है। कहा जा सकता है कि व्यक्ति के जीवन में जिन तीन स्त्रियों (मां, पत्नी और बेटी) की प्रमुख भूमिका होती है उनमें से मां तो असमय ही गुजर गई थी। बाकी दो ने लेखक को संभालने के बजाए असहनीय कष्टों की कारा में धकेले रखा। बावजूद इसके वे परिवार के साथ तो खड़े ही रहे, परिवार के अलावा जो भी उनके संपर्क में आया उसकी भी उन्होंने यथायोग्य मदद की। बात चाहे उनके भाई के बेटे भूपेंद्र की पढ़ाई की हो अन्य किसी और की, उसने अपनी तरफ से सबकी भरपूर मदद की। फिर भी, उम्र के आखिरी पड़ाव में वे अकेले पड़ गए।

           कृष्ण बिहारी नूर की ग़ज़ल का एक मतला और एक शेर है कि "जिंदगी से बड़ी सजा ही नहीं। और क्या जुर्म है पता ही नहीं। इतने हिस्सो में बंट गया हूं मैं, मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं।"  ये पंक्तियां तेजपाल सिंह तेज के जीवन पर खरी उतरती हैं। अपना जीवन और संपत्ति परिवार और समाज को सौंपने के बाद भी वे जिस तरह अकेले पड़ गए, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। हां, एक चीज है जो सिर्फ उनकी थी, उनकी है और हमेशा उनकी ही रहेगी। वह है उनकी साहित्यिक उपलब्धि। यह उपलब्धि उन्होंने अथक और अनवरत परिश्रम से अर्जित की है। उनके लिए इसका सफर भी कोई कम दुरूह नहीं रहा। बहरहाल, इनकी रचनाधर्मिता की बात की जाए तो बचपन से ही रागिनी सुनने और गाने के शौकीन रहे तेजपाल सिंह तेज नौवीं दसवीं में आते-आते स्वयं भी रागिनी लिखने लगे थे। इस विषय में उन्होंने लिखा है- "मुझे देहाती गाने का बड़ा ही शौक था। कोई ही ऐसा दिन जाता होगा, जब गांव के लोग हमारी बैठक (दुकड़िया) पर गाना सुनने के लिए न आते हों। यहां यह पुनः उल्लेख करना जरूरी है कि यह संयोग ही था कि मैं रागिनी गाने में रुचि रखता था। बस! इसी लगन ने मुझे रागिनी लिखने की ओर भी खींच लिया।"  लेकिन इसमें इन्होंने एक नया प्रयोग यह किया कि जो रागनियां पूराने किस्से कहानियों पर आधारित होती थी उसे उन्होंने आमजन के जीवन और समस्याओं से जोड़ना शुरू कर दिया। बाद में इन्होंने दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी से जुड़कर खूब अध्ययन किया और शायरी की ओर उन्मुख हो गए। ग़ज़ल, मुक्तक लिखने का शौक इन्होंने इसी समय पाया। दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल संग्रह 'साये में धूप' की गजलों का इन पर अक्षुण्ण प्रभाव पड़ा। इस राह में ये गजलकार महेश चंद नक्श के संपर्क में आए। इनसे इन्होंने ग़ज़ल के विषय में सीखने की बहुत कोशिश की लेकिन निराशा ही हाथ लगी। बाद में इसकी पूर्ति के. एल. बालू ने की और अपने तेज तर्रार तेवर के कारण तेजपाल सिंह तेज की गजलें तेवरी कहलाने लगी। इस तरह अनेक उतार-चढ़ाव के बाद भी इनका साहित्यिक सफर जारी रहा जिसका परिणाम दो दर्जन से अधिक पुस्तकों के रूप में आज हमारे सामने है। अपनी रचाधर्मिता के विषय वे स्वयं कहते हैं कि "मुझे यह कहने में तनिक भी हिचक नहीं कि मेरा समूचा साहित्य चलती-फिरती कार्यशाला की उपज है। मैंने कभी भी सिर्फ कविता के लिए कविता गढ़ने की मशक्कत नहीं की। केला बेचती चमेली, सड़क पर झाड़ू बुहारती चंद्रकला, मूंगफली बेचता ननकू, सब्जी बेचती धनिया, मजदूरी करता होरी, बलात्कार की शिकार किशोरी, भ्रष्टचारी राजनेता/घूसखोर, शासन प्रशासन की नंगी धडंगी सभ्यता जैसे विविध विषय ही मेरी रचना के आधार रहे हैं। मेरी ग़ज़ल हो या फिर कविता प्रायः घटना प्रधान ही रही हैं। यथार्थ के धरातल से जन्मी हैं।" इस बात की साहित्य जगत में आज सहज स्वीकृति है। इसका प्रमाण उनका प्रकाशित विपुल साहित्य तो है ही साथ ही समकालीन साहित्यकारों की उनके विषय में मुक्तकंठ से की गई प्रशंसाएँ और टीका टिप्पणियां भी हैं। ये सब आत्मवृत्त के पश्च भाग और आत्मवृत्त के दूसरे भाग में विस्तार से दर्ज हैं। कुल मिलकर तेजपाल सिंह तेज का साहित्यिक सफर काफी चुनौतीभरा किंतु पर्याप्त सफल और समृद्ध रहा।

          साहित्य के इस समृद्ध सफर में यदि कुछ समृद्ध नहीं हो पाया है तो वह लेखक की भाषा है। यह बात लेखक के पद्य लेखन के विषय में नहीं गद्य लेखन के संदर्भ में कहीं जा रही है। ऐसा लगता है कि लेखक की भाषा साहित्यिक कृतियों के अध्ययन से अधिक अखबार के संसर्ग से आई है। लेखक का गैर साहित्यिक प्रोफेशन में होना भी इसका एक करना हो सकता है। लेखक ने गद्य के प्रति अपनी अरुचि और ग़ज़ल आदि के प्रति अपनी रुचि का उल्लेख भी किया है। पहले तो, लेखक पत्र पत्रिकाओं को रचना भेजे जाने का कुछ खास शौकीन नहीं रहा, लेकिन अगर रचनाएं भेजी भी तो अपनी शर्तो पर प्रकाशित किए जाने की शर्त पर। यहां भी भाषा की असंगति पेश आई। वाक्य विन्यास के कमजोर होने और प्रूफ रीडिंग की कमी संभवतः लेखक की बीमारी और बढ़ी हुई उम्र के चलते ठीक नहीं हो पाई है। ऐसा लगता है कि जो कुछ प्रथम बार में लिख दिया गया वह ज्यों का त्यों छपकर सामने आ गया है। न तो लेखक ने लिखकर दुबारा ठीक किया और न ही टंकण की त्रुटि को दुरुस्त किया गया। यही कारण है है कि पढ़ते वक्त समुचित प्रवाह नहीं बन पाता है। बावजूद इसके अपनी भाषा के विषय में लेखक के विचार कुछ इस प्रकार रहे हैं- "पाठकों से मेरी अपेक्षा है कि वे शब्दों और उनके प्रस्तुतीकरण के उलटफेर में न पड़कर मेरे मनोभावों और उनकी जीवंतता की गहराइयों में उतरने का प्रयास करेंगे ताकि वो मेरे करीब, और करीब आ पाएं। मैंने यह सदैव माना है कि किसी भी रचना के प्रति पाठकों की सच्ची और सघन घनिष्ठता मेरी लेखन क्षमता और लगन सीधा और तीव्र असर करती है। कोई और माने न माने, इससे मेरा कोई सरोकार नहीं है। पाठकों के प्रति हमेशा मेरी यही आत्मीयता और विश्वास रहा है।" (फ्लैश बैक : बियोंड पैराडाइम, भाग -2, पृष्ठ 212) लेखक के इस विश्वास से भाषा का दोष तो दूर नहीं हो जाता लेकिन उनकी पाठकों से की गई अपेक्षा, अवश्य ही भाषा को कथ्य के बरक्स गौण कर देती है। सर्वविदित है कि भाषा सौष्ठव में, शब्दों का सदुपयोग, वाक्य विन्यास, पुनरुक्ति दोष, भाषा का अतिशय प्रयोग अथवा अपव्यय, अनावश्यक पल्लवन आदि का समुचित संज्ञान लिया जाता है। किंतु, कई बार कथ्य इतना प्रभावी होता है कि भाषा के अवरोधों पर ध्यान कम ही जा पाता है। यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसे किसी हिचकोले खाती गाड़ी में सफर करना और गंतव्य पर पहुंचने की अनिवार्यता से सफर की परेशानियों और व्यवधानों का गौण हो जाना। फिर भी यहां, यह बात उल्लेखनीय है कि यात्रा में कितने ही अवरोध और परेशानियां क्यों न हो लेकिन यात्रा करने के साधन को तो मजबूत होना ही चाहिए। और, भाषा, हमारे भाव तथा विचार को यात्रा करवाने वाला साधन ही तो है जिसका मजबूत होना बेहद अनिवार्य है। यह बात और है कि कई बार कथ्य की प्रबलता भाषाई कमजोरी को कुछ नगण्य कर देती है। पाठक का भी अपना विवेक होता है कि वह इस पर ध्यान दे और किस पर नहीं। इसलिए उक्त तथ्य पाठक की अपनी सीमा और विवेक पर भी निर्भर करता है। हां, इस बात से संतोष अवश्य किया जा सकता है कि यदि लेखक अपनी बात को कहने और वांछित अर्थ को संप्रेषित करने में सफल हो जाता है तो फिर भाषा दोयम दर्जे पर ही खड़ी रह जाती है। ऐसा ही कुछ तेजपाल सिंह तेज के आत्मवृत्त में हुआ है। या कहिए कि यह तेजपाल सिंह तेज के लेखक की विशेषता है कि वह कथ्य के सामने भाषा को दोयम दर्जे पर लाकर खड़ी कर देता है।

           बहरहाल, मुझे यह कहने में भी कोई संकोच नहीं कि तेजपाल सिंह तेज का यह आत्मवृत्त भाषा की सीमा पार करके अपने उद्देश्य में सफल रहा है। ऐसा कहने के  एक नहीं अनेक कारण हैं। दलित साहित्य में पूर्व से ही अनुभूति को अभिव्यक्ति पर वरीयता दी जाती है। दलित साहित्य अभी अपना स्वरूप ग्रहण ही कर रहा है और अभी इसे सर्वांग रूप में मजबूत होने में काफी वक्त लगेगा। तेजपाल सिंह तेज दलित साहित्य की जिस पीढ़ी से आते हैं, उसका समय हिंदी दलित साहित्य का शैशव काल रहा है। बावजूद इसके, इनका लेखन अपनी समकालीन पीढ़ी के बहुत से लेखकों से आगे ठहरता है। दलित आत्मकथाओं के आलोक में देखें तो उनकी अपेक्षा इनके आत्मवृत्त में बिखराव कम है। अतिवाद, मानसिक ग्रंथि या किसी प्रकार की कुंठा नहीं। किसी के प्रति नफरत का भाव नहीं। घटनाओं का अतिशय और असंगत वर्णन नहीं। स्वयं को हर स्थिति में सही साबित करने का आग्रह नहीं। इन सब बातों की तसदीक दलित और गैर दलित साहित्य के अनेक गणमान्य और प्रतिष्ठित  साहित्यकारों ने की है। इस संदर्भ में डा. रमेश कपूर, डा. श्याम सुंदर सुमन, रमणिका गुप्ता, माणिक लाल वर्मा, डा. एन सिंह, ओमप्रकाश वाल्मीकि, डा. कमलाकांत 'हीरक', कृष्ण चंद्र बेरी, डा. के. एस. गौतम, डा. भगवान दास, जगदीश पंकज, ईश कुमार गंगानिया, शीलबोधि और डा. टेकचंद आदि का नाम उल्लेखनीय है। 'जीवन साहित्य का आधार' मानने और 'जीवन संघर्ष के अलावा कुछ नहीं', अनुभव करने वाले वरिष्ठ दलित साहित्यकार का यह संदेश अक्षरशः ग्राह्य है कि "जीवन की सभी घटनाएं शिक्षाप्रद होती हैं और उनसे शिक्षा लेना सीखें। कुबूल करना सीखें- आमतौर पर हम अतीत से इसलिए चिपके रह जाते हैं क्योंकि हम उसे कुबूल नहीं कर पाते। यदि आपके मन पर कोई बात लग गई हो तो उसके बारे में गहराई से सोचें और कुबूल करें और मान लें कि जो होना था, वो तो हो गया। अब आप कुछ नहीं कर सकते, बस उसे भुलाकर आगे बढ़ जाएं और नित्य कर्म के साथ जनहित में कार्य करें। माध्यम कुछ भी हो सकता है।" (पूर्व, पृष्ठ 213) कहना न होगा कि तेजपाल सिंह तेज ने अपने लिए यह माध्यम साहित्य के रूप में चुना और पर्याप्त सफल हुए।

********* 03/06/2023

समीक्षित कृति : फलैश बैक : बियोंड पैराडाइम, (आत्मवृत्त, भाग 1, 2)

लेखक : तेजपाल सिंह तेज

समीक्षक : डा. अमित धर्मसिंह

प्रकाशक : बुक रेवेयर, दिल्ली

पृष्ठ : भाग 1 : 278, भाग 2 : 213

मूल्य : भाग 1 : 150/₹, भाग 2 : 180/₹

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