दलित शब्द के निहितार्थ और दलित साहित्य का परिसीमन : डा. अमित धर्मसिंह
दलित शब्द के निहितार्थ और दलित साहित्य का परिसीमन पर डा. अमित धर्मसिंह का स्पष्ट चिंतनपरक लेख...
(यह दोनों लेख डा. अमित धर्मसिंह ने दलित लेखक संघ की स्मारिका लिखते हुए विषय प्रवेश के तौर पर लिखे थे। दोनों लेख उक्त स्मारिका में संग्रहीत हैं।)
1. दलित शब्द के निहितार्थ
हर शब्द की अपने गढ़न से लेकर अर्थ विस्तार या अर्थसंकोच तक की एक यात्रा होती है। हर शब्द का अपना इतिहास और परंपरा होती है। कई बार शब्द अपने रूढ़ रूप में शुरू होता है और एक स्वस्थ परंपरा में तब्दील हो जाता है। कई बार इसका उलट होता है। कई बार तो आरंभिक शब्द अपना अर्थ ही खो देता है। अपने पूर्व अर्थ की अपेक्षा नए अर्थ को ग्रहण कर लेता है। भाषा विज्ञान में इसे अर्थादेश कहते हैं। शब्द विशेष में अर्थसंकोच और अर्थविस्तार अधिकतर लोक बोली और लोक व्यवहार के चलते होता है; लेकिन अर्थादेश, होने की बजाए अधिकतर किया जाता है। जिसे करने का अपना ही एक विशेष संदर्भ और खास मकसद होता है। एकाध अपवाद को छोड़कर, अर्थादेश साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों और सांस्कृतिक साम्राज्यवादियों द्वारा किया जाता है। कई बार ऐसा करना स्वस्थ हो सकता है लेकिन जब राज्य, सत्ता, धर्म अथवा विचारधारा विशेष के संदर्भ में अर्थादेश किया जाता है, तो यह काफी खतरनाक साबित होता है। ऐसी परिस्थिति में शब्द अपने मूल अर्थ को खो देता है और राज्य, सत्ता, धर्म अथवा विचारधारा विशेष के सापेक्ष अर्थ ग्रहण कर लेता है। यह वही अर्थ होता है जिसे संबधित प्रभुत्व वर्ग अपने राजनीतिक हितों के लिए अंगीकार करता है और लोक को भी वही अर्थ अपनाने पर जोर देता है। इस तरह विशेष संदर्भों में अंगीकार किया गया शब्द विशेष और उसका अर्थ शोषितों के अस्तित्व और अस्मिता का प्रश्न बन जाता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि खास उद्देश्यों से तैयार किए गए शब्द या शब्द में किया गया अर्थविस्तार, अर्थसंकोच और अर्थादेश न सिर्फ अस्तित्व और अस्मिताओं के निर्माण और विध्वंश में एक औजार की तरह कार्य करता है बल्कि वह संबंधित इतिहास और संस्कृति के निर्माण में परिवर्तन का मजबूत कारक भी बन जाता है। भाषा के क्षेत्र में शब्दों और उनके अर्थों के साथ हर युग में उक्त कार्य होता आ रहा है और यही शब्दों का इतिहास रहा है। इसलिए शब्दों के प्रति कम से कम साहित्यकारों को विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। व्यक्तिगत तौर से बोलने में भले ही कुछ बोला जाए, किंतु सार्वजनिक उपस्थिति और लेखन के क्षेत्र में हर शब्द को उसमें अंतर्निहित और सुनिश्चित अर्थ को उपयोग में लाना चाहिए। ऐसा तभी संभव हो सकता है जब शब्द के गढ़न, इतिहास, परंपरा और उसका सुनिश्चित अर्थ मालूम हो।
दूसरे पारिभाषिक शब्दों अथवा पदों की तरह दलित शब्द का भी अपना एक इतिहास रहा है। इसका भी एक अंतर्निहित और सुनिश्चित अर्थ है। यह शाब्दिक अर्थ के साथ-साथ, एक विशेष जातीय समूह और दलित साहित्यकारों द्वारा सुनिश्चित किए गए अर्थ में अंतर्निहित है। एक जातीय समूह, वर्ग अथवा मनुष्यों की एक खास प्रजाति के लिए समय सापेक्ष जो शब्द प्रयुक्त किए गए अथवा गढ़े गए, उन्हीं की एक लंबी फेहरिस्त में दलित शब्द आता है। दलित शब्द से पूर्व जो शब्द प्रयुक्त होते रहे, उनमें थोड़ा बहुत अंतर भी रहा है। दलित शब्द के बरक्स उन शब्दों में कहीं अर्थादेश, कहीं अर्थसंकोच तो कहीं अर्थविस्तार दिखाई पड़ता है; लेकिन इसमें संबंधित जातीय समूह पर कोई फर्क नहीं पड़ता है, वह इस शब्द की पूरी परंपरा में विद्यमान रहा है। कह सकते हैं दलित शब्द की पूर्वज शब्दावली वास्तव में उक्त जातीय को ध्यान में रखकर ही गढ़ी गई है। उसी के लिए विविध शब्द कालसपेक्ष प्रयुक्त होते आए हैं। यानी, दलित शब्द की, शब्द और अर्थ विषयक यात्रा एक ही जातीय समूह की धुरी पर घूमती रही है। जो कि दलित शब्द और इसकी ऐतिहासिक परंपरा की सबसे बड़ी त्रासदी है।
आदिकाल में, मनु स्मृति में दलित शब्द से संबंधित जातीय समूह को शुद्र, अछूत, अस्पृश्य अंत्यज, आदि नामों से अभिहित किया गया। मध्यकाल में भी यह जातीय समूह इन्हीं नामों से प्रचलित और उपेक्षित रहा। आधुनिक काल में आकर इसके नाम और अर्थ में कई प्रकार के बदलाव दिखाई देते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में मार्क्स ने जब दुनिया व समाज को आर्थिक आधार पर वर्गीकृत किया तो भारत में उक्त जातीय समूह शोषित, सर्वहारा तथा श्रमिक जैसे शब्द में अंतर्निहित हो गया। बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में जब गांधी ने इस समूह विशेष की सुध ली तो उन्होंने अछूतोद्धार करने के मकसद से इस समूह विशेष के लिए हरिजन शब्द गढ़ा ताकि संबंधित जातीय समूह का शाब्दिक और अर्थ विषयक संस्कार किया जा सके। मगर, मार्क्स और गांधी दोनों के प्रयोग विफल रहे। देश आजाद हुआ और भारतीय संविधान अस्तित्व में आया, जिसमें डा. भीमराव अंबेडकर ने इस समूह विशेष को एससी, एसटी और ओबीसी का दर्जा दिया। डा. अंबेडकर ने ही इस समूह में शामिल लोगों को 'ब्रोकन मेन' की संज्ञा दी और अपने अभिभाषणों में दलित शब्द का कई बार प्रयोग भी किया। इससे पूर्व आधुनिक इतिहास में 1831 में इस शब्द का पहली बार जिक्र मिलता है। 19वीं सदी में ज्योतिबा फुले ने इसके चलन को बढ़ाया। डा. अंबेडकर के परिनिर्वाण के दो वर्ष बाद, यानी 1958 में दलित शब्द, साहित्य के साथ प्रयुक्त होने लगा। इस तरह 'दलित साहित्य' की नींव पड़ी। सन उन्नीस सौ अट्ठावन में ही महाराष्ट्र दलित साहित्य संघ ने प्रथम दलित साहित्य सम्मेलन किया। इसी सम्मेलन में दलित साहित्य और दलित आंदोलन को जोड़कर देखा गया और इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता महसूस की। बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक के आरंभ में दलित पैंथर्स ( जो कि अमरीका अफ्रीका के ब्लैक पैंथर से अनुप्रेरित था) की नींव रखी गई। इसके बाद कांशीराम ने दलित शब्द का बहुतायत से प्रयोग किया। गूगल से प्राप्त जानकारी के अनुसार "जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर विवेक कुमार बताते हैं कि दलित शब्द का जिक्र सबसे पहले 1831 की मोल्सवर्थ डिक्शनरी में पाया जाता है। फिर बाबा भीमराव अंबेडकर ने भी इस शब्द को अपने भाषणों में प्रयोग किया। कुछ जानकार बताते हैं कि 1921 से 1926 के बीच ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल ‘स्वामी श्रद्धानंद’ ने भी किया था। दिल्ली में दलितोद्धार सभा बनाकर उन्होंने दलितों को सामाजिक स्वीकृति की वकालत की थी। दलित शब्द का संविधान में कोई जिक्र नहीं। 2008 में नेशनल एससी कमीशन ने सारे राज्यों को निर्देश दिया था कि राज्य अपने आधिकारिक दस्तावेजों में दलित शब्द का इस्तेमाल न करें। 1972 में महाराष्ट्र में दलित पैंथर्स मुंबई नाम का एक सामाजिक-राजनीतिक संगठन बनाया गया। आगे चलकर इसी संगठन ने एक आंदोलन का रूप ले लिया। नामदेव ढसाल, राजा ढाले और अरुण कांबले इसके शुरुआती प्रमुख नेताओं में शामिल थे। इसका गठन अफ्रीकी-अमेरिकी ब्लैक पैंथर आंदोलन से प्रभावित होकर किया गया था। यहीं से ‘दलित’ शब्द को महाराष्ट्र में सामाजिक स्वीकृति मिल गई, लेकिन अभी तक दलित शब्द उत्तर भारत में प्रचलित नहीं हुआ था।
नॉर्थ इंडिया में दलित शब्द को प्रचलित कांशीराम ने किया। DS4 जिसका मतलब है दलित शोषित समाज संघर्ष समिति। इसका गठन कांशीराम ने किया था और महाराष्ट्र के बाद नॉर्थ इंडिया में, अब पिछड़ों और अति-पिछड़ों को दलित कहा जाने लगा था। चंद्रभान प्रसाद, दलित चिंतक ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़ बाकी सब DS4 - कांशीराम का नारा लगाने लगे थे। इस तरह लंबे समय से ये शब्द इस्तेमाल में रहा है, लेकिन इसका पॉपुलर इस्तेमाल दलित पैंथर्स ने ही किया। अंबेडकर ज्यादातर डिप्रेस्ड क्लास शब्द का ही इस्तेमाल किया करते थे, अंग्रेज भी इसी शब्द का इस्तेमाल करते थे और फिर यहीं से ‘दलित’ शब्द बना। विवेक कुमार, प्रोफेसर, सोशल सिस्टम और सोशल साइंस सेंटर, जेएनयू कहते हैं कि 1929 में लिखी एक कविता में राष्ट्रकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने भी ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल किया था, जो इस बात की पुष्टि करता है कि ये शब्द प्रचलन में तो था, लेकिन बड़े पैमाने पर इस्तेमाल नहीं किया जाता था। 1943 में ‘अणिमा’ नाम के काव्य संग्रह में उनकी ये कविता छपी-
दलित जन पर करो करुणा।
दीनता पर उतर आये प्रभु,
तुम्हारी शक्ति वरुणा।
राजनीतिक विश्लेषक और रिसर्चर मनीषा प्रियम कहती हैं कि ‘दलित’ शब्द दरअसल लोकभाषा के शब्द दरिद्र से आया है। किसी जाति विशेष से ये शब्द नहीं जुड़ा है इसलिए इसे स्वीकृति भी बड़े पैमाने पर मिली।" इस तरह दलित शब्द और दलित साहित्य का फैलाव संपूर्ण भारत में तो क्या विश्वभर में हो गया। दलित साहित्य के सौंदर्य शास्त्र में दलित शब्द के विभिन्न अर्थ दिए गए। जिनमें से कुछेक शाब्दिक अर्थ हैं तो कुछेक इसके अर्थ और सांकेतिक अर्थ की ओर इशारा करते हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा विरचित दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र में दलित साहित्य के विभिन्न विद्वानों ने दलित शब्द पर कुछ इस प्रकार विचार किया है - " दलित शब्द का अर्थ है - जिसका दलन और दमन हुआ है, दबाया गया है, उत्पीड़ित, शोषित, सताया हुआ, गिराया हुआ, उपेक्षित, घृणित, रौंदा हुआ, मसला हुआ, कुचला हुआ, विनिष्ट, मर्दित, पस्त हिम्मत, हतोत्साहित, वंचित आदि। डा. श्यौराज सिंह बेचैन दलित शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं - दलित वह है जिसे भारतीय संविधान ने अनुसूचित जाति का दर्जा दिया है। इसी प्रकार कंवल भारती का मानना है कि दलित वह है जिस पर अस्पृश्यता का नियम लागू होता है।...मोहन दास नैमिशराय दलित शब्द को और अधिक विस्तार देते हुए कहते हैं कि दलित शब्द मार्क्स प्रणीत सर्वहारा शब्द के लिए समानार्थी लगता है। लेकिन इन दोनों शब्दों में पर्याप्त भेद भी है।...मराठी कवि नारायण सूर्वे का कहना है कि दलित शब्द की मिली-जुली परिभाषाएं हैं। इसका अर्थ केवल बौद्ध या पिछड़ी जातियां ही नहीं, समाज में जो भी पीड़ित हैं, वे दलित हैं।...राजेंद्र यादव दलित शब्द को काफी व्यापक दायरे में देखते हैं। वे स्त्रियों को भी दलित मानते हैं। पिछड़ी जातियों को भी दलितों में शामिल करते हैं।" मुझे लगता है कि दलित शब्द की उत्पत्ति मूलतः दाल शब्द से हुई है। गई सदी में आटा और दालें, पत्थर के दो पाटों वाली चक्की पर पीसने का चलन था। उड़द, चना, अरहर, मूंग, मसूर आदि सभी दालें चक्की द्वारा दलकर ही छिलका रहित की जाती थी। इस प्रक्रिया में दाल छिलका रहित तो होती ही थी साथ ही दाल का प्रत्येक बीज, दो टुकड़ों में विभाजित भी हो जाता था। ऐसा करने के लिए चक्की के भारी पाटों को थोड़ा ढीला रखकर उनके बीच में दाल को डालकर चक्की गुमाई जाती थी। दाल को इस तरह तैयार करने की यह पूरी प्रक्रिया 'दाल को दलना' कहलाती थी। दाल को दलने का कार्य बहुदा घर की औरतें किया करती थीं, इसलिए उनकी शब्दावली में दाल और दलना जैसे शब्द सहज ही समाहित थे। वे जब क्रोध करती तो सामने वाले पर यह कहकर गुस्सा उतारती थीं कि ' वारे तुझे दल दूंगी, या दल दूंगी वारे तुझे।' ऐसा कहने के पीछे उनका आशय होता था कि तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगी। 'वारे' पश्चिम उत्तर प्रदेश में स्त्रियों द्वारा लड़के या पुरुषों के लिए गुस्से में किये जाने वाला संबोधन है। इस तरह देखें तो दलित शब्द की उत्पत्ति दाल - दलन - दलित के क्रम में हुई है। जिसका सीधा अर्थ है - जिसका दलन हुआ हो, जो टुकड़ों-टुकड़ों में बांटा गया हो, जिस पर कोई छिलका (आवरण या रक्षा कवच) न हो, और जिसे व्यवस्था के ढीले पाटों में इस ढंग से रगड़ा जाता हो कि वह नष्ट भी न हो और साबुत भी न बचे। यानी वह वांछित उपयोग लायक तो बना रहे, मगर अपने मूल स्वरूप को खोकर वह उस रूप को धारण करे जिसे दलन करने वाला चाहता है। ऐसी स्थिति में कह सकते हैं कि बना रहने, बचा रहने, उपयोग और उपभोग की वस्तु बनने हेतु मौत से बदतर जीवनयापन करने वाला ही दलित है, परंतु जिस तरह चक्की में दाल के बीजों को सामूहिक रूप से दला जाता है, उसी तरह संबंधित समाज का भी सामूहिक दलन किया जाता है, इसलिए दलित किसी एक व्यक्ति के दलन का नाम नहीं अपितु संबंधित समाज के सामूहिक उत्पीड़न का नाम है। इसलिए इस अकेले 'दलित' शब्द में उपेक्षित, वंचित और उत्पीड़ित समाज के सभी लोगों की अंतर्व्याप्ति है। फिर चाहे इन लोगों को शूद्र, अस्पृश्य, अछूत, हाशिए के लोग, अंत्यज, मूलनिवासी या एससी एसटी ही क्यों न कहा जाए। दल शब्द में भी दलित शब्द के सांकेतिक अर्थ दिखाई देते हैं। दल का मतलब है समूह, गुट, गिरोह (जैसे—डाकुओं का दल), झुंड, टोली (जैसे—पर्वतारोही दल), टीम, ग्रुप, अथवा कबीला। तुलसीदास द्वारा लिखित हनुमान की आरती में उल्लेख मिलता है - " आरती कीजै हनुमान लला की। दुष्ट दलन रघुनाथ कला की।।" इसमें जो 'दुष्ट दलन' की जो बात की गई है, असल में ये वही जातीय समूह है जो ऊपर मूलनिवासी होकर भी सदियों सदियों से उत्पीड़ित और उपेक्षित होता आ रहा है। दुष्ट दलन पद में उक्त दल विशेष और उसके दलन की अंतर्व्याप्ति दिखाई पड़ती है। इससे आभास होता है कि उक्त दल विशेष के दलन प्रक्रिया से भी दलित शब्द की उत्पत्ति हुई हो सकती है। यानी वह दल जिसका सवर्णों द्वारा दुष्ट कहकर दलन किया जाता रहा हो, दलित है।
इस प्रकार, दलित शब्द को लेकर दलित साहित्यकारों में अर्थसंकोच और अर्थविस्तार दोनों स्थिति हैं। कंवल भारती जहां दलित शब्द को अस्पृश्य लोगों से जोड़कर देखते हैं, वहीं राजेंद्र यादव इसे स्त्रियों और पिछड़ों से भी संबंधित मानते हैं। मोहनदास नैमिशराय कुछेक भेदों के साथ दलित शब्द को सर्वहारा के समांतर ठहराते हैं तो श्यौराज सिंह बेचैन दलित शब्द को संविधान में वर्णित अनुसूचित जाति के संदर्भ में देखते हैं। नारायण सूर्वे तो इसका और अधिक विस्तार कर देते हैं। सभी विद्वानों द्वारा दलित शब्द को जांचने परखने के अपने पैमाने और दायरे हैं। मगर सभी के विचारों में एक बात जो उभय है, वह है कि दलित शब्द में वह वर्ग और जातीय समूह अनिवार्य रूप से अंतर्निहित है जो सदियों से उपेक्षित, शूद्र, अछूत या अस्पृश्य रहा है। केवल नारायण सूर्वे ने दलित शब्द का शाब्दिक अर्थ के आधार पर अर्थविस्तार किया है। दलित शब्द में अर्थसंकोच या अर्थविस्तार दोनों ही समुचित नहीं। क्योंकि इससे इस शब्द की जो एक सूत्रीय निर्माण प्रक्रिया रही है उसके क्षत-विक्षत होने का खतरा उत्पन्न हो जाता है। इस बात का भी डर बना रहता है कि जिन कारणों और जिनको आधार बनाकर दलित शब्द अस्तित्व में आया, कहीं वे ही इसके दायरे से बाहर न हो जाए या कि उनकी सीमाओं से दलित शब्द न छिटक जाए। माना कि दलित एक शब्द है जिसके अनेक पूरक, पर्याय और समानांतर शब्द, विविध शब्दकोशों में मौजूद हैं जो इस शब्द को समझने में भी सहायक हैं, लेकिन इस शब्द का वास्तविक अर्थ तो इसके निर्माण की लंबी और ऐतिहासिक परंपरा में मौजूद है। जब तलक देश में वह उपेक्षित और पीड़ित तबका है, जिसके कारण दलित शब्द अस्तित्व में आया, तब तक दलित शब्द और इसके अर्थ पर उस तबके विशेष और जाति विशेष का ही आधिकारिक अधिकार है। इसे उन्हीं के संदर्भ में प्रयुक्त किया जाना चाहिए। इसमें थोड़ा भी अर्थविस्तार और अर्थसंकोच गैर जरूरी है। अर्थादेश तो बिलकुल ही अक्षम्य है। इसके दो बड़े कारण यह भी हैं कि एक तो यह दलित साहित्य और दलित आंदोलन से जुड़ने से पहले, दलित शब्द शब्दकोश का एक शब्द मात्र था जिसका महत्त्व उतना ही भर था जितना की शब्दकोश के हज़ारों-लाखों शब्दो का स्वतंत्र रूप से हुआ करता है। दलित साहित्य और दलित आंदोलन ने ही दलित शब्द को विशेष संदर्भ में सामान्य से विशेष बनाया। आज दलित शब्द एक शब्द मात्र नहीं बल्कि एक जातीय समूह और अपने निर्माण की पूरी एतिहासिक परम्परा का द्योतक है। इसलिए इसे इसी रूप में स्वीकार किया जाना न्यायसंगत है। इस न्यायसंगत स्वीकृति का दूसरा कारण यह है कि जब तक देश में संबंधित जाति, जातीय समूह और उनकी उपेक्षा तथा उत्पीड़न है, तब तक दलित शब्द उनकी सामूहिक पहचान का प्रतिनिधि शब्द बना रहेगा।
डा. अमित धर्मसिंह
23/07/2021
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2. दलित साहित्य का परिसीमन
दलित शब्द के साथ साहित्य शब्द डा बी. आर. अम्बेडकर के परिनिर्वाण के दो वर्ष बाद सन 1958 में जुड़ना शुरू हुआ। इसी वर्ष महाराष्ट्र दलित साहित्य संघ ने एक सम्मेलन द्वारा दलित शब्द को आंदोलन से जोड़ने की आवश्यकता महसूस की; जिसकी रचनात्मक पूर्ति 1972 में दलित पैंथर ने की। इस तरह दलित साहित्य और दलित आंदोलन जैसे दो पदबंद अस्तित्व में आए, जिन्होंने सदियों से चली आ रही साहित्य धारा को बदलकर रख दिया। दलित शब्द न सिर्फ आंदोलन का पर्याय बन गया बल्कि एक अलग तरह के साहित्य का परिचायक बन गया। इससे पहले जो साहित्य लिखा व पढ़ा जा रहा था, वह सिर्फ साहित्य था। विशुद्ध रूप से कलावादी साहित्य। जो कल्पना और नायक विशेष के झूठे सच्चे यशगान पर टिका होता था। उसका शिल्प कलावादी और अनुभूति अधिकांशतः मनगढ़ंत होती थी। लेकिन दलित ने आकर न सिर्फ साहित्य धारा को मोड़कर रख दिया बल्कि उसके परंपरावादी टूल्स और परंपरागत सौंदर्य बोध तक को चुनौती दे डाली। साहित्य को लेकर जो भी सौंदर्य बोध चला आ रहा था, वह पूरी तरह ध्वस्त हो गया। साहित्य की सदियों पुरानी धारा में यह परिवर्तन बिलकुल नया था, क्योंकि साहित्य की लंबी धारा में दलित साहित्य से पूर्व जितने भी परिवर्तन हुए थे, वे, या तो विधागत थे या कालसापेक्ष। युग प्रवृत्ति या जनरेशन गैप भी इस परिवर्तन का एक कारक था। परंतु दलित साहित्य ने सम्पूर्ण साहित्य धारा की दिशा और सौंदर्य बोध में नया मोड़ पैदा कर दिया। उसने साहित्य में उन विषयों और नायकों को शामिल कर दिया जिन्हें साहित्य में तो क्या, समाज में भी प्रत्याशित स्थान उपलब्ध नहीं था। दलित साहित्य से पहले साहित्य में इतने बड़े परिवर्तन के विषय में न किसी ने कभी सुना था और न कभी सोचा था। इसलिए साहित्य और साहित्यकारों की मठाधीशी का बैंड बज गया और दलित साहित्य के नगाड़े और दुदुंभी के सामने साहित्य के तथाकथित मर्मज्ञ भाग खड़े हुए। उनका साहित्य, दलित साहित्य के सामने एक पांव भर जमीन पर भी खड़ा न रह सका। किंतु साहित्य के इन रणछोड़ साहित्यकारों ने दलित साहित्य पर हमले करने बंद नहीं किए। तरह-तरह के आक्षेपों और प्रश्नों से दलित साहित्य का सीना छलनी करने की पुरजोर कोशिश की। जिनसे लोहा लेता हुआ दलित साहित्य, गत छह दशकों से आज भी टिका हुआ है। बल्कि यह कहिए कि और अधिक मजबूती से टिका हुआ है। जबकि आधुनिक काल में कोई भी साहित्य अथवा साहित्यिक आंदोलन इतने लंबे समय तक नहीं टिक पाया है। दलित साहित्य इतने लंबे समय से इसलिए टिका हुआ है कि यह कल्पना की हवा में नहीं तैरता, न ही आभासी संसार में विचरण करता है, यह विशुद्ध रूप से यथार्थ की जमीन पर खड़ा होता है और अनुभव के वास्तविक संसार में रमण करता है। दलित साहित्य के विभिन्न विद्वानों ने दलित साहित्य की विविध परिभाषाएं और अवधारणाएं प्रस्तुत की हैं। जिन्हें दलित साहित्य के सौंदर्य शास्त्र संबंधी पुस्तको में आसानी से देखा सकता है। इन परिभाषाओं से साबित होता है कि दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है। फिर भी, कुछ प्रमुख बातों पर विचार करना अनिवार्य है।
दलित साहित्य पद के सम्मुख आते ही मन में जो सबसे पहला सवाल उभरता है, वह यह है कि आखिर कौन सा साहित्य, दलित साहित्य है। दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य, दलित साहित्य है या कि दलितों पर लिखा गया साहित्य, दलित साहित्य है; या फिर दोनों तरह का साहित्य दलित साहित्य की श्रेणी में आता है। इस संदर्भ में कंवल भारती लिखते हैं - " दलित साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को रुपायित किया है। अपने जीवन संघर्ष में दलितों ने जिस यथार्थ को भोगा है, दलित साहित्य उनकी उसी अभिव्यक्ति का साहित्य है। यह कला के लिए कला नहीं, बल्कि जीवन और जिजीविषा का साहित्य है। इसलिए कहना न होगा कि वास्तव में दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य की कोटि में आता है।... नारायण सूर्वे लिखते हैं - दलित साहित्य संज्ञा मूलतः प्रश्न सूचक है। महार, चमार, माँग, कसाई, भंगी, जैसी जातियों की स्थितियों के प्रश्नों पर विचार तथा रचनाओं द्वारा उसे प्रस्तुत करनेवाला साहित्य ही दलित साहित्य है। डा. सी बी. भारती का की मान्यता है कि नवयुग का एक व्यापक वैज्ञानिक व यथार्थपरक संवेदनशील साहित्यिक हस्तक्षेप है। जो कुछ भी तर्कसंगत, वैज्ञानिक, परंपराओं का पूर्वग्रहों से मुक्त साहित्य सृजन है, हम उसे दलित साहित्य के नाम से संज्ञायित कर सकते हैं।... डा. श्यौराज सिंह बेचैन लिखते हैं - दलित साहित्य उन अछूतों का साहित्य है जिन्हें सामाजिक स्तर पर सम्मान नहीं मिला। सामाजिक स्तर पर जातिभेद के जो लोग शिकार हुए हैं, उनकी छटपटाहट ही शब्दबद्ध होकर दलित साहित्य बन रही है।...बाबूराव बागूल के शब्दों में कहें तो मनुष्य की मुक्ति को स्वीकार करनेवाला मनुष्य को महान माननेवाला, वंश, वर्ण और जाति श्रेष्ठत्व का प्रबल विरोध करनेवाला साहित्य ही दलित साहित्य है।" ( दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, संबंधित पृष्ठ) दलित साहित्यकारों की उक्त परिभाषाएं देखने से ज्ञात होता है कि दलित साहित्य, वह है जो भारतीय समाज में उन उपेक्षित और तिरस्कृत लोगों द्वारा स्वयं के बारे लिखा गया, जो दलित शब्द के अस्तित्व में आने की ऐतिहासिक परंपरा और संस्कृति में रहे हैं। जिस तरह उनसे दलित शब्द को नहीं अलगाया जा सकता है, उसी तरह दलित साहित्य को भी उनसे अलग करके नहीं देखा जा सकता है। इसे और अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछेक बिंदुओं के अंतर्गत दलित साहित्य का परिसीमन करना अनिवार्य है।
दलित साहित्य के परिसीमन के दो प्रमुख आधार हो सकते हैं। बाह्य और आंतरिक अथवा भाषा और विचार। विचार की जहां तक बात है तो दलित साहित्य का विचार बुद्ध से होता हुआ फुले और आंबेडकर तक पहुंचा है। बुद्ध के चिंतन में जहां वैज्ञानिकता, तार्किकता और रूढ़िवाद रहित समाज और मनुष्य कल्याण की भावना थी, वही फुले के चिंतन में समाज के जातिगत ढांचे के प्रति मुखर विद्रोह और आक्रोश था। दलित चिंतन की इस लंबी परंपरा को विस्तृत जमीन और ऊंचा फलक मिला अंबेडकर के चिंतन में। अंबेडकर ने भारतीय संस्कृति और धर्म की जिस गंभीरता से परते खोली, उससे सारा विश्व भारतीय समाज की जातिगत विसंगति और असंगतियोंं को अनावृत रूप में देख पाया। दलित साहित्य के बीजांकुर भले ही शम्भुक, बुद्ध, रविदास, कबीर, फुले और सावित्रीबाई में पाए जाते हों किंतु ये बीजांकुर एक वृक्ष में तब्दील हुए अंबेडकर के चिंतन में ही आकर। अंबेडकर चिंतन ही दलित साहित्य का प्रस्थान और आरंभिक बिंदु है। अंबेडकर का विचार ही दलित साहित्य की प्राण वायु और अक्षत ऊर्जा का श्रोत है और अंबेडकर चिंतन ही दलित साहित्य की धुरी है। कहना न होगा कि अंबेडकर के चिंतन और विचार में अंबेडकर का त्रयी सिद्धांत, समाजवाद और बुद्ध की बाइस प्रतिज्ञाएं भी शामिल हैं। बुद्ध की बाइस प्रतिज्ञाओं में अनात्मवाद और अनिश्वरवाद है तो अंबेडकर के समाजवाद में जाति और वर्ण रहित समाज की बात है। ऐसा समाज जो हर स्तर पर समान हो और जिसमें रोटी बेटी का समान संबंध हो। अपने समवर्ती और पूर्ववर्ती चिंतकों में अंबेडकर इसलिए भी अलग ठहरते हैं कि वे भारतीय परिप्रेक्ष में भारतीय समाज की मूल परेशानी को समझते हैं और उसका उपचार भी जानते हैं। इस नाते अंबेडकर न सिर्फ गांधी लोहिया और नेहरू से अधिक तार्किक और समाजवादी हैं बल्कि मार्क्स के बाद में जन्मने के बाद भी उनसे पहले दर्जे पर ठहरते हैं। यानी भारतीय परिप्रेक्ष्य में अंबेडकर का चिंतन और समाजवाद, मार्क्स के चिंतन और समाजवाद से पहले औचित्यपूर्ण और जरूरी है। क्योंकि मार्क्स जाति और वर्ण की बात नहीं करता जबकि भारत में दलितों की मूल समस्या यही है। मार्क्स धर्म को अफीम बताता है जबकि अंबेडकर धर्म को नहीं धार्मिक अंधविश्वास और रूढ़िवाद को खतरनाक बताते हैं। मार्क्स समस्त समस्याओं की जड़ पूंजी को मानते हैं इसलिए भौतिक द्वंद्ववाद की बात करते हैं। अंबेडकर मनुष्य की मुक्ति को केवल भौतिक नजरिए से ही नहीं देखते हैं बल्कि वे मनुष्य के अस्तित्व और अस्मिता को भी प्रमुखता से लेते हैं। यानी भारत में गरीब अमीर में सिर्फ आर्थिक असमानता ही नहीं है बल्कि कुल जाति, वर्ण जैसी खाई भी हैं। अमीर गरीब तो फिर भी सम्मान से रह सकते हैं किंतु सामाजिक भेदभाव के चलते जीना बहुत मुश्किल है। इसलिए भारत में अंबेडकर चाहते हैं कि समाज में पहले सबका सम्मान हो और सबको स्वाभिमान से जीने का हक हो। तभी तो वे सामाजिक न्याय और परिवर्तन की बात करते हैं। इसके लिए जिन अवयवों/ घटकों को वे जरूरी मानते हैं, वे अंबेडकर को अपने समवर्ती और पूर्ववर्ती चिंतकों से न सिर्फ अलग ठहराते हैं बल्कि अपेक्षाकृत अधिक अपील भी करते हैं। इसलिए दलित साहित्य अंबेडकर के चिंतन और विचार को ही आधार मानता है। अंबेडकर के चिंतन और विचार के साथ-साथ दलित साहित्य में भी सामाजिक असमानता, धार्मिक रूढ़िवाद, आत्मवाद और ईश्वरवाद का कोई स्थान नहीं है। ऐसे विचार जिनका कोई ठोस प्रमाण मौजूद न हों हैं और न ही कोई वैज्ञानिक और तार्किक आधार हो उनके लिए भी दलित साहित्य में कोई स्थान नहीं है। भारतीय संस्कृति में प्रचलित ऐसे रीति रिवाज रूढ़िवाद पर टिके हों या रूढ़िवाद को बढ़ावा देते हों या फिर किसी ऐसी परंपरा पर टिके हुए हों जो सामाजिक अन्याय और भेदभाव की परिचायक हो, उनका भी दलित साहित्य में कोई स्थान नहीं है। यही कारण है कि दलित साहित्य, परंपरागत साहित्य में चली आ रही मान्यताओं और अवधारणाओं से सर्वथा अलग ठहरता है।
वेदों से लेकर उपनिषदों, रामायण, महाभारत तक जो साहित्य रचा गया, वह वर्णव्यवस्था तथा वर्णाश्रम पर आधारित रहा। उसकी भाषा और शिल्प (संस्कृत और श्लोक) भी ऐसे रहे जो जनसामान्य के अध्ययन और समझ की वश की बात कभी नहीं रही। बुद्ध और महावीर स्वामी के समय में इनका खंडन और वैचारिक विरोध हुआ, किंतु भारत में ब्राह्मणवादी और सनातन संस्कृति के पुरोधा और मठाधीश बुद्ध की वैचारिक क्रांति को हिंसक तरीके से दबाने में सफल रहे। मुस्लिम साम्राज्य में वर्णव्यवस्था के अत्यचारों पर नाममात्र अंकुश लगा। यद्यपि मुस्लिम साम्राज्य ने हिंदू धर्म के अनेक सामाजिक और धार्मिक रूढ़िवाद को चुनौती दी किंतु वे भी भारत के जातीय और धर्म आधारित ढांचे को ध्वस्त नहीं कर पाए। इसका एक कारण यह भी रहा कि उनका फोकस मुस्लिम साम्राज्य के विस्तार, इस्लाम धर्म के प्रचार प्रसार और एकेश्वरवाद पर अधिक था। परिणामतः हिन्दू मुस्लिम खाई और पैदा हो गई। बहरहाल, यहां से शुरू होता है हिंदी साहित्य का उद्भव काल। आदिकाल में जो साहित्य रचा गया वह अधिकांशतः राजा रजवाड़ों की स्तुति और यशगान का साहित्य था। मध्यकाल के संतकवियों (रविदास, नानक, कबीर आदि) ने सामाजिक भेदभाव, धार्मिक अंधविश्वास व रूढ़िवाद का वैचारिक खंडन तो किया, किंतु प्रत्यक्षतः कोई विरोध अथवा क्रांति जैसी चीज वे नहीं कर पाए। इसका बड़ा कारण उनका आस्तिक होना रहा। उनकी वैचारिक प्रवृत्ति उन्हें मानव कल्याण के विषय में विचार करने पर तो विवश करती थी किंतु अध्यात्मिक प्रवृत्ति ने उन्हें एकल और अंतर्मुखी भी बना दिया था, जिससे वे सत्संग तो कर पाए किंतु सांगठनिक शक्ति का गठन नहीं कर सके। आधुनिक काल में आते-आते साहित्य भी विविध धाराओं में विभक्त होने लगा। ये धाराएं वैचारिक परिवर्तन और युग परिवर्तन पर आधारित रहीं। भारतेंदु काल में साहित्य का फोकस भारतीय सामाजिक विषमताओं की अपेक्षा अंग्रेजी शासन द्वारा की जा रही 'भारत दुर्दशा' पर रहा। द्विवेदी काल का फोकस भारत की सनातन धर्म और संस्कृति के प्रचार प्रसार में रहा। इस समय साहित्यिक मानदंडों पर तो बात हुई किंतु सामाजिक मानदंडों की समुचित चर्चा न हो सकी। इसलिए सामाजिक समानता, न्याय और परिवर्तन इस साहित्य के विषय न बन सके। राष्ट्रकावियों, (मैथिलीशरण गुप्त, रामधरीसिंह दिनकर और श्यामसुंदरदास आदि) ने भी राष्ट्रप्रेम जगाने के लिए पौराणिक, रामायण और महाभारतकालीन मिथकों का ही बढ़ा चढ़ाकर सहारा लिया। जिनसे आमजन का जीवन और उनकी सामाजिक परेशानियां अछूती ही रहीं। तत्पश्चात प्रगतिशील साहित्य की नींव रखी गई, जिसमें मार्क्स के सर्वहारा वर्ग के हितों की बात करने और लिखने वाला साहित्य रचा जाने लगा। भारतीय साहित्यकारों के इस साहित्य में शोषक और शोषित तो चिह्नित हुए किंतु भाग्य, ईश्वर, वर्ण, जाति आदि यथावत बने रहे। प्रयोगवाद में आकर साहित्य शिल्प में पुराने प्रतीकों और अपमान के परिवर्तन की बात हुई किंतु सामाजिक परिवर्तन और न्याय जैसे जरूरी विषय इस साहित्य से भी अछूते ही रहे। नई कविता, अकविता, अकहानी, सचेतन कहानी आदि ने भी साहित्य में साहित्यिक प्रवृत्ति और शिल्प परिवर्तन आदि को तो वरियत से दर्ज किया और मनुष्य कल्याण का धरातलीय प्रयास उनसे भी दूर की कौड़ी ही रहा। इसके अतिरिक्त राजनीति के क्षेत्र में गांधी, नेहरू, लोहिया आदि ने समाजवाद की बात तो की लेकिन दलितोत्थान का कोई भी कारगर मॉडल प्रस्तुत नहीं किया। उल्टे, सावरकर, हेडगेवार, दीनदयाल आदि ने तो सामाजिक खाई और अधिक गहरी की। ऐसे में एकमात्र अंबेडकर ही थे जिन्होंने देश के वंचित, उपेक्षित, दबे कुचले और जातीय भेदभाव के शिकार लोगों की सामाजिक स्थिति को प्राथमिकता से दर्ज किया और देश व दुनिया के सामने रखा। वंचितों और उपेक्षितों के सम्मान और अधिकारों की लड़ाई लड़ी। यह लड़ाई उन्होंने न सिर्फ कलम और विचारों के माध्यम से लड़ी बल्कि अनेक सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन भी किए। इसलिए इन्हीं के विचारों और प्रेरणाओं के फलस्वरूप साहित्य में दलित साहित्य की अगाध धारा का प्रस्फुटन हुआ; जो छठे दशक से लेकर आज तक बरकरार है।
दलित साहित्य के परिसीमन के बाह्य आधार के अंतर्गत दलित साहित्य का भाषा शिल्प अथवा भाषा सौंदर्य आता है। कोई भी भाषा अनुभव, विचार, मान्यता और संस्कृति से निर्मित होती है। वेदों के श्लोकों और संस्कृत साहित्य से लेकर आधुनिक साहित्य के विविध स्वरूपों तक जो साहित्य रचा गया है, उसकी भाषा उसके विचार, मान्यता और संस्कृति में ही अंतर्निहित है। सर्वविदित है कि तथाकथित साहित्य में दलितों और उनकी सामाजिक दशाओं से जुड़ी शब्दावली समाहित नहीं हो पाई है। कारण साफ है कि वंचितों को सम्मान, अधिकार के साथ-साथ शिक्षा-दीक्षा तक से वंचित रखा गया। इस कारण दलित साहित्य की अपनी ही एक भाषा निर्मित हुई। इस भाषा में जो शब्द आए, वे दलित जीवन के दग्ध अनुभवों से पैदा हुए। उनके प्रतीक और उपमान उनकी सामाजिक दुर्दशा और उपेक्षित इतिहास से निर्मित हुए। उनके किस्से उनकी चिंतनधारा के महापुरुषों के चिंतन से उपजे। उनके नायक महानायक उनकी पूर्ववर्ती पीढ़ी के महापुरुषों (शम्भूक, एकलव्य, कर्ण आदि) के रूप में सामने आए। भाषा के आंतरिक सौंदर्य में जो अनुभूति है, वह परानुभूति पर नहीं स्वानुभूत पर आधारित रही। इसके मूल स्वर में वेदना, नकार, विद्रोह मुख्य रूप से समाहित हुए। इस तरह दलित साहित्य की भाषा ने, न सिर्फ साहित्य में प्रचलित भाषा के आभिजात्यिक स्वरूप के वर्चस्व को तोड़ा बल्कि इसने प्रयोगवाद की प्रयोगधर्मी भाषा से भी अलग राह ली।दलित साहित्य अपनी अलग भाषा और शब्दावली के साथ जन्मा साहित्य है। चूंकि दलित साहित्य स्वयं के भोगे हुए यथार्थ पर टिका हुआ है, इसलिए इसमें स्वानुभुति को वरीयता दी गई और भाषा के संदर्भ यह सहज ही ज्ञात है कि वह अपने अनुभव के अनुरूप ही निर्मित और अभिव्यक्त होती है। दलित साहित्य में जो यत्र-यत्र गाली गलौच के शब्द अथवा कूड़ा, करकट, गंदगी, मल, मूत्र, झाड़ू, नाला, मांस मज्जा, रक्त, चमड़ा, कीचड़ आदि शब्दों वाली शब्दावली आती है, सायास आती है। जिन तथाकथित साहित्य के मठाधीशों को यह शब्दावली जुगुप्सा पैदा करने वाली लगती है, उन्हें यह समझना चाहिए कि यह शब्दावली दलितों के साहित्य से पहले उनके जीवन का अभिन्न अंग है। जिसे उन्हें पल-पल जीना पड़ता है। ऐसे में दलितों के साहित्य में उक्त शब्दों का समाहित रहना सहज ही है। इस पर नाक भौं सिकोड़ने अथवा दलित साहित्य से इसे दूर करने से पहले दलितों के जीवन से इस शब्दावली को निकाले जाने पर विचार किया जाना चाहिए। क्योंकि दलित भाषा की शब्दावली, प्रतीक योजना और उपमान 'बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूटने ' के कारण पैदा नहीं हुए बल्कि सदियों सदियों तक घिसते हुए जीवन से पैदा हुए हैं। इसलिए दलित साहित्य से इसे तब तक दूर नहीं किया जा सकता, जब तक दलितों के सामाजिक जीवन में आमूलचूल परिवर्तन नहीं हो जाता है। और इस आमूलचूल परिवर्तन की जिम्मेदारी गैर दलितों से अधिक स्वयं दलितों की है। दलित साहित्यकारों को इसके लिए दो बातों का विशेष ध्यान रखने की जरूरत है - एक तो उन्हें दलित साहित्य की गहरी समझ और पहचान होनी चाहिए ताकि वे विशुद्ध रूप से दलित साहित्य का सृजन कर सामाजिक परिवर्तन की आवाज बुलंद कर सके। दूसरा यह कि उन्हें अपने साथ चल रही साहित्यिक धाराओं की भी बराबर समझ होनी चाहिए ताकि दलित साहित्य को उनके अनावश्यक घालमेल से बचाया जा सके। यथा दलित साहित्य मार्क्सवादी, प्रगतिवादी और जनवादी साहित्य से अपनी अनुभूति, अभिव्यक्ति, निहितार्थ और उद्देश्य में सर्वथा अलग पहचान और महत्त्व रखता है। जब तक दलित साहित्य अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो जाता तब तक इसका अपनी समवर्ती साहित्यिक धाराओं से दूर का ही रिश्ता हो सकता है। इसके निकट के रिश्ते में तो केवल अंबेडकरवादी साहित्य ही आता है। ऐसा इसलिए की अंबेडकरवादी साहित्य के अतिरिक्त बाकी साहित्य दलित साहित्य से अगले कदम के ध्येय हैं, भारतीय समाज में प्राथमिक ध्येय तो वही है जिसे दलित साहित्य लेकर चला हुआ है। इतने पर भी, दलित साहित्य के परिसीमन और पहचान में संकट उत्पन्न हो, तो इसे दलित साहित्य के लोकतांत्रिक पक्ष की इस एक पंक्ति द्वारा आसानी से समझा जा सकता है; यह एक पंक्ति है - दलितों द्वारा दलितों के लिए दलितों पर लिखा गया साहित्य दलित साहित्य है। इस एक पंक्ति से स्वानुभूति की व्यक्तिवादी सीमा की सीमितता और एकालाप के आक्षेप का समाधान भी हो जाता है।
डा. अमित धर्मसिंह
25/07/2021
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