हंस में प्रकाशित पत्र और पांच दिसंबर का कार्यक्रम





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'कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना'

          हंस के नवंबर अंक में न हन्यते के अंतर्गत साहित्यकार मुकेश मानस पर अजय नावरिया का लिखा लेख पढ़कर अत्यंत निराशा हुई। लेख में कई विरोधाभास और विसंगतियां हैं जो मुकेश मानस के मित्रों को असहनीय प्रतीत हुईं। पहली विसंगति तो यही है कि लेख में अजय नावरिया ने मुकेश मानस का दाह संस्कार 5 अक्टूबर को लिखा है जबकि उनका दाह संस्कार 4 अक्टूबर को हुआ था। मैं दाह संस्कार के दौरान निगम बोध घाट पर मौजूद था, वहां अजय नावरिया नजर तक नहीं आए। नावरिया अपने लेख में मुकेश मानस की दूसरी पत्नी से तलाक की बात लिखते हैं जो नैतिक रूप से तो गैर जरूरी है ही, उनको बदनाम करने की साजिश भी प्रतीत होती हैं क्योंकि मुकेश मानस के परिजनों ने दूसरी शादी वाली बात से इंकार किया है। नावरिया इस बात से नितांत अनभिज्ञ हैं कि मुकेश मानस की बड़ी बेटी असल में उनकी भांजी है। लेख में मुकेश मानस से अधिक मजबूत पक्ष तो खुद नावरिया का उभरकर सामने आता है। दिवंगत मुकेश मानस तो महज एक माध्यम मात्र बनकर रह गए हैं। नावरिया लेख को मुकेश मानस की संभाव्यता से शुरू करते हैं, जबकि उन्होंने उनके साहित्य के बारे में कोई गंभीर चर्चा नहीं की है उनके चार चार कविता संग्रहों का चर्चा करने के बाद भी वे उनकी कविता की चार पंक्तियां तक कोट नहीं कर पाएं, जबकि मुकेश मानस एक बड़े कवि के रूप में स्थापित थे। मुकेश मानस, अजय नावरिया से ईर्ष्या का जो खुलासा करते हैं, वह नितांत अविश्वसनीय है; क्योंकि बुंदेलखंड विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों द्वारा अजय नावरिया के विषय में पूछे गए प्रश्न ("वे कैसे दिखते हैं, उन्हें क्या पसंद है?) हास्यास्पद हैं। जब वे मुकेश मानस की नाराजगी का आलम दिखाते हुए लिखते हैं कि "वे अनिता भारती से नाराज़ हो गए, तो अपने घर के दरवाजे के आगे एक पट्टी टांग दी जिसमें लिखा था कि अनिता भारती का प्रवेश निषिद्ध है।" जबकि इस तरह की पट्टी पर अन्यों के नाम होने और अपने प्रति भी मुकेश मानस की नाराजगी की बात अजय नावरिया लेख में स्वयं स्वीकारते हैं; फिर केवल अनिता भारती के नाम का उल्लेख करने का औचित्य क्या है? जबकि पड़ौसियों ने इस बात से भी इंकार किया है। मुकेश मानस बड़े ही सद्भावी साहित्यकार थे। पूरे लेख को पढ़कर अहसास होता है कि जैसे अजय नावारिया ने लेख तो मुकेश मानस पर लिखा है परंतु केंदीयता खुद को स्थापित करने की रही है। दिवंगत साहित्यकार पर लिखा ऐसा लेख चिता पर रोटी सेंकने जैसा अहसास कराता है। इस एंगल से लिखे गए शोक लेखों की तरफ संपादक को विशेष ध्यान देना चाहिए।

डा. अमित धर्मसिंह
उपाध्यक्ष, नदलेस
9310044324
amitdharmsingh@gmail.com





 'कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना'


          हंस के नवंबर अंक में न हन्यते के अंतर्गत साहित्यकार मुकेश मानस पर अजय नावरिया का लिखा लेख पढ़कर अत्यंत निराशा हुई। लेख में कई विरोधाभास और विसंगतियां हैं जो मुकेश मानस के मित्रों को असहनीय प्रतीत हुईं। पहली विसंगति तो यही है कि लेख में अजय नावरिया ने मुकेश मानस का दाह संस्कार 5 अक्टूबर को लिखा है जबकि उनका दाह संस्कार 4 अक्टूबर को हुआ था। मैं दाह संस्कार के दौरान निगम बोध घाट पर मौजूद था, वहां अजय नावरिया नजर तक नहीं आए। नावरिया अपने लेख में मुकेश मानस की दूसरी पत्नी से तलाक की बात लिखते हैं जो नैतिक रूप से तो गैर जरूरी तो है ही, उनको बदनाम करने की साजिश भी प्रतीत होती हैं क्योंकि मूकेश मानस के परिजनों ने दूसरी शादी वाली बात से इंकार किया है। नावरिया इस बात से नितांत अनभिज्ञ हैं कि मुकेश मानस की बड़ी बेटी असल में उनकी भांजी है। लेख में मुकेश मानस जी से अधिक मजबूत पक्ष तो खुद नावरिया का उभरकर सामने आता है। दिवंगत मुकेश मानस तो महज एक माध्यम मात्र बनकर रह गए हैं। नावरिया लेख को मुकेश मानस की संभाव्यता से शुरू करते हैं, जबकि उन्होंने उनके साहित्य के बारे में कोई गंभीर चर्चा नहीं की है उनकी चार चार कविता संग्रहों का चर्चा करने के बाद भी वे उनकी कविता चार पंक्तियां तक कोट नहीं कर पाएं, जबकि मुकेश मानस एक बड़े कवि के रूप में स्थापित थे। मुकेश मानस ने अजय नावरिया से ईर्ष्या का जो खुलासा करते हैं, वह नितांत अविश्वसनीय है; क्योंकि बुंदेलखंड विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों द्वारा अजय नावरिया के विषय में पूछे गए प्रश्न ("वे कैसे दिखते हैं, उन्हें क्या पसंद है?) हास्यास्पद हैं। जब वे मुकेश मानस की नाराजगी का आलम दिखाते हुए लिखते हैं कि "वे अनिता भारती से नाराज़ हो गए, तो अपने घर के दरवाजे के आगे एक पट्टी टांग दी जिसमें लिखा था कि अनिता भारती का प्रवेश निषिद्ध है।" जबकि इस तरह की पट्टी पर अन्यों के नाम होने और अपने प्रति भी मुकेश मानस की नाराजगी की बात अजय नावरिया लेख में स्वयं स्वीकारते हैं; फिर केवल अनिता भारती के नाम का उल्लेख करने का औचित्य क्या है? जबकि पड़ौसियों ने इस बात से भी इंकार किया है। मुकेश मानस बड़े ही सद्भावी साहित्यकार थे। पूरे लेख को पढ़कर अहसास होता है जैसे अजय नावारिया ने लेख तो मुकेश मानस पर लिखा है परंतु केंदीयता खुद को स्थापित करने की रही है। दिवंगत साहित्यकार पर लिखा ऐसा लेख चिता पर रोटी सेंकने जैसा अहसास कराता है। इस एंगल से लिखे गए शोक लेखों की तरफ संपादक को विशेष ध्यान देना चाहिए।

डा. अमित धर्मसिंह
उपाध्यक्ष, नदलेस
9310044324












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