हमारे गांव में हमारा क्या है! की समीक्षा, कृष्ण सुकुमार


समीक्षा

पुस्तक-परिचय :

"हमारे गाँव में हमारा क्या है!" ( कविता-संग्रह) 

कवि : श्री अमित धर्मसिंह

प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर

समीक्षक : कृष्ण सुकुमार

                  दलित वर्ग के संघर्ष का प्रतिनिधित्व

                    हमारे गांव में हमारा क्या है! संग्रह की 41 कविताओं में अपने गाँव में अपने परिवार की निर्धनता के बीच कवि ने अपनी बाल्यावस्था में जो कुछ जिया, सहन किया और भोगा, वो सब बिल्कुल सहजता और सरलता के साथ शब्दों में उकेरकर रख दिया है। गाँव के जीवन के यथार्थ, सामान्य दैनिक क्रियाकलापों के जीवंत और संवेदनशील चित्रण के बीच अभावग्रस्त और संघर्षशील दलित-जीवन की दयनीयता और बेचारगी का बेहद मार्मिकता के साथ एक करुण स्वर इन कविताओं में उभर आता है! यह करुणा कवि सायास पैदा नहीं करता, न वह कहीं इन स्थितियों के विरुद्ध किसी प्रकार का नारा या रोष रेखांकित करता है...बल्कि कोई भी भाव, दृश्य या स्थिति बिना काव्य बिंबों में उलझाये सीधे-सीधे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ठेठ ग्राम्य अँचल की बोलचाल में यथास्थिति को कविता दर कविता फ्रेम बनाकर दृश्यांकन करता चला जाता है!... 

                     प्रत्येक कविता एक संस्मरण का आकार लेते हुए कवि के उन जिये गये पलों से हमें उसके साथ जुड़ा महसूस कराने लगती है...फिर धीरे-धीरे दारुण, दु:खद और दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों से रूबरू होने पर यह उजागर होने लगता है कि सच में, आखिर इनके गाँव में इनका है ही क्या !...

                    न... यह प्रश्न नहीं है, न कवि का न मेरा... यह तो एक विडंबना है! अफ़सोस भरा एक एहसास! 

                    संग्रह की पहली कविता देखें :-

         आठ बाई दस के/कड़ियों वाले कमरे में पैदा हुए,/खेलना सीखा तो/माँ ने बताया/ हमारे कमरे से लगा कमरा/ हमारा नहीं है,/दस कदम की दूरी के बाद/आँगन दूसरों का है। 

          हर सुबह दूसरों के खेतों में/ फ़ारिग होने गये/तो पता होता कि खेत किसका है/ उसके आ जाने का डर/ बराबर बना रहता! /तोहर के पापड़ों पर लपके/ या गन्ने पर रीझे/ तो माँ ने आगाह किया-/ खेतवाला आ जायेगा। 

          दूसरों के कुबाड़े से/ माचिस के तास चुगकर खेले /दूसरों की कूड़ियों से /पपैया फाड़कर बजाया/दूसरों के खेतों से बथुआ तोड़कर लाये/ आलू चुगकर लाये / दूसरों के खेतों से ही; /गन्ने बुवाते, धान रोपते, काटते/दफन होते रहे हमारे पुरखे /दूसरों के खेतों में ही। 

          ये खेत मलखान का है/ वो ट्यूबवेल फूल सिंह की है /ये लाला की दुकान है/ वो फैक्ट्री बंसल की है/ ये चक धुम्मी का है/ वो ताप्पड़ चौधरी का है/ ये बाग खान का है/ वो कोल्हू पठान का है / ये धर्मशाला जैनियों की है /वो मंदिर पंडितों का है! 

           कुछ इस तरह जाना हमने अपने गाँव को।  

           हमारे गाँव में हमारा क्या है!/ ये हम आज तक नहीं जान पाये! 

                    कवि यहाँ आपको उन असामान्य दारुण स्थितियों से परिचित करा भर रहा है जिनको भुगतते हुए वह बड़ा हुआ है...स्वर यहाँ न आक्रोशित है, न शिकायत भरा!

                     संग्रह की तमाम कविताएँ ऐसी हैं जिन्हें पढ़ते हुए मन दुख और करुणा से नम होने लगता है।... "बचपन के पकवान"...गर्मियों में लहसुन की चटनी, सर्दियों में बथुए और सरसों का साग और माँगकर लाया छाछ!... और कभी-कभी रोट्टी तक नहीं! तब?.... " अमरूद, कच्चे आम, जामुन, रेंटे, शहतूत, गाजर, मूली, सरसों की डंठल/मौसम के अनुसार जो भी मिल जाता/चुराते और नमक के साथ चटखारे लेते!"

                     "पढ़ाई के टोटके"... में जो कारुणिक दृश्य उभरता है, दृष्टव्य है...''घर पर/भूखे पेट स्कूल जाने की महिमा बतायी जाती/कुछ खाने को माँगते तो डाँटा जाता- /जब सुबा सुबाई /पेट मे रोट्टी ठूस लोगे/ तो डिमाक में क्या गोब्बर भरेगा?"

                     गाँव में अपना घर न होने का दर्द शिद्दत से कविता "ज़मीन" महसूस कराते हुए पाठक को असहाय कर जाती है! किराये का घर और वो भी "पशु बाँधने वाले कमरे से भी बदतर... हर बरसात मे जिसकी एकाध कड़ी टूट जाती लेकिन मकान मालिक कड़ी बदलवाने में महीनों लगा देता... कई बार तो कई-कई कड़ियों के नीचे टेक लगानी पड़ती" और "टेक की वजह से कमरे मे/खाट तक बिछाने में तंगी होती।"

                      कविता "बरसात" में टपकते घर की दुर्दशा को समेटती ये पँक्तियाँ ही पर्याप्त हैं... "सर्दियों की बारिश में/रिजाई का निचोड़ना सबसे भारी पड़ता।"... माँ बड़बड़ाती हुई/बरतन भांडे सँवारती/ माँ की आँख से टपकते आँसू/ बारिश के पानी में घुलते रहते।"

...इस कविता में पाठक स्वयं को टपकती छत के नीचे भीगता हुआ पाता है जब "बारिश के साथ-साथ छत का टपकना बढ़ जाता तो छोटे से कमरे में जगह-जगह बाल्टी, तसला, भिगोना आदि रखे जाते जिनका पानी बार-बार बाहर फेंकना होता फिर भी नौबत कपड़ों के भीगने की आ जाती। एक खाट दरवाजे के बीचोबीच बिछाई जाती जो आधी कमरे में और आधी बाहर छप्पर मे होती... "

                   छह पृष्ठीय "ज़रूरत" और "ईंधन" जैसी पाँच पृष्ठीय कविता से गुज़रते हुए ज़िंदगी के वास्तविक पात्रों के बीच पाठक स्वयं ही जैसे स्वयं को निरुपाय, विवश और असहज महसूस करने लगता है!

                    लिखा तो प्रत्येक कविता पर अलग-अलग जा सकता है किंतु इन कविताओं को पढ़ने पर जो वस्तुतः अनुभूति होती है, उसे व्यक्त करना संभव नहीं है।... अमित धर्मसिंह जी मूलतः मुज़फ्फरनगर के एक गाँव के निवासी हैं और इन कविताओं मे वे जिस संवेदनशीलता के साथ अभावग्रस्त दलित वर्ग के संघर्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसे कोई भी गाँव से जुड़ा संवेदनशील मन और भी बेहतर ढंग से समझ और महसूस कर सकता है।                 

                  मैं कवि को इस संग्रह के लिए बहुत बहुत आत्मीय बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ। और साथ ही हार्दिक आभार भी प्रकट करता हूँ कि उन्होंने अपनी यह अमूल्य पुस्तक मुझे निशुल्क उपलब्ध कराकर अपनी यथार्थजन्य अनुभूतियों द्वारा मुझे मेरे भीतर से बेहद समृद्ध किया। ... साधुवाद! 

-कृष्ण सुकुमार

07/02/2021





 

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