हमारे गांव में हमारा क्या है! की समीक्षा, डा. रामनिवास
समीक्षा
हमारे गाँव में हमारा क्या हैः एक यथार्थ बोध कृति
डाॅ.रामनिवास
हमारे गाँव में हमारा क्या है! शीर्षक काव्य संग्रह के माध्यम से युवा कवि डा. अमित धर्मसिंह ने हिन्दी कविता में एक नया प्रयोग किया है- काव्य शैली की आत्मकथा। इसकी कविताएँ कल्पना प्रसूत नहीं बल्कि भोगे गए यथार्थ को अत्यंत मार्मिकता से समाज के सम्मुख प्रस्तुत करती है। समाज व्यवस्था में जब धनवानों का वर्चस्व और निर्धनों का हर तरह का शोषण इस सीमा तक चला जाए कि जीवन जीने की अनिवार्य जरूरतें भी पूरी न हो सके, तब जीवन जीना कितना दुष्कर हो जाता है। उसकी बानगी के तौर पर 'बचपन के पकवान' कविता में व्यक्त कंगाली से जूझते हुए भूखे बचपन का यथार्थ देखिए - "घर के सारे बर्तन टटोले जाते/खाली पाकर पटके जाते/ गुस्से में तमतमातें हुए/जंगल गयी माँ पर बड़बड़ाते।" बात यहीं पर खत्म नहीं होती। भूख एक ऐसा रोग है प्राणियों में, कि इसका उपचार स्वयं ही किसी न किसी प्रकार करना ही पड़ता है। यह भी सच है कि भूख किसी भी आदमी से कुछ भी करा सकती है। यहाँ भूख से संघर्ष करने की बेबाक अभिव्यक्ति इस प्रकार हुई है - "दो-तीन यार मिलकर/जंगल में निकल जाते/अमरूद, कच्चे आम, जामुन, रेंटे (लिसोड़े) शहतूत/गाजर, मूली, छोटी-छोटी हरी सरसों की डंठल/मौसम के अनुसार जो भी मिल जाता/चुराते और नमक के साथ चटखारे लेते।" गाँवों में काम का अभाव और बेरोजगारी के साथ-साथ मजदूरों को श्रम के बदले पर्याप्त मजदूरी न मिलना भी समस्या है। लोकतांत्रिक व्यवस्था होते हुए निर्धन सर्वहारा वर्ग, समाज में सामाजिक आर्थिक न्याय दिलाने का जोर-शोर से प्रचार किया जाता है। सरकारें आती-जाती रहती हैं। गरीब व्यक्ति वहीं का वहीं खड़ा रहता है जहाँ उसे उसके बाप-दादा छोड़कर जाते हैं। गरीबों के हक पर दबंगों का कब्जा एक सामान्य बात है। यह सब प्रशासन की नाक के नीचे होता रहता है। ईश्वर और संविधान की शपथ लेकर सत्य और न्याय की रक्षा करने वाले बड़े अधिकारी, राजनेता सब मूकदर्शक बने रहते हैं। मानो कुछ हुआ ही नहीं। गरीब समाज को न्याय मिले यह प्रशासन के स्वभाव में प्रायः कम ही है। 'जमीन' शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ प्रत्येक राजनेता और बड़े-बड़े अधिकारियों की सेवाभावी कथित सोच का सत्य प्रकट करने में सक्षम हैं। देश के अधिकांशतः गाँवों में यही सब हो रहा है - "इसी प्रधान ने किसी योजना के तहत/सरकारी जमीन में सौ-सौ गज के प्लाटों की रसीदें काटी/एक रसीद पापा के नाम से काटी/मगर वहाँ भी दलालों और दबंगों के चलते/ किसी को कब्जा न मिला/ जमीन की रसीदें रखी रह गई।"
जीवन का मनोविज्ञान कुछ ऐसा होता है कि सुख आएगा तो व्यक्ति, घर-परिवार को चारों ओर से आकर आनंद से लबालब भर देगा; ऐसे ही दुःख आएगा तो वह भी चारों ओर से घेरकर अपना पीड़ा भरा कठोरतम रूप दिखाकर व्यक्ति परिवार को आहत कर देता है। अपने निकटतम संबंधियों का असमय साथ छूट जाना, व्यक्ति को मर्माहत कर देता है। कवि अभाव और असुविधा के कारण अपने छोटे चंचल शरारती और नटखट भाई को बारात में नहीं ले जा सका। उसे घर पर ही बहका दिया हाथ में गुड़ देकर। वह नाराज हुआ रोता रहा खाट पर बैठकर। दुर्भाग्य से उसी रात वह बालक मृत्यु को प्राप्त हो गया। सबसे छोटा और प्रिय अचानक ऐसे साथ छोड़ देगा। यह किसी ने सोचा भी नहीं था। उसकी अंतिम स्मृति किस प्रकार झकझोरती है। कवि के शब्दों में - "सुबह सवेरे कोई/गाँव से आया/खबर दी/कौसम का लौन्डा पिन्नू मर गया/सुनकर होश उड़ गये/पिन्नू आँखों के सामने तैरने लगा/टुरेल में डुबकी, हाथ में गुड़/आँखों में आँसू, खाट पर बैठा/सुबकता हुआ पिन्नू/ रह-रहकर याद आने लगा।" पेट में पर्याप्त रोटी नहीं सिर पर अपनी छत नहीं। ऐसे जीवन से क्या आशा या अपेक्षा की जा सकती है? समाज में आज भी ऐसे व्यक्ति, परिवार हैं जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीने के लिए विवश हैं। आज भी हम देखते हैं कि धनवानों की पूरी संवेदना अपने व्यवसाय और धन के प्रति है। निर्धनों, मजदूरों से उन्हें कोई विशेष लगाव नहीं। विभिन्न उद्योग धंधों में श्रमिक दुर्घटना के शिकार होते रहते हैं, यह सब हम दूरदर्शन और समाचार पत्रों में देखते और पढ़ते रहते हैैं। दुघर्टना की जवाबदेही और जिम्मेदारी कोई भी लेता हुआ दिखाई नहीं देता। ऐसा क्यों हो रहा है? लोग इस पर विचार करने के लिए तैयार क्यों नहीं होते?
जिनके हाथ में सत्ता है, क्या वे इस जिम्मेदारी से बच सकते हैं? 'सिकंजा' शीर्षक कविता में एक युवा मजदूर की ठेकेदार के द्वारा दर्दनाक हत्या सारी मानवीय संवेदना को ही खत्म कर देती है। यही है धनी और निर्धनों के जीवन का अंतर जो कवि की दृष्टि से बच नहीं पाया है- "हरियाणा के भट्टे पर/ कुछ मजदूर आँवे पर चढ़कर/आँवा चेक कर रहे थे/ तभी एक हट्टा-कट्टा जवान लड़का/आँवे में घुटनों तक सरक गया/वह चिल्लाया/ मगर ठेकेदार और उसके साथियों ने/उसे जबरन आँवे में ही धकेल दिया।" गरीबी एक ऐसा दुःख दर्द है जिसमें कोई साथ नहीं देता। निकटतम सगे संबंधी भी साथ छोड़ देते हैं। रिश्तेदार भी कोई सहायता नहीं करते। डूबती नाव पर कौन सवार होना चाहता है? ऐसे में मुख्य प्रश्न यह है कि- 'गरीबी' को कैसे खत्म किया जाए? आखिर, गरीब लोग किस प्रकार गरीबी से उपर उठ सकते हैं? इसके लिए निर्धनता के विभिन्न रूप और उनकी पहचान करना जरूरी है क्योंकि आर्थिक निर्धनता और मानसिक निर्धनता की पीड़ा संपूर्ण भारतीय समाज में एक समान नहीं पायी जाती। कथित उच्च जाति की आर्थिक निर्धनता वैसी दुःखदायी नहीं है; जैसी कि छोटी जातियों में पायी जाती है। शोषित वंचित छोटी जातियों को गरीबी में मार तिरस्कार किस प्रकार झेलता पड़ता है इसकी एक व्यथा कथा की एक बानगी देखिए- "आज तो हद ही हो गयी/एक गांडा तोड़ने पर घटानिया ने/सोनबीरी बुढ़िया पर बजाते-बजाते/गांडा ही तोड़ दिया।"
गाँवों में आज भी सर्वहारा निर्धन वर्ग, समाज और व्यक्ति अपमान, अभाव, उपेक्षा, तिरस्कार और यहाँ तक कि मारपीट तक का जीवन जीते हुए आसानी से देखे जा सकते हैं। इसमें किसी को संदेह नहीं है कि देश में एक वर्ग समाज ऐसा है जो कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में दूसरे वर्ग समाज का शोषण करता है और साथ ही वैचारिक मक्कारी से उसे सही ठहराता है। इस सोच का क्या किया जाए? इसलिए आज अनिवार्य हो गया है कि सभी को एक समान शिक्षा मिले। श्रमिकों से संबंधित कानूनों को ठीक ढंग से व्यवहार में लाया जाए। प्रस्तुत काव्य संग्रह का उद्देश्य भी यही है। गाँवों में अभावग्रस्त मनुष्यों के जीवन से खिलवाड़, बड़े किसान और धनी परिवार के व्यक्ति करते ही हैं; जिस पर दृष्टि प्रायः कम ही जाती है। परिणामस्वरूप शोषण और अत्याचार का दुष्चक्र चलता रहता है। कविता में दर्ज उदाहरण देखिए - "पानी से तरमतर गठड़ी/सुब्बड़ ने बेद्दू को जोरामारी उठवायी/जरूरत से ज्यादा भारी गठड़ी लेकर/बेद्दू रिपटनी डोल पर चल न सका/वह लड़खड़ाकर गिर पड़ा/बेद्दू और गठड़ी को/नाले के पानी में डूबता छोड़कर/सुब्बड़ अपने घर आ गया।"
प्रस्तुत काव्य कृति में व्यक्ति, परिवार, समाज से लेकर व्यक्तिगत जीवन के अनेक अभाव भरे पीड़ादायी मार्मिक चित्र उकेरे गए हैैं। काव्य शैली में लिखी गई यह एक लघु आत्मकथा है जो लेखक के जीवन संघर्ष को समाज के सम्मुख प्रस्तुत करती हुई अनेक प्रश्न पाठकों के मन में छोड़ती है। इसका शीर्षक स्वयं ही प्रश्न है। क्या ऐसा जीवन सभ्य शिक्षित समाज में जीवन कहा जाएगा? यदि नहीं तो पुनः एक बार फिर मनुष्य जीवन और उसके उद्देश्यों पर विचार करना होगा। यहाँ पर कवि ने बड़ी साफगोई से अपने जीवन की दुःख भरी कथा का सच प्रकट किया है और उसमें कोई संकोच भी नहीं किया है। जीवन जैसा जिया ठीक वैसा ही लिखा भी है। यह बड़े हिम्मत की बात है। बहुत कम लेखक ऐसा लिख पाते हैं, जिसमें प्रमाणिकता हो और सहज स्वीकार हो। परिश्रम और संघर्ष दोनों एक साथ किए जाएँ तो मनुष्य सफलता प्राप्त करता है। यह अनकहे रूप में प्रत्येक कविता से किसी न किसी रूप में प्रकट हो रहा है। सभी कविताएँ आत्मकथा शैली में लिखी हैं जो कवि के अपने जीवन के साथ-साथ शोषित वंचित वर्ग समाज के जीवन की कठोरता को भी वाणी दे रही हैं। यह पूरा काव्य संग्रह ही विडम्बना, विवशता और कलेजा हूलने वाली निराशाओं से गुजरकर रचा गया है। प्रस्तुत काव्य संग्रह कविता के क्षेत्र में कल्पना से परे, भारतीय ग्रामीण जीवन के वास्तविक स्वरूप के दर्शन कराता है। हिंदी खड़ी बोली की ठेठ ग्रामीण लोक जीवन की शब्दावली कथ्य को ऐसा धारदार और साकार बनाती है कि सब कुछ मन मस्तिष्क में छप जाता है। फिर भी स्थानीय कठिन शब्दों के मानक हिंदी रूप भी दे दिए जाएँ तो पूरे हिंदी क्षेत्र में इसकी स्वीकार्यता सहज ही हो जाएगी। अगले संस्करण में इसकी अपेक्षा है। मानवीय संवेदना से ओतप्रोत होकर जब पाठक कवि के साथ-साथ चलने लगता है तो यह किसी भी कृति की श्रेष्ठता और सफलता होती है।
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एसोसिएट प्रोफेसर
हिंदी क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान (एन. सी. ई. आर. टी)
कप्तान दुर्गा प्रसाद चैधरी मार्ग, अजमेर 305004
9549737800
काव्य संग्रह : हमारे गांव में हमारा क्या है!
कवि : अमित धर्मसिंह
समीक्षक : डा. रामनिवास
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर,
पृष्ठ : 168
मूल्य : 175₹
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