हमारे गांव में हमारा क्या है! की समीक्षा : कश्मीर सिंह

 


पुस्तक_समीक्षा 

#हमारे_गांव_में_हमारा_क्या_है! एक यक्ष प्रश्न ।

                                             - कश्मीर सिंह

#सर्वप्रथम, हमारे गांव में हमारा क्या है! संग्रह की शीर्षक कविता का एक अंश देखिए -

“ये खेत मलखान का है,

वो ट्यूबवेल फूल सिंह की है,

ये लाला की दुकान है,

वो फैक्ट्री बंसल की है, 

ये चक धुम्मी का है, 

वो ताप्पड़ चौधरी का है, 

ये बाग़ खान का है, 

वो कोल्हू पठान का है, 

ये धर्मशाला जैनियों की है, 

वो मन्दिर पंडितों का है,

कुछ इस तरह से जाना हमने अपने गाँव को l” 

“हमारे गाँव में हमारा क्या है ! 

ये हम आज तक नहीं जान पाए।”

            “उक्त काव्य पंक्तियों और कविता संग्रह के रचयिता हैं- अमित धर्मसिंह l अमित धर्मसिंह एक मँजे हुए कवि हैं। इनकी कविताएँ साहित्यिक अनुसन्धान केंद्र की प्रयोगशाला में तैयार होकर नहीं आयी बल्कि यथार्थ के धरातल पर समस्याओं से दो-दो हाथ करती, हृदय की हर धड़कन से उठती हूक को आत्मसात करती, संघर्षशीलता का दामन थामे कागज पर उतरती हैं l इसी कारण से इनकी कविताओं में काव्यगत पांडित्य के दर्शन नहीं होते और परम्परागत काव्य लेखन की विशिष्ठ शैलियों से भी मुक्त हैं l इनकी कविताएँ विशेषणों के सौन्दर्य सोष्ठव और अलंकारों की रूप-सज्जा के इतर रहकर, संवेदनाओं के भावनात्मक तटबंधों के बीच पूरे मनोवेग से बहती हैं l

         18 जून, 1986 को कस्बा ककरोली, जनपद मुजफ्फर नगर (उत्तर प्रदेश) में जन्में अमित धर्मसिंह, का जीवन, संघर्षों की एक लम्बी कहानी है l इस संग्रह की एक-एक कविता उनके इस संघर्ष को न केवल अभिव्यक्त करती है, अपितु पाठक को अपने उस संसार में ले जाती है जहाँ पाठक, मूक दर्शक या पाठक मात्र नहीं रह जाता, वह साक्षी बनता है, कवि द्वारा भोगे अपमान, अभावग्रस्तता, अन्याय, अस्पृश्यता, उपेक्षा, उत्पीडन, घुटन, जातिगत भेदभाव, बेबसी, यातना, यंत्रणा और लाचारी की अमानवीय विभीषिका का और उसे जी’ता हुआ विचरता है कवि के साथ-साथ l

           अमित धर्मसिंह की 8 अन्य प्रकाशित कृतियाँ हैं - 1. आस-विश्वास (कविता संग्रह, 2007), 2. स्मारिका आस विश्वास (2009), 3. समन्वय (वाणी साहित्यिक संस्था के वार्षिक संकलन का संपादन, 2013 ), 4. रचनाधर्मिता के विविध आयाम (आलोचना, 2017), 5. साहित्य का वैचारिक शोधन (आलोचना, 2018), 6. विरले दोस्त कबीर के: एक मूल्यांकन (संपादित, 2018), 7. खेल जो हमने खेले ( संस्मरण और वैचारिकी, 2020) और 8. कोरोना काल में दलित कविता (संपादित, 2020) जो साक्षी हैं उनके साहित्यिक अवदान की l

     “हमारे गाँव में हमारा क्या है !” की प्रस्तावना “बंद मनुष्यता की मुक्ति का आह्वान” लिखते हुए डा. जयप्रकाश कर्दम तो, अमित धर्मसिंह की कविताओं को कवि की ‘काव्यमय आत्मकथा’ का नाम देते हैं l डा. जयप्रकाश कर्दम इन कविताओं में उजागर प्रश्न को, या मैं कहूँ इस विकट समस्या को सिर्फ गाँव तक सीमित रखकर नहीं देखते, आप इसका विस्तार भारत देश के छोर-छोर में अनुभव करते हैं और एक और बड़ा प्रश्न हमारे सम्मुख कुछ ऐसे प्रस्तुत करते हैं – ‘कवि अमित धर्मसिंह, की इन कविताओं में दलित भले ही अपनी अस्मिता और अस्तित्व गाँव के परिप्रेक्ष्य में खोजता दिखाई देता है, किन्तु गाँव का विस्तार देश तक होता है l देश भी एक बड़ा गाँव ही है l जिस देश को दलित अपना मानते हैं, उस देश में उनका क्या है ?” और मैं उनके इस प्रश्न को एक यक्ष प्रश्न की तरह देखता हूँ l यदि युधिष्टर भी इस युग में होते तो शायद ही उनके पास इस प्रश्न का उत्तर होता l 

           “हमारे गाँव में हमारा क्या है !” संग्रह में कुल इकतालीस कवितायें हैं l संग्रह की शीर्षक कविता स्वयं ही सुस्पष्ट है और कवि के अंतर्मन में कुलबुलाती मनोदशाओं का स्वतः बखान करती है, तो ‘बचपन के पकवान’ कविता पढ़ते हुए आँखें भर आई l ‘बचपन के पकवान’ शीर्षक पढ़कर सपने में भी तो न सोचा था कि ‘पकवान’ शब्द ऐसे संदर्भ में भी प्रयोग किया जा सकता है l इस कविता का अंश देखिये... 

“कभी-कभी 

ऐसा वक्त भी आता 

जब चटनी,

छाछ और साग तो क्या 

गंट्ठी और रोटी भी न मिलती l

भूख पैर न टिकने देती,

कागज में नमक लेकर 

नेकर के नेफ्फे में घसूड़ते, 

कोई छोटा-मोटा चक्कू

बुर्शट में छुपाकर 

दो-तीन यार मिलकर 

जंगल में निकल जाते l 

अमरुद, कच्चे आम, जामुन, रेंटे (लिसोड़े), शहतूत 

गाजर, मूली, छोटी-छोटी हरी सरसों के डंठल 

मौसम के अनुसार जो भी मिल जाता 

चुराते और नमक के साथ चटखारे लेते l”  

          इसी कविता में कवि ने ‘माँ’ की याद दिलायी l माँ किसी की भी हो, कभी गरीब नहीं होती उसका जिगरा, दिल, कलेजा बहुत बड़ा होता हैl मुझे याद नहीं आता मेरी ‘माँ’ ने कभी अपने दुःख, हम बेटों के साथ साँझा किये हों ! अमित धर्मसिंह की माँ भी नहीं करती, लेकिन आसपास घट रही घटनाओं से बाल अमित का पारखी मन पहुँच जाता है वहाँ, जहाँ प्रतिबन्ध होता है माँ की दृष्टि का, उसकी सहन शक्ति का और इस सोच का कि जो वह भोगती है; उसकी लेशमात्र छाया भी उसके लाडलों पर न पड़े l देखिये इन पंक्तियों को भी ..... 

- “ये सब देखकर 

‘माँ’ की सुनायी हुई बातें याद आतीं 

तो रूह काँप जाती –

एक कद्दू तोड़ने पर 

बीरमपाल ने जगबीरी को बहुत लताड़ा 

और तो और वारे ने कद्दू भी रखवा लिया,

आज तो हद ही हो गयी

एक गांडा तोड़ने पर घटानिया ने

सोनबीरी बुढ़िया पर बजाते-बजाते 

गांडा ही तोड़ दिया l’        

हम माँ को निगाह से टटोलते

कहीं माँ लंगड़ा तो नहीं रही l”

         अभावग्रस्तता और अस्पृश्यता, सभ्य समाज के लिए बहुत बड़े अभिशाप हैं क्योंकि अपमान, उपेक्षा, उत्पीडन, घुटन, भेदभाव, बेबसी, यातना, यंत्रणा और लाचारी जैसी घातक बुराइयों की जन्मदात्री ये दोनों ही हैं। अपने शैशव काल से ही कवि इन बुराइयों का सामना करता आया है,और संग्रह की लगभग हर एक कविता इनसे प्रभावित प्रतीत ही नहीं होती, बल्कि प्रभावित है ‘पढ़ाई के टोटके’, ‘लुभाया/रूंगा’, ‘मेला’, और ‘प्रार्थना’ ऐसी कविताएँ हैं जिनमें बेबसी है पर वह बेबसी भी ऐसी जिसका कोई प्रतिकार हो ही नहीं सकता l आप भी देखिये प्रार्थना कविता के ये अंश...

"स्कूल में कक्षा शुरू होने से पहले ही प्रार्थना होती,

लाइन में छोटे कद के बच्चे आगे खड़े होते 

और बड़े कद के बच्चे पीछे लगते l 

लेकिन हम इस नियम का उल्लंघन करते,

वजह थी स्कूल ड्रेस,

सफेद शर्ट,नेवी ब्लू पेंट,

काले जूते, सफ़ेद जुर्राब,

नीली और सफेद पट्टीदार टाई,

सर्दियों में लाल जर्सी,

पूरी ड्रेस थी स्कूल की,

इसमें से कभी कुछ कम 

तो कभी कुछ...

स्कूल में प्रार्थना से पहले

पहुँचने का सख्त नियम था,

और ड्रेस पहन कर आने का भी,

ऐसे में हम 

कभी देर से जाने का जोखिम उठाते,

कभी प्रार्थना में दुबक कर खड़े होने का।"

          प्रो० कैलाश नारायण तिवारी इसी पुस्तक पर लिखी अपनी बात में अमित की कविताओं को “निर्दोष शैली की कविताएँ” की संज्ञा देते हुए कहते हैं “संदेह नहीं कि अमित की इन इकतालीस कविताओं में, न सिर्फ उसका अपना बचपन और संघर्ष उजागर हुआ है, अपितु ये कविताएँ सम्बन्धित वर्ग के समाज और उसके बच्चों के जीवन सघर्ष का प्रतिनिधित्व करने का भरपूर सामर्थ्य रखती हैं l” मैं प्रो० कैलाश नारायण तिवारी जी की इस बात का भरपूर समर्थन करता हूँ। अमित धर्मसिंह इस संग्रह के माध्यम से जिस समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, उस समाज में कमोबेस हर स्कूल जाने वाले छात्र की स्थिति यही है, बल्कि इससे बदतर होने की सम्भावना प्रबल हो सकती है। शर्ट होगी तो टाई नहीं, जूते हैं तो जुर्राब नहीं, जुर्राब है तो सफेद नहीं... परिणाम बच्चे या तो प्रार्थना में पहुँचते ही नहीं और यदि गलती से पहुँच भी गए तो उनका नियम का उल्लंघन करना, उनकी विवशता हैl

         एक कहावत है कि जब परिस्थियां विपरीत हों तो समझौता कर उनको आत्मसात करने में ही समझदारी हैl ‘भक्ति’, ‘आलू का ठप्पा’, ‘घास’, ‘काली नदी’, और ‘नुस्ख़े’, कविताओं में डा. अमित बालपन ने उन दिनों के क्रियाकलापों और अंधविश्वासों का जो निरूपण किया है उसे उस पीढ़ी के अभावग्रस्त समाज के बच्चे भली प्रकार समझ सकते हैं l कवि ने उन विपरीत परिस्थितियों को भोगा है, जिया है और उन्हें लिपिबद्ध या शब्दबद्ध कर इस पुस्तक में प्रकाशित कर एक बड़े साहस का काम किया है l देखिये-

"माँ बताया करती थी

कि वह जब भी जंगल से आया करती 

तो हमें दूधियों पर 

थूक लगा कर पिलाया करती 

ताकि भूत-प्रेत की छाया से बचाया जा सके 

बुरी नज़र या दूसरी हवा से बचाने के लिए 

तवे की कालस का डिठौना 

माथे पर लगाया जाता। 

इस तरह माँ हमें

हर बला से बचाने की कोशिश करती।"

        ‘बरसात’ कविता में वर्णित घटनाएँ चलचित्र की तरह आँखों के सम्मुख तैरती नज़र आती हैंl छत से पानी का चू’ना, जगह-जगह पानी टपकने की जगह पर एक-एक कर बर्तन रखा जाना, रात-रात भर बारिश के पानी से बचने के ढेर सारे असफल प्रयास करना, खाना बनाने के लिए टेम्पेरेरी चूल्हे की व्यवस्था करना, फिर हारे का सहारा भगवान, प्रार्थनाएँ, टोटके या उपाय के रूप में उलटे तवे या परात बजाना l मज़े की बात यह है कि इनके उलटे तवे या परात बजाने से बारिश भी ठीक उसी तरह नहीं रूकती जैसे वर्ष 2020 में हम सबके थालियाँ पीटने से कोरोना नहीं रुका था। अन्ततः बरसात की इस त्रासदी के भयावह परिणाम इसी कविता की इन पंक्तियों में देखिए -

"सारी रात भूरी भैंस 

छप्पर में खड़ी–खड़ी 

ओलों में छितती रही,

रींकती रही,

सुबह तक 

न छप्पर पर फूंस बचा 

न भूरी भैंस पर खाल,

मरी ही निकली बिचारी भूरी भैंस। 

रिजाई पर पड़ती

बारिश की एक-एक बूँद हमें

भूरी भैंस की पीठ पर पड़ते 

ओले की तरह महसूस होती,

मन भीतर-भीतर रींकता रहता।"

          इस संग्रह की एक-एक कविता दर्द की दास्तान है। पर मैं केवल एक और कविता ‘प्रलाप’ का सन्दर्भ अपने इस कथ्य में प्रस्तुत कर रहा हूँ l ‘प्रलाप’, कविता के दो भाग हैं, दो घटनाएँ हैं और दो मौतें भी ! अपने आप में बेबसी की पराकाष्ठा है ‘प्रलाप’... 

"पापा किसका घर 

बनाने में लगे थे, पता नहीं,

माँ किसके खेत में 

घास काट रही थी, पता नहीं,

फिर भी मैं जंगल की ओर बढ़ा 

माँ को खोजने,

सोचा माँ को चलकर बताऊँ 

अनिता की तबीयत जादा खराब है l 

उस दिन शाम को

पापा काम से आये,

माँ जंगल से आयी,

हम भी कहीं-कहीं 

धक्के खाकर घर आ गये 

मगर अनिता 

घर से जा चुकी थी 

हमारा दिया हुआ खटोला छोड़कर।"        

         ‘हमारे गाँव में हमारा क्या है !’ निश्चित रूप से एक आत्मकथात्मक काव्य संग्रह है, किन्तु इसमें संकलित कविताओं में अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द पिरोई गई पीडाएं तो हर उस बालक की हैं, हर उस व्यक्ति की हैं और ऐसे पूरे समाज की हैं जो अभावों में जन्मता है, अभावों में ही पलता है, और एक दिन अभावों को ही समर्पित हो जाता हैl सुदाम पाण्डेय ‘धूमिल’, अदम ‘गोंडवी’, दुष्यंत कुमार, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मलखान सिंह, डॉ एन. सिंह और डॉ असंगघोष ये वो नाम हैं जिनको मैंने पढ़ा और जिन्होंने संघर्षरत, दलित, शोषित, अपमानित, अभावग्रस्त, उपेक्षित, उत्पीडित, अस्पृश्य एवं जातिगत भेदभाव से ग्रषित लाचार आदमी की पीड़ा को समझा, झेला और प्रतिकार कर कविता में निरूपित भी किया हैl यही वे नाम हैं जिन्होंनें हिंदी साहित्य में विरोध की मशाल जलाई, उठाई और उसे लेकर चले इसी श्रृंखला में डा. अमित धर्मसिंह (डॉक्टर इसलिए कि ये दिल्ली विश्वद्यालय से 2018 में पीएचडी की डिग्री ले चुके हैं) का नाम रखते हुए मुझे कोई संकोच नहीं हो रहा हैl डा. अमित धर्मसिंह को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ! संवेदनाओं की इस सशक्त अभिव्यक्ति के लिए और भविष्य में ढेरों ऐसी ही कृतियों के माध्यम से हिन्दी साहित्य को समृद्ध एवं समादृत करने के लिएl  

                                              - कश्मीर सिंह   

                              सहारनपुर – उत्तर प्रदेश।

30/07/2021

कविता संग्रह : हमारे गाँव में हमारा क्या है! 

कवि : अमित धर्मसिंह             

समीक्षक : कश्मीर सिंह, 

प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर

पृष्ठ 168

मूल्य : 175₹

प्रथम संस्करण 2019, पेपरबैक।

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