हमारे गांव में हमारा क्या है! की समीक्षा, रोहित कौशिक
पुस्तक समीक्षा
अभावग्रस्त जीवन के संघर्ष का काव्य
-रोहित कौशिक
आमतौर पर ग्रामीण जीवन को सहज, सरल और सुखद माना जाता है लेकिन सभी के लिए ग्रामीण जीवन उतना सहज, सरल और सुखद नहीं होता। ग्रामीण जीवन की भी अपनी जटिलताएँ और विसंगतियां हैं। जब हम सतही तौर पर शहरी जीवन के बरक्स ग्रामीण जीवन को देखते हैं तो हमें ये जटिलताएँ और विसंगतियाँ दिखाई नहीं देती हैं। यहाँ तक कि समृद्ध ग्रामीणों को भी गांव के जीवन में हरियाली ही हरियाली दिखाई देती है लेकिन अभावों में जीवन जीने वाले गांव के आखिरी आदमी के जीवन में हरियाली कहीं नहीं है। वह दूसरों के जीवन में हरियाली पैदा कर खुद एक सूखा झाड़ बन जाता है। अमित धर्मसिंह ने अपने सद्यः प्रकाशित कविता संग्रह ‘हमारे गाँव में हमारा क्या है’ में अभावग्रस्त ग्रामीण जीवन का काव्य रचा है। हालांकि यह ग्रामीण दलित जीवन का आख्यान है लेकिन बड़ी बात यह है कि अमित धर्मसिंह ने दलित जीवन के संघर्ष को नारे में बदलने की कोशिश नहीं की। इसलिए हर अभावग्रस्त ग्रामीण को यह अपना आख्यान लगता है। पूरा कविता संग्रह कवि के संघर्ष की दास्तान है। संघर्ष ही हमारी उन्नति का मार्ग है।संघर्ष ही हमें वास्तविक पहचान देता है इसलिए रचनाकार को निश्चित रूप से अपने संघर्ष पर बात करनी चाहिए। एक सीमा तक तो अपने संघर्ष पर बात करना सही हैं लेकिन एक सीमा के बाद संघर्ष पर बात करना आत्ममुग्धता लगने लगता है और जाने-अनजाने संघर्ष के बाजारीकरण का खतरा भी बढ़ जाता है। सवाल यह भी है कि अगर कवि के जीवन में इतना संघर्ष न रहा होता तो क्या वह अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर पाता।दरअसल हर व्यक्ति का अपना अलग संघर्ष होता है। यही संघर्ष उसके भविष्य का रास्ता तय करता है। कवि ने समाज के जातिगत दुराग्रहों के बीच जो जातीय संघर्ष झेला है, उसकी पीड़ा सिर्फ कवि ही महसूस कर सकता है। इस तरह के जातिगत दुराग्रह हमारे समाज पर भी सवाल खड़े करते हैं।
सहज और सरल भाषा में लिखी गई इन कविताओं में कही भी भाषा का आडम्बर दिखाई नहीं देता है। यही कारण है कि इस संग्रह को पढ़ते हुए कभी-कभी यह l अहसास होता है कि इन कविताओं में काव्य तत्व की सान्द्रता कम है। हालांकि दलित जीवन से सम्बन्धित रचनाओं में हमें काव्य तत्व की ज्यादा खोज करनी भी नहीं चाहिए। ये कविताएं पाठकों से सीधी बातचीत करती हैं। इसी विशेषता के कारण ये कविताएं हमारे साथ एक आत्मीय संवाद स्थापित कर लेती हैं। कवि बहुत ही सलीके के साथ यह सवाल उठाता है कि हमारे गांव में हमारा क्या है? यह सवाल उठाते हुए कवि उग्र नहीं होता है। दलित जीवन से सम्बन्धित साहित्य में आमतौर पर इस तरह के सवाल उठाते हुए उग्र होने का खतरा बना रहता है। इस दौर में इस तरह के साहित्य में अधिकांश रचनाकार उग्र होकर भाषा की मर्यादा तक लांघ रहे हैं।कवि यहाँ यह उदाहरण भी पेश करता है कि धैर्य और शालीनता के साथ कही गई बात ज्यादा असरदार सिद्ध होती है। यह प्रवृत्ति पूरे संग्रह में दिखाई देती है। दरअसल यह संग्रह कवि के बचपन का संस्मरणात्मक काव्य है कवि के जज्बे को नमन करते हुए यहाँ यह कहना प्रासंगिक होगा कि उसने संघर्ष की पीड़ा को ही अपनी दवा बना लिया। उसने अभाव की जिन्दगी जीते हुए हीनताबोध के चक्रव्यूह में न फँसकर निराशा की अँधेरी गुफा में प्रवेश नहीं किया बल्कि अभावग्रस्त जीवन और संघर्ष के साथ अपने अन्तर की लय साधकर जीवन को ही काव्य बना लिया। शायद इसी प्रक्रिया ने कवि को जिन्दगी के उबड़-खाबड़ रास्ते पर चलने का नैतिक साहस प्रदान किया।
अगर आजादी के इतने वर्षों बाद भी दलित समाज के मन में यह भाव पैदा होता है कि हमारे गाँव में हमारा क्या है तो इससे दुःखद और कुछ नहीं हो सकता।यह हम सबकी सामाजिक जिम्मेदारी है कि हम दलितों के मन में इस प्रकार के भाव उत्पन्न न होने दें। कटु सत्य यह है कि हम आज भी दलितों को वह सम्मान नहीं दे पाए जिसके वे सच्चे अर्थों में हकदार थे। हालांकि आरक्षण देकर दलितों को मुख्य धारा में लाने का अवसर प्रदान किया गया लेकिन इस अवसर को भी वोट बैंक की राजनीति का हथियार बना दिया गया। आरक्षण से दलित आर्थिक रूप से तो मजबूत हुए लेकिन दलितों के प्रति पूर्वाग्रहों को हम आज भी नहीं त्याग पाए। अगर दलित गरीब और कम पढ़ा-लिखा हो तो हमारे पूर्वाग्रह और ज्यादा बढ़ जाते हैं। ये पूर्वाग्रह तब दिखाई देते हैं जब खेत से गन्ना तोड़ने या कोई तरकारी लेने पर दलितों के साथ अत्याचार की घटनाएँ सामने आती हैं। कवि ने इस मानसिकता और माँ की मजबूरी का यथार्थवादी चित्रण किया है। ‘लुभाया’ शीर्ष क कविता हम सबकी अपनी कविता है। बचपन में लुभाए के चक्कर में हम सभी बच्चों के बीच दुकान से सामान लाने की होड़ लगी रहती थी।लुभाए के माध्यम से दुकानदार से आत्मीयता बढ़कर एक रिश्ते में तब्दील हो जाती थी। इस तरह हर दुकानदार हमारे चाचा और ताऊ हो जाते थे। आज बाजार से लुभाया समाप्त हो चुका है। यह जरूर है कि अब शॉपिंग माॅल में महंगी सामग्री पर कुछ सामग्री मुफ्त देने का ढोंग किया जाता है। यह बाजारवादी रणनीति का हिस्सा है।जबकि लुभाया बाजारवादी रणनीति नहीं थी। लुभाया में एक आत्मीय भाव था।
एक अभावग्रस्त बच्चा ड्रेस न पहन पाने पर जब स्कूल की प्रार्थ ना में यह कामना करता है कि उस पर मास्टर जी की निगाह न पड़े तो विकास की खोखली प्रक्रिया में बच्चे की दारुण स्थिति का अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है। स्कूल जाने से पहले जंगल से घास काटकर लाने की दिनचर्या दलित बच्चों के अनवरत संघर्ष का खाका खींचती है। कवि ने अपने संघर्ष के माध्यम से काली नदी के प्रदूषण पर चर्चा कर एक तीर से दो निशाने साधे हैं। काली नदी प्रदूषित होने के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अनेक गांवों में कैंसर के रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है। इस तरह कवि ने एक सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के साथ ही संग्रह को विविधता भी प्रदान की है। कई-र्कइ दिन एक जोड़ी कपड़े पहनने की पीड़ा हो या बरसात की मुश्किलें, ईंधन और खाने-पीने का जुगाड़ करना हो या पढ़ने के लिए किया गया संघर्ष हो-ये सभी घटनाएँ अन्ततः हमारी व्यवस्था की खामियाँ ही उजागर करती हैं। एक ऐसी व्यवस्था जिसमें सम्पन्न आदमी और ज्यादा सम्पन्न होता चला जाता है तथा गरीब आदमी लगातार गरीबी के भँवर में फँसता चला जाता है। ‘लोहा’ शीर्षक कविता में बहुत ही मार्मिकता की व्यापकता है। यह कविता एक गहरा अर्थ लिए हुए है। ‘गिरोह’ बाल मनोविज्ञान की कविता है कभी-कभी बच्चे कल्पनाओं की ऊँची उड़ान भरते हैं। इस उड़ान पर न तो माता-पिता का नियंत्रण होता है और न ही खुद बच्चों का। हालांकि ‘गिरोह’ शीर्षक कविता में वर्णित इस बात पर विश्वास करने का मन नहीं हुआ कि दिसम्बर की सर्दी में पाँच बच्चे रात को ट्रेन की छत पर बैठकर अम्बाला से दिल्ली तक की यात्रा करते हैं। लेकिन कविता पढ़ने के कुछ समय बाद ही मन में विचार आया कि जब हम स्वयं इस तरह के संघर्ष से नहीं जूझते हैं तो हमें इस तरह की बातें कल्पना ही लगती हैं। स्वयं इस तरह के संघर्ष से जूझने वाले व्यक्ति को ही यथार्थ का ज्ञान हो पता है।
एक छोटा सा जमीन का टुकड़ा हमारे लिए क्या मायने रखता है, यह ‘जमीन’ शीर्षक कविता पढ़कर समझा जा सकता है। जमीन के एक टुकड़े के लिए इंसान ताउम्र जद्दोजहद करता रहता है। अपनी जमीन पर घर बनाने का सुख अलग ही होता है। दरअसल किसी भी तरह का विस्थापन अनेक समस्यायें लेकर आता है।पारिवारिक कारणों से कवि का परिवार भी एक गांव से दूसरे गांव में विस्थापित हुआ। नाना के घर पर रहकर जीवन यात्रा आगे बढ़ती रही। माँ का यह कथन कि, “अपनी जमीन में तो आदमी झोपड़ी में भी राजा होता है”, अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते परिवार का दर्द समझने के लिए काफी है। यहाँ यह समझना भी जरूरी है कि जब पारिवारिक कारणों से हुए विस्थापन का दर्द इतना गहरा है तो विकास की विभिन्न परियोजनाओं और सरकारी नीतियों के कारण हुए विस्थापन का दर्द कितना गहरा होता होगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस दौर में कुछ बुद्धिजीवी तो विभिन्न बाँध परियोजनाओं में विस्थापित और अपनी जमीन के लिए संघर्ष करते लोगों के आन्दोलन को विकास की राह में रोड़ा बता देते हैं जबकि अपनी जमीन के लिए किया गया संघर्ष एक तरह से अपनी पहचान और अस्तित्व के लिए किया गया संघर्ष है। ‘जंगल की रसोई’ शीर्षक कविता यह प्रदर्शित करती है कि मजदूर किस तरह अपने संघर्ष को ही उत्सव बना लेते हैं। यह कविता पढ़कर गांव में गुजरे दिन स्मृति पटल पर अंकित हो गए। इंटरमीडिएट तक की शिक्षा खेतों के बीच स्थित इंटर काॅलेज से पूर्ण हुई। गांव से चार किलोमीटर दूर स्थित काॅलेज में ख ेतों के बीच से गुजर कर जाना होता था। यही कारण था कि हम रोज इस तरह के दृश्य देखकर बड़े हुए। शायद सामूहिकता और उत्सवधर्मिता के कारण ही मजदूर अपने संघर्ष को एक नया अर्थ देने की कोशिश करते हैं। अन्ततः यह कोशिश ही उनके चेहरों पर हँसी बिखेरती है। ‘किरड़ी’ शीर्षक कविता की मार्मिकता हमें कई स्तरों पर प्रभावित और उद्वेलित करती है। शायद खाए-पिए और अघाए लोग इस कविता को न पचा पाएं लेकिन जिन लोगों ने स्वयं इस हालात को भोगा है, उनके लिए यह कविता यथार्थ का एक ऐसा दस्तावेज है, जो बार-बार इंसानियत और व्यवस्था पर सवाल उठाता रहेगा। यह कविता प्रदर्शित करती है कि समृद्ध लोगों के लिए सर्दी भले ही मौज-मस्ती और सेहत बनाने का मौसम हो लेकिन मूलभूत आवश्यकताओं के लिए तरसते अभावग्रस्त आदमी के लिए यह मौसम नरक ही सिद्ध होता है। इस कविता में कवि ने पिता और डंगरों के बिस्तर में जिस समानता का जिक्र किया है, वह न केवल एक संवेदनशील व्यक्ति को दुखी करता है बल्कि विकास के मुद्दे पर लम्बे-चौड़े भाषण देने वाले राजनेताओं के मुंह पर तमाचा भी जड़ता है। ‘सिकंजा’ कई रंगों की कविता है। हालांकि इस दौर में गाँव भी बदल रहे हैं लेकिन कुछ समय पहले तक गाँवों के विभिन्न मोहल्लों में चोपालें जमती थीं। इन चैपालों में बच्चों को बड़ों की बात सुनने का चस्का लग जाता था। कवि ने इस माहौल का चित्रण करते हुए कई अमानवीय घटनाओं का ब्योरा प्रस्तुत किया है। आँवा खराब न हो इसलिए भट्टे पर ठेकेदार द्वारा एक मजदूर को आँवे में झोंक देने की कुटिल चाल हो, क्लेसर में एक मजदूर के खौलते रस के कढ़ाह में गिरने की दुर्घटना हो या खेत में एक आदमी का पैर सिकंजे में फँसने का वाकया हो-सभी घटनाओं से एक बात स्पष्ट होती है कि गरीब आदमी जीवन जीने के लिए कई स्तरों पर लड़ाई लड़ता है। एक तरफ वह अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा होता है तो दूसरी तरफ उसकी लड़ाई मालिकों या पूंजीपतियों का जीवन सुखद बनाने के लिए होती है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जिन लोगों का भविष्य बनाने के लिए वह काम करता है, वे ही उसकी जिन्दगी में जहर घोलने का कोई अवसर नही चूकते हैं।
माँ पर केन्द्रित ‘दो रंग की चप्पलें’ शीर्षक कविता बहुत ही मार्मिक है। माँ के संघर्ष का कोई मोल नहीं है। माँ ऐसी ही होती है। तमाम तरह के दुख-दर्द अपने में समेटे हुए लेकिन चेहरे पर शिकन का नाम नहीं। दो रंग की चप्पलें पहले हुए माँ के न जाने कितने रंग हैं। वह परिवार के हर सदस्य के रंग में अपना रंग मिला लेती है। ‘खामोशी’ शीर्षक कविता पिता की खोमोशी पर बात करते हुए बहुत कुछ कह जाती है। विभिन्न स्तरों पर संघर्ष कर रहा अभावग्रस्त पिता अपने हृदय में अनेक गमों का पहाड़ छिपाए रखता है। वह नहीं चाहता कि उसकी सन्तान भी गमों का पहाड़ ढोए। इसलिए पिता की खोमोशी को समझना आसान नहीं है। इस खामोशी में बच्चों के भविष्य से जुड़ी दुनिया जहान की चिन्ताएँ समायी हुई हैं। सवाल यह है कि पिता की खामोशी के मर्म को कितने बच्चे समझ पाते हैं? ‘प्रलाप’ शीर्षक कविता पढ़कर यह अहसास हुआ कि कभी-कभी जीवन में कुछ चीजें हमारे हाथ से रेत की तरह फिसल जाती है और हम बस यूँ ही देखते रह जाते हैं। कभी घर के हालात हमारा रास्ता रोक लेते हैं तो कभी हालात समझने में हम ही देर कर देते हैं। यह सही है कि चिकित्सा विज्ञान निरन्तर प्रगति कर रहा है लेकिन इस प्रगति का फायदा अभी गाँव के आखिरी आदमी तक पहुंचना बाकी है। सत्ताएँ चिकित्सा से सम्बन्धित योजनाएं बनाकर स्वयं अपनी पीठ ठोक लेती हैं तो दूसरी तरफ व्यवस्था की नाकामी गरीबों को ठोकती रहती हैं। अगर आजादी के इतने वर्षो बाद भी सरकारें गाँव के आखिरी आदमी को चिकित्सा सुविधा मुहैया कराने में नाकाम रही हैं। तो इससे शर्म नाक कुछ नहीं हो सकता। ऐसे समय में जबकि हम अपने आपको असहाय महसूस करते हैं, ‘प्रलाप’ जैसी कविताएं जन्म लेकर सत्ता को कठघरे में खड़ा करती हैं। संग्रह की अनेक कविताएँ किसी एक वर्ग की कविताएँ नहीं हैं बल्कि कुछ कविताएँ तो गाँव से जुड़े हर व्यक्ति को अपनी कविताएँ लगेगीं। ‘किताबें’, ‘पढ़ाई का रौब’, ‘किस्से’, ‘अद्दा’, ‘शौक’, और ‘ललक’ जैसी कविताओं में गाँव से जुड़े हम सब लोगों की स्मृतियाँ दर्ज हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाँवों में बोले जाने वाले आंचलिक शब्दों का प्रयोग इस संग्रह को और समृद्ध बनाता है।
कविता संग संग्रह: हमारे गाँव में हमारा क्या है!
कवि: अमित धर्मसिंह
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, जयपुर
पृष्ठ : 168, मूल्य: 175 रुपये
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