हमारे गांव में हमारा क्या है! की समीक्षाएं
हमारे गांव में हमारा क्या है! की समीक्षाएं
1.
हमारे गांव में हमारा क्या है! की विशेषता
हमारे गांव में हमारा क्या है! की कविताएं मैंने सुनी भी हैं, पढ़ी भी हैं और समझी भी हैं। इन कविताओं के लिखे जाने से छपे जाने तक की मैं साक्षी रही हूं। यदि मुझ पर पड़े इन कविताओं के व्यक्तिगत प्रभाव को छोड़ दें तो इन कविताओं की विशेषता को बिंदुवार समझा जा सकता है।
* कविताओं को पढ़ते हुए पाठक का बहुत तेजी से साधारणीकरण हो जाता है। पाठक को लगता ही नहीं कि ये कविताएं अमित धर्मसिंह की हैं, उसे लगता है कि जैसे समस्त कवताओं में वही विद्यमान है या उसी का गांव और बचपन विद्यमान है।
* संग्रह की कविताएं किसी विचाधारा विशेष से प्रेरित दिखाई नहीं देती हैं। ग्रामीण परिवेश में शोषण का जो स्वरूप रहा है उसे बड़ी सादगी और ईमानदारी के साथ उजागर किया गया है।
* इन कविताओं में शाब्दिक चमत्कार या भाषाई आडंबर बिल्कुल नहीं है। ठेठ हिन्दी और खड़ी बोली का जो ठाठ इन कविताओं में सर्वत्र विद्यमान है, उसमें भाव, विचार और चिंतन का सहज प्रवाह है।
* संग्रह की कविताएं किसी भी प्रकार के अतिवाद में नहीं फंसती हैं। यही कारण है कि गैर दलित पाठक इन्हें पढ़कर किसी प्रकार की ग्लानि अथवा अपमान महसूस नहीं करता है।
* ये कविताएं पाठक को स्वतंत्र छोड़ देती हैं, किसी प्रकार का उपदेश पाठक को नहीं देती और न ही जबरन अर्थ तक पहुंचाने की कोशिश करती हैं। पाठक कविताएं पढ़कर स्वयं किसी नतीजे पर पहुंचने को मज़बूर हो जाता है, और यह कवि द्वारा नहीं पाठक द्वारा आत्मप्रेरित होता है।
* कविताओं का अपना कार्य संप्रेषित हो जाने के बाद समाप्त हो जाता है। इसमें कोई संदेश नहीं कि इन कविताओं में गजब की संप्रेषण शक्ति है। इसका प्रमाण यह है कि पाठक और कविता के बीच से कवि कब निकल जाता है, पता ही नहीं चलता।
* ये सभी आत्मकथात्मक कविताएं हैं जो दलित साहित्य में अपनी तरह की पहली कविताएं हैं। इन कविताओं में वर्णित आत्मकथा को दलित साहित्य की पहली पद्य आत्मकथा कहा जा सकता है। जैसा कि जयप्रकाश कर्दम और दूसरे समीक्षकों ने भी माना है।
गीता कृष्णांगी
2.
दलित साहित्य की पहली काव्य आत्मकथा
-नेमपाल प्रजापति
दो बजे आपकी पुस्तक मिल गई थी और उसे एक ही सिटिंग में पढ़ना पड़ा सारी को। पहले तो कर्दम जी को बधाई! कर्दम जी ने बहुत अच्छा लिखा है। लिखा तो उन्होंने भी अच्छा है जो आपके गुरु हैं। लेकिन तुमने जो उड़ेला है इस पुस्तक में, उससे आप जैसा या मेरे जैसा जो व्यक्ति होगा, बिल्कुल तरोताजा होती चली जाएगी उसकी पिछली ज़िन्दगी। बिल्कुल ऐसा ही मेरे साथ हुआ है। हर घटना को जिस तरह से आपने भोगा है, उससे कुछ कम भोगा है मैंने, लेकिन उसके आस-पास ही है। और बिल्कुल मन को छूती चली गई हर एक कविता। हालांकि अतुकान्त कविताएं हैं सारी, लेकिन उनमें जो विचार प्रवाह है।उसके लिए आप बधाई के पात्र हैं। भाईसाहब आपने मन खुश कर दिया है! और बड़ा अच्छा लगा मुझे! मतलब क्या क्या आपने!! स्कूल का, ग्राम का, अपने बचपन के उन दिनों का, जिस तरह सारा चित्रण किया है और कोई तुक की मोह नहीं की, सीधे सीधे प्रवाह! इससे प्रवाह हर कविता में है, हर बात में है। मतलब ऐसा लगता है कि ओहो$$$ ये तो मैं भी लिख सकता था। ये तो मेरे साथ भी हुआ है। अरे! ये तो मेरे साथ भी गुज़रा है, ये तो मैं भी लिख सकता था। वाह! वाह!! मतलब अनुभूतियां जो हैं एकदम ताज़ा होती चली गई बचपन की। बहुत बढ़िया लगा। बधाई! और एक बात के लिए बधाई आपको मैंने और भी बहुत सी किताबें पढ़ीं हैं, इतनी त्रुटियां उनमें मिलती हैं कि कोई पृष्ठ त्रुटि के बिना नहीं। मुझे लगता है कि प्रूफ रीडिंग भी आपने खुद ही किया है। बोधि प्रकाशन की भी शायद ये पहली किताब है जो त्रुटि विहीन तो बिल्कुल नहीं कही जा सकती लेकिन त्रुटि नहीं के बराबर हैं। एक शब्द आया किताब में जिस पर मैं ठिठका था - प्रानिधित्व, तो मेरे जेहन में आया ये - प्रतिनिधित्व होगा। लेकिन फिर मैंने सोचा कि नहीं प्रानिधित्व ही ठीक है। तो...! मुझे तो कोई त्रुटि पुस्तक में बाकी नजर नहीं आयी इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं। आपने पुस्तक में जीवन का पूरा वृत्तांत निकालकर रख दिया बिल्कुल। अरे! वाह! वाह! मतलब पूरी आत्मकथा कह सकते हैं इसे बचपन की, जो कर्दम जी ने भी लिखा हैं - अपने लेख में कि इसे आत्मकथा का दूसरा तरीका बोल सकते हैं हम। यानी कव्यमय तरीका बोल सकते हैं इसे आत्मकथा का। मैं तो हर कविता से गुजर गया हूं और मुझे अपना बचपन याद आ गया जैसा कि तुम्हारा अपना बचपन था। लगभग इन्हीं दायरों से मैं गुज़रा हूं। दलित साहित्य में अभी तक जितनी भी आत्मकथाएं लिखी गईं हैं, वे सब गद्य में हैं, ये पहली ऐसी आत्मकथा है जो काव्य में लिखी गई है। दलित साहित्य में काव्य में आत्मकथा लिखने का सबसे पहला श्रेय आपको जाता है। बहुत बड़ा काम कर दिया आपने! मज़ा बांध दिया, मन खुश कर दिया। रिटायरमेंट के बाद मैं ऐसा ढीला पड़ गया था कि खाट पर पड़े-पड़े वजन भी बढ़ गया। लिखने पढ़ने को मन ही नहीं करता था। शुरू के तीन - चार महीने तो मैंने काम किया लेकिन उसके बाद तो मेरा जी भी नहीं कर रहा था टेबिल पर बैठने को। पता नहीं किसका श्राप मुझे लगा है, लेकिन अब मेरे मन में जो है, सचमुच मैं उसको उतारूंगा! बड़ी साफ-सुथरी किताब आयी है आपकी। इसकी एक विशेषता ये भी है कि इसे यदि कोई गैर दलित भी पढ़ेगा तो इसे पढ़कर कुंठित नहीं होगा। जिसके बारे में कैलाश नारायण तिवारी जी ने भी लिखा है अपने वक्तव्य में। किसी को भी इसे पढ़कर अपना अपमान महसूस नहीं होगा। जैसे एक कविता में बनिया है जो आपके लोहे को तौलते वक़्त चार छह सौ ग्राम से सौ दो सौ ग्राम बना देता था, जो ट्रेन में भी टॉफी बिस्कुट बेचता हुआ जाता था, तो लोहा कम तौलना उसके द्वारा किए जाने वाला शोषण ही तो था। लेकिन शोषण का उसका तरीका बदल गया इस कविता में, जिसमें शोषण की कई परतें खुलती हैं। केवल बनिया ही दोषी नहीं। इसमें बनिया का शोषण अलग है और बड़े उद्योगपति का अलग। एक बात और बताऊं चश्मा तो मेरा मोटा हो गया है लेकिन ये पहली किताब है जिसे मैं एक सिटिंग में पढ़ गया। और मिलते ही पढ़ने बैठ गया था। किताब की ये भी अच्छी बात है कि ये बेहद सस्ती किताब है। यदि ये हार्डबोंड में होती तो इसकी कीमत तीन गुना होती। कागज़ बहुत अच्छा लगा है, छपाई बहुत अच्छी है, इसके लिए बोधि प्रकाशन बधाई का पात्र है। आपको पुनः बधाई।।
(हमारे गांव में हमारा क्या है! पर नेमपाल प्रजापति जी से
फोन पर हुई बात का अंश
3.
जाते जाते दे गए आशीर्वाद...
जीवन पूरा का पूरा सांस के रहा है कविताओं में
- मलखान सिंह, आगरा।
"हां जी! अमित बाबू! आपकी पुस्तक मुझे मिल गई है भाई! बहुत लाजवाब लिखा है आपने तो! बहुत जबरदस्त लिखा है पार्टनर! मज़े आ गए; तबसे उसी में लगा हुआ हूं। इतने ठंडे मन से कवि लिख नहीं पाता है; जितना आपने लिखा है। इतना यथार्थ वर्णन - इतनी सरल भाषा में! बहुत बड़ी उपलब्धि है भाई मेरे; बहुत बड़ी उपलब्धि है!!...बहुत रिच पुस्तक है भैय्या। ऐसी कि बिल्कुल लगता है कि पूरा गांव सांस ले रहा है, पूरा जीवन सांस ले रहा है, दलित जीवन पूरा का पूरा सांस ले रहा है कविताओं में। कोई कविता ऐसी नहीं जिसको उन्नीस
कहा जा सके।।"
(07 अगस्त को मलखान सर से फोन पर हुई बातचीत का अंश)
4.
कमला कांत त्रिपाठी
"अच्छा किया कि आपने संग्रह भेजा। उस दुनिया में गोते लगाने का अवसर उपस्थित हुआ जो टुकड़ों टुकड़ों में हांट करती है किन्तु क़रीब जाकर फिर से समेटने की हिम्मत नहीं जुटाने देती। आपकी स्मृतियां इतनी साफ़ और आत्मीय हैं कि आप ही कर सकते थे। पूरी किताब में आत्मकथा के बहुत मारक हिस्से एक एक कविता में अलग अलग जुगुनू की तरह चमकते हैं। अभाव और संघर्ष की ऐसी दुनिया जो बहुत जानी पहचानी है, डराती है पर न भूलती है, न उबरने देती है। हम तो ठेठ देहात के हैं जहां सब्जी केवल आलू के मौसम में मिलती थी, बस जब तक सड़ने न लगे। या कभी कभी खेत से खोंट कर लाया गया बथुआ या जंगल में जानवर चराते समय तोड़कर लाई गई बर्तुआ की पत्तियां या खिसका की फलियां। दाल भात या दाल रोटी जिसे दो वक्त मिल जाए वह संपन्न माना जाता था। घर में अनाज न होने पर भांति भांति की अखाद्य चीज़ों को खाद्य बनाने की जुगत। फल केवल आम के मौसम में, बाक़ी का किताब में सिर्फ़ नाम पढ़ता था और चित्र देखता था। संग्रह में दरिद्रता से अहर्निश लड़ते माता पिता, चालाक मामा और चाचा के जुल्म सहते, बच्चों को जिलाए रखने के लिए दुनिया से जूझते बहुत विचलित करते रहे। उसी के साथ मेला ठेला, शादी का जलसा, स्कूल, मास्टर, किताबें, कविता लिखने की ललक, अपाहिज बहन, बारिश, छत का टपकना, जानवरों के साथ सोना और पिता का उनके मूत्र गोबर से जूझना, झिंलगा खाटें, पुआल का बिस्तर (गोनरा) सब लुप लुप करते रहे। "देखते देखते मेला उजड़ गया गांव से भी ज़िन्दगी से भी", "शिव जी और पीर के सामने सर नवाना जारी रहा आदतन" और होली में "सबको अपना बनाने में लगे रहते उन्हें भी जो हमसे बचे बचे फिरते" जैसी कई काव्य पंक्तियां हैं जो सपाट वर्णनात्मकता से छिटककर अलग से चमकती रहेंगी। बहुत पीर है, जिसे सहज संत भाव से मूर्त किया है आपने। सबकी अपनी अपनी पीर है। अन्याय करनेवाले भी किसी अन्य के अन्याय के शिकार हैं। मेरे लिए तो यह पक्ष बेहद मूल्यवान है।"
5.
कर्मेंदु शिशिर
"आपकी कविताओं में गँवई जीवन का विस्तार है।दलित,कामगार और कठिनता से जीने के लिए संघर्ष करते लोगों का एक तरह से शब्दचित्र है,पीड़ा है और करुण जीवन की मार्मिक गाथा है।यथार्थ जीवन को सहजता और सरलता से हूबहू रख देने के क्रम में कवित्व या शिल्पगत प्रायत्निकता कहीं नहीं है।इसमें रिश्ते हैं,उनका भी वही संघर्ष भरा इतिहास है।कहीं कहीं आँचलिक शब्द जरूर आते हैं लेकिन कविता को आँचलिक नहीं कह सकते।इसलिए यह गाथा व्यापक जीवन का दस्तावेज बन जाती है।"
6.
"बहुत ही सुंदर किताब है मित्र! दिल ही निकाल कर रख दिया"
-डॉ प्रवीण कुमार
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7.
"उद्दीपित करती हैं कविताएं। अनुभव संसार में कुछ नया जोड़ती हैं।"
- कमलाकांत त्रिपाठी
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8.
सचमुच जादुई पुस्तक है: सुमन प्रभा
आपकी पुस्तक पढी ...सचमुच जादुई पुस्तक है। एक बार पढना शुरु किया तो बीच में छोड ही नहीं सकी....जैसे- जैसे पुस्तक पढती जाती आँखों के सामने चलचित्र की तरह एक-एक घटना घूमने लगी। तुम्हारा बचपन सचमुच कष्ट दायक रहा परन्तु हमारे समय में तो अधिकतर बच्चों का बचपन ऐसा ही होता था...।घर से बेफिक्र हम कहाँ घूमते थे क्या करते थे किसी को खबर ही नहीं होती थी।...जितने खेल बचपन में तुमने खेले लगभग वही सब हमने खेले...परन्तु अभाव ने तुम्हें समय से पहले ही समझदार बना दिया। कितनी मशक्कत करनी पडती है पेट के लिए..कितनी पीडाओं से गुजरना पडता है। संसाधनों के अभाव में कैसे बच्चों की जिंदगी हाथ से निकल जाती है। ..विश्वास नही करोगे..पढते पढते आँसू निकल पडे..बार बार पढा..और आँसू पोंछती रही। ..सुना तो था गरीबी बहुत बुरी होती है...पढकर ऐसा लगा जैसे प्रत्यक्ष देख लिया। शब्द विन्यास भी ऐसा कि लगता ही नही कि हम किसी महान साहित्यकार की कृति पढ रहे हैं, ऐसा लगता है जैसे कोई साधारण व्यक्ति ही अपनी बात कह रहा हो। आपकी इस अमूल्य कृति ने दिलो दिमाग पर ऐसा असर किया कि कल से हम उन्हीं घटनाओं के बारे में सोचे जा रहे हैं। मानव जीवन दुर्लभ है तो उसे जीना और भी दुर्लभ...और सफल कृति वही जो दिलो दिमाग पर इस तरह छा जाये कि पाठक उससे निकल ही न पाये।
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9.
सच कितना ही कड़वा क्यों न हो उसे लिखा जाना चाहिए: - श्रीमती कृष्णा
"कल मैंने शाम को चार बजे किताब पढ़ना स्टार्ट की। मेरी बेटी क्षणिका चार बजे ट्यूशन जाती है और लौटकर पांच बजे आती है। कविता पढ़ते-पढ़ते मैं इतनी गहराई में जा चुकी थी कि मुझे पता ही नहीं चला कि क्षणिका दरवाजे पर आवाज लगा रही है। थोड़ी देर में मुझे खुद ही लगा कि दरवाजे पर कोई है, मैं उठकर गई तो क्षणिका थी। मुझे यह बात बहुत फील हुई। यह घटना स्वयं घटी है तो इसमें जरूर कोई बात है। ये जो कविताएं तुमने लिखी हैं, मुझे तो ऐसा लग रहा है कि तुमने तो अपना दिल ही निकालकर रख दिया कविताओं में। सच में, ये सब बातें लिखते हुए कितनी तकलीफ हुई होगी इसके; अंदाजा मुझे है। लिखने में जो तकलीफ हुई तो हुई, साथ ही सारे में सरेआम भी तो हो रहे हैं, इसकी मुश्किल अलग। नहीं तो आज का बच्चा तो ये कहेगा कि अगर मां आपके पैरों में चप्पल नहीं हैं तो तुम घर में ही बैठो। बाहर जाओगी तो हमारी बेइज्जती हो जाएगी। निकलने ही नहीं देगा घर से। लेकिन तुम्हारी मां की वे दो रंग की चप्पलें आपके लिए प्रेरणा बन गई और घर के हर हालात, हर चीज को आपने प्रेरणा के रूप में, बुक में उतारा है। जितनी भी लेडीज मेरे पास आ रही हैं वो बस कविताएं सुनकर हां, हां, ही कर रही हैं, नजर न लगे। मैंने उनको आपका सारा बायोडाटा बताया कि कैसे आज एक लड़का एक ऐसी पोस्ट पर पहुंच गया और उसने कब से अपने सारे हालात (अपने बचपन को) अपने माइंड में रखे हुए थे,और देखो! अब जाकर उसने कैसे पुस्तक में निकाले हैं। सबको ये हो गया कि दीदी आप ये बुक पढ़ लो और फिर हमें पढ़ने को दे देना। रोज की रोज ये देखने आ रही हैं लेडीज कि बुक मैंने पढ़नी खत्म की कि नहीं। मैंने उनसे कह दिया मुझे चैन से पढ़ने दो भाई! और सबको बहुत अच्छा लग रहा है। मैंने उनसे यही कहा कि सबसे ज्यादा ये बुक आजकल के बच्चों को पढ़नी चाहिए। और मुश्किल ये है कि आजकल के बच्चे पढ़ते नहीं हैं। उनको बस फोन चाहिए और फोन में तुम चाहे जो मर्ज़ी दे दो उसमें इंटरेस्ट ले लेंगे लेकिन पढ़ने में नहीं लेंगे। पढ़ने में तो वहीं लेगा जिसको कुछ समझ हो। मैं तो कहती हूं कि एक-एक घर के एक-एक बच्चे को ये बुक पढ़नी चाहिए। कोई तो फूल खिले इसे पढ़कर। सारी लेडीज मानती हैं कि आजकल के बच्चे समझते नहीं। वे सब मुझसे कह रही हैं कि जब वे (कवि) आएंगे तो दीदी हमें भी उनसे जरूर मिलवाना। मैंने कहा जरूर मिलवाऊंगी। कई तो, जिन्होंने मेरे खाना बनाते वक्त थोड़ी बहुत किताब पढ़ी तो उनको एक ललक हो गई है- ये बुक पढ़ने की। इसमें तो सबकुछ साफ सुथरे तरीके से लिखा गया है। वो कह रही हैं कि इतनी बड़ी पोस्ट पर जाने के बाद लोग अपनी पुरानी बातों को भूल जाते हैं या छुपाते हैं। मैंने कहा यहां इसने कुछ नहीं छिपाया। इतनी हिम्मत जल्दी से कोई कर नहीं पाता, जो अमित ने की है। इसलिए सच कितना भी कड़वा क्यों न हो, वह लिखा जाना चाहिए; वह थोड़ी देर के लिए कड़वा लगेगा लेकिन बाद में सुकून देगा। जब पढ़ते हुए हमें इतना दुख हो रहा है तो लिखते वक्त तुम्हें कितना हुआ होगा। पुस्तक में जो किरडी, खामोशी तथा दो रंग की चप्पलें कविताएं हैं, और जो मां बाप पर लिखी गई हैं; करीब करीब सबके मां बाप ऐसे ही होते हैं। लेकिन उसे महसूस करने वाला कोई-कोई बच्चा होता है। बच्चों के मन में पब्लिसिटी की लालसा है, वो चाहते हैं कि हमारे घर में पैसे हो न हो लेकिन हाथ में बारह हजार का मोबाइल होना चाहिए। बच्चों को यह महसूस करना चाहिए कि मां बाप के सच्चे दिल को कभी नहीं दुखाना चाहिए। यदि सच्चे दिल को एक बार ठेस लग जाती है तो फिर वह जुड़ नहीं पाता। जुबान भले ही कुछ कहे, मगर दिल से बच्चा कभी नहीं जुड़ पाता। आपके मम्मी पापा बहुत सौभाग्यशाली हैं जो ऐसा बेटा उनके घर खिला है। मैं इससे ज्यादा क्या कहूं कि जब तुमने इतना बड़ा काम किया है तो क्यों न हम भी तुझे कोई गिफ्ट दें। वह गिफ्ट चाहे एक लाइन का हो, दो लाइन का हो, चाहे चार लाइन का हो। मैंने तो तुम्हें अपना ही बेटा माना है, और कल एक औरत से तो मैंने तेरे बारे में ये कहा कि अगर मेरी डेथ हो जाए तो मुझे अमित का कंधा जरूर मिले। इतना सज्जन लड़का अमित है कि मैंने लाइफ में आज तक नहीं देखा। तो मैं आखिर में यही कहूंगी कि सच चाहे जितना कड़वा हो, उसे लिखा जाना चाहिए, जैसे तूने लिखा है।"
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10.
मैंने तो पढ़ी ही, मां ने भी पढ़ी पूरी किताब: नीरज सोदाई
"किताब मैंने तो पढ़ी ही, मेरी मां ने अलग से पढ़ी, पूरी किताब। सुबह सात बजे से ही पढ़ने बैठ गई थी किताब लेकर; देर रात्रि मैंने ही उनसे लेकर रखी। मां ने तो मुझसे भी ज्यादा आनंद लिया किताब में। मां जब "घास" वाली कविता पर अाई( क्योंकि उन्होंने भी डांगर पाल रखे हैं) तो उसमें दर्जनों प्रकार के घास का उल्लेख देखकर कहने लगी - भाई आधे घास के नाम का तो हमें भी नी पता, अमित जी को कुक्कर पता? अरी मका यही तो बात है डॉ साहब की! मां लगातार पढ़ती रही, पढ़ती रही; एक कविता पे आकर तो खूब हंसी। कविता में जहां नेकर वाली जगह पर खाज हो जाने की बात कही गई है, वहां पर। उसे पढ़कर मां ने कहा कि भाई! ये तो ज्यादातर सभी के साथ था पहले! बहुत यथार्थ है कविताओं में। मैंने जयप्रकाश कर्दम और प्रो. कैलाश नारायण तिवारी जी भूमिकाएं पढ़ी। दोनों ने बहुत अच्छा लिखा है - कविताओं के बारे में। आपकी कविताओं में कल्पना का सहारा कुछ भी नहीं लिया गया है। मुझे तो पढ़कर ऐसा लगा कि कहीं ऐसा न हो कि चेतन भगत कि तरह आप भी इतने प्रसिद्ध हो जाओ कि कभी हाथ भी न लगो। बहुत ही कमाल शब्दावली, भाषा सरल ऐसी कि अनपढ़ से अनपढ़ आदमी भी सुनकर एकदम समझ जाए। जो भी कविता पढ़ी जाती है, मूर्ति की तरह साकार हो उठती हैं। बहुत ही खूबसूरत ढंग से दर्शाया गया है ग्रामीण जीवन को इन कविताओं में। मैं तो पढ़कर गदगद हो गया और कायल भी हो गया इन कविताओं का। इतनी कमाल पुस्तक है कि मैं शब्दों में बता नहीं सकता। जो साहित्य से जुड़ा होगा उसे ये कविताएं बहुत पसंद आएंगी। ज्यादा नहीं तो थोड़ा बहुत तो हमारा भी साहित्य से जुड़ाव है इसलिए कविता की एक-एक पंक्ति बड़ा महसूस करके और मथ मथकर पढ़ी है। सर्दी की बारिश में रिजाई का निचोड़ना भीतर तक महसूस हुआ। मां पापा की हालत का बयान, एकदम यथार्थ चित्रण है। कविताओं में कोई चमत्कार आदि नहीं दिखाया गया है। यानी ऐसा कहीं नहीं लगता कि जैसे भाषा चमत्कारिक बना रखी हो- लोगों को या पाठकों को लुभाने के लिए। बिल्कुल सहज, सरल और नॉर्मल भाषा है। सामान्य से सामान्य आदमी( जो कम पढ़ा लिखा हो वो) भी बात को पकड़ सकता है, कविता को समझ सकता है। फॉर एग्जाम्पल हरपाल ने पढ़ी तो बहुत ही आसानी से पढ़ता चला गया। वह कोई ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं लेकिन हर एक कविता उसकी भी समझ में आती चली गई। इसलिए कविताओं में जो इस तरह की भाषा का प्रयोग हुआ है, बहुत ही अच्छी बात है। बड़ी बात ये भी है कि इस पुस्तक को पढ़ने वालों की लंबी कतार लग गई है। चाचा जी पड़ेंगे, संजय जी पढ़ेंगे, पर्वेंद्र और भोरे आदि पढ़ेंगे। ये सब अभी से मांगने लगे हैैं किताब। इस तरह सारे मोहल्ले वाले इस किताब को पढ़ना चाहते हैं। यहां तक कि मोहल्ले की लड़कियों के हाथों में भी जाएगी किताब। हमारे परिवार में जो पांच सात लड़कियां हैं, वे सब इस किताब को पढ़ने की बहुत इच्छुक हैं। इस किताब को लेकर तो मुझे लग रहा है कि आप आ गए डोली पर। क्योंकि दलित साहित्य में बहुत दिनों के बाद ऐसी किताब अाई है। वैसे तो बहुत से दलित लिख रहे हैं आजकल। दलित साहित्य की पुस्तकें भी बहुत छप रही हैं लेकिन इस किताब के जैसी नहीं।"
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11.
अत्यंत अनूठा रिश्ता बन गया है इस किताब के साथ: सुशील आदित्य
"जिस तरह से गांव में हमारा बचपन बीता, क्या सहेजकर, उसी शब्दावली में, उसी हिसाब से आपने उकेरकर रखा दिया है। वाकई बहुत बढ़िया कविताएं हैं। "दो रंग की चप्पलें" में क्या वर्णन किया है आपने मां का!! बहुत ही सच्चाई है, यथार्थ है, मारकता और भावुकता है सारी कविताओं में। रुंगा/लुभाया कविता में भी अद्भुत वर्णन किया है आपने बचपन का। गरीब दलित बच्चों का बचपन बिल्कुल ऐसा ही होता है। ये नहीं कि आज कुछ बदल गया है, गांव में आज भी इनका जीवन वैसा का वैसा ही है। मुझे ये कविताएं इतनी प्यारी लगी कि मैं बिल्कुल एकांत में समय निकालकर इन्हें फिर से पढ़ने का इच्छुक हूं; और पढूंगा। आपकी उक्त दो कविताएं पढ़ते जी मैंने महसूस किया कि ये पुस्तक मेरे संग्रहालय की सबसे बेस्ट पुस्तक है। दो रंग की चप्पलें कविता में कितने दुख की बात है कि मां को कल के बारे में सोचने का मौका ही कहां दिया उसके आज ने। मां आज भी को गरीबी में रहती है, वो आज भी बच्चाें को संभालती हैं। उसके बावजूद वो दो रंग की चप्पलें पहनती है या दोनों पैर में एक ही पैर की चप्पल पहनती हैं। ये भी बहुत गहरी बात लिखी आपने की मांग में भी सिंदूर तब ही लगता था जब कोई तीज त्योहार आता था। बहुत दिल में कंपन्न पैदा होता है, ऐसी ऐसी बातें सोचकर। देखने में तो बहुत सहज लगती हैं कविताएं लेकिन उनके अंदर गहराई और उनके अंदर छुपा दर्द हमें पता है क्योंकि हमने वो जीवन जिया है। आपने हर बात को वैसे ही लिखा जैसी थी। जैसे गांव में लोग दिमाग को डिमाक बोलते हैं, तो एक कविता में आपने दिमाग की जगह डिमाक ही लिखा। सबसे महत्वपूर्ण विषय मेरे लिए ये है कि आपने वो सब आप ए कैसे लिख दिया। कैसे चली गई आपकी सोच वहां पर कि उस पॉइंट को उठाओ जिसमें बचपन बीता है। वो को जीवन जीकर हम यहां तक पहुंचे हैं, उसे शब्दों में उकेरो, उसे किताब के रूप में लाओ। आपने क्या सोचकर ( क्या था दिमाग में आपके) कि आपने बचपन को इतना साकार कर दिया। मेरा तो सारा बचपन सामने आ गया आपकी दो कविताएं पढ़ते ही। जो कुछ आपने इन कविताओं में लिखा, इससे बेस्ट कुछ और नहीं मेरे निगाह में। जो आपने इस पुस्तक में लिख दिया वो ऐसा है कि आप समझ सकते हैं कि मैं दो कविताएं पढ़कर ही ना जाने कहां से कहां खो गया था। जो इस पुस्तक को पढ़ेगा ( जो वाकई पढ़ने वाला है) कुछ और ही हो जाएगा उस वक्त। पुस्तक पढ़ने के बाद उसके मोह और मन में इतना बदलाव हो जाएगा कि वो, वो नहीं रह जाएगा। ये सच्चाई है, ऐसा लगता है कि कब हमसे सीधे बात कर रही है और हम उसके साथ बहे चले जा रहे हैं। अत्यंत अनूठा रिश्ता बन गया है इस पुस्तक के साथ। अंतर्मन को झकझोरती हर एक कविता ने यथार्थ को आज सामने लाकर रख दिया। आपको बहुत-बहुत बधाई कि आपने ऐसी पुस्तक को पढ़ने का अवसर हमें प्रदान कराया। हम किन शब्दों में आपका धन्यवाद करें समझ नहीं आता। बस इतना समझ आता है कि आप हमारे बीच सदा यूं ही बने रहे और नई नई रचनाओं कविताओं से हमें जीवन की सच्चाई से अवगत कराते रहें।
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12.
बचपन की सच्चाई है इन कविताओं में: कृष्ण गोपाल वर्मा
"मैं देख रहा था पुस्तक! दो - तीन दिन हो गए देख रहा हूं। एक दो रोज पढ़ लेता हूं। बहुत अच्छी हैं कविताएं। यह भी बहुत अच्छी बात है कि आपने बचपन की यादें अब तक याद रखी हैं। हमारी भी यादें ताज़ा की हैं इन कविताओं ने। बचपन की सच्चाई है इन कविताओं में। आपने जो ये कविताएं लिखी हैं, वाकई बहुत अच्छी लिखी हैं। जो पढ़ेगा, उसे उस एज की, बचपन की याद आ जाएगी। जैसे कि अपने रूंगा/लुभाया के बारे में लिखा है, दूसरों के खेत से बथुआ तोड़कर लाते थे, पपैय्या फाड़कर बजाते थे और मेले के बारे में लिखा है। ये इस तरह की रचनाएं हैं जो गांव में ज्यादातर बच्चों के बचपन की बातें हैं। इन कविताओं में आया बचपन किसी जाति या वर्ग से जुड़ा नहीं है, करीब करीब आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों में बच्चों का बचपन ऐसा ही होता है। इसलिए बहुत ही अच्छी हैं रचनाएं आपकी! मैं तो शुरू वाले दिन ही आपकी पुस्तक उठाके पढ़ने लगा था। बच्चा जब तक नासमझ होता है तो उसे इस तरह की चीजों के बारे में ज्ञान नहीं होता है, लेकिन जब वह बड़ा हो जाता है तो उसे सब बातें याद आती हैं। आदमी पर जब समय आता है तो उसे सारे अनुभव होते हैं। सब मुंह देखे कि बात है कि सामने पड़ गए तो तू मेरा मैं तेरा, वरना कुछ नहीं है। मैंने देहरादून के अस्पताल में एक श्लोगन पढ़ा था - पैसा है तो how are you? नहीं है तो who are you? यानी पैसा है तो आपके पास रात के ग्यारह ग्यारह, एक एक बजे तक रिश्तेदार बैठे रहेंगे, बातें करेंगे, नाश्ता करेंगे। पैसा अगर नहीं है तो मिलने आने की तो बात ही छोड़ दो, बाज़ार में भी बचकर निकलेंगे। उनको लगेगा की कहीं उसे सता न दे, मदद के लिए सवाल न कर दे। इस तरह की बातें, सारे अनुभव होते हैं। बहुत अच्छी बात है कि आपने इन अनुभवों को लिखा। हम दोनों की तो शुभकामनाएं आपके साथ हैं...!"
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13.
ये कोई काल्पनिक कथा नहीं: अभिषेक त्यागी
"बड़े भाई अमित धर्म सिंह की पुस्तक ' हमारे गाँव में हमारा क्या है' अमेज़न से प्राप्त हुई और मैं ये ही कोई 18 साल पहले की स्मृति में खो गया I वाणी साहित्यिक संस्था से मैं नया नया जुडा था I मेरे साल भर बाद एक मासिक गोष्टी में एक इकहरे बदन का लड़का साईकिल पर आता हैं सबको प्रणाम करने के बाद वो गोष्टी में बैठ जाता हैं और हम लोगो से उसका परिचय ऐसे ही होता है जैसे किसी नए साहित्यलोलुप व्यक्ति से दुसरे साहित्यालोलुप व्यक्ति का , धीरे धीरे समय बीतता है I वक़्त के सख्त रास्तो पे चलता हुआ वो लड़का आज का अमित धर्म सिंह है I उसकी भोगी गई पीड़ा , कष्ट, सुख , दुःख, मिलना, बिछुड़ना, लड़ना, झगड़ना सब इस पुस्तक के 168 प्रष्ठौ में कैद है I मुझे न जाने क्यों ऐसा लगता है की ये समस्त भोगा हुआ केवल 168 पन्नो पर आ भी नहीं सकता लेकिन अमित धर्म सिंह ने जो जिया है और जिस आग में वो जला है उसमे से निकल कर वो एक दम खरा सोना बन गया है I साहित्य के इस संसार में मेरे बहुत सारे मित्र और मार्गदर्शक हैं Iउनमे अमित धर्म सिंह का नाम सबसे पहले लिया जा सकता है I ' हमारे गाँव में हमारा क्या है ' पुस्तक कवि के जीवन में जिए गए क्षणों का सजीव चित्रण है, ये कोई काल्पनिक कथा नहीं जिसमे सब कुछ बहुत सुंदर होI इसमें जो लिखा गया है वो समझने वाला भी है और कई लोगो को चुभने वाला भी I
किसी भी पुस्तक पर त्वरित प्रतिकिर्या देना मुझे पुस्तक के साथ न्याय नही लगता I पुस्तक में छपी कुछ रचनाये तो कई दिनों तक आपको झकझोर कर रख सकती हैं इसलिए जब सारी रचनाये आपके ख़ून में ना मिल जाएँ तब तक उनपे कुछ लिखना ठीक नहीं I पुस्तक हाथ में लेने के बाद ये केवल मेरी पहली प्रतिक्रिया है I लेखक ने जो भोगा सो इस पुस्तक में लिखा जा चूका है एक पाठक क्या महसूस करेगा इस भोगे हुए को भोग कर ? बस उसी सीमा तक पहुचकर मै भाई अमित धर्म सिंह की पुस्तक पर विस्तार से समीक्षा करूँगा I तब तक भाई अमित धर्मसिंह को इस अच्छे प्रयास के लिए कोटि कोटि शुभकामनाये I"
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14.
पढ़ते हुए आंखों से आंसू आ गए: प्रवेश कटारिया
"अमित धर्मसिंह जी आपका दिल से आभार! आपने इस किताब के जरिए बचपन को याद दिलाया। किताब को पढ़ते - पढ़ते आंखों से आंसू आ गए। जो वक्त मां बाप के साथ, बुरे वक्त में गुजारा है, सब दोहरा सा गया। ये किताब हर उस व्यक्ति के लिए है जो गांवों में दबे कुचले लोग हैं। मेरी दिल से दुआ प्रार्थना है कि आपकी ये किताब आसमान की बुलंदियों को छुए।"
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15.
जूठन की तरह लोकप्रिय होगी यह किताब: सुभाष भारती
"किताब खोलते ही जब पहली कविता पढ़ी तो कम से कम पच्चीस - तीस पन्ने पढ़ने के बाद ही रुका। ऐसा मन कर रहा था कि लगातार सारी पढ़कर ही रखूं। मेरा यह अनुमान है कि यह किताब "जूठन" की तरह ही लोकप्रिय होगी। जूठन का राइटर भी दलित है और आप भी। आपने गांव का को चित्रण किया है; भई गजब है!! जो आपने लिखा है, वो सब चीजें तो उन्हें भी याद आती हैं जो गांव के क्षेत्र से संबंधित हैं। लेकिन उन चीज़ों को एक सूत्र में पिरोना तो कोई आपसे सीखे। गांव के जीवन की जिन छोटी छोटी चीजों को आपने जैसे शब्दों में पिरोया है, सबके वश की बात नहीं है। इसमें आपने वाकई तारीफ के लायक काम किया है।"
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16.
आपकी पुस्तक समाज में एक प्रेरणा बनेगी: मनोज वाल्मीकि
"मन खुश हो गया किताब पढ़कर। बचपन की एक-एक बात आपने ऐसी पिरोई है कि गजब। जैसे दो रंग की चप्पलें वाली बात हो या नाना द्वारा अपनी कच्ची-पक्की फौज को भट्टे पर ले जाने वाली बात हो; एक-एक बात आपने ऐसी लिख दी कि उसे शब्दों में क्या बयान करूं। रूंगा कविता; सुबह जब चिन्नी लेने जाते थे, बिल्कुल ऐसा ही हमारे साथ हुआ है। यानी हमारे साथ बचपन में जो घटना घटी, आपने वो सारी चीज़ें याद दिला दी। वास्तव में किन लफ्जों में शुक्रिया अदा करूं मैं आपका! साहित्य में आज तलक ऐसा पढ़ा नहीं। ऐसा तो बिल्कुल नहीं पढ़ा जितना की नित्तर जल करके आपने लिखा है। बड़े-बड़े लेखक हुए पर सबने छुपाई ऐसी हक़ीक़त। आप पढ़े और सही मायनों में आपने अपने मां बाप के प्रति, अपने पुत्र होने का हक अदा कर दिया। मां बाप के प्रति हो, परिवार के प्रति हो या अपनी पढ़ाई के प्रति; आपने सारे कर्तव्य बढ़िया तरह निभाएं। आप बहुत ही चूजी रहे; परिवार के बारे में, अपनी पढ़ाई आदि के बारे में। सामजीक दृष्टि से आपको बहुत नॉलेज है! बहुत ज्यादा!! आपने वास्तव में शिक्षित होकर ज्ञान लिया है। कुछ तो कह ही देते हैं कि आगे देखो, पीछे मत देखो; मगर आपको आज भी अतीत कि एक-एक बात हूं ब हूं याद है। आपकी पुस्तक समाज में एक प्रेरणा बनेगी।"
17.
डाॅ अमित कुमार का "हमारे गांव में हमारा क्या है " बहुत ही मार्मिक कविता संग्रह है जो प्रसिद्ध कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि का काव्य "ठाकुर का कुँआ " की प्रश्नशैली से वास्ता रखता है। वे कविता के माध्यम से कहते है कि-
" ये खेत मलखान का है
वो ट्यूबवेल फूल सिंह की है
ये लाला की दूकान है
वो फैक्ट्री बंसल की है
ये चक धुम्मी का है
वो ताप्पड चौधरी का है
ये बाग खान का है
वो कोल्हू पठान का है
ये धर्मशाला जैनियों की है
वो मंदिर पंडितों का है
कुछ इस तरह जाना हमने अपने गांव को।
हमारे गाँव में हमारा क्या है!
ये हम आज तक नहीं जान पाए।"
इस कविता की पंक्तियाँ ही हमें कुछ सोचने के लिए मजबूर करती है कि आखिरकार हमारा अस्तित्व गांवों में है या नहीं? कवि ने बड़ी सिदृतता से अपने समाज के अस्तित्व को नापा है। इस कविता में अमित जी ने गांवों की खोखली मानसिकता को बेनकाब किया है और ग्रामीण जीवन की त्रासदी को शब्दबद्ध किया है। कवि ने
आजादी के बहत्तर साल के बाद भी ग्राम जीवन की हालात आज भी वैसी की वैसी है। इसका बड़ा ही मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है। इस संग्रह में कुलमिलाकर 44 कविताओं को शब्दबद्ध किया है । सभी कविताओं में कवि ने अपना दर्द व्यक्त किया है। जो अपना ही नहीं बल्कि पूरे समाज का दर्द है जो सदियों तक शाश्वत है ।
मैं डाॅ अमित जी को बहुत बहुत बधाई सह अभिनंदन देता हूँ उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ कि वे भविष्य में भी साहित्य सृजन करके दलित साहित्य को और समृद्ध करे।
@ डाॅ खन्नाप्रसाद अमीन
काव्य संग्रह -हमारे गांव में हमारा क्या है
कवि -डाॅ अमित कुमार
प्रकाशन -बोधि प्रकाशन, जयपुर
संस्करण -2019
मूल्य -175
दिनांक:12 अगस्त , 2020
18.
समीक्षा का एक रूप यह भी...
हमारे गांव में हमारा क्या है! की दोहा समीक्षा
समीक्षक : देवीचरण सिंह 'पथिक ', बुलंदशहर।
पथिक हमारे गांव में, है क्या रहा हमार?
सबकुछ तो है और का, पता नहीं तोहार?।1।
घर से लेकर खेत तक, औरों के हैं मित्र।
अपने ही समझा करे, जो भी बात विचित्र।2।
औरों के ही खेत से, तोड़ा गन्ना, साग।
आलू बीने शौक से, बुझी पेट की आग।3।
औरों के ही खेत में, कर मजदूरी यार।
जैसे - तैसे दोस्तों, पाला है परिवार।4।
जिस कच्चे घर में रहे, वह भी तो था ग़ैर।
फिर भी तो परिवार हित, मांगी सबकी ख़ैर।5।
महनत - मजदूरी करी, हर दिन सुबहो शाम।
इक पल भी पाया नहीं, कुछ सुख या आराम।6।
खूब सहा परिवार हित, कभी-कभी अपमान।
इसको मजबूरी कहें, या किस्मत श्रीमान।7।
ये बाड़ा मलखान का, लाला की दूकान।
बंसल की है फैक्टरी, मालि के बाग़ बगान।8।
फूलसिंह जी की रही, बंधुवर ट्यूबबेल।
कोल्हू रहा पठान का, है अपने क्या गैल।9।
ताप्पड़ चौधरी साब का, धुम्मी का चक यार।
अपने हिस्से कुछ नहीं, हम सचमुच बेकार।10।
पंडितों के मंदिर रहे, हम क्या बोले बैन।
व धर्मशाला को कहें, अपनी सारे जैन।11।
कुछ इस तरह जान सके, हम तो अपना गांव।
जहां ठहरने का नहीं, अपना कुछ भी ठांव।12।
रहा हमारे गांव में, अपना क्या श्रीमान।
आज तलक ये बात भी, नहीं सके हम जान।13।
बचपन के पकवान को, कैसे जाएं भूल।
जिसने हम को सुख दिया, अपने ही अनुकूल।14।
खूब पढ़ाई टोटके, अजमाते थे यार।
जो अपने विश्वास से, नहीं गए बेकार।15।
रुंगा लुभाव को भला, कैसे जाते भूल।
मिलता रहा दुकान से, सौदा पर अनुकूल।16।
मेला देखन भी गए, ले रुपए दस पांच।
इक चक्कर में ही किए, खर्च सभी है सांच।17।
अब क्या कहे ज़मीन की, दिलवा भी दी मित्र।
फिर भी छिनी नसीब से, घटना चित्र - विचित्र।18।
आलू का ठप्पा बना, मारा करके गर्व।
रंगों का त्योहार था, भैया होली पर्व।19।
घास खोदते-काटते, सब खेतों से मित्र।
ये तो सबके साथ था, फिर क्या बात विचित्र।20।
बचपन से युव उम्र तक, जितने भी थे काम।
संग्रह में श्री अमित ने, चित्रित किए तमाम।21।
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#काव्य संग्रह : हमारे गांव में हमारा क्या है!
कवि : अमित धर्मसिंह
समीक्षक : देवीचरण सिंह 'पथिक', बुलंदशहर
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर
पृष्ठ : 168
मूल्य : 175/₹
19.
इस कविता संग्रह की रचनाएँ हमें ग्राम्य जीवन शैली के बारे में सोचने के लिए मजबूर करती है और सवाल करती है कि हमारा (दलितों) का अस्तित्व गांवों में है या नहीं? इस कविता संग्रह में अमित जी ने गांवों की खोखली मानसिकता को बेनकाब किया है और ग्रामीण जीवन की त्रासदी को शब्दबद्ध किया है।
नरेंद्र वाल्मीकि, अध्यक्ष, साहित्य चेतना मंच
■ पुस्तक : हमारे गांव में हमारा क्या है (कविता संग्रह) कवि : अमित धर्मसिंह | प्रकाशन : बोधि प्रकाशन, जयपुर (राजस्थान) | वर्ष : 2019 | मूल्य : ₹175 | पृष्ठ : 168
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