डिप्रेस्ड एक्सप्रेस के नवंबर 2021 के अंक में प्रकाशित मुकेश मानस पर लिखा मेरा संस्मरण


संस्मरण

               मानस के मुकेश : मुकेश मानस

                                           डॉ. अमित धर्मसिंह

             बात सन् 2015 की है जब मैंने मित्र मनोज कुमार के कहने पर अपना एक शोध पत्र ‘हिन्दुत्व के प्रति प्रभाष जोशी का दृष्टिकोण’ मगहर पत्रिका में प्रकाशित होने के लिए यह कहते हुए भेजा था कि यह शोध पत्र पहले भी दो पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के लिए भेजा जा चुका है, लेकिन किसी ने छापा नहीं। शायद 2014 के बाद जो राजनीतिक परिस्थितियां बदली उसका साहित्य और साहित्यकारोें पर भी गहरा असर हुआ था। बहरहाल! अप्रैल 2015 में मगहर का नौवा अंक प्रकाशित होकर आया। अकादमिक बाध्यता के चलते इसमें मेरा शोध पत्र मेरे अकादमिक नाम अमित कुमार के नाम से प्रकाशित हुआ था। यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ कि जिस शोध पत्र को किन्हीं दो पत्रिकाओं ने स्थान नहीं दिया उसे मगहर ने अनुक्रम में दूसरे ही स्थान पर प्रकाशित किया है। मगहर के संपादक से कोई परिचय नहीं था, इसलिए उनके प्रति कृतज्ञता भाव तो जागृत हुआ लेकिन संपादक के विषय में जानने की कोई खास रूचि जागृत नहीं हुई। बस इतना ही जाना कि मगहर का संपादन मुकेश मानस करते हैं। बाद में यह नाम भी स्मृति में धुंधला पड़ गया। मगर इसी वर्ष जून में मेरी मुलाकात गीता कृष्णांगी से हुई। गीता हिन्दी दलित कहानियों का समाजशास्त्रीय अध्ययन विषय पर पीएच.डी. कर रही थी। हमारा परिचय बढ़ा तो हिन्दी दलित कहानीकारों और कहानी संग्रहों से भी परिचय बढ़ा। मुकेश मानस जी का कहानी संग्रह ‘उन्नीस सौ चैरासी’ इसी वर्ष के अन्त में सामने आया। एक दो कहानियां पढ़कर देखी गयी। जिनमें शीर्षक कहानी के अलावा ‘पुण्य स्मृति’ और ‘जमीण खात्तर’ उल्लेखनीय हैं। कहानियां पढ़कर मुकेश मानस नाम की पुरानी और धुंधली-सी स्मृति जैसे चमक उठी। फिर क्या था जब भी अवसर मिला उनकी कोई न कोई कहानी पढ़ मारी। कहानियां पढ़कर अहसास हुआ कि कहानी दलित समाज की सामाजिक त्रासदियों को विषय बनाकर लिखी गई हैं। यानी इनमें कुछेक प्रेम कहानियों को छोड़कर अधिकतर ऐसी कहानियां हैं जिनमें दलित के निजी और सामाजिक जीवन में आने वाली परेशानियों को दर्ज किया गया है। ज्यादतर कहानियां समाज में घटित ऐसी घटनाओं पर आधारित हैं जिनमें दलितों पर अत्याचार हुए हैं। ये अत्याचार जितने विविध आयामी हैं, कहानियां भी उतने ही आयामों केे इर्द गिर्द बुनी गयी हैं। सन् 2005 में स्वराज प्रकाशन से प्रकाशित मुकेश मानस के इस एकमात्र कहानी संग्रह में कुल पन्द्रह कहानियां शामिल हैं। जिनके शीर्षक क्रमशः पुण्य स्मृति, जमीण खात्तर, उन्नीस सौ चैरासी, सूअर, खून के धब्बे, अभिशप्त, खूबसूरत लडकी, रमजन चाची, डाक्टर साहनी, कालिखपुता, बड़ा बेटा, आंख में कांटा, केवल छूना चाहता था, लंबे हाथ और आत्मिक हैं। इन तमाम कहानियों में एक दो को छोड़कर बाकी में दलित समाज के यथार्थ को बेबाकी से दर्ज करने का प्रयास किया गया है। कहानी की परिसीमाओं को देखते हुए पात्रों के नाम और कुछ प्रसंग थोड़े बहुत बढ़ाये अथवा घटाये गये हैं। इन कहानियों में कथा शिल्प और भाषा की कसावट के साथ घटनाओं को साकार कर देने की पर्याप्त क्षमता मौजूद है। कहानियों में सांस्कृतिक शब्दावली और पर्व त्योहार आदि को ज्यों का त्यों दर्ज किया गया है, उनके प्रति किसी प्रकार का वैचारिक आग्रह नहीं बरता गया है। इससे ज्ञात होता है कि कहानियों में दलित समाज के प्रति बरते जाने वाले बरताव को ही नहीं अपितु दलित समाज की वास्तविक स्थिति, परिस्थिति और अंतर्द्वंदों को भी वास्तविक रूप में सामने रखने का प्रयास हुआ है। ‘पुण्य स्मृति’ में गौ चमड़ा ले जाने के शक में पुलिस द्वारा पांच दलितों को मारे जाने का हृदय विदारक चित्रण हुआ है, तो ‘उन्नीस सौ चैरासी’ में सिखों को मारे जाने की क्रूरतम त्रासदी को जीवंत रूप में प्रस्तुत किया गया है। कुल मिलाकर ज्यादातर कहानियां दलितों के साथ हुए सामाजिक शोषण अथवा किसी वास्तविक घटना पर आधारित हैं। मुकेश मानस के शब्दों में ही कहे तो "इस संग्रह की कहानियां हमारे समय, समाज और व्यक्ति की टकराहटों और अन्तर्विरोंधों की अभिव्यक्ति हैं। ये टकराहटें और अन्तर्विरोध वैयक्तिक भी हैं और सामाजिक भी। रोमानी भी हैं और वास्तविक भी। हो सकता है कि ये बहुत ज्यादा स्पष्ट और तीखी न हों मगर इन टकराहटों और अन्तर्विरोधों का संबंध हमारे समय की भयावह सच्चाइयों से हैं, इसलिए इनका होना महत्तवपूर्ण है।" इसमें कोई दो राय नहीं कि इन कहानियों का असर अक्षुण्ण रहता है। दो हजार पन्द्रह में पढ़ी  गयी मुकेश मानस की ये कहानियां आज तक मेरे मानस में विचरण किया करती हैं। भले ही ये सारी हूबहू याद न रही हों लेकिन इनकी काॅमन स्मृति से पीछा छुड़ाना किसी भी संवेदनशील पाठक के वश की बात नहीं है। इन्हीं स्मृतियों के सहारे मुकेश मानस पाठक के मानस में गहरे पैठ बना लेते हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। अपनी कहानियों के माध्यम से मुकेश मानस और उनकी कहानियों की ठोस स्मृतियां मेरे मानस में गाहे-बगाहे विचरण करती रहीं।  

         सन् 2020 का मार्च आ गया। इसी समय वैश्विक आपदा कोरोना महामारी आयी और देश में 24 मार्च 2020 को पहला लाॅकडाउन लग गया। जनसामान्य का जीवन इससे बुरी तरह प्रभावित हो उठा। रोजमर्रा के कमाने-खाने वाले लोग महामारी से फैली बीमारी के अलावा बेरोजगारी, भुखमरी और इलाज आदि के अभाव में बेतहाशा मारे जाने लगे। देश के लिखने-पढ़ने वालों का ध्यान इस तरफ जाना था, सो गया। सभी लेखक और कविगण कोरोना से उपजी त्रासदी पर कलम चलाने लगे। एक से बढ़कर एक त्रासदी सामने आने लगी। क्रंदन और त्राहिमाम की आवाज से सोशल मीडिया गूंज उठा। जिसको देखो वही कोरोना महामारी से उपजे दर्द को बयान कर रहा था। इसको देखते हुए जून के मध्य कोरोना काल में दलित कविता पुस्तक संपादित व प्रकाशित करने का विचार आया। जिसके संदर्भ में तुरंत ही रचना आमन्त्रण की सूचना सोशल मीडिया पर लगा दी गई। दलित रचनाकारों की ओर से बेशुमार रचनाएं मेल पर प्राप्त होने लगीं। आये दिन कई-कई फोन आने लगे। एक दिन, दिन ढले एक फोन और आया। हैलो! अमित मैं मुकेश मानस बोल रहा हूं। पहले ही वाक्य में गजब का अपनापन समाहित था। यद्यपि इससे पहले मुकेश मानस से कभी बात न हुई थी। लेकिन जो आदमी भीतर से जितना अच्छा होता है उसे बाहर से दुनिया भी उतनी ही अच्छी नजर आती है। प्यारे इंसान की भाषा और बोलने का लहजा भी बडा प्यारा होता है। व्यवहार में चालाकी बरतने वाले ज्यादा दिन टिक नहीं पाते। मुकेश मानस से उस दिन पहली बार में ही फोन पर एक घंटे से अधिक देर तक बात हुई लेकिन कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि आज पहली बार बात हो रही है। आप इसे, मुझ पर पहले से मुकेश मानस और उनकी कहानियों का असर मान सकते हैं, लेकिन उनकी बातचीत का बतरस और भाषिक गठन ही ऐसा था कि घंटे भर से ज्यादा बात चलने पर भी कहीं बोरियत का भाव पैदा नहीं हुआ। हां बीच-बीच में उनके द्वारा बोले जा रहे अंग्रेजी वाक्यों को समझने में जरूर थोड़ी परेशानी महसूस हो रही थी, जिसे शायद वे भी समझ रहे थे, तभी तो अधिक जटिल अंग्रेजी का अर्थ हिन्दी में बता देते थे। साहित्य और समाज से जुड़ी दुनियाभर की बातें हुईं। इसी में उन्होंने अपनी कई प्रकार की व्यक्तिगत परेशानियों के बारे में बताया और कहा कि अमित मैंने कोरोना से संबंधित कई कविताएं लिखी हैं। लेकिन मेरी मनोदशा उन्हें एकत्रित कर आपको भिजवाने की बिलकुल नहीं है। जबकि मैं आपको कविताएं भिजवाना चाहता हूं। अगर आपको बुरा न लगे तो क्या आप मेरी उन कविताओं को जिनको कि मैंने अपनी फेसबुक वाल पर समय-समय पर पोस्ट किया है; वहीं से उठा लेंगे? मैं ऐसा आग्रह इसलिए कर रहा हूं कि फेसबुक पर मैं और आप काफी समय से मित्र हैं, इसलिए आपको थोड़ा कष्ट तो अवश्य करना पड़ेगा लेकिन कोरोना से रिलेटिड कुछेक कविताएं आपको अवश्य मिल जायेंगी। लगातार मिल रही रचनाओं और फोन काॅल्स के कारण यह काम करना उस समय थोड़ा मुश्किल जान पड रहा था, फिर भी मैंने हां भर दी। इस हां के भरे जाने में मुकेश मानस का साहित्य सृजन और बातचीत में महसूस किया गया अपनापन ही था। लिहाजा उनका फेसबुक पेज खंगाला गया और कोरोना महामारी से संबंधित उनकी चार कविताओं का चयन कोरोना काल में दलित कविता संकलन के लिए कर लिया गया। ये कविताएं कोरोना काल एक, दो, तीन और चार शीर्षक से लिखी गयीं थीं। कविताएं इतनी सटीक और कसी हुई थी कि पढ़कर एक-एक शब्द ऐसा लगता था, जैसे कि कविता में शब्द लिखे नहीं गये बल्कि करीने से टांके गये हैं। भाषा जितनी मितव्ययी विचार और अनुभूति उतनी ही विस्तृत। हाथ की लिखावट भी बाकमाल। कविताओं ने हर एंगल से मन मोह लिया। कोरोना काल-तीन कविता की एक बानगी देखिए- "मध्यवर्ग डर से मरेगा/ और श्रमिक वर्ग भूख से/ बीच के कुछ लोग मारे जायेंगे कोरोना से/ बचेंगेे सिर्फ पूंजीपति और माननीय नेतागण/नए उपभोक्ता और नई जनता तलाश करते हुए।"        

          पहले लाॅकडाउन से लेकर 30 जून 2020 तक के पांचवे लाॅकडाउन तक मुकेश मानस जी से फोन पर कई बार लम्बी-लम्बी बातें हुई। वे कई साहित्यकारों का जिक्र करते और उनके रचनात्मक कर्म पर बेबाकी से प्रकाश डालते। डा. तेज सिंह तेज की आलोचना और रत्नकुमार सांभरिया की कहानियों की तो भूरि भूरि प्रसंशा किया करते। वे संपादकीय कर्म और पुस्तक में स्तरीय रचनाओं को शामिल किए जाने की, बिन मांगी सलाह देते। कहते कि पुस्तक अथवा पत्रिका में रचना को छापना चाहिए, रचनाकार को नहीं। उनकी सलाह बेमानी न थी, उन्होंने मगहर के इतने सुन्दर और स्तरीय अंक जो संपादित किये थे। उनके द्वारा संपादित मगहर के सभी अकं महत्तवपूर्ण हैं लेकिन दलित बचपन और डॉ. रजनी अनुरागी के साथ मिलकर निकाला गया डॉ. तेजसिंह तेज पर केन्द्रित मगहर का वृहत विशेषांक ये दोनों अंक अपना ही साहित्यिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व रखते हैं। लाॅकडाउन के दौरान उनसे हुई बातोें में घर परिवार से लेकर साहित्य समाज तक के विषयों का सहज विस्तार होता था। लाॅकडाउन खत्म होने पर उन्होंने मुझे अपने घर पर बुलाने की पेशकश की थी। उन्होंने यह भी बताया था कि वे जल्दी से किसी को अपने घर नहीं बुलाते हैं और न ही किसी को अपने घर का पता देते हैं। जिसको भी मुझसे मिलना होता है उसे मैं सत्यवती काॅलिज में ही बुला लेता हूं। या फिर कोई और मिलने की जगह तय कर ली जाती है। चूंकि सत्यवती काॅलिज में वे हिन्दी के एसोसिएट प्रोफेसर पद पर कार्यरत थे इसलिए ज्यादातर वे काॅलिज के हिन्दी विभाग का पता ही रचना प्रकाशन के साथ दिया करते थे। लाॅकडाउन में एक दिन फोन पर उन्होंने खुद के कोरोना पीड़ित होने की बात भी कही, लेकिन उससे वे उभरने में कामयाब रहे। इधर जून के खत्म होते ही लाॅकडाउन खत्म हुआ तो कोरोना काल में दलित कविता संकलन के प्रकाशन की गति प्रत्यक्षतः तेज कर दी गई। जिसका सुपरिणाम यह निकला कि पुस्तक उसी वर्ष नवम्बर में शिल्पायन प्रकाशन से छपकर आ गयी। इसकी सूचना मुकेश मानस जी को भी दी गई, जिसकी उन्होंने सहर्ष बधाई दी और पुस्तक डाक से न भेजने के लिए कहा। वे चाहते थे कि पुस्तक लेकर मैं उनसे मिलने उनके आवास पर जाऊं। इस बहाने मुलाकात, बात और साथ में एक-एक कप चाय भी हो जायेगी। लेकिन उसके बाद मैं अपनी सिस्टर की शादी में ऐसा उलझकर रह गया कि बमुश्किल अगले वर्ष यानी 2021 के अप्रैल में फुरसत हो पायी। मगर कोरोना का अजाब कभी कम कभी ज्यादा सामाजिक जीवन, संबंधों व संपर्कों को बुरी तरह प्रभावित किये रहा। नतीजा यह रहा कि मुकेश मानस से तो क्या, करीब-करीब सभी सुपरिचितों से बात और मुलाकात में एक लम्बा गैप आता चला गया।          

          फिर अचानक 4 अक्टूबर 2021 दिन सोमवार को ईश कुमार गंगानिया की फेसबुक वाल से मुकेश मानस के गुजर जाने की खबर मिली। मैं भीतर से हिल गया। बस एक दिन पहले ही तो एक और हृदय विदारक घटना की सूचना मिली थी। मेरे ताऊ जी के लड़के की लड़की को ससुराल वालों ने पीट-पीटकर जान से मार दिया था। अभी इस असह्य दुख से उभरना भी न हुआ था कि अगले ही दिन यह दुखद खबर मिली। भतीजी तो दिल्ली से काफी दूर थी, इसलिए वहां तो अचानक से जाना न हुआ लेकिन मुकेश मानस तो दिल्ली में ही थे। इसलिए उनके अंतिम दर्शन को मन बेचैन हो उठा। सोशल मीडिया से ज्ञात हुआ कि उनका दाह संस्कार पंजाबी बाग के श्मशाम घाट पर पांच से छह बजे के बीच होगा, तो सीधे वहीं पहुंचना उचित समझा। वैसे भी अभी तक उनका आवास देखा ही कहां था। खबर लगने के करीब एक घंटे बाद घड़ी में साढ़े चार बज चुके थे। बगैर समय गंवायें मैंने और गीता ने यथारूप पंजाबी बाग के लिए बाइक निकाल ली और मन की व्याकुलता के अनुरूप बाइक को दौड़ाये पहुंच गये पंजाबी बाग के मुर्दाघाट। जहां बाहर की तहफ फुटपाथ पर डॉ. नामदेव जी खड़े मिले। लगा कि हम ठीक पहुंच गये। बाइक खड़ी की। नामदेव जी से बात की तो पता चला कि मुकेश मानस जी को यहां नहीं अपितु कश्मीरी गेट स्थित श्मशान घाट निगमबोध पर दाह संस्कार के लिए ले जाया जायेगा। यहां पर आना अचानक कैंसिल हो गया है। हमें लगा कि शायद अब हम अंतिम दर्शन नहीं कर पायेंगे। क्योंकि करीब साढ़े पांच तो बज ही चुके हैं और अब यहां से निगमबोध जाने में कम से कम एक घंटा तो लग ही जायेगा। इसलिए लगा कि जाना कैंसिल कर देना चाहिए, लेकिन मन नहीं माना और हमने निगमबोध की तरफ बाइक दौड़ा दी। बीच में जाम और बाइक में तेल खत्म होने की परेशानी से जूझना पड़ा। मगर हम करीब साढ़े छह बजे निगमबोध घाट पहुंच गये। जहां परिजन मुकेश मानस को लेकर अभी नहीं आये थे, लेकिन काफी साहित्यकार वहां जमा थे और कुछ लगातार आ रहे थे। डॉ. कुसुम वियोगी, डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन, डॉ. रजतरानी मीनू, डॉ. टेकचंद, ईशकुमार गंगानियां, संतराम आर्य, अनिता भारती, डॉ. नामदेव, डॉ. नीलम, सतीश खनगवाल, अरूण कुमार, अरुण प्रियम, दिलीप कठेरिया, हीरालाल राजस्थानी, सुनीता राजस्थानी, रजनी दिसौदिया आदि गणमान्य परिचित दलित साहित्यकार मौजूद थे। सभी को मुकेश मानस के अंतिम दर्शन की चाह थी। सभी अपने-अपने मानस में बसे मुकेश मानस को याद कर रहे थे। कुछेक विषयांतर करके अपने स्वभाव अनुरूप भी बातें कर रहे थे। जिनमें मृत्युबोध, दलित साहित्य, समाज और संगठनों के गठन तथा विखंडन आदि के विषय समाहित थे। हाल ही में यानी 14 सितम्बर 2021 को बने दलित साहित्यकारों के नए सगंठन नव दलित लेखक संघ का चर्चा भी दबी जबान में ही सही, पर उफान पर था। इस संदर्भ में हमारी भी ईश कुमार गंगानिया, डॉ. कुसुम वियोगी और सुनीता राजस्थानी जी से सारगर्भित बातचीच हुई। 

         करीब एक घंटे के इंतजार के बाद आखिर वह घड़ी आ पहुंची जिसके लिए सब देर रात्रि निगमबोध घाट जैसी भयावह जगह पर एकत्रित थे। बीसियों मिनट के औपचारिक संस्कार के बाद सबको मुकेश मानस के दर्शन हो पाये। सर से लेकर पांव तक सफेद कफन में लिपटे मुकेश मानस का केवल थोड़ा-सा चेहरा ही उघाड़ा गया था। शांत, सौम्य चेहरा, पलके बंद देखकर लग ही नहीं रहा था कि इतनी मधुुर और अपनत्व की बातें करने वाला आज इतने अपनों के बीच इस तरह खामोश लेटा रह सकता है। सब मन ही मन मुकेश से जुड़ी यादों मुलाकातों से एकला संवाद कर रहे थे। मगर अफ़सोस कि मुकेश मानस हमेशा के लिए सबसे संवाद को विराम दे चुके थे। सुनने में आया कि उन्हें गंभीर किस्म का पीलिया हुआ था, जिसके इलाज के लिए वे किसी अस्पताल में भर्ती भी थे, किन्तु अचानक आये हार्ट अटैक को उनका कमजोर और अनीमिया से पीड़ित शरीर बर्दाश्त नहीं कर पाया और वे अपने विचार, अपनी अनुभूति और अपने यश को अपनी कृतियों में बसाकर हमेशा के लिए चल बसे। दो दिन बाद रत्नकुमार सांभरिया जी से मुकेश मानस के विषय में विस्तार से बात हुई। उन्होंने मुकेश जी के बारे में लिखने को कहा। जिसका प्रतिफलन इस लेख के रूप में सामने है। मुकेश मानस के बारे में थोड़ा और जानने की कोशिश कि तो ज्ञात हुआ कि उनका जन्म 15 अगस्त 1973 को उत्तर प्रदेश के जिला बुलंदशहर में हुआ था। दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएच.डी. करने के बाद सन् 1999 में वे दिल्ली विश्वविद्यालय के ही सत्यवती काॅलिज में असिस्टेंट प्रोफेसर हो गये थे। सन् 2001 में उनका पहला कविता संग्रह ‘पतंग और चरखड़ी’ प्रकाशित हुआ। सन् 2003 में कांचा इलैया की पुस्तक ‘व्हाई आई एम नाॅट ए हिन्दू’ का हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित हुआ। सन् 2005 में उनके अनुवाद की दूसरी पुस्तक एम. एन. राय की पुस्तक ‘इंडिया इन ट्रांजिशन’ प्रकाशित हुई और इसी वर्ष उनका पहला कहानी संग्रह ‘उन्नीस सौ चैरासी’ स्वराज प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। सन् 2006 में ‘मीडिया लेखन : सिद्धांत और प्रयोग’ पुस्तक प्रकाशित हुई, जो खासी चर्चित रही। सन् 2010 में उनका दूसरा कविता संग्रह ‘कागज एक पेड है’ नाम से प्रकाशित होकर सामने आया। इसके अलावा वे मगहर का संपादन देखते रहे। समय-समय पर यत्र-तत्र उनकी रचनाएं और लेख-आलेख आदि भी प्रकाशित होते रहे। वे हिन्दी के एसोसिएट प्रोफेसर और मगहर के संपादक तो थे ही साथ ही एक एक्टिविस्ट भी थे। उनकी वैचारिकी मार्क्सवाद और अंबेडकरवाद के सम्मिश्रण से बनी थी। सामाजिक आन्दोलनों में डफली बजाकर गाना उनके जज्बें को मुखर करता था। नेतृत्व करने का गुण भी उन्हें खूब सुहाता था। कहिए कि उनमें कुशल नेतृत्व करने की क्षमता विद्यमान थी। वे लगातार रचनाशील बने रहने वाले रचनाकार थे। आरोही प्रकाशन और रजनी दिसौदिया जी के साथ मिलकर संज्ञान साहित्यिक संस्था की स्थापना उन्होंने इसी लिहाज से की थी। वे नव सर्वहारा सांस्कृतिक मंच के महासचिव के पद पर भी सक्रिय थे। उनकी बहुआयामी सक्रियता का आलम यह था कि 2011 से 2014 के बीच उनकी और भी कई पुस्तकें प्रकाशित होकर आयीं। लेकिन तत्पश्चात् किन्हीं पारिवारिक व्यवधानों के चलते बहुत अपसेट रहने लगे थे। परिणाम यह निकला कि मगहर का दसवां अंक बमुश्किल 2018 में प्रकाशित हो पाया। इतना ही नहीं उनका बहुप्रतीक्षित कविता संग्रह ‘धूप है खिली हुई’ 2021 में प्रकाशित हो पाया। इस दौरान, दिल्ली के रोहिणी से सोनीपत बाॅर्डर पर उन्होंने नया मकान खरीद लिया था, लेकिन वहां का अकेलापन उन्हें ले डूबा। आज मुकेश मानस अपनी पुस्तकों और रचनाओं में जीवंत और साकार हैं। इसके अतिरिक्त परिचितों के मानस में बसे अपने-अपने मुकेश मानस स्मृति शेष बनकर रह गये हैं! मानस के मुकेश, मुकेश मानस।।

10-10-2021

रविवार 

http://santhagaar.in/manas-ke-mukesh-mukesh-manas/




 




रिपोर्ट

नदलेस ने किया मुकेश मानस की स्मृति सभा 'मानस के मुकेश' का आयोजन

दिल्ली। गत चार अक्टूबर 2021 को मुकेश मानस जी का देहावसान हो गया। जिसकी स्मृति में नव दलित लेखक संघ ने 'मानस के मुकेश' नाम से स्मृति सभा का आयोजन ऑनलाइन किया। जिसकी अध्यक्षता, नदलेस के अध्यक्ष डा. अनिल कुमार ने की व संचालन सचिव डा. राम कैन ने किया। स्मृति सभा में वक्ताओं के रूप में डा. कुसुम वियोगी, रत्नकुमार सांभरिया, ईश कुमार गंगानिया, डा. बजरंग बिहारी तिवारी, पुष्पा विवेक और डा. टेकचंद रहे। अतिथि वक्ताओं का स्वागत व मुकेश मानस का संक्षिप्त परिचय डा. अमित धर्मसिंह ने प्रस्तुत किया और धन्यवाद ज्ञापन डा. अमित कुमार ने किया। मुकेश मानस सत्यवती कॉलेज में हिंदी के एसोसिएट प्रोफेसर थे। वे मगहर का संपादन करते थे। उनके तीन कविता संग्रह पतंग और चरखड़ी, कागज एक पेड़ है, धूप है खिली अभी, एक कहानी संग्रह 'उन्नीस सौ चौरासी', दो अनुदित पुस्तक कांचा इलैया की वाई एम नॉट ए हिंदू और एम एन राय की इंडिया इन ट्रांजिशन तथा 'मीडिया लेखन सिद्धांत और प्रयोग' के अतिरिक्त भी अन्य कई पुस्तकें प्रकाशित व संपादित हो चुकी थीं। वे सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी निभाते थे तथा संबंधित संस्थाओं से जुड़कर निरंतर सक्रिय और रचनाशील रहते थे। उनकी वैचारिकी मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद से प्रेरित थी। 
          अध्यक्ष डा. अनिल कुमार ने कहा कि एक जुझारू साहित्यकार और एक्टिविस्ट का अचानक चले जाना हृदय विदारक तो है ही, साथ ही हिंदी दलित साहित्य की अपूर्णीय क्षति भी है। अभी मुकेश मानस जी का और भी साहित्य सृजन सामने आना था, लेकिन उनका असमय चले जाने से उनके सृजन का काफी हिस्सा अपूर्ण रह गया है। मजबूरन, उनका जो भी साहित्य है, आज हमें उसी में संतोष करना पड़ेगा। उनके उपलब्ध साहित्य का यदि सही मूल्यांकन हो पाया तो यही उनके प्रति सच्ची आदरांजलि होगी। डा. कुसुम वियोगी ने कहा कि मुकेश मानस का यूं सबको छोड़कर चले जाना हम सबको स्तब्ध कर गया जिसके अंदर भविष्य की अपार संभावनाएं थीं। मुकेश मानस ज़हां अकादमिक जगत में प्रोफेसर थे तो एक प्रगतिशील विचारक भी थे। जिसकी निर्मिती में बुद्ध, मार्क्स, भगतसिंह के साथ डा. आंबेडकर की विचारधारा थी। इसके बावजूद उनके चिंतन‌ के चूल्हे पर चढ़ी कढ़ाई में कुछ ना कुछ नया पकता-खदकता रहता था। वह कवि भी थे , कहानीकार भी थे, आलोचक भी थे और अपने विद्यार्थियों के कुशल मार्गदर्शक भी थे।
          रतनकुमार सांभारिया ने कहा कि मुकेश मानस अपने सृजन के माध्यम से समकाल से रूबरू होते और पाठक को रूबरू कराते एक ऐसा जज्बाती लेखक थे जिसने विषमतम परिस्थितियों से हार नहीं मानी और अपनी सृजन साधना में लगे रहे। उनकी कहानियां हों या कविताएं हों चेतनामूलक नजरिया रखती हैं। इन दिनों तो उनकी रचनाधर्मिता और अधिक परिपक्वता की ओर थी। ऐसे में उनका अचानक चले जाना बेहद दुखद और निराशाजनक है। आज उनका सृजन ही उनका स्मृति लोक है। ईश कुमार गंगानिया जो कि मुकेश मानस से एक अरसे से जुड़े थे ने कहा कि मुकेश मानस के जीवन के दो पक्ष थे, एक उनका पर्सनल पक्ष था और दूसरा सामाजिक। मैं अधिक बात उनके सामाजिक पक्ष पर ही रखना चाहूंगा। वे संज्ञान संस्था आरोही प्रकाशन और मगहर के प्रकाशन के अलावा सभी सामाजिक आंदोलनों से जुड़े रहते थे। आंदोलनों में डफली बजाकर आंदोलनकारी गायन करना उनकी अतिरिक्त प्रतिभा में शामिल था। वे ऐसे सेल्फ मेड व्यक्ति थे जो किसी एक विचारधारा से जुड़े नहीं थे। वे हर किसी विचारधारा के व्यक्ति के साथ आसानी से संवाद कर किया करते थे। हिंदी की तरह ही अंग्रेजी भाषा में भी उनकी समान गति थी। अंग्रेजी साहित्य खूब पढ़ते थे और अंग्रेजी फिल्में भी खूब देखते थे। यह उनका ऐसा गुण था जिसे हम सब साहित्यकारों को भाषाई आग्रह छोड़कर अपनाना चाहिए। 
           डा. बजरंग बिहारी तिवारी ने कहा कि मुकेश मानस एक बेचैन कलाकार थे। वे एकसाथ कई मोर्चों पर सक्रिय रह सकते थे या कहें कि सक्रिय रहते थे। मैंने उनकी रूमान भरी कहानियां पढ़कर उनके बारे में जो धारणा बनाई उसे मगहर पत्रिका का उनका संपादन देखकर परिवर्तित करना पड़ा। वे अपने आप में एक संस्था थे। उनसे बड़ी उम्मीदें थीं। उनके चले जाने से आंबेडकरवादी प्रगतिशील वैचारिकी को धक्का लगा है। पुष्पा विवेक ने मुकेश मानस के जीवन के कुछ अंतरंग पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए कहा कि इतनी छोटी उम्र में मुकेश जी का यूं चले जाना मन को बहुत टीस देता है। वे अंदर से एक दम टूट चुके थे। जो उम्मीदें उन्हें अपनों से थीं, उनकी अपेक्षाएं,महत्वकाक्षांए ही उनके दुःख का कारण थीं, उनके टूटते सपनों ने उन्हें हताश कर दिया, उनमें जीने की ललक खत्म हो गई थी।क्योंकि परिवार में होते हुए भी वे अकेले थे। पिता के न रहने पर उन्होंने अपने छोटे बहन-भाई को एक पिता की तरह संभाला लेकिन उनकी नाकाबिलियत उन्हें बहुत दुःख देती थी। वे बाबा साहब अम्बेडकर के अनुयाई थे, आन्दोलन कारी थे, लेकिन भीड़ में होते हुए भी अकेले थे। उन्होंने दो-दो शादियां की मगर उन्होंने भी साथ छोड़ दिया। वे एकांगी हो गए थे। इतनी छोटी उम्र में इतनी मेहनत करके उन्होंने जो मुकाम हासिल किया था, उसका सुख उन्हें नहीं मिल पाया।
             डा. टेकचंद ने अपनी बात रखते हुए कहा कि वे बेहद जिंदादिल इंसान थे। किसी से नाराज़ भी होते थे और मान भी खुद ही जाते थे। वे ग्लैमरस पसंद व्यक्ति थे। खूब अच्छा पहनते थे और हमें भी अच्छे अच्छे कपड़े पहनने की हिदायत देते थे। लिखने पढ़ने के विषय में भी बहुत सी सीख दिया करते थे। उनमें गजब की जिजीविषा विद्यमान थी, कहीं से लगता ही नहीं था कि वे इतनी जल्दी चले जायेंगे। यह बात वे स्वयं भी नहीं मानते थे। बहुत लंबा जीना और खूब रचना चाहते थे मुकेश जी, तभी तो उन्होंने भविष्य की बहुत सी योजनाएं बना रखी थी। वे डायरी लिखते थे और अभी आत्मकथा लिखने का भी विचार बना रहे थे। इसके अतिरिक्त सभी वक्ताओं ने माना कि मुकेश मानस का समग्र साहित्य सामने आना चाहिए। उनके समग्र साहित्य को प्रकाशित करना चाहिए साथ ही उसका उचित मूल्यांकन करना चाहिए। कार्यक्रम में उमरशाह, डा. गीता कृष्णांगी, आर. एस. आघात, डा. मुकेश मिरोठा, रिछपाल विद्रोही, अमिता कुमारी, राजेंद्र कुमार राज़, रश्मि रल्हन, धीरज वनकर,जलेश्वर गेंडले और राज बंसी आदि करीब पचास से अधिक गणमान्य साहित्यकार ऑनलाइन उपस्थित रहें। 

डा. अमित धर्मसिंह
13/10/2021
#9310044324

आंखों देखें अपराध अखबार में नदलेस के प्रचार सचिव डा. अमित कुमार द्वारा लिखित खबर 15/10/2021




डिप्रेस्ड एक्सप्रेस के नवंबर 2021 के मासिक अंक में प्रकाशित मुकेश मानस पर लिखा मेरा संस्मरण




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