यादों का मेला

अमित धर्मसिंह की पुस्तक ‘खेल जो हमने खेले’ यादों के मेले जैसी है। इससे पहले उनकी पुस्तक ‘रचनाधर्मिता के विविध आयाम’ में अधिकांश लेख पुस्तकों की समीक्षा के हैं। समीक्षा लिखते समय लेखक की दृष्टि उसी पुस्तक तक सीमित नहीं रही है, अपितु अमित धर्मसिंह ने उस पुस्तक की विधा पर विस्तृत आत्ममंथन लिखा है। इसमें लेखक की विशद एवं सूक्ष्म दृष्टि तथा ज्ञान दिखाई देता है। प्रस्तुत पुस्तक में बचपन के खेले गये खेलों का विस्तृत विवरण है। ये खेल ग्रामीण एवं कस्बई वातावरण के हैं, जहाँ क्रिकेट, बैडमिंटन जैसे आधुनिक खेल नहीं खेले जाते। मेरा अपना बचपन जिस मौहल्ले में बीता था, वह कहने को तो मुरादाबाद शहर का एक मौहल्ला था, किन्तु वहाँ का वातावरण ठेठ कस्बई था। बिजली थी नहीं, सड़कें तथा बीच का मैदान कच्चा, धूल भरा था। यहीं मैंने कबड्डी, गिल्ली-डंडा तथा लट्टू नचाने जैसे खेल खेले थे। किन्तु बहुतों को भूल भी चुका हूँ। अमित धर्मसिंह ने उन खेलों की यादों को केवल सँजोकर ही नहीं रखा है, उनको खेले जाने वाले उपकरणों तथा विधियों का भी लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। इसे पढ़कर बहुतों को अपना बचपन तो याद आयेगा ही, उन भूले-बिसरे संगी-साथियों की याद भी ताजा हो जायेगी, जो समय के प्रवाह में भूले जा चुके थे। पुस्तक का यह पहला खंड विवरणात्मक है। किन्तु दूसरा खंड जिसमें खेलों की पृष्ठभूमि में पनपने वाली सामाजिक ,वं राष्ट्रीय चेतना का विस्तृत विवेचन किया है। साधनों का अभाव, किन्तु मन में हीनता की कोई ग्रंथि न होने की भावना को लेखक ने मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि से लिखा है। खेल के साथ दोस्ती तथा बिना किसी भेदभाव के आपसी संबंध बन जाते हैं। आज की सम्पन्नता की ओर बढ़ते हुए कदमों के बीच उस विपन्नता में बीते हुए बचपन की यादें लेखक को विचलित भी करती हैं। खेलों के विश्लेषण के विस्तार में लेखक की दृष्टि गिद्ध पक्षी के लुप्त होने पर भी जाती रही है। खेल क्या है, वर्तमान में खेलों का क्या रूप है तथा आधुनिक जीवन में खेल क्या से क्या हो गये हैं, इस पर लेखक ने जमकर लिखा है। इंटरनेट के युग में बाजारवाद का हावी होते जाना लेखक को कचोटता है। इस प्रकार अमित धर्मसिंह की यह पुस्तक ‘खेल जो हमने खेले’ ग्रामीण और कस्बई वातावरण के खेलों का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज तो है ही, उससे भी अधिक वह मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है जो इन खेलों के माध्यम से लेखक ने प्रस्तुत किया है।

- शुकदेव श्रोत्रिय

8-सी, डी.डी.ए. फ्लैट्स,

निर्माण विहार, दिल्ली-92

मोबाइल: 9818161417


                          आत्मनिवेदन

‘खेल जो हमने खेले’ में उन खेलों का विवरण प्रस्तुत किया गया है जो बचपन में खेले। एक भी खेल ऐसा नहीं, जिससे बचपन न जुड़ा रहा हो। इन खेलों की संख्या करीब अस्सी-पिचासी है। सभी को उनके खेले जाने की विधि के साथ लिखने का सहज प्रयास किया गया है। सम्पूर्ण विवरण बचपन की स्मृति पर आधारित है। यानी, बचपन के वे खेल जो अभी तक स्मृति में बचे रह गये, सबको हू-ब-हू कागज पर उतार दिया गया है। इन्हें लिखने के लिए किसी भी प्रकार की शोधविधि अथवा श्रमसाधना की जरूरत नहीं पड़ी है। इसका कारण यह है कि हमने इन खेलों को सिर्फ खेला ही नहीं, अपितु भरपूर जिया भी है। लेकिन इन्हें लिखने का मकसद सिर्फ इतना ही रहा कि एक तो ये लोक खेल, स्मृति में ही सही, बचे रह सकें; दूसरे, खेलों के सामाजिक और आर्थिक भेद को सामने लाया जा सके। इसमें दो राय नहीं कि खेलों को सामाजिक और आर्थिक कारक बहुत अधिक प्रभावित करते हैं। यही कारण है कि सामाजिक रूप से अगड़े-पिछड़े तथा अमीर-गरीब बच्चों के खेलों में बहुत अन्तर होता है। यह अन्तर हमें खेल-खिलौनों से लेकर खेल, खेलने की विधि तक में स्पष्ट दिखायी देता है। अमीर और साधन सम्पन्न परिवार के बच्चे जहाँ बाजार से खिलौने खरीदकर खेलते हैं, वहीं गरीब के बच्चे अपने अधिकांश खिलौने स्वयं बनाकर खेलते हैं। वे टूटी चप्पल काटकर पहिया बना लेते हैं। बाँस की लकड़ी से होली की पिचकारी और ढाँचे की लकड़ी से दीवाली की बंदूक बना लेते हैं। उनके द्वारा खेले जाने वाले ज्यादातर खेल ऐसे होते हैं, जिनमें पैसे नहीं सिर्फ दिमाग खर्च होता है। और, इसके लिए भी बच्चे न तो बाजार पर निर्भर रहते हैं और न अभिभावकों पर। वे अपने मनोरंजन के तमाम खेल-खिलौने स्वयं निर्मित करते हैं और मनमाफिक खेलते हैं। यह बात बचपन में तो समझ नहीं आती थी, लेकिन पीएच. डी. के दौरान जब ‘प्रभाष जोषी जी की खेल दृष्टि पर कार्य किया तो समझ में आया कि खेलों का भी अपना समाजशास्त्रा होता है। यह बात भी महसूस हुई कि प्रभाष जोशी जी के खेल दर्शन और अपने खेल-दर्शन में काफी अन्तर है। यह अन्तर सामाजिक और आर्थिक कारणों से उपजा हुआ अन्तर है। यद्यपि प्रभाष जोशी का बचपन भी आर्थिक रूप से सम्पन्न परिवार में नहीं बीता था, फिर भी उनके क्रिकेट प्रेम को पनपने का जो पारिवारिक और सामाजिक माहौल प्रभाष जोशी के पास था; वह समाज में गरीब और सामाजिक रूप से पिछड़े बच्चों के पास नहीं हुआ करता है। यही कारण है कि प्रभाष जोशी के खेल-प्रेम और हमारे खेल-प्रेम में धरती-आसमान का फर्क है। सम्भव है, यह फर्क व्यक्तिगत रुचि के चलते पैदा हुआ हो, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि व्यक्ति के जीवन और उसकी रुचियों को आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियाँ कितना अधिक प्रभावित करती हैं। बहरहाल, कुछ भी हो प्रस्तुत पुस्तक में हम दोनों के खेल संबंधी विचार प्रस्तुत हैं। आरंभ में लोक खेल और उनको खेले जाने की सामान्य विधि के साथ, क्रिकेट के संबंध में, मेरी वैचारिकी है। परिशिष्ट में क्रिकेट के संबंध में प्रभाष जोशी जी का दृष्टिकोण है। यह भाग पीएच.डी. के संबंधित अध्याय से यथारूप लिया गया है।

  यह भाग प्रभाष जोशी जी के क्रिकेट पे्रम और खेल दर्शन को सामने लाता है। इसे लिखने के लिए शोध विधि का प्रयोग किया गया है। कई बातों में प्रभाष जोशी से अपने विचार मिलते भी हैं और कई बातों में बिलकुल नहीं मिलते। विचारों की यह समानता और असमानता कहाँ और क्यों है, यह बात, प्रस्तुत पुस्तक पढ़कर पाठक स्वयं जान जाएँगे। इतना जरूर है कि प्रस्तुत पुस्तक को लिखने का विचार प्रभाष जोशी जी को पढ़ते वक्त ही आया। इसके लिए मैं प्रभाष जोषी जी के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ। उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने हेतु ही यह पुस्तक प्रभाष जोशी जी को ही समर्पित की गयी है। दूसरा आभार मैं, अपनी पत्नी गीता के प्रति प्रकट करता हूँ, जिसने यह पुस्तक लिखने के दौरान ही किस्तों में सुनी और जरूरी उत्साहवर्धन किया। दरअसल इस पुस्तक की पूरी पांडुलिपि, दो हजार सोलह की अंतिम त्रौमासिकी के दौरान अल्पावधि में लिख ली गयी थी। उस समय मैं और गीता वैवाहिक बंधन में नहीं बँधे थे। उस दौरान हम दोनों, महज को-स्कोलर और एक-दूसरे के दोस्त मात्र थे। बावजूद इसके, गीता द्वारा इस पुस्तक को पूरी सुनना और सराहा जाना, लिखने की राह में रचनात्मक ऊर्जा से सराबोर करने जैसा महत्त्वपूर्ण था। आभार के इस क्रम में डा. शुकदेव श्रोत्रिय जी के प्रति अगाध आभार, जिन्होंने अपनी तमाम व्यस्तताओं और वृद्धावस्था की बीमारियों के बावजूद इस किताब को मन से पढ़ा और अपना आशीर्वाद दिया। दुर्भाग्य से, वे आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनका आभार और स्मृति, हृदय में स्थायी हैं। फिर भी, उनके जीवन काल में, प्रस्तुत पुस्तक को प्रकाशित न करवा पाने का और श्रोत्रिय जी के असमय चले जाने का दुख हमेशा सालता रहेगा। यद्यपि पुस्तक तत्काल प्रकाशित न करवा पाने का कारण आर्थिक से अधिक परिशिष्ट का जोड़ा जाना था। चूँकि परिशिष्ट को बगैर पीएच.डी. जमा किये और डिग्री लिये, किसी भी रूप में प्रकाशित नहीं किया जा सकता था, इसलिए पुस्तक प्रकाशन में अवांछित विलंब करना पड़ा। अन्त में, एक जरूरी बात और, प्रस्तुत पुस्तक में, केवल स्मृति के आधार पर लोक-खेलों और व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर क्रिकेट के संबंध में अपनी वैचारिकी को लिपिबद्ध करने की भावना रही है। किसी खिलाड़ी या खेल-प्रेमी की खेल-भावना को आहत करने की मंशा कतई नहीं रही है। फिर भी यदि, पुस्तक पढ़कर किसी की खेल-भावना आहत हुई तो उसके लिए मैं अग्रिम रूप से क्षमाप्रार्थी हूँ।

-अमित धर्मसिंह


खेल जो हमने खेले 

लेखक : अमित धर्मसिंह

प्रकाशक : सहज प्रकाशन, मुजफ्फरनगर

प्रथम संस्करण : 2020 पेपरबेक

ISBN : 978-81-949493-8-1

पृष्ठ : 96

मूल्य : 200₹

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