संपादकीय
धरती पुत्र किसान के संघर्ष में साथ लगने के मायने
          गत वर्ष की प्रथम तिमाही के अंत से चली आ रही महामारी और लॉकडॉन ने, न सिर्फ सामाजिक ताना-बाना ध्वस्त करके रख दिया है, बल्कि इससे सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों पर भी गहरा असर पड़ा है। विविध सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ साथ साहित्यिक गतिविधियों तक पर अघोषित अंकुश लगकर रह गया। अनेक पत्र पत्रिकाएं स्थगित हो गईं । कइयों को अपने अंक प्रिंट के बजाए ऑनलाइन प्रचारित व प्रसारित करने पड़े। दलित लेखक संघ की यह पत्रिका भी इससे अछूती नहीं रही। गत दो-तीन अंकों से इसे भी ऑनलाइन ही प्रसारित करने की विवशता पेश आ रही है। इस बार तो दो त्रैमासिक !जनवरी - मार्च एवं अप्रैल - जून, 2021) अंकों की चयनित सामग्री को जोड़कर यह संयुक्ताक बनाना पडा। इसके पीछे, रोजगार श्रृंखला,आवजाही और आपसी संपर्कों के क्रम का टूट जाना ही बड़ा कारण है। अभी भी हालात सामान्य नहीं, लिहाजा यह अंक भी ऑनलाइन ही तैयार किया गया है। निकट भविष्य में, सबकुछ सामान्य हुआ तो इसे प्रिंट करने का प्रयास रहेगा। यद्यपि दिनोंदिन बढ़ती मंहगाई में प्रिंट का कार्य करना पहले की अपेक्षा अधिक दुरूह हो गया है। बावजूद इसके, भले ही पेट्रोल सौ के पार पहुंच गया हो, लेकिन यात्रा तो अनवरत ज़ारी रखनी ही है; फिर चाहे यात्रा साहित्य की हो या आजीविका कमाने की। सभी यात्राओं को ज़ारी रखने के भरसक प्रयास करने ही हैं; क्योंकि ये प्रयास न केवल हमारी समसामयिक जरूरतों के लिए जरूरी हैं, बल्कि हमारे वर्तमान, भविष्य और भावी पीढ़ी तीनों के लिए आवश्यक हैं। जहां तक बात साहित्य के संदर्भ की है तो, भले ही आज साहित्य घर फूंक तमाशा देखने के अलावा कुछ न रह गया हो, लेकिन जीवन में इसे बनाए रखना बेहद जरूरी है। इसके बचने से ही इस समय का इतिहास दर्ज हो सकेगा और इसी से हम अपने लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने में कामयाब हो सकेंगे। कहना न होगा कि इसके लिए सतत संघर्ष करना जरूरी है; फिर चाहे संघर्ष साहित्यिक हो अथवा सामाजिक। 
          यद्यपि कोरोना महामारी के चलते बहुत से सामाजिक मूवमेंट मुंह की खाए चित्त पड़े हैं। शाहीन बाग से लेकर वर्तमान में बेजान से चल रहे किसान आंदोलन इसके सर्वाधिक बड़े उदाहरण हैं। दोनों कोरोना महामारी के संक्रमण के भय के चलते अपने उद्देश्यों तक पहुंचने में पस्त हैं। माना कोरोना महामारी एक वैश्विक आपदा है, लेकिन इस आपदा में कितने राजनीतिक और आर्थिक अवसर तलाश किए जा रहे हैं, इनका हिसाब किसी के पास नहीं। एक तरफ जहां धार्मिक अनुष्ठानों और चुनावी रैलियों में उमड़ी बेशुमार भीड़ पर अंकुश नहीं लगाया गया, वहीं कार तक में मास्क लगाना और सोशल डिस्टेंसिंग का सख्ती से पालन कहां तक न्यायसंगत है?इन जटिलताओं के बीच सामाजिक अधिकारों के लिए चलाए जाने वाले आंदोलनों की क्या दशा होगी, आप स्वयं ही अंदाज लगा सकते हैं। उदाहरण, किसान आंदोलन के रूप में तो अभी भी हमारे सामने है जो गत वर्ष के सितंबर माह से अभी तक अनवरत चल रहा है। शुरू में यह पंजाब और हरियाणा के किसानों द्वारा किया जा रहा था, बाद में देश भर के किसान इस आंदोलन से जुड़ गए। यू पी से किसान यूनियन के अध्यक्ष और स्व. महेंद्र सिंह टिकैत के पुत्र राकेश टिकैत के जुड़ने से तो किसान आंदोलन में एक बार फिर से जान आ गई और यह लड़खड़ाते कदमों से ही सही, अभी तक खड़ा रह सका है। इसका एक बड़ा कारण यह रहा कि राकेश टिकैत के पहले, किसान आंदोलन का नेतृत्व करने वाला कोई भी प्रमुख चेहरा नहीं था, जिसकी कमी राकेश टिकैत ने आकर पूरी की। राकेश टिकैत के नेतृत्व में आज किसान आंदोलन अपनी मांग पर कायम हैं। किसान एम एस पी के लिए और कृषि बिल के तीनों कानूनों को सरकार द्वारा वापस लिए जाने के लिए सिंघु बॉर्डर, गाजी बॉर्डर और टिकरी बॉर्डर आदि स्थानों पर लगातार संघर्ष कर रहे हैं।
          उनके इस संघर्ष का साक्षी न सिर्फ यह समय और पीढ़ी बन रही है अपितु समय-समय पर बुद्धिजीवियों के समर्थन करने और लिखने-पढ़ने से भी किसान आंदोलन का इतिहास संरक्षित और सुरक्षित हो रहा है। दलेस, जलेस, प्रलेश, जसम, अलेस आदि साहित्यिक संगठनों ने भी किसान आंदोलन को अपना समर्थन दिया। यद्यपि गाहे-बगाहे, बुद्धिजीवियों में किसान आंदोलन को लेकर एकाधिक मत देखने को मिल रहे हैं। जहां अधिकांश बुद्धिजीवियों का मानना है कि यह आंदोलन लोकतांत्रिक मूल्यों और अधिकारों की सुरक्षा हेतु जरूरी है। चूंकि देश कृषि प्रधान है इसलिए किसान देश की धुरी है। उसके हितों की रक्षा करना, न सिर्फ हमारा कर्तव्य है बल्कि सरकार का महत्त्वपूर्ण दायित्व भी है। वे मानते हैं कि मनमाने ढंग से किसानों की जमीनों को अप्रत्यक्ष रूप से अपने अधिकार में रखना और उनकी फसलों का वांछित दाम मुहैया न करवाना, न देश के किसानों के हित में है और न ही देश के। ऐसा करने से किसान के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े हो जाते हैं। ऐसा माना जा रहा है कि सरकार जो कृषि बिल लेकर आयी है, उससे किसान अपनी फसल और जमीन का मालिक नहीं, दास बनकर रह जाएगा। यानी मेहनत तो किसान करेगा और लाभ प्राइवेट सेक्टर को पहुंच जाएगा। इसलिए किसान कृषि बिल के कानूनों के खिलाफ संघर्ष करने को विवश है। कुछ बुद्धिजीवी मानते हैं कि यह लड़ाई किसान और सरकार की नहीं बल्कि जमीदारों और पूंजीपतियों के बीच की लड़ाई है, जिसमें देश के बड़े उद्योगपति और बड़े जमीदार आमने-सामने हैं। छोटे किसान और खेतिहर मजदूरों का इस मूवमेंट से दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं है। पंजाब में दलित वर्ग के छोटे-मोटे किसान और खेतिहर मजदूरों की वास्तविक स्थिति देखने से यह बात काफी हद तक सही भी जान पड़ती है। क्योंकि पंजाब में दलित और पिछड़े वर्ग के पास पर्याप्त कृषि भूमि नहीं है, इसलिए यह कयास लगाया जाना स्वाभाविक और तथ्यपरक जान पड़ता है। बावजूद इसके, किसान को उसकी मेहनत का उचित मूल्य न मिलना एक बड़ी त्रासदी तो है ही, जिससे किसान को निजात मिलनी ही चाहिए। और यह बगैर सामूहिक संघर्ष के संभव नहीं। यह संघर्ष इसलिए भी जरूरी है कि एक तो यह कि ऐसे संघर्ष संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए जरूरी हैं, जिससे दूसरे वर्ग भी प्रेरणा ले सकते हैं। दूसरा, यह है कि प्रत्येक वर्ग को किसान आंदोलन में अपनी ऐतिहासिक भूमिका दर्ज करनी चाहिए ताकि भविष्य में वे अपनी इस उपस्थिति और भूमिका के प्रति संतोष प्रकट कर सके। इसके अतिरिक्त एकजुटता से किया गया संघर्ष सामाजिक न्याय, एकता और समानता के लिहाज से तो जरूरी है ही कृषि भूमि को प्राइवेट सेक्टर के स्वामित्व से बचाने के लिए भी जरूरी है इसलिए धरती पुत्र किसान के संघर्ष में साथ लगना जरूरी है। तभी हम सही मायनों में अपने रचनाकार होने के दायित्व को पूरा कर सकेंगे।
          विदित होगा कि किस तरह देश के बहुत से महकमों को प्राइवेट कंपनियों के सुपुर्द किया जा रहा है। ऐसे में शिक्षा और रोजगार का जो ढांचा संवैधानिक रूप से चला आ रहा था, वह लगातार ध्वस्त हो रहा है। खासतौर से आरक्षण का तो समझो पूरा बंटाधार ही किया जा रहा है। वैसे भी, संविधान के लागू होने से आज तक आरक्षण को उस रूप में कभी लागू नहीं किया गया, जिस रूप में वह संविधान में दर्ज है। कर दिया गया होता तो आज प्रत्येक क्षेत्र की आरक्षण संबधी सभी सीटें भर गईं होती। मगर ऐसा, अभी तक संभव नहीं हो पाया है। प्रत्येक सरकार आरक्षण को एक राजनीतिक सिक्के के रूप में उछालती तो आ रही है किंतु इसे पूर्णतः लागू नहीं कर सकी है। शायद सरकारें आरक्षण को एक राजनीतिक मुद्दा बनाए रखना चाहती है। इन सब बातों को देखते हुए भी किसान आंदोलन अथवा किसी भी आमजन आंदोलन को बचाना और उस पर अमल करने के लिए सरकार का ध्यान आकृष्ट करना नितांत जरूरी हो जाता है। ऐसा करने से अपने अधिकारों के साथ-साथ संविधान की रक्षा की जा सकेगी; लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा की जा सकेगी और अपने हकों के लिए संघर्ष करने की आंदोलनवादी परंपरा की रक्षा की जा सकेगी। जहां तक बात किसान की है तो, यह तो सबको याद ही होगा कि भारत चीन के युद्ध के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने "जय जवान जय किसान" का नारा दिया था। यह सिर्फ नारा नहीं था बल्कि देश की दो ठोस मजबूती के विषय खुला उद्घोष था। जिसका सीधा मतलब यह था कि देश सुरक्षा के लिहाज से जवानों पर निर्भर करता है और भीतर से मजबूत रहने के लिए किसानों पर। जिस देश के पास जितनी अधिक मजबूत त्रयी सेना होगी और जो देश धन धान्य से जितना अधिक समृद्ध होगा; वह उतना ही तरक्की करेगा और अपने अस्तित्व और अस्मिता को बचाने में कामयाब रहेगा। देश धन धान्य के लिए किसान पर निर्भर करता है, इसलिए देश की आंतरिक मजबूती को बनाए रखने और बढ़ाने के लिए किसान को और अधिक मजबूत करने की आवश्यकता है न कि उसे पूंजीपतियों के हाथ की कठपुतली बना देने की। किसान अपने कर्तव्य और अधिकार को बखूबी पहचानता है और उनका पालन करना भी जानता है,  उसके अस्तित्व और अस्मिता को ठेस पहुंचाना अथवा उसके कार्यों और अधिकारों अधिक हस्तक्षेप करना, किसी भी दृष्टिकोण से न तो उचित है और न ही न्यायसंगत है।
          इस संदर्भ में अधिकांश कवियों एवं लेखकों ने अपनी लेखनी के माध्यम से आवाज बुलन्द की है। बहुत पत्र पत्रिकाओं ने उन्होंने खुलकर लिखा है, किसानों के बीच अपने विचार प्रकट किए और किसानों के पक्ष में काव्य पाठ तक भी किए। इस अंक में भी बहुत-सी कविताएं किसानों के संदर्भ में लिखी गई हैं, जो आशान्वित करती हैं कि न केवल गैर दलित ही, बल्कि दलित कवि भी देश में घटित प्रत्येक घटना का संज्ञान लेते हैं। निश्चित ही इस दौर के दलित कवियों और लेखकों की दृष्टि विषय और फैलाव दोनों के नजरिए से विस्तृत और समृद्ध हुई है। आज दलित कवि केवल अपने दग्ध अनुभवों को ही दर्ज नहीं कर रहा है बल्कि वह देश की हर छोटी-बड़ी चीज को गंभीरता से लेते हुए उस पर कलम चला रहा है। हाथरस, नागौर, उन्नाव आदि सामाजिक त्रासदियों पर दलित लेखकों ने जमाकर लिखा है। साहित्य में उनकी यह उपस्थिति गौरव और संतोष देने वाली है। यद्यपि अभी भी बहुत से दलित रचनाकार ऐसे हैं जो परंपरावादी प्रतीकों और अनुष्ठानों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाएं हैं। वे ऐसे दौराहे पर खड़े हैं जहां से उनके पास एक तरफ दलित साहित्य की वैचारिकी के मार्ग खुलते हैं और दूसरी तरफ सदियों से उपस्थित दकियानूसी और रूढ़िवाद की दुरूह पगडंडियां हैं। वह असमंजस में है कि किस तरफ जाए!! उसका असमंजस इस बात से जाहिर होता है कि वह कभी पहले मार्ग पर दिखाई देता है तो कभी दूसरे पर। इतना जरूर है कि दलित साहित्य के माध्यम से वह सही और गलत के विषय में निरंतर सोच रहा है। जरूरत है तो बस यह समझने कि दलित साहित्य ने उसे असमंजस में डाला है और दलित साहित्य ही उसे असमंजस से बाहर निकाल सकता है। इस संदर्भ में जो दलित रचनाकार निरंतर प्रयास कर रहे हैं वे सराहना के पात्र हैं। साथ ही ऐसे दलित साहित्यकार धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होंने समाज के एक बड़े हिस्से को अज्ञानता की कारा से बाहर निकालने में अपना रचनात्मक योगदान दिया और दे रहे हैं। 
          सूरज पाल चौहान ( दलेस के पूर्व और प्रथम अध्यक्ष) एक ऐसे ही दलित रचनाकार थे जो गत 15 जून 2021 को इंतकाल फरमा गए। वे काफी समय से बीमार चल रहे थे और डाईलेसिस करवाते रहते थे। अपने अंतिम दिनों में वे डा. धर्मवीर को पत्र लिख रहे थे। इन पत्रों में वे दलित साहित्य और साहित्यकारों के विरोधाभास और अंतर्द्वंदों तक को दर्ज कर रहे थे। यद्यपि उनका यह कार्य स्वयं भी विरोधाभास और अंतर्द्वंदों से ग्रस्त था। वे एक तरफ तो दलित साहित्य की वैचारिकी को मजबूत आधार देने के लिए लिख रहे थे, दूसरी तरफ मृतक को पत्र लिखने जैसा हास्यास्पद कार्य कर रहे थे। वे एक तरफ तो भारतीय समाज को एकता और समानता की तरफ ले जाना चाह रहे थे, दूसरी तरफ "जय भंगी जय चमार " जैसा विषमतावादी नारा बुलंद कर रहे थे। अच्छा होता कि वे पत्र के बजाए एना फ्रैंक की तरह डायरी लिखते, जिसमें उनका समय और अनुभव दोनों बेहतर ढंग से दर्ज हो पाते। बहरहाल, इस चयन को आप लेखक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लेखन को व्यक्तित्व के सिद्धांत के हवाले करके संतोष पा सकते हैं। हालांकि इसमें दो राय नहीं कि सूरजपाल चौहान ने दलित साहित्य के स्थापना दौर से लेकर मृत्यपर्यंत दलित साहित्य में अपनी महती रचनात्मक भूमिका अदा की। तिरस्कृत और संतृप्त जैसी आत्मकथा व उनकी अन्य कृतियां इसकी प्रमाण हैं। दलेस उन्हें भावभीनी आदरांजलि प्रस्तुत करता है। फादर स्टेन स्वामी, कन्नड़ के प्रसिद्ध कवि सिद्धलिंगय्या और मंदिरा बेदी के पति राज को भी आदरांजलि। जब यह संपादकीय लिखा जा रहा तो खबर आ रही है कि हिंदी सिनेमा जगत के ट्रेजेडी किंग अभिनेता दिलीप कुमार उर्फ यूसुफ खान चल बसे हैं। इस महान अभिनेता को भी भावपूरित आदरांजलि। अंत में, इस अंक में सभी रचनाकारों के रचनात्मक सहयोग के लिए संपादन मंडल की ओर से हार्दिक आभार।।
संपादक
डा. अमित धर्मसिंह
07/07/2021














 15/08/2021

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