सरयू से गंगा


सरयू से गंगा (उपन्यास) पर परिचर्चा (28.04.2019) -

  • आज दिनांक 28.04.2019 को साहित्य अकादेमी भवन में किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित कमलाकांत त्रिपाठी के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक उपन्यास ‘सरयू से गंगा’ पर मुरली मनोहर प्रसाद सिंह की अध्यक्षता में एक परिचर्चा का आयोजन किया गया। परिचर्चा में प्रो. नित्यानंद तिवारी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे तथा प्रसिद्ध कथाकार संजीव ने विषय-प्रवर्तन किया। कर्ण सिंह चैहान, असगर वजाहत, कैलाश नारायण तिवारी, बली सिंह, संजीव कुमार, राकेश तिवारी एवं अमित धर्मसिंह ने परिचर्चा में वक्ता के रूप में भाग लिया।

    विषय-प्रवर्तन करते हुए कथाकार संजीव ने सरयू से गंगा को इतिहास एवं सामाजिक जीवन के विस्तृत फलक पर लिखा गया एक वृहद् औपन्यासिक कृति बताया। पानीपत, प्लासी, बक्सर, मुगल साम्राज्य का ह्रास, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के वर्चस्व में सतत् विस्तार और नेपाल के एकीकरण की प्रक्रिया की पृष्ठभूमि में उन्होने मालगुजारी, तालुकेदारी, किसानी और खेती को उपन्यास के केन्द्र में बताया। उपन्यास की देशज भाषा के सौन्दर्य को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि पूरा उपन्यास अवधी की छौंक से सुगन्धित है।

    दूसरे वक्ता अमित धर्मसिंह ने उपन्यास को इतिहास, समाज और जीवन के तीन भिन्न सन्दर्भों में बांटकर देखा। अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में कम्पनी के प्रभुत्व में विस्तार के साथ किसान रिआया की तकलीफों, लगान की मार से उसके शोषण तथा स्त्री जीवन की विडम्बना को उन्होंने वर्तमान परिदृश्य के लिए प्रासंगिक बताया। जीवन पक्ष पर बात करते हुए उन्होंने धर्म का अतिक्रमण करते हुए मानव मन की सत्ता और मन के मिलने से ही सार्थक हिन्दू-मुस्लिम एकता को उपन्यास में साकार होते देखा।

    तीसरे वक्ता पत्रकार एवं लेखक राकेश तिवारी ने उपन्यास में धार्मिक आडम्बर के रूप में महामत्युंजय जप के प्रसंग का जिक्र करते हुए, लेखक को ऐसे आडम्बरों के विरूद्ध खड़े देखा। उन्हांेने अठारहवीं सदी के सामाजिक-राजनीतिक संक्रमण तथा लेखीपति, जमील और रज्जाक जैसे पात्रों के माध्यम से साझा-सांस्कृतिक विकास के महत्व को लक्षित किया। राकेश जी ने सरयू से गंगा को मूलतः ग्रामीण किसान और मजदूर वर्ग का उपन्यास बताया।

    अगले वक्ता के रूप में कवि और आलोचक बली सिंह ने उपन्यास के विस्तृत फलक पर तत्कालीन गाँव, किसान, खेत, फसल, जंगल, नदी आदि के भौगोलिक और प्राकृतिक परिदृश्य को मूर्तिमान होते हुए देखा। इस संदर्भ में उन्होने लेखक की पैनी एवं प्रामाणिक दृष्टि के सामने गूगल को अक्षम पाया। उन्होने कहा, उपन्यास एक नाटकीय शैली में लिखा गया है जिसमें इतिहास नामक पात्र सूत्रधार की भूमिका निभाता है। नवाबों और कम्पनी के बीच की संधि से किसान को कुछ लेना-देना नहीं है किन्तु वह उसके आधार पर होने वाले शोषण का सबसे बड़ा शिकार बनता है। आज के भूमण्डलीकरण के दौर में ऐसी ही संधि सरकार और पूँजीपति के बीच होती है जिसका खामियाजा किसान जनता को बेराजगारी, भुखमरी और आत्महत्या के रूप में भुगतना पड़ता है। उपन्यास का मुख्य पात्र लेखीपति मिलीभगत की इस जकड़ से निकलने के लिए संघर्ष करता दिखाई पड़ता है। उपन्यास में लोकतांत्रिक एकीकरण की चेतना और राष्ट्रराज्य का संदेश अंतर्निहित है जो धार्मिक, सांस्कृतिक मिथकों तक सीमित था किन्तु जिसका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं था।

    अगले वक्ता आलोचना पत्रिका के संपादक ने उपन्यास कथा के दो उज्जवल पक्षों-धर्मनिरपेक्षता एवं जनपक्षधरता का नोटिस लिया। लेखीपति, जमील और रज्जाक जैसे पात्र धर्म का अतिक्रमण कर एकजुट होते हैं और कम्पनी के ऊपर नवाब की निभर्रता से समाज में जो भयानक, अराजक और शोषक स्थिति पैदा होती है उसके विरूद्ध संघर्ष करते हैं।

    अगले वक्ता दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राघ्यापक और लेखक कैलाश नारायण तिवारी ने लेखकीय स्वायत्तता और स्वतंत्रता का मुद्दा उठाते हुए कहा कि कमलाकान्त ने अपने इस उपन्यास में इतिहास के वृहत्तर फलक के दायरे में लेखीपति, जमील, रज्जाक, सावित्री जैसे पात्रों की परिस्थितियों के अनुरूप उनके मनोभावों और सूक्ष्म संवेदना का जो उन्मुक्त खाका खींचा है और जिस तरह परिवार, गाँव, घर के आपसी संबंधों का मानवीय रूप प्रस्तुत किया है, उसे पढते हुए प्रेमचन्द के गोदान में गुंथी दो समान्तर कथाओं की याद आती है। उपन्यास में हिन्दू-मुस्लिम संबंध को धर्म से इतर विशुद्ध मानवीय धरातल पर दिखाया गया है जो सूक्ष्म संवेदना से ओत-प्रोत है।

    अगले वक्ता कर्ण सिंह चैहान ने कहा कि कोई भी कृति हमारे सामने संवाद के लिए होती है और यह उपन्यास हमारे सामने ढेरों संवाद प्रस्तुत करता है। संप्रति फैशन के तहत प्रचलित अस्मिताओं से निरपेक्ष यह उपन्यास सहज, मानवीय हिन्दुस्तानी भावनाओं का एक आत्मीय आईना है जिसमें समाज की जमीनी हकीकत प्रतिबिम्बित होती है। देश में स्वतंत्र ग्रामीण इकाई की जो स्वस्थ और सम्यक् व्यवस्था हजारों साल से चली आ रही थी अंग्रेजो ने उसे एक झटके में तोड़ दिया और उसी के साथ समाज, संस्कृति, और उत्पादन के उत्कृष्ट उपादान ध्वस्त कर दिए। उपन्यास ने स्त्री-संवेदना के पहलू को अप्रतिम सूक्ष्मता और मौलिकता से छुआ है। अन्त में उन्होने निष्कर्ष दिया कि ऐसे उत्तम कोटि के उपन्यास बहुत कम और बहुत समय बाद आते हैं।

    प्रसिद्ध नाटकार-कथाकर असगर वजाहक ने बताया कि उपन्यास भूत, वर्तमान और भविष्य में विचरण करते हुए अवध प्रदेश की सामंती व्यवस्था के उपनिदेशवादी व्यवस्था में अंतरण की कथा कहता है। उपन्यास में हमें तत्कालीन समाज में धर्म उस अर्थ से भिन्न अर्थ में दिखाई पड़ता है जो आज के समाज में हावी होता जा रहा है।

    मुख्य अतिथि प्रो. नित्यानंत तिवारी ने कहा कि उपन्यास इतिहास की धारा को सही ढंग से उभारता है। उसकी अन्तःगतिशीलता और क्राइसिस की धार को कुंठित नहीं करता। तत्कालीन समाज में जो डर व्याप्त है, उपन्यास का हर पात्र उसकी गिरफ्त में है। उस डर और उसके पीछे की अमानवीयता से सतत् लड़ता हुआ दिखाई पड़ता है जो आज के परिदृश्य के लिए बेहद प्रासंगिक है। उपन्यास हिन्दू-मुस्लिम साझा समाज का वह रूप पेश करता है जो जायसी के पद्मावत में मिलता है।

    अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने उपन्यास को इतिहास की प्रक्रिया से उपजे उस संकट के मर्म को खोलने वाला बताया जिसमें व्यापारी बनकर आए अंग्रेज राज सत्ता पर काबिज होते हैं। इतिहासकार राय चैधरी का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि इस उपन्यास में उन्नीसवीं शताब्दी के उपन्यासों की तरह कहीं भी मुस्लिम पुरुष और महिला पात्रों को मानव चरित्र की बुराई की प्रतीक के रूप में नहीं दिखाया गया है। यह कृति धर्म का अतिक्रमण करती हुई मुनष्य के उज्जवल पक्ष को उजागर करने के कारण इस शताब्दी की महत्वपूर्ण औपन्यासिक कृति के रूप में जानी जाएगी।

    परिचर्चा के समापन के पूर्व अनुपम भट्ट ने प्रतिष्ठित दक्षिण भारतीय लेखक और कर्नाटक विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो. टी.आर. भटट् द्वारा भेजा गया संदेश पढ़कर सुनाया जिसमें उन्होंने कमलाकान्त त्रिपाठी को बधाई देते हुए उन्हें दक्षिण भारत के एस.एल. भैरप्पा के समकक्ष बताया।

    अंत में अनुपम भट्ट ने धन्यवाद ज्ञापन करते हुए सभी उपस्थित वक्ताओं और श्रोताओं के प्रति आभार प्रकट किया।
  • फुल रिपोर्ट किताबघर प्रकाशन की फेसबुक वाल से साभार
  • अमित धर्मसिंह
  • Kamlakant Tripathi’s recently published 6th book ‘Saryu Se Ganga’, a historical fiction against the backdrop of 18th century Awadh, was up for discussion by a panel of luminaries comprising renowned litterateurs, academicians and critics, last Sunday at the Sahitya Academy, New Delhi. 

  • Notable among them were Critic, Academician and Activist Prof. Murli Manohar Prasad Singh; Critic and Academician Prof. Nityanand Tewari; Litterateur, Academician and Critic Dr. Karan Singh Chauhan, Critic and Litterateur Dr. Sanjeev Kumar; renowned Playwright Asghar Vajahat; Poet, Academician and Critic Dr. Bali Singh; Academician Amit Dharam Singh and Journalist Rakesh Tewari.

  • While there were comparisons with Tolstoy’s War and Peace, the 600 page tome was recognised to have brought alive the life and times of ordinary folk from centuries ago, with intricate details of landscape and topography, the extraordinary human spirit fueling change - a people oriented zamindari as an alternative to landowning system of the time, relationships surging or snuffed by social frameworks as a larger crisis was taking root. It would slowly but surely engulf all in its fold, leaving nearly nothing as before.

  • The inroads made by the profiteering overseas company under the aegis of it’s imperialist Nation State was wreaking widespread havoc on the erstwhile socio- economic and political fabric, rendering blows that would resonate far into the future laying fault lines that refuse to mend possibly to this day.
  • Report by Manisha Tripathi from her Facebook Waal

https://www.samachar4media.com/media-forum-news/writers-discussed-about-kamlakant-tripathi-novel-50565.html












Comments

  1. बधाई , मेरे भाई।
    अल्लाह करे जोरे करम और जियादा..

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  2. बधाई अमित धर्म सिंह और धन्यवाद भी👍

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  3. बहुत ही सारगर्भित आयोजन ऐसे विषयों पर संवाद सराहनीय ही नहीं स्मरण रखने योग्य है ।🙏

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  4. शुक्रिया प्रतिभा जी

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