कविताएं

अमित धर्मसिंह की पंद्रह कविताएं


१.बरसात

हमारी छोटी उम्र में
बरसात बड़ी मुश्किलें लेकर आती।
हालांकि हमने
बरसात में कागज़ की नाँव चलाई,
गलियों में भरे पानी में उछले-कूदे,
ओले चुगकर खाये,
बारिस बंद करवाने के लिए
उलटे तवे-परात बजाये,
मगर यह सब ज्यादा दिन नहीं चला।

हमारे कमरे की छत
घंटे दो घंटे की बारिश ही सह पाती,
झड़ लगता तो हमारी शामत आ जाती,
छत से पानी टपकना शुरू होता तो
सबसे पहले पापा चूने वाली जगह को
लाठी से ठोकते,
ताकि चूने वाला स्थान उभारकर
छत का चूना बंद किया जा सके।

विफल होने पर
कोई कट्टा या बोरी ओढ़कर
घुप अँधेरी रात में ही छत पर चढ़ा जाता,
हाथ से पूरी छत लेहसी जाती।
छत पर चढ़ने-उतरने के लिये
दीवार में निकली ईंटों का प्रयोग होता,
जिनसे रिपटने का खतरा बराबर बना रहता।

तिस पर छत का टपकना बढता जाता,
पूरी छत जगह-जगह से टपकने लगती,
छोटे से कमरे में जगह-जगह
बाल्टी, तसला, भिगौना, आदि रखे जाते,
जिनका पानी बार-बार बाहर फेंकना होता।
फिर भी नौबत
घर में रखे बर्तनों और कपड़ो के
भीगने की आ जाती,
एक खाट दरवाजे के बीचोबीच बिछाई जाती,
जो आधी कमरे में
और आधी बाहर छप्पर में होती,
यही स्थान पानी के चूने से बचा रहता,
इसी खाट पर काम की चीजें
और हम बच्चे सिमटने लगते,
बाकी सब अपनी-अपनी जगह
खामोश भीगते हुए
बारिश बंद होने की बाट जोहते।

भीगते-भीगते हम एक-दूसरे पर
अपनी-अपनी खीज निकालते,
माँ कहती-
इतने दिन हो गये नाशगये को
दूसरों के घर बनाते-बनाते
आज तक अपनी छान पर
ढंग का फूस तक नी डाल सका,
हममें से कोई कहता-
हर बार का यो ही ड्रामा है
एक पन्नी तक नी लाके रखी जा सकती ?
पापा चुपचाप कपड़े संगवाने में लगे रहते
माँ बड़बड़ाती हुई
बर्तन-भांडे सवारती।
माँ की आँख से टपकते आँसू
बारिश के पानी में धुलते रहते।
हम बच्चे एक-दूसरे का मुँह ताकते हुए
पसर जाने की
जगह बनाने के जुगाड़ में लगे रहते;
पूरी-पूरी रात ऐसे ही निकल जाती।

सर्दियों की बारिश में
रिजाई का निचोड़ना सबसे भारी पड़ता।
धीरे-धीरे भीगती रिजाई में
पापा का सुनाया किस्सा याद आता-
'एक साल बहुत ओले पड़े,
हमारे पास बड़ी ठाड़ी भूरी भैंस थी,
कमरे में एक भैंस के खड़े होने की ही जगह थी,
उस रात नन्नो बुढ़िया की लड़ाकू भैंस
खुंटा तुड़ाके हमारे घर में घुस आयी,
काफी कोसिस के बाद
वो घर से ना निकली,
सारी रात भूरी भैंस
छप्पर में खड़ी-खड़ी ओलों में छितती रही,
रींकती रही;
सुबह तक न छप्पर पर फूस बचा
न भूरी भैंस पर खाल।
मरी ही निकली बिचारी भूरी भैंस।'

रिजाई पर पड़ती
बारिश की एक-एक बूँद हमें
भूरी भैंस की पीठ पर पड़ते
ओले की तरह महसूस होती,
मन भीतर-भीतर रींकता रहता।।


२.आदी

होश सँभालने से पहले ही
हमें डराया गया
हव्वा, कोक्को, लुल्लु से,
पाँव में जेवड़ी बाँधकर
खाट के पावे से बाँधा गया
ताकि हम एक सीमा में ही
घूम-फिर सके।

बोलना शुरू किया तो
भूत-पिशाचों
और भगवान का भय दिखाकर
हमारी अपार संभावनाओं
को नष्ट किया गया।

गली-मोहल्ले में
बाहर निकलने से पहले
बड़े लोगों की
क्रूरता के किस्से सुनाये गये;
उँगलियों पर गिनाये गये
क्रूर लोगों के वर्ग, जाति और धर्म।

बाद में हमने इसे सच पाया
तो हमारे हौंसले और पस्त हुए।

अब उस हाथी की तरह
एक कमज़ोर रस्सी से भी
बँधे खड़े रहते हैं हम,
जो बंधकर खड़े होने का
आदी हो चुका होता है।।


३.वे नहीं जानते !

वे नहीं जानते !
किस मौसम में क्या खाना है
क्या पहनना है ।

जो उपलब्ध होता है
खा लेते हैं,
ओढ़-पहन लेते हैं ।

खाने के बाद
मुँह में सौंफ-मिसरी डालना
या औढ़-पहनकर
फैशन से चलने का तो
उन्हें ख़्याल तक नहीं आता ।

रंगों की भी
पहचान नहीं उन्हें !
लाल,हरे, गेरुए को
वे आज तक नहीं पहचान पाये;
खाकी और सफ़ेद को भी
चपेट में आने के बाद ही
पहचानते हैं ।

हाँ ! काला जरूर
हर तरफ
नज़र आता है उन्हें ।

उन्हें ये भी नहीं पता
कि वे अब
आदमी से ज्यादा
वोट और बाज़ार में
खरीदी-बेचीं जाने वाली
ऐसी वस्तुएँ हैं
जिनका अपना
मूल्य तो होता है
लेकिन वह भी
उनके अपने लिए नहीं ।

उन्हें इस बात की भी
भनक नहीं
कि ज़िन्दगी प्यार से नहीं
व्यापार से चलने लगी है ।

ज़िन्दगी के हर गणित में फेल
वे भूल चुके हैं
ज़िन्दगी और मौत का फर्क ।

हाँ !
रिश्तों की गर्माहट
और प्रेम को
वे खूब पहचानते हैं ।


४.मेरा डर

अपने टूटने की दलक
घर पहुँचने के
ख़्याल से भी
डरता हूँ मैं ।

ज़बान के अनगढ़
तीरों का उत्पात
डराता है मुझे ।

किसी कहानी के
अचानक ख़त्म होने से
डर जाता हूँ मैं ।

जीवन की
एकरसता डराती है मुझे ।

नए का आग्रह
पुराने की आस्था
डराने वाली है ।

इन डरों के बीच की
निडरता डराती है ।

मैं
बुद्धि के फैलने से नहीं
दिल के सिकुड़ने से
डरा हुआ हूँ...।।


५.बहनें

बहनें शांत हैं
सौम्य और प्रसन्नचित्त भी;
उनके चेहरे की उजास
कम नहीं हुई
दुनियाभर की
झुलसाहट के बाद ।

बहनें
हमारे हाथ में
बाँधती हैं रक्षासूत्र;
करती हैं कामना
हमारी सुरक्षा की ।

बहनें हमारे घर में नहीं रहतीं
ख्याल में नहीं आतीं
सपने में भी कहाँ आती हैं बहनें;
पता नहीं
किस चोर दरवाज़े से
ले जाती हैं हमारी बलाएँ ।

माँ की नसीहत
पिता की डाँट
भाई की झल्लाहट के बाद भी
खुश दिखतीं हैं बहनें
हमारी ख़ुशी के लिए।

हमारी ख़ुशी के लिये
अपनी ख़ुशी
अपने सपने
अपना मन मारती हैं बहनें

बहनें हमारे पास नहीं
साथ होती हैं
अपनी उपस्थिति
दर्ज़ कराये बगैर ।

सच !
हमसे छोटी हों
या बड़ी ;
हर हाल में
हमसे बड़ी
होती हैं बहनें ।।



६.बहुत देर तक...

बहुत देर तक
महसूस होती हैं
माँ की नम आँखें,
पिता की ख़ामोशी ।

भाई-बहनों का मूक समर्पण
घेरता है बहुत देर तक ।

बहुत देर तक नहीं छूटता
आत्मीयता से मिलाया गया
दोस्त का हाथ ।

तीज-त्यौहार पर
खलती है दिवंगतों की कमी,
कोई बिछड़ा हुआ
याद आता है
बहुत देर तक ।

किसी को देखकर
सुध नहीं रहती
बहुत देर तक ।

बहुत देर तक नहीं लौटता मैं
प्रकृति में खोने के बाद ।

बहुत देर तक
बनी रहती है
स्मृति में निंदा और प्रसंशा ।

कभी-कभार
मिलने वाली ख़ुशी
रुलाती है
देर तक ,
बहुत देर तक...।।


७.नींव की ईंट

नींव की ईंट
दिखाई नहीं देती
न टकराती है पाँव से ।

ज़मीदोज़ नींव की ईंट
संभाले रहती है
इमारत को पीठ पर ।

चूँ-चिकारा तो दूर
करवट लिए बगैर
चुपचाप गलती रहती है
नींव की ईंट
इमारत के नीचे ।

नींव की ईंट होती है
तो इमारत होती है,
इमारत नहीं रहती
तो भी रहती है
नींव की ईंट ।

इमारत भले ही
नींव की ईंट का पता न दे,
इमारत का सही पता
नींव की ईंट ही देती है
इमारत के
न रहने पर भी ।।



८. देखो...!

देखो !
कि तुम क्या देखते हो
कैसे देखते हो
तुम्हें क्या देखना चाहिए ।

अंधेरों में
क्या दिखाई देता है,
उजालों में क्या छुपा होता है
सब देखो !

अतीत में देखो
तुम कहाँ थे
वर्तमान में कहाँ हो
भविष्य में कहाँ देखना है
अपनेआप को
ठीक से देखो !

लोग तुम्हें क्या दिखाते हैं
क्या छुपाते हैं
दुनिया कैसी दिखती है
कैसे देखती है
या तुम
कैसे देखते हो दुनिया को
आराम से देखो !

इस देखने का अंतर देखो
समानता देखो
समानांतरता देखो !

बाहर फैलती क्रूरता देखो ।
भीतर दुबकी कमज़ोरी देखो ।

एक आँख से पूर्वज
एक से वंशज देखो

इतिहास में झाँको
देखो
क्या देखा इतिहासकारों ने,
क्या देखना छूट गया

उसे तुम देखो
अपनी निगाह से,
पूरी ज़िम्मेदारी
पूरी सावधानी से...

देखो !
सबकुछ देखो
सबके लिए देखो ।।



९.विमर्शों की लड़ाई

आओ बैठे
उन मुद्दों पर चर्चा करें
जिनका हल नहीं खोजना,
बस उलझाये रखना है।

क्रांति, आंदोलन, विद्रोह को
दबाये रखने का यही
बेहतर उपाय है कि,
उन पर विमर्श चलाया जाए।

विमर्श भी ऐसा कि
ज़िन्दगी पूरी हो,
मगर विमर्श ख़त्म न हो।

जिनकी आवाज़ बुलंद है,
जिनकी बात में वज़्न है,
जिनके लिखने में धार है,
या जिन्हें सच देखने
और लिखने की आदत हो चुकी है,
सबको विमर्श में घसीटे
और कुछ सौदे करे।

कुछ सम्मान उन्हें दें
कुछ सम्मान उनसे लें,
उपाधियों और पुरस्कारों को
आपस में बाँटे।

ख़ुशी-ख़ुशी
परेशान लोगों को बताएँ-
यहाँ सब ठीक है,
हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं
वे बस धैर्य बनाये रखे,
संयम न खोये,
हम उनके लिये
आखिरी साँस तक लड़ेंगे।।


१०. उन्माद

क्रूस पर
टाँग दिया गया है आदमी,
उसके जिस्म में
ठोक दी गई हैं बहुत सी कीलें-
मस्तिष्क में धर्म की,
छाती में भय की,
पेट में सब्र की,
एक हाथ में
वोट की,
दूसरे में टैक्स की
पैरों में जड़ता की
कील ठोककर
हवा में लटका दिया गया है आदमी।
कानों में अफवाह का खौलता हुआ
तेल डालकर,
जबान को नारेबाजी से कीलकर,
आँखों के सामने
बड़ी स्क्रीन पर चला दी गयी हैं
छोटी-छोटी उन्मादी फिल्में,
जिससे क्रूस पर लटके होने के बाद भी,
मरने-मारने पर उतारू है आदमी।।
                   


११. जीवंत दस्तावेज़
(पुरखों को समर्पित)

मैंने तुम्हें
बक्से में ढूंढा,
शायद तुम्हारा कोई फोटो हो,
नहीं मिला,
घर में कभी नहीं रही
कोई एलबम।
अख़बारों में कहाँ छपे तुम
जो ढूंढता कतरने,
अखबार तो घर
आया तक नहीं,
आता भी क्यों
तुम पढ़े-लिखे ही कहाँ थे।

स्कूल,
मंदिर,
धर्मशालाओं के शिलालेखों में
नहीं मिला तुम्हारा नाम,
मिलता भी कैसे?
तुमने थोड़े ही बनवाया था इन्हें।
ईंट-गारा पकड़ाने वालों की
कहानी कहाँ लिखी जाती है
शिलालेखों में??

हड़प्पा, सिंधु, मोहनजोदड़ो
हर सभ्यता, घाटी में मौजूद थे तुम,
लेकिन किसी की खुदाई में नहीं मिले
तुम्हारे अवशेष।

तुम्हारे किस्से
ताम्रपत्रों, सिक्कों, मोहरों,
या किसी प्रशस्ति पत्र पर,
गुदे नहीं मिले।

धर्म की,
साहित्य की,
इतिहास की
किसी किताब में नहीं
तुम्हारा उल्लेख,
न कम न ज्यादा।

स्कूल से लेकर
खत्ते-खतौनियों तक के
रजिस्टर में
नहीं चढ़ाया गया
तुम्हारा नाम।

फिर भी
मैं जानता हूँ
तुम थे,
आज भी हो,
मेरी शक्ल में,
मैं तुम्हारे होने का सुबूत हूँ,
लाख मिटाए जाने के बाद
जीवंत दस्तावेज़ हूँ
तुम्हारे होने का।।(अमित धर्मसिंह)



१२.दो रंग का लिखने वाली कलम

हम जब छोटे थे
तो अपने दोस्त को
यह कहकर बेवक़ूफ़ बनाते थे-
ओ देख बे मैं इस नीले पेन से
लाल लिख दूँगा,
उसको लगता
नीला चलने वाला पेन
लाल कैसे लिख सकता है,
वह हमें लाल लिखने को कहता,
हम झट से कॉपी पर लिखते "लाल"
और पूछते-
बता बे ये क्या लिखा?
"लाल", कहकर वह कहता
मैं तो समझा था कि तुम
नीली स्याही वाले पेन से
लाल रंग का लिखोगे।
मगर फिर कौन सुनता,
सब उसकी मज़ाक बनाते,
जबकि वह सही होता,
कि एक रंग की स्याही वाले पेन से
कहाँ लिखा जा सकता है
दो रंग का।

मगर अब ऐसा नहीं
अब एक ही रंग की स्याही से
लिखा जा सकता है कई रंग का,
कम से कम
दो रंग का तो लिखा ही जा सकता है,
आप कह सकते हैं
आदमियों की तरह
कलम भी हो गयी है दोगली,
स्याह को श्वेत और
श्वेत को स्याह करना
खूब आता है अब कलम को।

यह कमाल कलम का नहीं
कलमकार का है,
वही लिख सकता है
एक रंग की स्याही से कई रंग का,
वो भी ठोस प्रामाणिकता
और पूरे दावे के साथ,
और हाँ उसी की कलम
शब्बीरपुर पर नहीं लिख सकती एक शब्द भी
तो बनारस पर चल सकती है धाराप्रवाह।।



१३. कूड़ी के गुलाब

हम !
गमले के गुलाब की तरह नहीं,
कुकुरमुत्ते की तरह उगे ।

माली के फव्वारे ने
नहीं सींचीं हमारी जड़ें,
हमारी जड़ों ने
पत्थर का सीना चीरकर
खोजा पानी
कुटज की तरह ।

कुम्हार के हाथों ने नहीं गढ़ा ,
वक़्त के थपेड़ों ने सँवारा हमें ।

किसी की ऊँगली पकड़ने से ज्यादा
हम अपनी ठोकरों से सम्भले ।

हमारी हड्डियों ने कैल्शियम
गोलियों या सिरप से नहीं ,
मिट्टी खाकर प्राप्त किया ।

ज़मीन पर नंगे पाँव चलते
या तसले में
'करनी' की करड़-करड़ से
आज भी नहीं
किटकिटाते हमारे दाँत ।

मिट्टी में जन्मे,
मिट्टी में खेले ,
मिट्टी खाकर पले,
इसलिए मिट्टी से
गहरा रिश्ता है हमारा ।

बेशक आसमान का
इंद्रधनुष कोई हो !
ज़मीन पर-
'कूड़ी के गुलाब'
और
'गुदड़ी के लाल'
हम ही हैं ।।




१४. हमारे गाँव में हमारा क्या है  !

आठ बाई दस के
कड़ियों वाले कमरे में पैदा हुए,
खेलना सीखा तो
माँ ने बताया
हमारे कमरे से लगा कमरा
हमारा नहीं है,
दस कदम की दूरी के बाद
आँगन दूसरों का है।
हर सुबह
दूसरों के खेतों में
फ़ारिग़ होने गये
तो पता होता कि खेत किसका है
उसके आ जाने का डर
बराबर बना रहता।
तोहर के पापड़ों पर लपके,
या गन्ने पर रीझे
तो माँ ने आगाह किया कि
खेतवाला आ जायेगा।
दूसरों के कुबाड़े से
माचिस के तास चुगकर खेले
दूसरों की कुड़ियों से
पपैया फाड़कर बजाया
दूसरों के खेतों से बथुआ तोड़कर लाये,
आलू चुगकर लाये,
दूसरों के खेतों में ही
गन्ने बुवाते
धान रोपते, काटते,
दफन होते रहे हमारे पुरख़े
दूसरों के खेतों में ही।
ये खेत मलखान का है
वो ट्यूबवेल फूलसिंह की है
ये लाला की दुकान है
वो फैक्ट्री बंसल की है
ये चक धुम्मी का है
वो ताप्पड़ चौधरी का है,
ये बाग़ खान का है,
वो कोल्हू पठान का है,
ये धर्मशाला जैनियों की है,
वो मंदिर पंडितों का है,
कुछ इस तरह जाना
हमने अपने गाँव को।
हमारे गाँव में हमारा क्या है!
ये हम आज तक नहीं जान पाए।



१५. विकास अभी तक...

आज भी घर
बहुत से लोगों का ख़्वाब है।

आज भी
बहुत से बच्चों के
सपने में आती है रोटी।

प्रेमी डरते हैं
प्रेम-प्रसंग के खुलने
या बताने से
आज भी।

आज भी
चैन से जीने के लिये
नहीं तलाश पाये हम
थोड़ी-सी ज़मीन।

मुठ्ठी भर आसमान नहीं
हमारे पास
उड़ान भरने के लिए।

बहुत पहले,
हाँ बहुत पहले...
हमने जो
कुछ पवित्र पुस्तकें लिखी थीं
अभी उनसे
उबर ही कहाँ पाये हम।।

Amit Dharamsingh
Mob. : 9310044324

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