कविताएं

अमित धर्मसिंह की ग्यारह कविताएं...


1.हमारे गाँव में हमारा क्या है !

आठ बाई दस के
कड़ियों वाले कमरे में पैदा हुए
खेलना सीखा तो
माँ ने बताया
हमारे कमरे से लगा कमरा
हमारा नहीं है
दस कदम की दूरी के बाद
आँगन दूसरों का है।

हर सुबह
दूसरों के खेतों में
फ़ारिग़ होने गये
तो पता होता कि खेत किसका है
उसके आ जाने का डर
बराबर बना रहता।

तोहर के पापड़ों पर लपके
या गन्ने पर रीझे
तो माँ ने आगाह किया कि
खेतवाला आ जायेगा।

दूसरों के कुबाड़े से
माचिस के तास चुगकर खेले
दूसरों की कूड़ियों से
पपैया फाड़कर बजाया
दूसरों के खेतों से बथुआ तोड़कर लाये
आलू चुगकर लाये।

दूसरों के खेतों में ही
गन्ने बुवाते
धान रोपते, काटते
दफन होते रहे हमारे पुरख़े
दूसरों के खेतों में ही।

ये खेत मलखान का है
वो ट्यूबवेल फूलसिंह की है
ये लाला की दुकान है
वो फैक्ट्री बंसल की है
ये चक धुम्मी का है
वो ताप्पड़ चौधरी का है
ये बाग़ खान का है
वो कोल्हू पठान का है
ये धर्मशाला जैनियों की है
वो मंदिर पंडितों का है
कुछ इस तरह जाना
हमने अपने गाँव को।

हमारे गाँव में हमारा क्या है!
ये हम आज तक नहीं जान पाए।

2.कोइली की बेटी

कोइली की बेटी बहुत जिद्दी थी।
गरीब थी, बीमार थी और भूखी भी
फिर भी जी गयी कई दिन।

वह जीना चाहती थी
इसलिये माँग रही थी भात
वही भात जिसे तुम्हारी नाक सूँघना तक पसंद नहीं करती
मगर कोइली की बेटी के प्राण बसते थे उसी भात में
अपने प्राणों के लिये लड़ रही थी कोइली की बेटी।

हाँ कोइली की बेटी लड़ाकू भी थी
फोटो देखा उसका? उसकी आँखों में
उनकी तस्वीर साफ़ दिखाई दे रही है
जिन्होंने उसके भात से दिवाली की मिठाई बनायी है।

उसकी सफ़ेद शर्ट बताती है कि
वह स्कूल जाती थी,
गर्दन वाला बटन बंद करके उसने
टाई के आने की भूमिका बनानी शुरू कर दी थी
यहीं से बनता कोइली की बेटी का आधार
इसी आधार पर कुछ बनना चाहती थी कोइली की बेटी
बन भी जाती और उनसे लड़ती भी
जिन्होंने उसके भात से बनायी थी
दिवाली की मिठाई।

जीतती भी कोइली की बेटी ही
इस बात को भात चुराने वाले भी जानते थे
इसलिये उन्होंने नहीं दिया
कोइली की बेटी को भात
उसके आधार को लिंक नहीं किया आधार कार्ड से
वे बहुत डरे हुए थे
क्योंकि कोइली की बेटी बहुत जिद्दी थी
बहुत लड़ाकू भी।।

3.थोड़ी सी जमीन बगैर आसमां

थोड़ी-सी ज़मीन बगैर आसमां
यह थोड़ी-सी ज़मीन
फुटपाथ पर हो सकती है
किसी पुल के नीचे हो सकती है
बस्तियों के बाहर हो सकती है
सड़क के किनारे या
रेलवे ट्रैक के बराबर में हो सकती है
ये कुछ ऐसी ज़मीने हैं
जिनका कोई आसमां नहीं होता।

बारिश इस ज़मीन पर रहने वालों के
सिर तक सीधे पहुँचती है
हवा इनकी झुग्गी-झोपड़ियों से
खुलकर मज़ाक करती है
सर्दी किसी बुरी आत्मा की तरह
इनकी हड्डियों में आ समाती है
सूरज इनमें जितना
प्राणों का संचार करता है
उससे ज़्यादा इनको जलाता है
दिन इनके लिये
नींद से डराकर उठाने वाले
किसी अलार्म से कम नहीं होता
जो सिर्फ़ यह बताने के लिए निकलता है-
चल उठ बे! काम पर चलने का वक़्त हो गया।

और हाँ! यह थोड़ी-सी ज़मीन
खेती की भी हो सकती है
और मरघट की भी
एक में मुर्दे दफ़्न होते हैं
तो दूसरी में ज़िंदा लोग
थोड़ा-थोड़ा रोज दफ़्न होने के लिए
पहुंचते रहते हैं
सुबह सवेरे से ही देर रात तक।
इन ज़मीनों का भी कोई आसमां नहीं होता।।

4.वे जब पैदा होते हैं

वे जब पैदा होते हैं
तो उनकी आँखों में दूधिया चमक होती है
सही पोषण के अभाव में
वह धीरे-धीरे पीली पड़ती जाती है
और उनकी आँखों की ज़मीन बंज़र हो उठती है
जो सपने बोने के नहीं
दफनाने के काम आती है।

वे जब पैदा होते हैं
तो उनकी रीढ़ सीधी होती है
कंधों पर जरूरत से ज़्यादा भार से
वह धीरे-धीरे झुकती जाती है
जो सीधे खड़े होकर नहीं
झुककर चलने के काम आती है।

वे जब पैदा होते हैं
तो उनके रंग उजियारे होते हैं
गंदगी उगलते समाज में रहकर
उनका रंग धीरे-धीरे धूमिल होता जाता है
जो पहचान बनाने के नहीं
छुपाने के काम आता है।

वे जब पैदा होते हैं
तो उनका मस्तिष्क कोरी स्लेट होता है
लगातार स्याही पोते जाने से
वह इतना स्याह हो उठता है
कि वह मोती जैसे अक्षर गढ़ने के नहीं
स्याही पोतने के ही काम आता है।

वे जब पैदा होते हैं
तो एक समृद्ध दुनिया में आँख खोलते हैं
बड़े होने के साथ
धीरे-धीरे उन्हें अहसास होता है
कि इस भरी-पूरी दुनिया में
वे कितने अकेले और कंगाल हैं
उनके पैदा होने से पहले ही
उनका सब कुछ छीना जा चुका होता है
अब उनकी ज़िन्दगी जीने के लिए नहीं
सिर्फ ढोने के काम आती है।

5.जीवन की जंग

पैदा होने के साथ
वे एक जंग लड़ने लगते हैं
उनकी जंग सीमा पर लड़े जाने वाली जंग नहीं होती
न उस तरह की जंग होती है
जो देश के भीतर लड़ी जाती है
जातीयता और धर्म के हथियारों से।

उनकी जंग
अल्पपोषण की शिकार
माँ की दूधियों से दूध निचोड़ने की जंग होती है
वे रोटी, कपड़ा और मकान के दम पर
जीवन की जंग नहीं लड़ते
बल्कि उनको हासिल करने के लिये
जीवन दाँव पर लगाये रखते हैं।

दरांती, खुरपा, कुदाल, फावड़ा
करनी-बिसौली या छैनी-हथौड़ी
उनके जंगी हथियार होते हैं
बहुत बार वे अपने हथियारों से भी जख़्मी होते हैं
कई बार तो मर भी जाते हैं
अपने ही हथियार से।

फिर भी
जीवित बचे रहने के लिए
वे लगातार लड़ते हैं
जबकि उन्हें मालूम तक नहीं होता
कि उनकी लड़ाई किससे है
कौन उन पर कहाँ से हमले करता है
वे बस चारों तरफ से हो रहे हमलों से
लहूलुहान होते रहते हैं
और अपनी पूरी शक्ति समेटकर
अपने मट्ठे हथियारों से युद्धरत रहते हैं।

उनके जीवन में संघर्ष-विराम
या संधि-वार्ता जैसी कोई चीज़ नहीं होती।

अंत मे वे लड़ते हुए ही मारे जाते हैं
मगर उनके काँधों पर
बहादुरी का तमगा नहीं लगाया जाता
न ही उनके जिस्म लपेटे जाते हैं किसी ध्वज में
देश की जबान में ऐसे लोग
शहीद नहीं होते
क्योंकि वे देश की नहीं
जीवन की जंग लड़ते हैं।




6.यह आम रास्ता नहीं है

उनका बनाया एक भी रास्ता आम नहीं था
इसलिए उन्होंने हर रास्ते पर लिख रखा था
यह आम रास्ता नहीं है
अथवा यह निजी रास्ता है
बिना आज्ञा प्रवेश निषेध।
प्रवेश की आज्ञा आम आदमी को नहीं
उनके अपने खास लोगों को थी
सिर्फ वे ही आ-जा सकते थे
उनके बनाये खास और निजी रास्तों से।

उन्होंने कुछ खास सुविधाओं को ध्यान में रखकर
रास्तों पर कुछ पुल बनवाये थे
ताकि वे भीड़ के ऊपर से जा सके
इन पुलों पर कोई सिग्नल, रेड लाइट आदि नहीं थे
इसलिये वे बगैर रोक-टोक
आ-जा सकते थे पुलों से कभी भी।

आम आदमी इन पुलों से भी नहीं आ-जा सकता था
उसके पैरों में इतनी रफ्तार नहीं थी
कि वह दौड़ सकता उनके संवाहको के साथ।

बारिश में कुछ पल आम आदमी
पुल के नीचे खड़ा भर रह सकता था,
रिक्शा वाले, ठेली वाले या दूसरे फेरीवाले
सुस्ता भर सकते थे पुल के नीचे
छोटी-मोटी सब्जी आदि की दुकान लगाकर
जीवन चलाने की जद्दोजहद कर सकते थे
या सो सकते थे उस जगह
जो बच गयी हो गायों-बैलों या गधे-घोड़ों से।

कुछ पुलों के नीचे तो इतनी गंदगी जमा कर दी गयी थी
कि जानवर तक जाने से कतराते थे उनके नीचे
कुछ पुल इतने कमज़ोर बनाये गए थे
कि इनके नीचे दबकर मर सके आम आदमी।

और हाँ! खास रास्तों के नीचे या ऊपर
कुछ, सब वे या पैदल पार पथ भी बनाये गए थे
जो सिर्फ आम आदमी के लिये थे
ताकि आम आदमी को भेजा जा सके
मुख्य मार्ग से इस तरफ या उस तरफ।।



7.बरसात

हमारी छोटी उम्र में
बरसात बड़ी मुश्किलें लेकर आती।
हालांकि हमने
बरसात में कागज़ की नाँव चलाई
गलियों में भरे पानी में उछले-कूदे
ओले चुगकर खाये
बारिस बंद करवाने के लिए
उलटे तवे-परात बजाये
मगर यह सब ज्यादा दिन नहीं चला।

हमारे कमरे की छत
घंटे दो घंटे की बारिश ही सह पाती
झड़ लगता तो हमारी शामत आ जाती
छत से पानी टपकना शुरू होता तो
सबसे पहले पापा चूने वाली जगह को
लाठी से ठोकते
ताकि चूने वाला स्थान उभारकर
छत का चूना बंद किया जा सके।

विफल होने पर
कट्टा या बोरी ओढ़कर
घुप अँधेरी रात में ही छत पर चढ़ा जाता
हाथ से पूरी छत लेहसी जाती।
छत पर चढ़ने-उतरने के लिये
दीवार में निकली ईंटों का प्रयोग होता
जिनसे रिपटने का खतरा बराबर बना रहता।

तिस पर छत का टपकना बढता जाता
पूरी छत जगह-जगह से टपकने लगती
छोटे से कमरे में जगह-जगह
बाल्टी, तसला, भिगौना, आदि रखे जाते
जिनका पानी बार-बार बाहर फेंकना होता।

फिर भी नौबत
घर में रखे बर्तनों और कपड़ो के
भीगने की आ जाती।

एक खाट दरवाजे के बीचोबीच बिछाई जाती
जो आधी कमरे में
और आधी बाहर छप्पर में होती
यही स्थान पानी के चूने से बचा रहता
इसी खाट पर काम की चीजें
और हम बच्चे सिमटने लगते
बाकी सब अपनी-अपनी जगह
खामोश भीगते हुए
बारिश बंद होने की बाट जोहते।

भीगते-भीगते हम एक-दूसरे पर
अपनी-अपनी खीज निकालते
माँ कहती-
इत्ते दिन हो गये नाशगये को
दूसरों के घर बनात्ते-बनात्ते
आज तक अपनी छान पर
ढंग का फूस तक नी डाल सका
हममें से कोई कहता-
हर बार का यो ही ड्रामा है
एक पन्नी तक नी लाके रखी जा सकती
पापा चुपचाप कपड़े संगवाने में लगे रहते
माँ बड़बड़ाती हुई
बर्तन-भांडे सँवारती।

माँ की आँख से टपकते आँसू
बारिश के पानी में धुलते रहते।
हम बच्चे एक-दूसरे का मुँह ताकते हुए
पसर जाने की
जगह बनाने के जुगाड़ में लगे रहते
पूरी-पूरी रात ऐसे ही निकल जाती।

सर्दियों की बारिश में
रिजाई का निचोड़ना सबसे भारी पड़ता।
धीरे-धीरे भीगती रिजाई में
पापा का सुनाया किस्सा याद आता-
एक साल बहुत ओले पड़े
हमारे पास बड़ी ठाड़ी भूरी भैंस थी
कमरे में एक भैंस के खड़े होने की ही जगह थी
उस रात नन्नो बुढ़िया की लड़ाकू भैंस
खुंटा तुड़ाके हमारे घर में घुस आयी
काफी कोसिस के बाद
वो घर से ना निकली
सारी रात हमारी भूरी भैंस
छप्पर में खड़ी-खड़ी ओलों में छितती रही
रींकती रही
सुबह तक न छप्पर पर फूस बचा
न भूरी भैंस पर खाल।
मरी ही निकली बिचारी भूरी भैंस।

रिजाई पर पड़ती
बारिश की एक-एक बूँद हमें
भूरी भैंस की पीठ पर पड़ते
ओले की तरह महसूस होती
मन भीतर-भीतर रींकता रहता।।


8.बहनें

बहनें शांत हैं
सौम्य और प्रसन्नचित्त भी
उनके चेहरे की उजास
कम नहीं हुई
दुनियाभर की
झुलसाहट के बाद ।

बहनें
हमारे हाथ में
बाँधती हैं रक्षासूत्र
करती हैं कामना
हमारी सुरक्षा की ।

बहनें हमारे घर में नहीं रहतीं
ख्याल में नहीं आतीं
सपने में भी कहाँ आती हैं बहनें
पता नहीं
किस चोर दरवाज़े से
ले जाती हैं हमारी बलाएँ ।

माँ की नसीहत
पिता की डाँट
भाई की झल्लाहट के बाद
खुश दिखतीं हैं बहनें
हमारी ख़ुशी के लिए।

हमारी ख़ुशी के लिये
अपनी ख़ुशी
अपने सपने
अपना मन मारती हैं बहनें

बहनें हमारे पास नहीं
साथ होती हैं
अपनी उपस्थिति
दर्ज़ कराये बगैर ।

सच !
हमसे छोटी हों
या बड़ी
हर हाल में
हमसे बड़ी
होती हैं बहनें ।।


9.जीवंत दस्तावेज़

मैंने तुम्हें
बक्से में ढूंढा
शायद तुम्हारा कोई फोटो हो
नहीं मिला
घर में कभी नहीं रही
कोई एलबम।

अख़बारों में कहाँ छपे तुम
जो ढूंढता कतरने
अखबार तो घर
आया तक नहीं
आता भी क्यों
तुम पढ़े-लिखे ही कहाँ थे।

स्कूल, मंदिर
धर्मशालाओं के शिलालेखों में
नहीं मिला तुम्हारा नाम
मिलता भी कैसे
तुमने थोड़े ही बनवाया था इन्हें।
ईंट-गारा पकड़ाने वालों की
कहानी कहाँ लिखी जाती है
शिलालेखों में

हड़प्पा, सिंधु, मोहनजोदड़ो
हर सभ्यता, घाटी में मौजूद थे तुम
लेकिन किसी की खुदाई में नहीं मिले
तुम्हारे अवशेष।

तुम्हारे किस्से
ताम्रपत्रों, सिक्कों, मोहरों
या किसी प्रशस्ति पत्र पर
गुदे नहीं मिले।

धर्म की
साहित्य की
इतिहास की
किसी किताब में नहीं
तुम्हारा उल्लेख
न कम न ज्यादा।

स्कूल से लेकर
खत्ते-खतौनियों तक के
रजिस्टर में
नहीं चढ़ाया गया
तुम्हारा नाम।

फिर भी
मैं जानता हूँ
तुम थे
आज भी हो
मेरी शक्ल में
मैं तुम्हारे होने का सुबूत हूँ
लाख मिटाए जाने के बाद
जीवंत दस्तावेज़ हूँ
तुम्हारे होने का।


10.कूड़ी के गुलाब

हम !
गमले के गुलाब की तरह नहीं
कुकुरमुत्ते की तरह उगे ।
माली के फव्वारे ने
नहीं सींचीं हमारी जड़ें
हमारी जड़ों ने
पत्थर का सीना चीरकर
खोजा पानी
कुटज की तरह।

कुम्हार के हाथों ने नहीं गढ़ा
वक़्त के थपेड़ों ने सँवारा हमें।

किसी की ऊँगली पकड़ने से ज्यादा
हम अपनी ठोकरों से संभलें।

हमारी हड्डियों ने कैल्शियम
गोलियों या सिरप से नहीं
मिट्टी खाकर प्राप्त किया।

ज़मीन पर नंगे पाँव चलते
या तसले में
'करनी' की करड़-करड़ से
आज भी नहीं
किटकिटाते हमारे दाँत ।

मिट्टी में जन्मे
मिट्टी में खेले
मिट्टी खाकर पले
इसलिए मिट्टी से
गहरा रिश्ता है हमारा ।

बेशक आसमान का
इंद्रधनुष कोई हो !
ज़मीन पर-
'कूड़ी के गुलाब'
और
'गुदड़ी के लाल'
हम ही हैं ।।


11. दो रंग का लिखने वाली कलम

हम जब छोटे थे
तो अपने दोस्त को
यह कहकर बेवक़ूफ़ बनाते थे-
ओ देख बे मैं इस नीले पेन से
लाल लिख दूँगा
उसको लगता
नीला चलने वाला पेन
लाल कैसे लिख सकता है
वह हमें लाल लिखने को कहता
हम झट से कॉपी पर लिखते "लाल"
और पूछते-
बता बे ये क्या लिखा
'लाल' कहकर वह कहता
मैं तो समझा था कि तुम
नीली स्याही वाले पेन से
लाल रंग का लिखोगे।

मगर फिर कौन सुनता
सब उसकी मज़ाक बनाते
जबकि वह सही होता
कि एक रंग की स्याही वाले पेन से
कहाँ लिखा जा सकता है
दो रंग का।

मगर अब ऐसा नहीं
अब एक ही रंग की स्याही से
लिखा जा सकता है कई रंग का
कम से कम
दो रंग का तो लिखा ही जा सकता है
आप कह सकते हैं
आदमियों की तरह
कलम भी हो गयी है दोगली
स्याह को श्वेत और
श्वेत को स्याह करना
खूब आता है अब कलम को।

असल में
यह कमाल कलम का नहीं
कलमकार का है
वही लिख सकता है
एक रंग की स्याही से कई रंग का
वह भी ठोस प्रामाणिकता
और पूरे दावे के साथ
उसी की कलम
बनारस पर चल सकती है धाराप्रवाह
तो शब्बीरपुर पर
हो सकती है लकवाग्रस्त।

         -अमित धर्मसिंह

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