कविताएं


अमित धर्मसिंह की पांच कविताएं...

१.वे जब पैदा होते हैं

वे जब पैदा होते हैं
तो उनकी आँखों में दूधिया चमक होती है
सही पोषण के अभाव में
वह धीरे-धीरे पीली पड़ती जाती है
और उनकी आँखों की ज़मीन बंज़र हो उठती है
जो सपने बोने के नहीं
दफनाने के काम आती है।

वे जब पैदा होते हैं
तो उनकी रीढ़ सीधी होती है
कंधों पर जरूरत से ज़्यादा भार से
वह धीरे-धीरे झुकती जाती है,
जो सीधे खड़े होकर नहीं
झुककर चलने के काम आती है।

वे जब पैदा होते हैं
तो उनके रंग उजियारे होते हैं
गंदगी उगलते समाज में रहकर
उनका रंग धीरे-धीरे धूमिल होता जाता है
जो पहचान बनाने के नहीं
छुपाने के काम आता है।

वे जब पैदा होते हैं
तो उनका मस्तिष्क कोरी स्लेट होता है
लगातार स्याही पोते जाने से
वह इतना स्याह हो उठता है
कि वह मोती जैसे अक्षर काढ़ने के नहीं
स्याही पोतने के ही काम आता है।

वे जब पैदा होते हैं
तो एक समृद्ध दुनिया में आँख खोलते हैं
बड़े होने के साथ
धीरे-धीरे उन्हें अहसास होता है
कि इस भरी-पूरी दुनिया में
वे कितने अकेले और कंगाल हैं
उनके पैदा होने से पहले ही
उनका सब कुछ छीना जा चुका होता है
अब उनकी ज़िन्दगी जीने के लिए नहीं
सिर्फ ढोने के काम आती है।।


२. लोहा

डेग से निकले पीकर
(टेपरिकॉर्डर से निकले स्पीकर) की चुम्बक
लोहे को ही नहीं
उनको भी खींचती थी अपनी ओर,
जितनी बड़ी चुंबक, उतना बड़ा खिंचाव,
चुम्बक का पूरा गोल घेरा मिल जाता
तो मज़ा ही आ जाता।

घेरे को किसी मोटी लकड़ी में फँसाकर,
या किसी लंबी रस्सी में बांधकर रख लिया जाता,
चढ़ता सूरज, तपती दोपहरी, कड़कती सर्दी,
कोई भी मौसम हो,
कोई भी समय
घर से आँख बचाकर
निकल पड़ते थे
गाँव की टूटी-फूटी सड़कों पर
चुम्बक लेकर।

नंगे पैर, ढीली शर्ट,
बटन कुछ खुले, कुछ टूटे,
झबले नेकर में पतली-पतली मैली टाँगे,
ये ही हुलिया था उनका।

गाँव की सड़क के दोनों ओर
जितनी भी सरिया मिल या रोलिंग मिलें थीं
उनमें बड़े-बड़े सरिये, एंगल, गैट चैनल और गाटर बनते,
जो ऊंची-ऊंची इमारते
और बड़े-बड़े पुल बनाने में काम आते,
फैक्टरियां गांव में थीं
गांव की ज़मीन पर थीं,
मगर कभी किसी गाड़ी को गांव में खाली होते नहीं देखा।
गांव के बाहरी हिस्से में लोड हुई ये गाड़ियां
निकल जातीं थीं
बाहर से बाहर,गाँव से दूर।

इन गाड़ियों से लोहे का चूरा छनकर
गांव की सड़क पर गिरा करता,
जिसके लालच में वे दिनभर
चुम्बक को सड़क पर घिसराते फिरते,
चुम्बक पर जो लोहा चिपकता
उसे धूल-मिट्टी से अलग करके
किसी पन्नी या शर्ट की जेब में जमा कर लेते,
शाम होते-होते दो-चार सौ ग्राम लोहा हो जाता।

सुनने में आता कि ऐसा लोहा
गोली-कारतूस भरने के काम आता,
इसलिये उसे बेचने की उन्हें जल्दी रहती,
घर पहुंचने वाले रास्ते में उन्हीं दिनों,
जिन दिनों वे लोहा चुगने लायक हुए थे
एक दुकान खुली थी,
दुकानदार अपने घर के बाहर कट्टा बिछाकर बैठता,
मोटे,तोंदल, हट्टे-कट्टे दुकानदार के कट्टे पर
दो -चार बिस्कुट के पैकेट,
दो-चार टॉफियों के डिब्बे,
मंडल-माचिस के पैकेट,
एक-दो सिगरेट के बॉक्स
और एक लोहा तोलने की छोटी तराजू होती।

दुकानदार घर से तो मजबूत था
मगर दिल से कमज़ोर था,
लोग कहते कि उसके दिल में छेद है,
जिसका इलाज दिल्ली से चल रहा है।
खेती -किसानी वह कर नहीं सकता था,
इलाज के लिये घर से पैसा भी नहीं लेता था,
इसलिये उसने दुकान खोल ली थी,
ताकि इलाज के पैसे जुटाए जा सके।

चालाक इतना कि दिल्ली आने-जाने में
कभी ट्रेन का टिकट न खरीदता,
उलटे, ट्रेन में टॉफी-बिस्कुट बेचते हुए,
दिल्ली आया-जाया करता,
इलाज भी फ्री के किसी अस्पताल में चल रहा था,
जहाँ दवाई भी फ्री मिलती।

गाँव में कभी-कभी आने वाले कबाड़ी के अलावा
एक वही उनका लोहा खरीदता,
इसलिए मजबूरन लोहा लेकर
वे उसी के पास जाते,
चार-छह सौ ग्राम लगने वाला उनका लोहा,
तोलते वक्त कैसे सौ-दो सौ ग्राम रह जाता,
यह उनकी कभी समझ न आता,
वह कभी उन्हें अठन्नी-चवन्नी देता
तो कभी बिस्कुट-टॉफी देकर चलता कर देता।

वे उसी में सब्र करते,
दीन-सी खुशी मनाते,
थके-हारे घर आकर चुम्बक संगवाते,
डूबते मन को समझाते और सो जाते,
सपने में भी वे लोहा चुगते फिरते,
कई बार तो सपने में ही उनके हाथ
ढेर सारा लोहा लगता
सैकड़ों का बिकता,
सपने में मिला लोहा पाकर
वे जितना खुश होते
उससे ज्यादा दुखी आंख खुलने पर होते,
मगर उनके मन से ढेर सारे लोहे की उम्मीद न जाती,

इसी उम्मीद में वे अगले दिन फिर
दिन भर सड़क की खाक छानते।

एक दिन नहीं, दो दिन नहीं,
बरसों -बरस,
खूब सपने देखे,
खूब खाक छानी,
ढेर सारे लोहे के लिए
मगर ढेर सारा लोहा कभी हाथ नहीं लगा,
आखिर उनके मन में बसने वाला ढेर सारा लोहा,
पिघलकर जम गया उनके मन में ही हमेशा के लिये।।


३. जीवन की जंग

पैदा होने के साथ
वे एक जंग लड़ने लगते हैं,
उनकी जंग सीमा पर लड़े जाने वाली जंग नहीं होती,
न उस तरह की जंग होती है
जो देश के भीतर लड़ी जाती है
जातीयता और धर्म के हथियारों से।

उनकी जंग
अल्पपोषण की शिकार
माँ की दूधियों से दूध निचोड़ने की जंग होती है,
वे रोटी,कपड़ा और मकान के दम पर
जीवन की जंग नहीं लड़ते
बल्कि उनको हासिल करने के लिये
जीवन दाँव पर लगाये रखते हैं।

दरांती, खुरपा, कुदाल, फावड़ा
करनी-बिसौली या छैनी-हथौड़ी
उनके जंगी हथियार होते हैं,
बहुत बार वे अपने हथियारों से भी जख़्मी होते हैं,
कई बार तो मर भी जाते हैं
अपने ही हथियार से।

फिर भी वे
जीवित बचे रहने के लिए
लगातार लड़ते हैं,
जबकि उन्हें मालूम तक नहीं होता
कि उनकी लड़ाई किससे है,
कौन उन पर कहाँ से हमले करता है,
वे बस चारों तरफ से हो रहे हमलों से
लहूलुहान होते रहते हैं,
और अपनी पूरी शक्ति समेटकर
अपने मट्ठे हथियारों से लड़ते रहते हैं।

कि इसी तरह लड़ते-लड़ते
बीत जाता है उनका सारा जीवन,
उनके जीवन में संघर्ष-विराम
या संधि-वार्ता जैसी कोई चीज़ नहीं होती,
अंत मे वे लड़ते हुए ही मारे जाते हैं
मगर उनके काँधों पर
बहादुरी का तमगा नहीं लगाया जाता,
न ही उनके जिस्म लपेटे जाते हैं किसी ध्वज में,
देश की जबान में ऐसे लोग
शहीद नहीं होते,
क्योंकि वे देश की नहीं
जीवन की जंग लड़ते हैं।।
                         

४.थोड़ी - सी ज़मीन बगैर आसमां

यह थोड़ी-सी ज़मीन
फुटपाथ पर हो सकती है,
किसी पुल के नीचे हो सकती है,
बस्तियों के बाहर हो सकती है,
सड़क के किनारे या
रेलवे ट्रैक के बराबर में हो सकती है;
ये कुछ ऐसी ज़मीने हैं
जिनका कोई आसमां नहीं होता।

बारिश इस ज़मीन पर रहने वालों के
सिर तक सीधे पहुंचती है,
हवा इनकी झुग्गी-झोपड़ियों से
खुलकर मज़ाक करती है,
सर्दी किसी बुरी आत्मा की तरह
इनकी हड्डियों में आ समाती है,
सूरज इनमें जितना
प्राणों का संचार करता है
उससे ज़्यादा इनको जलाता है,
दिन इनके लिये
नींद से डराकर उठाने वाले
किसी अलार्म से कम नहीं होता
जो सिर्फ़ यह बताने के लिए निकलता है-
'चल उठ बे! काम पर चलने का वक़्त हो गया।'

और हाँ! यह थोड़ी-सी ज़मीन
खेती की भी हो सकती है
और मरघट की भी,
एक में मुर्दे दफ़्न होते हैं
तो दूसरी में ज़िंदा लोग
थोड़ा-थोड़ा रोज दफ़्न होने के लिए
पहुंचते रहते हैं
सुबह सवेरे से ही देर रात तक।
इन ज़मीनों का भी कोई आसमां नहीं होता।।
                                         

५. यह आम रास्ता नहीं है

उनका बनाया एक भी रास्ता आम नहीं था,
इसलिए उन्होंने हर रास्ते पर लिख रखा था,
'यह आम रास्ता नहीं है'
अथवा यह निजी रास्ता है,
बिना आज्ञा प्रवेश निषेध।'
प्रवेश की आज्ञा आम आदमी को नहीं
उनके अपने खास लोगों को थी,
सिर्फ वे ही आ-जा सकते थे
उनके बनाये खास और निजी रास्तों से।

उन्होंने कुछ खास सुविधाओं को ध्यान में रखकर
रास्तों पर कुछ पुल बनवाये थे,
ताकि वे भीड़ के ऊपर से जा सके
इन पुलों पर कोई सिग्नल, रेड लाइट आदि नहीं थे
इसलिये वे बगैर रोक-टोक
आ-जा सकते थे पुलों से कभी भी।

आम आदमी इन पुलों से भी नहीं आ-जा सकता था,
उसके पैरों में इतनी रफ्तार नहीं थी
कि वह दौड़ सकता उनके संवाहको के साथ।

बारिश में कुछ पल आम आदमी
पुल के नीचे खड़ा भर रह सकता था,
रिक्शा वाले, ठेली वाले या दूसरे फेरीवाले
सुस्ता भर सकते थे पुल के नीचे,
छोटी-मोटी सब्जी आदि की दुकान लगाकर,
जीवन चलाने की जद्दोजहद कर सकते थे,
या सो सकते थे उस जगह
जो बच गयी हो गायों-बैलों या गधे-घोड़ों से।

कुछ पुलों के नीचे तो इतनी गंदगी जमा कर दी गयी थी
कि जानवर तक जाने से कतराते थे उनके नीचे,
कुछ पुल इतने कमज़ोर बनाये गए थे
कि इनके नीचे दबकर मर सके आम आदमी।

और हाँ, खास रास्तों के नीचे या ऊपर
कुछ 'सब वे' या 'पैदल पार पथ' भी बनाये गए थे,
जो सिर्फ आम आदमी के लिये थे,
ताकि आम आदमी को भेजा जा सके
मुख्य मार्ग से इस तरफ या उस तरफ।।

                   - अमित धर्मसिंह

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