विष्णु प्रभाकर
अपने घर से निष्कासित विष्णु प्रभाकर...
ज़मीन किसी की नहीं होती और सबकी होती है । यह दो विरोधी बातें अगर कहीं एक साथ देखने को मिलती हैं तो ज़मीन के बारे में ही देखने को मिलती हैं। एक तरफ जहाँ ज़मीन सबके पालन-पोषण का महानतम कार्य करती है वहीँ ज़मीन ही है जो एक दिन अच्छे-अच्छे को लील देती है। "माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोए,इक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोए।।" और माटी के रौदने से न कोई बचा है और न बच पायेगा। मगर कुछ लोग इसी ज़मीन पर ऐसे जन्म लेते हैं जिन्हें न ज़मीन मिटा पाती है और न आसमान। क्योंकि "मौत से बचने की एक तरकीब है, दूसरों के ज़ेहन में जिंदा रहो।" और दूसरों के ज़ेहन में जिंदा रहने वाले लोग कभी नहीं मरते। ऐसे शख्स भी कभी नहीं मरते जो अपने हिस्से आयी ज़मीन का सदुपयोग करना जानते हैं। जीते जी तो जीते जी मरने के बाद भी वे अपनी ज़मीन पर सुनहरा इतिहास दर्ज कर जाते हैं। ऐसा ही सुनहरा इतिहास लिखने वाले एक जगत्प्रसिद्ध साहित्यकार थे विष्णु प्रभाकर। मगर आज की पीढ़ी उनकी ऐतिहासिक हैसियत और निशानी को गुमनामी की कारा में धकेलने की कोशिश हो रही है और हैरानी की बात तो यह है कि यह कोशिश उनके अपने घर में हो रही है।
विष्णु प्रभाकर मुज़फ़्फ़र नगर के ऐतिहासिक कस्बे मीरापुर के मूल निवासी थे। यहीं उनका पैतृक मकान था। बाद में वे दिल्लीवासी हो गए थे, किन्तु अनेक कालजयी रचनाएं उन्होंने मीरापुर के अपने पैतृक मकान में ही लिखीं। इस बात की गवाह खुद उस मकान के दरों-दीवार हैं। विष्णु प्रभाकर अपने जीते-जी इस मकान को सार्वजनिक उपयोग हेतु सुधि समाज को दानस्वरूप सौंप गये थे। उनकी मंशा थी कि उनके मकान को सार्वजनिक उपयोग हेतु समाज के लिये खुला रखा जाये साथ ही उसमें एक ऐसी लाइब्रेरी की स्थापना की जाये जहाँ बेहतरीन साहित्य जनोपयोग के लिये उपलब्ध हो सके। इसके लिए उन्होंने पुस्तकों से भरी-सजी अपनी तीन रैंक भी सहेज रखी थी ताकि यथासमय लाइब्रेरी को दी जा सके। लेकिन उनकी मंशा आज तक भी पूरी नहीं की जा सकी है। यह बात उस वक़्त सामने आयी जब मैं और मास्टर जी उनके पैतृक मकान को देखने मीरापुर गये।
हुआ ये कि हाल ही के कुछ पहले नितिन गोयल जी के बुलावे पर मास्टर जी के साथ मीरापुर जाना हुआ। गोयल जी की मेजबानी और घंटों तक चली बतकही से भीतर तक मन प्रसन्न रहा। विदा होते समय विष्णु प्रभाकर जीे का पैतृक निवास देखने गए। निवास देखने की जितनी उत्सुकता मन में थी उससे ज्यादा निवास में यह देखकर निराशा हुई कि जो मकान खुद विष्णु प्रभाकर का रहा हो और जिसे उन्होंने सदिच्छा से सार्वजनिक उपयोग और एक अदद लाइब्रेरी के लिये समाज को दान दिया हो उसमें विष्णु प्रभाकर जी की मंशानुसार लाइब्रेरी तो क्या खुद विष्णु प्रभाकर जी तक का कोई प्रभावशाली स्मृति चिह्न नहीं है। जबकि होना तो यह चाहिए कि ओइम सत्संग भवन और दुर्गा मंदिर में तब्दील कर दिए गये विष्णु प्रभाकर के घर में कम से कम लाइब्रेरी न सही मगर विष्णु प्रभाकर का एक यादगार स्टेचू और उसके नीचे प्रभाकर जी के परिचय का शिलाखंड तो लगा ही होना चाहिये था। इस सन्दर्भ में जब नितिन जी व साथियों से बात की तो पता चला कि भीतर की तरफ पिछले साल प्रभाकर जी की एक छोटी-सी तस्वीर बामुश्किल टंगवायी गयी है। यानि वह भी टँगी है स्थापित नहीं है। क्या आपको नहीं लगता कि प्रभाकर जी के पैतृक मकान रहे फ़िलहाल के सत्संग भवन में विष्णु प्रभाकर की यथोचित मूर्ती पूर्ण परिचय के साथ स्थापित होनी चाहिये?? या विष्णु प्रभाकर ऐसे ही अपने घर से निष्कासित रहेंगे...??
- अमित धर्मसिंह
ज़मीन किसी की नहीं होती और सबकी होती है । यह दो विरोधी बातें अगर कहीं एक साथ देखने को मिलती हैं तो ज़मीन के बारे में ही देखने को मिलती हैं। एक तरफ जहाँ ज़मीन सबके पालन-पोषण का महानतम कार्य करती है वहीँ ज़मीन ही है जो एक दिन अच्छे-अच्छे को लील देती है। "माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोए,इक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोए।।" और माटी के रौदने से न कोई बचा है और न बच पायेगा। मगर कुछ लोग इसी ज़मीन पर ऐसे जन्म लेते हैं जिन्हें न ज़मीन मिटा पाती है और न आसमान। क्योंकि "मौत से बचने की एक तरकीब है, दूसरों के ज़ेहन में जिंदा रहो।" और दूसरों के ज़ेहन में जिंदा रहने वाले लोग कभी नहीं मरते। ऐसे शख्स भी कभी नहीं मरते जो अपने हिस्से आयी ज़मीन का सदुपयोग करना जानते हैं। जीते जी तो जीते जी मरने के बाद भी वे अपनी ज़मीन पर सुनहरा इतिहास दर्ज कर जाते हैं। ऐसा ही सुनहरा इतिहास लिखने वाले एक जगत्प्रसिद्ध साहित्यकार थे विष्णु प्रभाकर। मगर आज की पीढ़ी उनकी ऐतिहासिक हैसियत और निशानी को गुमनामी की कारा में धकेलने की कोशिश हो रही है और हैरानी की बात तो यह है कि यह कोशिश उनके अपने घर में हो रही है।
विष्णु प्रभाकर मुज़फ़्फ़र नगर के ऐतिहासिक कस्बे मीरापुर के मूल निवासी थे। यहीं उनका पैतृक मकान था। बाद में वे दिल्लीवासी हो गए थे, किन्तु अनेक कालजयी रचनाएं उन्होंने मीरापुर के अपने पैतृक मकान में ही लिखीं। इस बात की गवाह खुद उस मकान के दरों-दीवार हैं। विष्णु प्रभाकर अपने जीते-जी इस मकान को सार्वजनिक उपयोग हेतु सुधि समाज को दानस्वरूप सौंप गये थे। उनकी मंशा थी कि उनके मकान को सार्वजनिक उपयोग हेतु समाज के लिये खुला रखा जाये साथ ही उसमें एक ऐसी लाइब्रेरी की स्थापना की जाये जहाँ बेहतरीन साहित्य जनोपयोग के लिये उपलब्ध हो सके। इसके लिए उन्होंने पुस्तकों से भरी-सजी अपनी तीन रैंक भी सहेज रखी थी ताकि यथासमय लाइब्रेरी को दी जा सके। लेकिन उनकी मंशा आज तक भी पूरी नहीं की जा सकी है। यह बात उस वक़्त सामने आयी जब मैं और मास्टर जी उनके पैतृक मकान को देखने मीरापुर गये।
हुआ ये कि हाल ही के कुछ पहले नितिन गोयल जी के बुलावे पर मास्टर जी के साथ मीरापुर जाना हुआ। गोयल जी की मेजबानी और घंटों तक चली बतकही से भीतर तक मन प्रसन्न रहा। विदा होते समय विष्णु प्रभाकर जीे का पैतृक निवास देखने गए। निवास देखने की जितनी उत्सुकता मन में थी उससे ज्यादा निवास में यह देखकर निराशा हुई कि जो मकान खुद विष्णु प्रभाकर का रहा हो और जिसे उन्होंने सदिच्छा से सार्वजनिक उपयोग और एक अदद लाइब्रेरी के लिये समाज को दान दिया हो उसमें विष्णु प्रभाकर जी की मंशानुसार लाइब्रेरी तो क्या खुद विष्णु प्रभाकर जी तक का कोई प्रभावशाली स्मृति चिह्न नहीं है। जबकि होना तो यह चाहिए कि ओइम सत्संग भवन और दुर्गा मंदिर में तब्दील कर दिए गये विष्णु प्रभाकर के घर में कम से कम लाइब्रेरी न सही मगर विष्णु प्रभाकर का एक यादगार स्टेचू और उसके नीचे प्रभाकर जी के परिचय का शिलाखंड तो लगा ही होना चाहिये था। इस सन्दर्भ में जब नितिन जी व साथियों से बात की तो पता चला कि भीतर की तरफ पिछले साल प्रभाकर जी की एक छोटी-सी तस्वीर बामुश्किल टंगवायी गयी है। यानि वह भी टँगी है स्थापित नहीं है। क्या आपको नहीं लगता कि प्रभाकर जी के पैतृक मकान रहे फ़िलहाल के सत्संग भवन में विष्णु प्रभाकर की यथोचित मूर्ती पूर्ण परिचय के साथ स्थापित होनी चाहिये?? या विष्णु प्रभाकर ऐसे ही अपने घर से निष्कासित रहेंगे...??
- अमित धर्मसिंह
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