मंत्रणा
मंत्रणा:
हर आदमी को लेखक होना चाहिये...
लिखना हमारे समय की मज़बूरी और ज़रूरत दोनों हैं। मज़बूरी इसलिये की इस क्रूर समय में हम शायद ही लिखने के अलावा कुछ कर सकते हैं और जरुरत इसलिए कि लिखना अब कला जैसी कोई चीज़ नहीं रह गयी है बल्कि अपने को बनाये रखने और अपने अधिकारों की रक्षा का एक सशक्त माध्यम बन गया है। बेबसी और लाचारी में एक लेखन ही है जो मनुष्य को सर्वाधिक संबल दे सकता है। सर्वविदित है कि लिखने में जबसे शिल्प और छंद के बंधन ढीले हुए हैं तबसे लेखन गरीबों और मजबूरों की आवाज़ बनकर उभरा है। भला हो मार्क जुकरबर्ग का कि जिसने लेखन को इतना बड़ा मंच दिया । इसी से यह कमाल संभव हो सका है कि गरीब से गरीब और अनपढ़ से अनपढ़ भी अपनी बात सार्वजनिक मंच पर शेयर करने लगा है। और अपने स्तर से भारतीय समाज और राजनीति को प्रभावित करने लगा है। यह बात और है कि इससे कुछ ने लेखन में बहुत ही हलके किस्म के प्रयोग किये हैं, और कॉपी पेस्ट करने वाले भी लेखक बन गए हैं। मगर जहाँ एक तरफ फेसबुक जैसे माध्यम का दुरूपयोग कर जनता को गुमराह कर जनमत जुटाने की राजनितिक साजिशें रची जाती हैं वहीँ कुछ अच्छे पढ़ने-लिखने वाले इसी माध्यम से जनता को गुमराह होने से बचाने और सत्ता को नियंत्रित करने की भी पुरजोर कोशिश करते हैं। आज स्त्रियाँ अपनी बातें रख रही हैं दलित अपनी बातें रख रहें हैं अथवा कोई भी पीड़ित शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज़ जनता जनार्दन तक पहुंचा रहा है। ऐसे में लेखन की कलात्मक कमज़ोरियां गौण हो जाती हैं और वह आवाज़ प्रमुख रूप से उभरकर सामने आती है जिसमें शोषण के विरुद्ध एक ललकार छुपी होती है, एक नफरत छुपी होती है, एक तिरस्कार छुपा होता है।इसलिये आज के क्रूरतम समय में इस जरुरी आवाज को बचाये रखने के लिये हर आदमी को लेखक होना चाहिए ताकि हर ज़ुल्म का रचनात्मक विरोध किया जा सके।
-अमित धर्मसिंह
हर आदमी को लेखक होना चाहिये...
लिखना हमारे समय की मज़बूरी और ज़रूरत दोनों हैं। मज़बूरी इसलिये की इस क्रूर समय में हम शायद ही लिखने के अलावा कुछ कर सकते हैं और जरुरत इसलिए कि लिखना अब कला जैसी कोई चीज़ नहीं रह गयी है बल्कि अपने को बनाये रखने और अपने अधिकारों की रक्षा का एक सशक्त माध्यम बन गया है। बेबसी और लाचारी में एक लेखन ही है जो मनुष्य को सर्वाधिक संबल दे सकता है। सर्वविदित है कि लिखने में जबसे शिल्प और छंद के बंधन ढीले हुए हैं तबसे लेखन गरीबों और मजबूरों की आवाज़ बनकर उभरा है। भला हो मार्क जुकरबर्ग का कि जिसने लेखन को इतना बड़ा मंच दिया । इसी से यह कमाल संभव हो सका है कि गरीब से गरीब और अनपढ़ से अनपढ़ भी अपनी बात सार्वजनिक मंच पर शेयर करने लगा है। और अपने स्तर से भारतीय समाज और राजनीति को प्रभावित करने लगा है। यह बात और है कि इससे कुछ ने लेखन में बहुत ही हलके किस्म के प्रयोग किये हैं, और कॉपी पेस्ट करने वाले भी लेखक बन गए हैं। मगर जहाँ एक तरफ फेसबुक जैसे माध्यम का दुरूपयोग कर जनता को गुमराह कर जनमत जुटाने की राजनितिक साजिशें रची जाती हैं वहीँ कुछ अच्छे पढ़ने-लिखने वाले इसी माध्यम से जनता को गुमराह होने से बचाने और सत्ता को नियंत्रित करने की भी पुरजोर कोशिश करते हैं। आज स्त्रियाँ अपनी बातें रख रही हैं दलित अपनी बातें रख रहें हैं अथवा कोई भी पीड़ित शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज़ जनता जनार्दन तक पहुंचा रहा है। ऐसे में लेखन की कलात्मक कमज़ोरियां गौण हो जाती हैं और वह आवाज़ प्रमुख रूप से उभरकर सामने आती है जिसमें शोषण के विरुद्ध एक ललकार छुपी होती है, एक नफरत छुपी होती है, एक तिरस्कार छुपा होता है।इसलिये आज के क्रूरतम समय में इस जरुरी आवाज को बचाये रखने के लिये हर आदमी को लेखक होना चाहिए ताकि हर ज़ुल्म का रचनात्मक विरोध किया जा सके।
-अमित धर्मसिंह
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