जूठन
अमित धर्मसिंह
ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित विमर्श और साहित्य के आधार-स्तम्भों में से एक नाम है। यह बात जितनी आसानी से कही जा रही है, यह उतनी आसानी से संभव नहीं हुई है। ओमप्रकाश वाल्मीकि जीवन-भर तरह-तरह की सामाजिक व सांस्कृतिक परेशानियों से जूझते रहे। इनके जीवन का यह पक्ष ऐसा है, जो भारतीय सनातन संस्कृति के संबंध में पुनर्विचार करने पर विवश करता है। जानकर गहरे विषाद से हृदय कराह उठता है कि जैसे भारतीय संस्कृति में संवेदना के दोहरे मापदंड रहे हैं, उनसे मनुष्यता को शर्मसार होना पड़ता है। निम्नवर्ग का इतिहास इतना यातना-भरा रहा है कि उसमें झाँकने मात्र से ठीक होते जख्म फिर से हरे होने लगते हैं। अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ को लिखने के संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं - ”सचमुच जूठन लिखना मेरे लिए किसी यातना से कम नहीं था। जूठन के एक-एक शब्द ने मेरे जख्मों को और ज्यादा ताजा किया था, जिन्हें मैं भूल जाने की कोशिश करता था।’’1 इसी प्रकार ”इन अनुभवों को लिखने में कई प्रकार के खतरे थे। एक लम्बी जद्दोजहद के बाद मैंने सिलसिलेवार लिखना शुरू किया। तमाम कष्टों, यातनाओं, उपेक्षाओं, प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीना पड़ा। उस दौरान गहरी मानसिक यंत्रणाएँ मैंने भोगीं। स्वयं को परत दर परत उधेड़ते हुए कई बार लगा कितना दुखदायी है यह सब। कुछ लोगों को यह अविश्वसनीय और अतिरंजनापूर्ण लगता है।“2 इस संदर्भ में जिनको ऐसा लगता है, वे निश्चित ही ऐतिहासिक वास्तविकता और उपेक्षा के कड़वे अनुभवों से कुछ फासले पर हैं। उनमें उच्च जातिबोध की जो उदात्त गरिमा समायी हुई है, उसकी चमक में उनकी मानव सुलभ तमाम विकृतियाँ तेजयुक्त ही नजर आती हैं। लेकिन ऐसा उपेक्षित जातियों के साथ कभी संभव नहीं हुआ। उनके नामों में जातीयता का जो बोध है, उसके अंधकार में वे खोते तो रहे, लेकिन कभी चमक नहीं सके। नाम के जातीयबोध के इसी दंश को जीवन भर झेलते रहे ओमप्रकाश वाल्मीकि। उनका सरनेम ‘वाल्मीकि’ बहुत सी विसंगतियों को जीवन-भर जन्म देता रहा। ये विसंगतियाँ न सिर्फ उनके अपने समाज में व्याप्त थीं, बल्कि अन्य वर्गों में तो ये और भी विकराल रूप में मौजूद रहीं। तभी तो देहरादून में किराये पर कमरा तक उन्हें इसलिए नहीं मिलता क्योंकि उनके नाम में तथाकथित नीची जाति का बोध करने वाला सरनेम ‘वाल्मीकि’ लगा है। इस तरह की विसंगतियाँ ओमप्रकाश वाल्मीकि प्राथमिक पाठशाला से लेकर ऑर्डनेस फैक्ट्री में अधिकारी हो जाने तक तथा प्रख्यात दलित साहित्यकार के रूप में भी ख्यात हो जाने के बाद भी झेलते रहे। सरनेम की ऐसी त्रासदी शायद ही कहीं देखने को मिले। यह त्रासदी समाज के खोखले आदर्शवाद की बखिया उधेड़ती है। बहरहाल, सरनेम की त्रासदी को समझने से पहले सरनेम की आधारभूत बातें जान लेनी आवश्यक हैं।
नाम के साथ प्रयुक्त होने वाला शब्द ‘उपनाम’ (Surname) कहलाता है। यह संबंधित व्यक्ति को किसी दूसरे के द्वारा दिया जाता है अथवा स्वयं रख लिया जाता है। कवियों और साहित्यकारों में उपनाम के प्रति विशेष आग्रह व आकर्षण होता है। भारतीय साहित्य में प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल के कवियों तक में इसकी वृहद् परंपरा देखी जा सकती है। उपनाम रखने के अपने ही कुछ निहितार्थ होते हैं। कभी-कभी नाम से अधिक सार्थकता, उद्देश्य, ठोस आधार उपनाम में पाया जाता है। परिवार द्वारा प्यार से दिये उपनाम को छोड़कर निरुद्देश्य उपनाम कम ही रखा जाता है। इसलिए इसका महत्त्व और औचित्य बढ़ जाता है। संक्षेप में कह सकते हैं कि नाम के साथ प्रयुक्त होने वाला दूसरा सार्थक शब्द उपनाम कहलाता है। “A surname is a name added to a given name, in
many cases a surname is a family name and many dictionaries define surname as a
synonym of 'family name.' In the western hemisphere, it is commonly synonym
with last name, since it is usually palced at the end of person's given name"4 हिन्दी में उपनाम की परिभाषा इस प्रकार है - “किसी व्यक्ति का अपने मूल, प्रारंभिक या वास्तविक नाम से भिन्न अन्य कोई दूसरा नाम जो उसने स्वयं किसी भी उद्देश्य से अपने लिए रखा हो, अथवा अन्य व्यक्तियों ने किसी कारण उस व्यक्ति के नाम का प्रयोग किया हो, उपनाम कहलाता है।’’5 अथवा - “किसी व्यक्ति के वास्तविक नाम से भिन्न कोई दूसरा नाम’’6 उपनाम कहलाता है। इसे गुमनाम, छद्मनाम, तखल्लुस, नामांतर, पेननेम आदि नामों से भी पुकारा जाता है।7 उत्पत्ति के आधार पर सरनेम का विश्लेषण इस प्रकार है - ‘‘उपनाम शब्द उप तथा नाम के संयोग से बना है। उप संस्कृत भाषा का उपसर्ग है। शब्दों के पूर्व जो वर्ण या वर्णसमूह अर्थ में प्रायः कुछ परिवर्तन या अंतर लाने के लिए जोड़ा जाता है, उसे उपसर्ग कहते हैं। यह क्रिया और संज्ञाओं के पूर्व आकर उनके अर्थों में अनेक परिवर्तन या अंतर ला देता है। वाचस्पत्यम् के अनुसार - उप कभी समीपता, कभी गौणता तथा कभी सामर्थ्य आदि का बोध कराता है।’’8
निहितार्थ के आधार पर कह सकते हैं कि उपनाम नाम की तीव्रता, सार्थकता, सुंदरता आदि में आशातीत वृद्धि करता है। लेखक अथवा कविगण इसके मोह से कम ही बच पाते हैं। नाम में एक निश्चित पहचान का बोध उपनाम से पैदा किया जा सकता है। उपनाम कहीं निजी गुणों के आधार पर, कहीं धर्म के आधार पर, कहीं राष्ट्र के आधार पर तो कहीं गोत्र अथवा जाति के आधार पर ग्रहण किये जाते हैं। आदिकाल से आधुनिक काल तक के काव्य में सभी तरह के उपनाम अपनाये जाते रहे हैं। निजी गुणों, धर्मों तथा राष्ट्रों के आधार पर जो उपनाम अपनाये जाते हैं, उनमें किसी प्रकार की समस्या नहीं, किंतु गोत्र अथवा जातीयता की ओर संकेत करने वाले उपनामों की सामाजिक एवं सांस्कृतिक त्रासदियाँ हैं। इनमें भी उच्च जाति अथवा गोत्र से जुड़े नामों के प्रति तो समाज में किसी प्रकार का क्षोभ नहीं, परंतु निम्न जातियों के लिए यह किसी अभिशाप से कम नहीं। दलित कथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि इसका जीवंत उदाहरण हैं जिन्होंने दलित उत्थान के लिए बहुत से रचनात्मक कार्य किये हैं। बावजूद इसके वह समाज से निरंतर उपेक्षित रहे। आदिकवि वाल्मीकि से लेकर यह परंपरा बुद्ध, कबीर, रैदास, पीपा, दादू, ज्योतिबा फुले तथा अंबेडकर के साथ-साथ आज की युवा पीढ़ी के सम्मुख भी अपने कठोरतम रूप में सामने आती है। असल में ओमप्रकाश वाल्मीकि के उपनाम में जातीयता का जो बोध है, वह भारतीय समाज का आरंभ से ही कोढ़ रहा है जिसका समय-समय पर उपचार भी किया गया किंतु अपने कम-ज्यादा रूप में यह आज तक बना हुआ है। वैदिक समय में नामकरण संस्कार को लेकर जो भेदभाव किया जाता था, वह काफी हृदयविदारक था। इस संदर्भ में मनु स्मृति में श्लोक आए हैं - “मंगल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्। वैश्यस्य धनसंयुवतं शूद्रस्य जुगप्सितम्।।31।। अर्थात्- ब्राह्मण का नामकरण मांगलिक शब्दों से युक्त, क्षत्रिय का प्रशस्त बलवाचक शब्दों से युक्त, वैश्य का धन से युक्त तथा शूद्र का जैसा-कैसा नामकरण किया जाना चाहिए। इसी प्रकार - शर्मवद् ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्। वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तमं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्।।32।। अर्थात् - ब्राह्मण का नाम मांगलिक, क्षत्रिय का रक्षणात्मक, वैश्य का पुष्टियुक्त तथा शूद्र का नाम दासादि शब्दों से युक्त होना चाहिए।“9 उपर्युत विश्लेषण से ज्ञात होता है कि अस्पृश्य कही जाने वाली जातियों के प्रति शेष तीनो वर्णों की कितनी तिरस्कार भरी सोच थी। जब नाममात्र को लेकर ऐसा तीखा भेदभाव था तो व्यवहार की कल्पना करना तो रूक कँपा लेना है। जबकि पश्चिमी विद्वान शेक्सपियर के विचार भारतीय संस्कृति में नाम के महत्त्व के एकदम विपरीत हैं - ‘‘शेक्सपीयर के मत से नाम में स्वयं कुछ निहित नहीं होता। किसी भी व्यक्ति अथवा वस्तु का कोई भी नाम रखा जा सकता है। नाम परिवर्तन से उसके गुणों में कोई अंतर नहीं होता। नाम एक बाह्य वस्तु है और गुण अथवा स्वभाव आंतरिक। नाम बदला जा सकता है पर गुण अथवा स्वभाव बदलना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।’’10 दार्शनिक आधार पर शेक्सपीयर की बात बिल्कुल सही है। नाम व्यक्ति का होता है, नाम व्यक्ति नहीं होता। यही नाम और व्यक्ति का सबसे बड़ा अंतर है। लेकिन भारत में यह तथ्य काफी जटिल है। यहाँ नाम न केवल व्यक्ति का नाममात्र होता है बल्कि उसके कुछ खास संदर्भ भी लिये जाते हैं जिनमें से जातीयता का संदर्भ सर्वाधिक हानिकारक है। नाम में जब जातीयता का भाव आ मिलता है, तब नाम केवल नाम नहीं रह जाता, बल्कि वह व्यक्ति, समाज या जाति का प्रतिनिधित्व करने लग जाता है। यह समस्या न नाम की है, न व्यक्ति की, बल्कि उस सोच की है जो बरसों से भारत की रूढ़िवादी लोहालाट परंपरा में किसी जंग की तरह लगी हुई आ रही है। डा. अंबेडकर के विचार इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं - ‘‘ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो अस्पृश्यों की दयनीय स्थिति से दुखी हो, यह चिल्लाकर अपना जी हल्का करते फिरते हैं कि हमें अस्पृश्यों के लिए कुछ करना चाहिए, लेकिन इस समस्या को जो लोग हल करना चाहते हैं, उनमें से शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जो यह कहता हो कि हमें स्पृश्य हिन्दुओं को बदलने के लिए भी कुछ करना चाहिए। यह धारणा बनी हुई है कि अगर किसी का सुधार होना है तो वह अस्पृश्यों का ही होना है, अगर कुछ किया जाना है तो वह अस्पृश्यों के प्रति किया जाना है और अगर अस्पृश्यों को सुधार दिया जाए तो अस्पृश्यता की भावना मिट जाएगी। सवर्णों के बारे में कुछ भी नहीं किया जाना है। उनकी भावनाएँ, आचार-विचार और आदर्श उच्च हैं। वे पूर्ण हैं। उनमें कहीं भी कोई खोट नहीं है। क्या यह धारणा उचित है? यह धारणा उचित हो या अनुचित, लेकिन हिन्दू इसमें कोई परिवर्तन नहीं चाहते। उन्हें इस धारणा का सबसे बड़ा लाभ यह है कि वे इस बात से आश्वस्त हैं कि वे अस्पृश्यों की समस्या के लिए बिल्कुल उत्तरदायी नहीं हैं।’’11
डा. अम्बेडकर के उक्त विचारों में उस संकीर्ण सोच को इंगित किया गया है जो मानव को मानव से दूर करती है, उनमें भेदभाव करती है। इससे पता चलता है कि समस्या उच्च वर्ण के मनुष्य से नहीं, बल्कि उनकी संकीर्ण सोच से है। आज के शब्दों में कहूँ तो ब्राह्मण और दलित में कोई बैर नहीं, किंतु ब्राह्मणवाद इनके बीच की खाई को कभी पटने नहीं देता है। दलित साहित्य ब्राह्मणवाद की इसी दोषयुक्त मानसिकता के विरुद्ध लिखा जाने वाला साहित्य है। परंतु उसे आज के तथाकथित साहित्यकार जिस हेय नजर से देखते हैं अथवा उसका गलत मूल्यांकन करते हैं, वह एक अलग साहित्यिक ब्राह्मणवाद की ओर इशारा करता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं - ‘‘दलित जीवन और उससे जुड़े संदर्भों को देखने की चेष्टा में सबसे बड़ी सीमा दृष्टि की होती है। सारा ध्यान जातीय आधार पर होता है। उसके बाद जो थोड़ा-बहुत बचा रहता है, वह मात्र पुनरावृत्ति होती है। रचनाधर्मिता की तमाम ऊर्जा तो अपनी संस्कारगत मनोवृत्तियों को सहेजने में ही खर्च हो जाती है।’’12 निश्चित ही ओमप्रकाश वाल्मीकि जीवन-भर इसी मनोवृत्ति के शिकार होते रहे। उन्हें उनके कार्य की अपेक्षा उनके जातिसूचक उपनाम वाल्मीकि से आँका जाता रहा। यह प्रश्न सहज ही उभर आता है, यदि नाम ही व्यक्ति की वास्तविक और सामाजिक पहचान का एकमात्र पर्याय है तो ओमप्रकाश वाल्मीकि का एक नाम ओमप्रकाश भी तो है। इस नाम की उदात्तता को भला कौन नकार सकता है। किंतु नहीं, उन्हें वाल्मीकि के जातीय संस्कार से ही सरोकार है। सच कहिए तो किसी ने वाल्मीकि नाम के वास्तविक अर्थ को ग्रहण करने तक की जहमत नहीं उठाई। वाल्मीकि उपनाम की पड़ताल करने पर एक भी कारण ऐसा नहीं मिलता, जिसके आधार पर इस उपनाम की उपेक्षा की जाए। इसकी व्युत्पत्ति के जो कारण संस्कृत ग्रंथों में ही उपलब्ध होते हैं, उन सबमें भी उदात्तता समाहित हैं, यथा - “वल्मीकस्यापत्यं वाल्मीकिः। वल्मीक - बाँबी या दीमक से उत्पन्न होने के कारण वाल्मीकि कहा गया है। वल्मीक से उत्पत्ति तीन प्रकार से मानी गयी है। एक के अनुसार वरुण का जो वीर्य वल्मीक में पतित हुआ, उससे उत्पन्न महायोगी को वाल्मीकि कहा गया... दूसरे के अनुसार - पम्पा सरोवर पर कृणु नामक तपस्वी जब तपस्या में निरत था तब उसके शरीर पर वल्मीक/दीमक जम गयी। अतः कृणु को भी वाल्मीकि कहा जाने लगा... तीसरे के अनुसार तपस्या करते-करते इनके शरीर पर वल्मीक जम गया था तथा ब्रह्मा या ऋषियों ने इन्हें वल्मीक से निकालकर इनका वाल्मीकि नाम रखा...’’13
वाल्मीकि नाम की उपेक्षा और उत्पत्ति में जो अंतर है, उससे दो विपरीत विचार एक-दूसरे से टकराते हैं। इससे उत्पत्ति और उपेक्षा का एकसाथ होने का औचित्य समाप्त हो जाता है। उपेक्षा यथार्थ है, प्रमाणित है, आज भी मौजूद है। इसलिए व्युत्पत्ति के सभी कारण संदिग्ध हो जाते हैं। ऐसे में जो निष्कर्ष हाथ आता है, उसके अनुसार महर्षि वाल्मीकि अपने समय के शूद्र कहे जाने वाले वर्ग में ही उत्पन्न हुए थे। उनकी जड़ें उच्च वर्ण में तलाशना अनौचित्यपूर्ण है। ज्ञात हो, ऐसा ही कुछ कबीर के साथ होता रहा है। उसकी भी जड़ें उच्चवर्ग से जोड़ी गयीं और समाज में उसकी उपेक्षा भी निरंतर बनी रही। इस तरह का दुराव काफी गड्मड्ड कर देने वाला है। जिस तरह से ओमप्रकाश खैरवाल के ओमप्रकाश वाल्मीकि बन जाने पर जातीयता का बोध प्रबल हुआ, उससे भी महर्षि वाल्मीकि के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण सामने आता है। यानी समाज में अभी भी वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण तो ग्राह्य है, किंतु महर्षि वाल्मीकि नहीं। कह सकते हैं, चाहे महर्षि वाल्मीकि हों, वाल्मीकि समाज हो या फिर ओमप्रकाश वाल्मीकि ही क्यों न हों, सभी समाज द्वारा उपेक्षित हैं। चूँकि वाल्मीकि नाम किसी महर्षि, कवि या साहित्यकार का नहीं, बल्कि उस जाति-समाज का माना गया है जो आरंभ से ही उपेक्षित रहा है। इसलिए ओमप्रकाश वाल्मीकि इस दंश से भला कैसे बच सकते थे। उनके सामने उपनाम से संदर्भित समस्याएँ तीन वर्गों में विभाजित करके देखी जा सकती हैं - पारिवारिक, सामाजिक और साहित्यिक। इन समस्याओं की ओर इशारा करते हुए स्वयं वाल्मीकि कहते हैं - ‘‘नाम का उत्तरार्ध जिसे उपनाम या सरनेम कहा जाता है, मेरे नाम के साथ जुड़कर कई प्रकार की विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न करने वाला सिद्ध हुआ है। अपनी जाति-बोधकता के कारण।’’14 यहाँ समस्या ओमप्रकाश वाल्मीकि से नहीं, बल्कि वाल्मीकि उपनाम में समाहित जातीय बोध की है।
यह जातिबोध न सिर्फ उच्चवर्ण में दिखाई देता है, अपितु स्वयं निम्नवर्ग के लोगों में इसकी जड़ें काफी गहरी हैं। फर्क इतना है कि दोनों वर्गों का जातिबोध उन पर अलग-अलग प्रभाव डालता है। उच्चवर्ण में जातिबोध जहाँ गौरव का संचार करता है, वहीं निम्न कहे जाने वाले समाज में यह हीनभावना को जन्म देता है। दोनों ही रूपों में यह प्रभाव घातक है। इससे वर्णों के बीच की दूरी को बढ़ावा मिलता है। इसके इस व्यापक नुकसान से बचने का सटीक रास्ता आज तक नहीं खोजा जा सका है। यह भी कह सकते हैं कि इस रास्ते को खोजने वालों की अपेक्षा जातिबोध को बनाए रखने के रास्ते अधिक खोजे जाते रहे हैं। ऐसे अन्वेषियों की संख्या अकल्पनीय है। बहरहाल, निम्नवर्ग का जो खुद का घातक जातिबोध है, वह बिल्कुल ऐसा ही है, जैसे किसी निर्दोष व्यक्ति का खुद को दोषी मानना। यह मानसिक दूसरों द्वारा की गयी उपेक्षा से ज्यादा खतरनाक है। इसके चलते निम्नवर्गीय समाज यथास्थितिवाद का शिकार हो जाता है। वह लड़े बिना ही हार जाता है। इससे उसके उत्थान की संभावनाएँ तो कम होती ही हैं, साथ ही पतन की आशंकाएँ भी बढ़ जाती हैं। इस तरह की मानसिकता उपेक्षा करने वालों के लिए भी ऊर्जा का कार्य करती है, उन्हें और अधिक भेदभाव करने के लिए उकसाती है। यही मानसिकता ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे प्रगतिशील लोगों के रास्ते में दीवार बनकर खड़ी होती है, जिसे तोड़कर आगे बढ़ना अपने आपमें एक चुनौती है। वाल्मीकि को इस चुनौती का सामना परिवार से लेकर समाज के हर वर्ग तक करना पड़ा। उल्लेखनीय है कि ब्राह्मणवाद की जड़ें आज न सिर्फ ब्राह्मण जाति तक सीमित हैं, अपितु समाज की दूसरी दबंग जातियों में भी इस मानसिकता की जड़ें काफी गहरी हैं।
परिवार के सदस्य, चाहे उनमें भाई-भतीजे हों या उनकी पत्नी चंदा ही क्यों न हो, सभी वाल्मीकि उपनाम से नाखुश थे। काफी हिदायतें देते थे सभी इस उपनाम को लेकर ओमप्रकाश वाल्मीकि को। इस उपनाम की बदौलत सभी उनसे दूरियाँ बनाए रखने का प्रयास करते रहते थे। अपनी भतीजी सीमा की मानसिकता के बारे में वे लिखते हैं - ‘‘मेरी भतीजी सीमा बी.ए. कर रही थी। कथाकार डा. कुसुम चतुर्वेदी हिंदी विभागाध्यक्ष थीं। एक दिन बातचीत के दौरान मैंने उनसे जिक्र किया कि मेरी भतीजी आपकी स्टूडेंट है। अगले रोज कक्षा में जाते ही डा. चतुर्वेदी ने सीमा से पूछ लिया कि ओमप्रकाश वाल्मीकि को जानती हो ? सीमा ने कक्षा में एक नजर डाली और इनकार कर दिया।’’15 इस पर खुद सीमा की प्रतिक्रिया गौरतलब है - ‘‘सभी के सामने अगर मान लेती कि आप मेरे चाचा हैं तो सहपाठिनों को मालूम हो जाता कि मैं वाल्मीकि हूँ ... आप फेस कर सकते हैं, मैं नहीं कर सकती... गले में जाति का ढोल बाँधकर घूमना कहाँ की बुद्धिमानी है?’’16 कुछ ऐसे ही विचार ओमप्रकाश वाल्मीकि की बहन मंजू के रहे। संबंधित घटना के बारे में लेखक ने लिखा है - ‘‘जिस रोज मंजू की शादी का कार्ड छपकर आया था, एक हादसा हो गया था। दर्शनाभिलाषियों की सूची में घर-परिवार के सभी लोगों के नाम छपे थे, सिर्फ मेरा नाम गायब था। मैंने इस बात को सहज ढंग से नजरंदाज कर दिया था, लेकिन मेरी पत्नी को यह बात परेशान कर रही थी। उसने मंजू से पूछ ही लिया था कि कार्ड पर इनका नाम कैसे छूट गया... भाभी, यहाँ कोई नहीं जानता कि हम वाल्मीकि हैं। सभी को यही पता है, खरे हैं। भैया का नाम छपते ही भेद खुल सकता था।’’17 ऐसा ही कुछ चंदा की भतीजी की शादी में हुआ था। और तो और, खुद चंदा के भी वाल्मीकि सरनेम को लेकर तंग विचार थे। इस बारे में लेखक ने लिखा है - ‘‘मेरी पत्नी चंदा मेरे इस सरनेम को कभी आत्मसात नहीं कर पाई। न इसे अपने नाम में जोड़ती है। मेरे निकम्मेपन की गिनतियों में यह सरनेम भी एक है, जिसका जिक्र यदा-कदा वह कर देती है। अपने नाम के साथ वह वंशगोत्र खैरवाल जोड़ना पसंद करती है ... आज भी घर-परिवार में जब इस सरनेम पर चर्चा होती है तो मेरी पत्नी दृढ़ शब्दों में कहती है - यदि हमारा कोई बच्चा होता तो मैं इनका नाम जरूर बदलवा देती। उस वक्त मुझे लगता है, जैसे पत्नी मकान या कपड़े बदलने की बात कर रही है। ऐसा नहीं है कि ये वार्तालाप मुझे कोई दंश नहीं देते, मैं ऐसे क्षणों में विचलित हो उठता हूँ।’’18 उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि परिवार के सभी सदस्य लेखक के उपनाम से असहमति जताते थे। सिर्फ पिता जी के अपवाद होने की बात लेखक ने जरूर स्वीकारी है। असल में परिवार की इस मानसिकता के पीछे पारिवारिक मनमुटाव या कलह आदि नहीं, बल्कि वह डर है, जो सदियों से इनकी रगों में उतारा जाता रहा है। मुश्किल से ज्योतिबा फुले और अंबेडकर के अथक प्रयासों से सम्मान और स्वाभिमान से जीने की एक उम्मीद जागी है। ऐसे में भूल से भी कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहता, जिससे जातिवाद का गरलपान फिर से करना पड़े। वास्तव में इनकी इतनी उपेक्षा हुई है कि आज ये उसके ख्याल से भी काँप उठते हैं। परंतु शायद ये नहीं जानते कि इनका यह डर उन्हें कमजोर बनाकर फिर से उसी खाई में धकेलने का काम कर रहा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं - ‘‘जाति को लेकर समाज में जो स्थिति है, मैं उससे इनकार नहीं कर रहा हूँ लेकिन जितना डरोगे, लोग उतना ही तुम्हें डराएँगे। एक बार मन से डर निकाल दो, फिर देखो, तुमसे डरने लगेंगे। डर-डरकर हजारों साल से जी रहे हो, क्या मिला? पढ़-लिखकर अच्छे पद पर काम कर रहे हो, फिर भी डरे हुए हो? अपने भीतर के हीनता-बोध से बाहर आकर देखो। भाई, यह भी कोई जिंदगी है। हर वक्त सिर्फ इस चिंता में घुलते रहो कि सामने वाला आपकी जाति के कारण आपके साथ गलत व्यवहार कर रहा है। जरा एक बार विरोध करके तो देखो। शायद स्थिति में कोई अंतर आ जाए। जिस बात से टकराना चाहिए, उससे डरकर भाग रहे हो? क्यों? इससे मुक्त होने का क्या यही रास्ता बचा है, इस समस्या से पलायन करके भाग लो। इससे क्या समस्या खत्म हो जाएगी। नहीं, खुलकर कहो जो भी कहना है, अपनी काबिलियत साबित करो। स्थितियाँ बदलेंगी, यही तो जीवन-संघर्ष है।’’19
समाज में अपने वर्ग और दूसरे वर्गों के लोगों द्वारा सरनेम को लेकर जो ओमप्रकाश वाल्मीकि की उपेक्षा की गयी, वह भी कम विचारणीय नहीं है। इस त्रासदी से वाल्मीकि कदम-कदम पर जूझे हैं, आहत हुए हैं। अपने वर्ग ने जहाँ हीनता-बोध के चलते, विवशतापूर्ण यह कार्य किया, तो अन्य वर्ग के लोगों ने इसे अपना पुश्तैनी अधिकार मानकर। इस कथित अधिकार से जुड़े कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं - ‘‘श्री गुप्ता मेरठ के पास किसी गाँव के रहने वाले थे। वाल्मीकि सरनेम की वास्तविकता से वह अच्छी तरह परिचित थे। उन्होंने उलट-पलटकर मेरा आवेदन-फार्म कई बार देखा। जैसे उन्हें विश्वास ही नहीं हो पा रहा था। स्थायी पते में बरला, मुजफ्फरनगर देखकर उनका आश्चर्य और क्षोभ एकसाथ फूट पड़े - ‘अबे सौहरे (ससुरे) यहाँ तक पहुँच गया?’’20 इसी प्रकार ‘जूठन’ में एक जगह वर्णन आया है - ‘‘एक कार्यक्रम में मुझे बौद्ध साहित्य और दर्शन पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया था। मुझसे पहले दो-तीन विद्वान् बोल चुके थे। जैसे ही मैं बोलने के लिए माइक पर आया, एक श्रोता ने टोका दिया - वाल्मीकि बौद्ध दर्शन और साहित्य पर बोलेगा, शर्म नहीं आती?’’21 क्या वाकई किसी की विद्वत्ता का मूल्यांकन जाति के आधार पर ही किया जा सकता है ? पढ़ने-लिखने से तो कोई भी अच्छा ज्ञान हासिल कर सकता है। आखिर समाज इस बात को कब समझेगा कि आदमी की असली पहचान उसकी जाति से नहीं, उसकी काबिलियत से की जानी चाहिए। ‘जात न पूछौ साधु की पूछ लीजियो ज्ञान।’ अफसोस, यह परिवर्तन अभी काफी मुश्किल दिखाई पड़ रहा है। अनपढ़, अंधविश्वासी तो क्या, पढ़ा-लिखा समाज भी इस बात को आज तक पचा नहीं पा रहा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि एक अच्छे पद पर कार्यरत थे और साहित्य में भी अच्छा नाम कमा चुके थे। इसके बाद भी उनके अनुभाग में बड़े पदाधिकारी जिस तरह का व्यवहार वाल्मीकि के साथ करते थे, उससे काफी निराश होना पड़ता है। अपने अनुभाग में पदाधिकारियों के कटु व्यवहार को केन्द्र में रखकर वाल्मीकि लिखते हैं - ‘‘उस समय वहाँ महाप्रबंधक के पद पर पी.के. मिश्रा जी थे और संयुक्त महाप्रबंधक (प्रशासन) एन.क.े वार्ष्णेय जी थे। जब उनसे परिचय हुआ तो उन्होंने मेरे सरनेम को लेकर भी कई प्रश्न मुझसे किये थे और मेरी योग्यता, अनुभव आदि को ताक पर रखकर वार्ष्णेय जी ने एक ऐसा अनुभाग मुझे सौंपा था, जिसके बारे में मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। शायद यह सब मेरे वाल्मीकि सरनेम की बदौलत ही मुझे दिया गया था। मेरा तकनीकी ज्ञान इस सरनेम के कारण एक बार फिर से कहीं पीछे धकेल दिया गया था। एक ऐसा अनुभाग जो पूरी आवासीय कालोनी की साफ-सफाई से लेकर सीवेज आदि के काम को देखता था, उस अनुभाग में सौ से ज्यादा सफाईकर्मी और इतने ही श्रमिक थे। कालोनी में एक बाजार भी था, जिसमें दुकानदारों से किराया वसूलने का काम होता था जो एक बेहद जटिल काम था। ऐसे अनेक दुकानदार वहाँ थे, जिन्होंने कई वर्ष से किराया नहीं दिया था। बाजार की गुंडागर्दी अलग थी, जिससे जूझना एक मुसीबत थी, कभी-कभी तो सिर-फुटव्वल की भी नौबत आ जाती थी।’’22 ऐसे अफसरों में कुछ अफसर खुद लेखक के समाज से भी संबंधित थे किंतु वे अपनी पहचान को छिपाए रखते थे। ऊँचे पद पर पहुँचकर भी उनका जातिगत भय गया नहीं था। इसमें सामाजिक स्थितियों की जटिलता और उनकी हीनभावना दोनों समान रूप से जिम्मेदार थीं। ऐसे बहुत से चरित्र वाल्मीकि के कार्य-व्यापार के दौरान सामने आए, जिन्हें ओमप्रकाश के अधिकारी होने पर खुशी तो मिलती थी, किंतु वाल्मीकि सरनेम के कारण वे इस खुशी को जगजाहिर करने का साहस नहीं कर पाते थे। देहरादून तबादले के दौरान लेखक ने लिखा - ‘‘मेरे सरनेम को लेकर पूरी फैक्ट्री में चर्चा थी। सिर्फ गैर-दलितों में नहीं, मेरी अपनी जाति के कर्मचारी भी हैरान थे कि वाल्मीकि सरनेम लगाने वाला यह कौन है और कहाँ से आ गया। कुल मिलाकर स्थिति मेरे लिए काफी उत्तेजक थी। मुझे जो ऑफिस मिला था, वह प्रशासनिक भवन में था, वहीं विजिलेंस अनुभाग में मेरी जाति के रमेश कुमार और रामस्वरूप थे जो एक वरिष्ठ अधिकारी के पी.ए. थे। वे दोनों भी इसी भवन में बैठते थे। रमेश कुमार जी और रामस्वरूप जी ठीक-ठाक पदों पर थे लेकिन दोनों अपने ही समाज से कटे-कटे रहते थे। किसी से मिलते-जुलते भी नहीं थे। जब उन्हें यह पता चला कि ओमप्रकाश आया है, जिसका सरनेम वाल्मीकि है, तो वे गोपनीय तरीके से मुझसे मिले थे, वह भी मेरे ऑफिस में नहीं, प्रशासन भवन के गलियारे में। जब वे मुझसे बात कर रहे थे, तो बार-बार सावधानीपूर्वक इधर-उधर देख लेते थे कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा है। वे दोनों बेहद डरे हुए थे। उनकी इस हरकत को मैंने ताड़ लिया था और मजा लेने के लिए उनसे कहा था - यदि मेरे साथ बात करने से आपकी प्रतिष्ठा पर आँच आती है तो कृपया आगे से हम नहीं मिलेंगे। आप लोगों को समाज से डर लगता है तो लगे, मुझे नहीं लगता।’’23 इसमें कोई शक नहीं कि दलित समाज का यह रवैया दलितोत्थान को गुणात्मक तरीके से बढ़ने से रोक रहा है। इसलिए वाल्मीकि की तरह इस संकीर्णता से बाहर आने की आवश्यकता है। दलितोत्थान की यह प्राथमिक जरूरत भी है और जिम्मेदारी भी।
इस यात्रा में सर्वाधिक निराश करने वाला पहलू पढ़े-लिखों की संकीर्ण सोच और व्यवहार का है। अनपढ़, आर्थिक रूप से पिछड़े हुए तथा बैकवर्ड इलाकों के ग्रामीण उतने दोषी नहीं, जितना कि पढ़ा-लिखा दलित और गैर-दलित समाज है। इसमें भी विशेषकर वे लोग जिनका वास्ता ही पढ़ने-लिखने से है। वे तो भारत की प्राचीन और वर्तमान स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ हैं, फिर भी वे वैसा प्रदर्शन नहीं करते, जिसकी हजारों-लाखों असहाय लोग उम्मीद लगाए हुए बैठे हैं। समाज के इस साहित्यकार वर्ग में दलित और गैर-दलित वर्ग के तथाकथित बुद्धिजीवी मुख्य रूप से दोषी हैं, जिनकी लेखनी कुछ लिखती है और वे करते कुछ हैं। इस पर आलोचकों का रवैया और भी चिंताजनक है जो यह मानते हैं कि दलित साहित्य कलारहित, शिकायती साहित्य है। इसके चलते ओमप्रकाश वाल्मीकि को रचना प्रकाशन से लेकर साहित्यकारों में स्थान बनाने तक काफी परेशानी का सामना करना पड़ा। कहना न होगा कि इसके पीछे भी उनके सरनेम का सर्वाधिक प्रभाव था। बहुत से साहित्यकार उनसे दूरी बनाए रखते थे, बहुत से उन्हें सरनेम बदलने की सलाह देते थे, कुछ ने तो उनका परिचय या रचना प्रकाशन उनके सरनेम को हटाते हुए ही किया था, जिससे वाल्मीकि काफी आहत होते थे। एक मित्र का उल्लेख करते हुए वाल्मीकि लिखते हैं - ‘‘डा. सुखबीर सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय के शिवाजी कालेज में रीडर थे। हिन्दी के विद्वान् समीक्षक, कवि, लेखक। वे भी मेरे सरनेम से दुखी थे। उनके निवास (विश्वासनगर, शाहदरा, दिल्ली) पर एक रात रुकने का अवसर मिला था। पराग प्रकाशन के श्री कृष्ण जी से ‘काली रेत’ उपन्यास के प्रकाशन के संबंध में बात करनी थी। डा. सुखबीर सिंह के साथ ही मैं पराग प्रकाशन गया था। श्री कृष्ण जी उपन्यास छापने को तैयार हो गये थे। यह अलग बात है कि वह उपन्यास आज तक नहीं छपा है।
उस रात डा. सुखबीर सिंह एक लंबी चर्चा हुई थी वाल्मीकि सरनेम को लेकर। उस रात उन्होंने मेरे नाम से वाल्मीकि हटाकर ‘खैरवाल’ चस्पा कर दिया था। उनकी सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘सूर्यांश’ पर मैंने समीक्षा लिखी थी, जिसे लेकर ‘आजकल’ में वे स्वयं गये थे। संपादक मंडल के एक सदस्य ने ओमप्रकाश के साथ खैरवाल लगा देखकर जब आश्चर्य व्यक्त किया तो डा. सुखबीर सिंह ने कहा था- ‘नहीं, अब से हम उन्हें वाल्मीकि नहीं, खैरवाल ही कहेंगे। वाल्मीकि को अपने हाथ से काटकर उन्होंने खैरवाल लिखा था। आजकल में वह समीक्षा ओमप्रकाश खैरवाल नाम से ही छपी थी। डा. सुखबीर सिंह को भी अपनी पहचान खुल जाने का भय था, इसलिए वह सरनेम को अपने से दूर रखना चाहते थे। यही समस्या हरकिशन संतोषी जी की भी है। कई बार वे इस सरनेम पर कटाक्ष कर चुके हैं।
हरकिशन संतोषी जी के एक मित्र हैं सरदार ज्ञान सिंह जो मेरठ के पास खेकड़ा गाँव के रहने वाले हैं। वे मुझे मेरे दलित लेखन के द्वारा ही जानते हैं। मेरी कविताओं, कहानियों से प्रभावित हैं। अक्सर लंबे-लंबे पत्र लिखते हैं। जहाँ एक ओर मेरी रचनाओं पर उत्साहवर्धक टिप्पणियाँ होती हैं, वहीं वे मुझे यह भी समझाने या उपदेश देने की कोशिश करते हैं कि मैं पढ़ा-लिखा मूर्ख हूँ। वाल्मीकि सरनेम के कारण वे मुझे एक अशिक्षित व्यक्ति से भी गया-गुजरा मानते हैं। उनकी मान्यता है कि मैं जान-बूझकर ब्राह्मणवादी दलदल में फँसा हूँ। मुझे वाल्मीकि सरनेम छोड़ देना चाहिए। अक्सर हरकिशन संतोषी जी और उनकी पत्नी का उदाहरण देकर समझाते हैं।
सफाई संगठनों के कर्मचारियों के निमंत्रण पत्र बहुतायत से आते हैं मेरे पास जिनमें सभाओं, बैठकों, अधिवेशनों का जिक्र होता है। एक बार मैंने हरकिशन संतोषी जी से इस बात का जिक्र किया तो वे मुस्कराकर बोले - ‘‘वाल्मीकि सरनेम लिखोगे तो ऐसा ही होगा। सफाई कर्मचारी ही समझे जाओगे।’’24 सोचने वाली बात है कि इतनी सारी विसंगतियों के बाद भी ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपने नाम के साथ सरनेम वाल्मीकि क्यों चिपकाए रखा। संभवतः इसलिए कि वे इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था के प्रति अपने सरनेम के माध्यम से एक प्रकार का विद्रोह प्रकट करते थे। उनमें इस बात की जिद थी कि वे इस जटिल व्यवस्था में अपने सरनेम के साथ ही स्वयं को स्थापित करना चाहते थे। पलायन उनकी सोच और व्यवहार में कतई नहीं था।
अन्य जाति के कवि, आलोचक तो वाल्मीकि सरनेम से परहेज करते ही हैं, खुद इस वर्ग के साहित्यकार भी इस सरनेम को आज तक स्वीकार नहीं कर पाए हैं। ऐसे में अपनी उपेक्षा का एक कारण वे स्वयं भी हैं, जिसके बारे में गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। यह स्वीकार्य है कि किसी भी दलित साहित्यकार की रचना प्राथमिक तौर पर उसकी योग्यता से नहीं, उसके जातीय प्रभावों से आँकी जाती है - ‘‘यह पूर्वाग्रह ही है जो संपादकों के निर्णयों को प्रभावित करता है इसलिए दलित रचनाओं को लेकर हिंदी मीडिया भी गंभीर नहीं है। उनकी सोच और मानसिकता पर कहीं न कहीं जातीय अहं हावी है।’’25 इसके अतिरिक्त अधिकांश गैरदलित साहित्यकारों की जो दलित साहित्य एवं साहित्यकारों के प्रति सोच व कार्रवाई है, वह भी एक प्रकार के साहित्यिक साम्राज्यवाद की ओर इशारा करती है। इसका प्रमाण वे स्वयं प्रस्तुत करते रहते हैं। इस विषय में कंवल भारती के विचार सार्थक लगते हैं - ‘‘गैर दलित लेखकों या द्विज लेखकों या प्रगतिशील लेखकों ने दलित समस्या पर अपनी ईमानदार भूमिका नहीं निभाही। दलितों पर उनका लेखन गरीबी के सवाल ज्यादा उठाता है, जाति के नहीं। उनके लेखन में वर्णव्यवस्था के खिलाफ कोई विद्रोह नहीं है।’’26 बात यहाँ तक सीमित होती तो कोई बात नहीं थी, किंतु आज के आलोचकों का रवैया इस राह को और भी कठिन बनाता है।
यह भी स्वीकारने में कोई परेशानी नहीं कि बहुत से गैर-दलित लेखक अथवा प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी ऐसे भी हैं जो बेशक दलित की सच्ची अनुभूति का साहित्य न लिख सकते हों, परंतु दलित लेखन और लेखक को उनका अमूल्य रचनात्मक योगदान यथासमय मिलता रहता है। इससे उम्मीद जगती है कि धीमी गति से ही सही, परिवर्तन हो रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि दलित साहित्य से बहुतों की राय बदली है। वे पूरी मनुष्यता के साथ मनुष्य के साथ खड़े दिखायी देते हैं। ‘जूठन’ में इसके भी बहुत से प्रमाण हैं। सरनेम के विषय में भी सबका रवैया उदासीन नहीं रहा, बल्कि कुछ ऐसे भी हैं, जिनके बारे में वाल्मीकि कहते हैं - ‘‘मराठी के चर्चित दलित कवि लोकनाथ यशवंत को मेरा वाल्मीकि सरनेम आकर्षक लगता है। और भी अनेक मित्र हैं, जिन्हें मेरा सरनेम सार्थक लगता है। ओमप्रकाश एक घिसा-पिटा सा नाम वाल्मीकि जुड़ने से ही पूर्ण हुआ है, कई लोगों का ऐसा मानना है... डा. धर्मवीर से एक मुलाकात के दौरान इस सरनेम से उपजी वितृष्णा पर बातचीत हुई थी। उनका कहना था - इसे हटाइए मत, यह आपकी पहचान बन गया है।’’27 निश्चित ही ऐसे लोगों को व्यक्ति विशेष के नाम में व्यक्तित्व की छाप दिखाई देती है, जाति की नहीं। दलित हो अथवा गैर-दलित, जिस किसी ने भी वाल्मीकि का उत्साहवर्धन अथवा सहयोग किया, उनके प्रति वाल्मीकि कृतज्ञता प्रकट करना कहीं नहीं भूले हैं। फिर भी उनके जीवन की कड़वी सच्चाई पढ़कर जिनका परंपरावादी स्वाद बिगड़ा है, वे वाल्मीकि को एरोगेंट हो जाने की संज्ञा देते हैं। इस पर वाल्मीकि दुख प्रकट करते हैं - ‘‘जाति ही मेरी पहचान क्यों? कई मित्र मेरी रचनाओं में मेरे लाउडनैस एरोगेंट हो जाने की ओर इशारा करते हैं। उनका इशारा होता है कि मैं संकीर्ण दायरे में कैद हूँ। साहित्यिक अभिव्यक्ति को व्यापक अर्थों में ग्रहण करना चाहिए, संकीर्णता से बाहर आना चाहिए। यानी मेरा दलित होना और अपने परिवेश, अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अनुसार दृष्टिकोण बनाना एरोगेंट हो जाना है क्योंकि मैं उनकी नजर में सिर्फ एस-सी. हूँ, दरवाजे के बाहर खड़ा रहने वाला।’’28
वाल्मीकि के इन शब्दों में जो गहरी पीड़ा छिपी हुई है, वह अभी अधिकतर गैर-दलित लेखकों तक नहीं पहुँच पायी है, तभी तो वे वाल्मीकि पर एरोगेंट हो जाने का आरोप मढ़ते हैं। इस संदर्भ में दो बातें मुख्यतः विचारणीय हैं - एक तो यह कि पहले तो वाल्मीकि एरोगेंट नहीं हैं क्योंकि जिस तरह से लेखक सबके सहयोग के प्रति आभार प्रकट करता चलता है, उससे वे संकीर्णता की सीमा से बाहर खड़े दिखाई देते हैं। दूसरी बात यह कि यदि मान भी लिया जाए कि वाल्मीकि एरोगेंट हैं, तब क्या आप उसके कारणों की पड़ताल नहीं करना चाहेंगे? ऐसा करके आप उस दोहरी मानसिकता को धिक्कारोगे, जो दूसरे मनुष्य को पशु से भी बदतर समझती रही है। इस अवस्था में जूठन अथवा दलित साहित्य पर उठाए जाने वाले सवाल यथा - हर प्रतिकूल घटना को दलित के चश्मे से नहीं देखा जा सकता है, सारी बातें जाति को केन्द्र में रखकर घटित नहीं होतीं, हर रौब सामंती नहीं होता है अथवा वाल्मीकि हर परेशानी को अपने सरनेम या जाति से जोड़कर देखते हैं आदि खुद ब खुद दम तोड़ देते हैं। जरा सोचिए- एक जाति पर पीढ़ी दर पीढ़ी अत्याचार होते आ रहे हैं। उन्हें तरह-तरह की यातना-भट्टी में तपाया-झुलसाया जाता है, तब क्या एरोगेंट हो जाना बड़ा अपराध है या किसी को एरोगेंट बनाया जाना? यह तो वैसी ही बात हुई कि पीटने वाले से बड़ा दोषी विलाप करने वाला है। ऐसे में किसी का विरोध करना तो बिल्कुल अक्षम्य ही होगा, जैसा कि होता आया है। परंतु अब स्थिति कुछ बदल रही है। इसके उदाहरण यत्र-तत्र प्रत्यक्ष हो रहे हैं। खासतौर से नवपीढ़ी इसका संचालन कर रही है। बेशक, इनकी संख्या अपेक्षाकृत बहुत कम है, किंतु अभी उम्मीद बाकी है, जिसके प्रति, और अधिक जागरूक होने की आवश्यकता है। इस जाग्रति को बचाने और बढ़ाने के लिए ओमप्रकाश वाल्मीकि प्रेरणास्रोत के रूप में सामने आते हैं, जिनकी पहचान आज सरनेम वाल्मीकि की जातीय सीमा लाँघकर आगे बढ़ गयी है। यानी आज उनकी प्रतिष्ठा उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की तेजस्विता से है, न कि सरनेम के जातीय बोध से। यह बात दलित और गैर-दलित दोनों वर्गों को ठीक से समझनी चाहिए।
1. जूठन, दूसरा खंड, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2015, अंतिम आवरण पृष्ठ
2. जूठन, पहला खंड, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, छठी आवृत्ति : 2014, लेखक की ओर से, पृ. प्प्
3- en.wikipedia.org/wiki/surname;access on 17-05-2015
5. उपनाम : एक अध्ययन, शिवनारायण खन्ना, उ.प्र. हिंदी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण : 1978, पृ. सं. 9, प्रथम अध्याय
6. लोकभारती प्रामाणिक हिंदी कोश, संपादक : आचार्य रामचंद्र वर्मा, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण : 2009, पृ.सं. 104
7. सहज समान्तर कोश, अरविन्द कुमार कुसुम कुमार, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पहली आवृत्ति : 2010, पृ.सं. 167
8. उपनाम : एक अध्ययन, शिवनारायण खन्ना, उ.प्र. हिंदी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण : 1978, पृ. सं. 1, प्रथम अध्याय
9. मनु स्मृति, द्वितीयोऽध्यायः संस्कर्ता : जनार्दन शास्त्री पाण्डेयः, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, प्रथम संस्करण : 1984, पुनर्मुद्रण : 1998, पृ.सं. 15
10. उपनाम : एक अध्ययन, शिवनारायण खन्ना, उ.प्र. हिंदी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण : 1978, पृ.सं. 7, प्रथम अध्याय
11. अस्पृश्यता अथवा भारत में बहिष्कृत बस्तियों के प्राणी, डा. बी.आर. अम्बेडकर, डा. अम्बेडकर प्रतिष्ठान, नई दिल्ली, आठवाँ संस्करण : 2013, पृ.सं. 17
12. दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, छठी आवृत्ति : 2014, पृ.सं. 75
13. महर्षि वाल्मीकि, डा. जानकीप्रसाद द्विवेदी, ग्रंथम्, रामबाग, कानपुर-12, प्रथम संस्करण : 1985, पृ.सं. 11-12
14. जूठन, पहला खंड, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, छठी आवृत्ति : 2014, पृ.सं 148
15. वही, पृ.सं. 153
16. वही, पृ.सं. 153
17. वही, पृ.सं. 154
18. वही, पृ.सं. 151
19. जूठन, दूसरा खंड, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2015, पृ.सं. 17-18
20. जूठन, पहला खंड, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, छठी आवृत्ति : 2014, पृ.सं 149
21. वही, पृ.सं. 156
22. जूठन, दूसरा खंड, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2015, पृ.सं. 83
23. वही, पृ.सं. 16-17
24. जूठन, पहला खंड, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, छठी आवृत्ति : 2014, पृ.सं 155-156
25. जूठन, दूसरा खंड, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2015, पृ.सं. 68-69
26. दलित साहित्य और विमर्श के आलोचक, कंवल भारती, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2009, पृ.सं. 40
27. जूठन, पहला खंड, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, छठी आवृत्ति : 2014, पृ.सं 149, 157
28. वही, पृ.सं. 160
संदर्भ ग्रंथ :
आधार ग्रंथ :
1. जूठन, पहला खंड, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, छठी आवृत्ति : 2014
2. जूठन, दूसरा खंड, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2015
सहायक ग्रंथ :
3. शूद्र कौन थे ? डा. बी.आर. अम्बेडकर, डा. अम्बेडकर प्रतिष्ठान, नई दिल्ली, सातवाँ संस्करण : 2013 (अक्टूबर)
4. अस्पृश्यता अथवा भारत में बहिष्कृत बस्तियों के प्राणी, डा. बी.आर. अम्बेडकर, डा. अम्बेडकर प्रतिष्ठान, नई दिल्ली, आठवाँ संस्करण : 2013
5. दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, छठी आवृत्ति : 2014
6. उपनाम : एक अध्ययन, शिवनारायण खन्ना, उ.प्र. हिंदी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करणः 1978, पृ.सं. 1
7. मनु स्मृति, द्वितीयोऽध्यायः संस्कर्ता : जनार्दन शास्त्री पाण्डेयः, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, प्रथम संस्करण : 1984, पुनर्मुद्रण : 1998
8. महर्षि वाल्मीकि, डा. जानकीप्रसाद द्विवेदी, ग्रंथम्, रामबाग, कानपुर-12, प्रथम संस्करण : 1985
9. दलित साहित्य और विमर्श के आलोचक, कंवल भारती, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2009
अन्य पुस्तकें :
10. दलित साहित्य : वेदना और विद्रोह, डा. शरण कुमार लिम्बाले, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2010
11. दलित साहित्य के प्रतिमान, डा. एन. सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2012
12. दलित साहित्य (अनुभव, संघर्ष एवं यथार्थ), ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2013
Websites :
कोश :
17. लोकभारती प्रामाणिक हिंदी कोश, संपादक : आचार्य रामचंद्र वर्मा, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पुनर्मुद्रण : 2009
18. सहज समान्तर कोश, अरविन्द कुमार कुसुम कुमार, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पहली आवृत्ति : 2010
आपकी इस बात से पूर्णतया इत्तफाक रखता हूँ कि समस्या किसी वर्ण या व्यवस्था से नहीं वरन सोच से है। अधिकार सम्पन्न लोगों की संकीर्ण सामन्तवादी सोच अपने सिंहासन के सामने किसी की उपस्थिति से असहज हो जाती है। नव सामंत भी अपने अधिकारों का हस्तानांतरण अपने परिवार के अंदर ही करने की व्यवस्था करते हैं और अन्य योग्य लोगों की पात्रता को दरकिनार करते हैं। उनके आग्रह कहीं अधिक जटिल हैं जो तय करते हैं कि मंच पर कौन जूता पहनेगा, कौन कुर्सी पर आरूढ़ होगा और दरबार में कौन किस रंग की दरी अथवा चटाई पर किस क्रम में बैठेगा। सारी जद्दोजहद अधिकार हथियाने की है । उसके लिए स्वयं को पीड़ित के रूप में प्रस्तुत करना मुफीद हो तो वही सही लेकिन अंततः हम सब एक ही कश्ती में सवार होते है।
ReplyDeleteपवन जी! आपकी आरंभिक बातों से काफी इत्तेफाक रखता हूं, लेकिन यह कहना कि सब एक ही कश्ती में सवार हैं पूर्णतः उचित नहीं। यह आध्यात्मिक अथवा दार्शनिक तौर पर तो सही माना जा सकता है, लेकिन इसे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से सही नहीं माना जा सकता। ऐसा मान लेना, जनसामान्य के संघर्ष को गलत ठहराकर उसकी दिशा मोड़ देने जैसा है।इससे जनसामान्य अपनी सामाजिक स्थिति के वास्तविक दोषियों को पहचानने में भ्रमित हो सकते हैं। इसलिए जो सामाजिक और आर्थिक विसंगतियां हैं उनसे निपटने के लिए वस्तुस्थिति का स्पष्ट होना लाजिमी है। उन्हें समग्रता के घोल में घोलकर देखना न्यायसंगत नहीं है। सधन्यवाद।
Deleteसाधु। साधु।
DeleteBahut khub Amit Ji aapke Blogs Padhkar bahut Anand aata hai
ReplyDeleteबहुत आभार आपका! कृपया अपनी टिप्पणी के साथ अपना नाम भी जोड़ दिया करें!
Deleteआपका ब्लॉग काफी विस्तृत मुद्दों को उकेरता है वाकेई में पहले होने वाले जातिगत अत्याचारों और भेदभाव से हम शर्मिंदा होते हैं ।आदरणीय ओमप्रकाश बाल्मीकि जी निश्चित ही विचारशील और अनुभवशील रचनाकार है जो अपनी पहचान छिपाकर नही रखना चाहते फिरताउम्र उससे पीड़ा झेलनी पड़ी हो । यह व्यक्तिगत आंकलन है किसी जाति या समाज के लिए नही सभी के लिए की श्रेष्ठ होजाना सभी मे समा जाना है। विचारों और कर्मों द्वारा दूसरे के लिए मार्ग बनना न कि मार्ग रोकना ।ईश्वर ने मानव बनाया ,मानव ने जाति और कर्म अब मोक्ष तो अच्छा करने और सोचने से मिलेगा किसी उच्च वर्ग या जाति में जन्म लेने से नहीं ।
ReplyDeleteआपकी साहित्य अनुसरण शीलता और सामाजिकता को मेरा नमन लिखते रहे विरोध से नहीं अनुरोध से ।मेरी शुभकामनाये💐🙏 मित्र
आपका ब्लॉग काफी विस्तृत मुद्दों को उकेरता है वाकेई में पहले होने वाले जातिगत अत्याचारों और भेदभाव से हम शर्मिंदा होते हैं ।आदरणीय ओमप्रकाश बाल्मीकि जी निश्चित ही विचारशील और अनुभवशील रचनाकार है जो अपनी पहचान छिपाकर नही रखना चाहते फिरताउम्र उससे पीड़ा झेलनी पड़ी हो । यह व्यक्तिगत आंकलन है किसी जाति या समाज के लिए नही सभी के लिए की श्रेष्ठ होजाना सभी मे समा जाना है। विचारों और कर्मों द्वारा दूसरे के लिए मार्ग बनना न कि मार्ग रोकना ।ईश्वर ने मानव बनाया ,मानव ने जाति और कर्म अब मोक्ष तो अच्छा करने और सोचने से मिलेगा किसी उच्च वर्ग या जाति में जन्म लेने से नहीं ।
ReplyDeleteआपकी साहित्य अनुसरण शीलता और सामाजिकता को मेरा नमन लिखते रहे विरोध से नहीं अनुरोध से ।मेरी शुभकामनाये💐🙏 मित्र
बहुत शुक्रिया!
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