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Showing posts from July, 2021
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संपादकीय धरती पुत्र किसान के संघर्ष में साथ लगने के मायने           गत वर्ष की प्रथम तिमाही के अंत से चली आ रही महामारी और लॉकडॉन ने, न सिर्फ सामाजिक ताना-बाना ध्वस्त करके रख दिया है, बल्कि इससे सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों पर भी गहरा असर पड़ा है। विविध सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ साथ साहित्यिक गतिविधियों तक पर अघोषित अंकुश लगकर रह गया। अनेक पत्र पत्रिकाएं स्थगित हो गईं । कइयों को अपने अंक प्रिंट के बजाए ऑनलाइन प्रचारित व प्रसारित करने पड़े। दलित लेखक संघ की यह पत्रिका भी इससे अछूती नहीं रही। गत दो-तीन अंकों से इसे भी ऑनलाइन ही प्रसारित करने की विवशता पेश आ रही है। इस बार तो दो त्रैमासिक !जनवरी - मार्च एवं अप्रैल - जून, 2021) अंकों की चयनित सामग्री को जोड़कर यह संयुक्ताक बनाना पडा। इसके पीछे, रोजगार श्रृंखला,आवजाही और आपसी संपर्कों के क्रम का टूट जाना ही बड़ा कारण है। अभी भी हालात सामान्य नहीं, लिहाजा यह अंक भी ऑनलाइन ही तैयार किया गया है। निकट भविष्य में, सबकुछ सामान्य हुआ तो इसे प्रिंट करने का प्रयास रहेगा। यद्यपि दिनोंदिन बढ़ती मंहगाई में प्रिंट का का...
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                                  यादों का मेला अमित धर्मसिंह की पुस्तक ‘खेल जो हमने खेले’ यादों के मेले जैसी है। इससे पहले उनकी पुस्तक ‘रचनाधर्मिता के विविध आयाम’ में अधिकांश लेख पुस्तकों की समीक्षा के हैं। समीक्षा लिखते समय लेखक की दृष्टि उसी पुस्तक तक सीमित नहीं रही है, अपितु अमित धर्मसिंह ने उस पुस्तक की विधा पर विस्तृत आत्ममंथन लिखा है। इसमें लेखक की विशद एवं सूक्ष्म दृष्टि तथा ज्ञान दिखाई देता है। प्रस्तुत पुस्तक में बचपन के खेले गये खेलों का विस्तृत विवरण है। ये खेल ग्रामीण एवं कस्बई वातावरण के हैं, जहाँ क्रिकेट, बैडमिंटन जैसे आधुनिक खेल नहीं खेले जाते। मेरा अपना बचपन जिस मौहल्ले में बीता था, वह कहने को तो मुरादाबाद शहर का एक मौहल्ला था, किन्तु वहाँ का वातावरण ठेठ कस्बई था। बिजली थी नहीं, सड़कें तथा बीच का मैदान कच्चा, धूल भरा था। यहीं मैंने कबड्डी, गिल्ली-डंडा तथा लट्टू नचाने जैसे खेल खेले थे। किन्तु बहुतों को भूल भी चुका हूँ। अमित धर्मसिंह ने उन खेलों की यादों को केवल सँजोकर ही नहीं रखा है, उनक...
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संपादकीय                   कोरोना काल में दलित कविता                                       -डा. अमित धर्मसिंह        समय बदलता है तो आदमी के सोचने का तरीका बदल जाता है; साधन-संसाधन बदलते हैं, तब भी आदमी के सोचने-समझने का तरीका बदल जाता है। सवाल यह है कि समय बदलता है या उसे बदला जाता है? कुछेक प्राकृतिक आपदाओं को छोड़ दें तो बाकी मामलों में समय बदलता नहीं उसे बदला जाता है। इसके पीछे बहुत से राजनीतिक कारण होते हैं। आमजन के जीवन में जितने भी सामाजिक और आर्थिक बदलाव आते हैं, उन सबके पीछे अधिकतर राजनीति ही जिम्मेदार होती है। भले ही वह प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार हो या अप्रत्यक्ष रूप से। स्थानीय स्तर से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक की राजनीति का विकृत रूप आमजन के जीवन को ही त्रस्त करता है। इसके अलावा अकाल, सूखा, बाढ़, भ्रष्टाचार, अपराध की गाज भी आमजन की खुशियों पर ही गिरती है। महामारी की चपेट में तो गरीब लोग और बुरी तरह फंसते हैं। कह...