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Showing posts from January, 2019

लोकार्पण

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 9जनवरी 2019 को विश्व पुस्तक मेले में शिल्पायन के काउंटर पर विरले दोस्त कबीर के एक मूल्यांकन और साहित्य का वैचारिक शोधन का लोकार्पण करते हुए बाएं से दाएं सुभाष नीरव, जयप्रकाश कर्दम, प्रो. कैलाश नारायण तिवारी, अमित धर्मसिंह, गीताश्री और गीता पंडित जी। 21 दिसंबर 2018 को विन्यास की बैठक में मित्रों द्वारा "साहित्य का वैचारिक शोधन" का लोकार्पण। बाएं से दाएं- रोहित कौशिक, अश्विनी खंडेलवाल, राधामोहन तिवारी,कमल त्यागी, परमेंद्र सिंह, अमित धर्मसिंह, अभिनव और निर्मल पंत जी।

लोकार्पण एवं परिचर्चा

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 हंसराज कॉलेज दिल्ली में विरले दोस्त कबीर के; एक मूल्यांकन का लोकार्पण एवं परिचर्चा

लोकार्पण

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28 जुलाई 2017 को विन्यास की बैठक में मित्रों द्वारा "रचनाधर्मिता के विविध आयाम" का लोकार्पण बाएं से दाएं अश्विनी खंडेलवाल, शिवकुमार समन्वय, अमित धर्मसिंह, निर्मल पंत, परमेंद्र सिंह, राधामोहन तिवारी, कमल त्यागी एवं मनु स्वामी

साहित्य का वैचारिक शोधन

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पुस्तक: साहित्य का वैचारिक शोधन (शोधपत्र संकलन) शोधक: अमित धर्मसिंह प्रकाशक: शिल्पायन बुक्स, दिल्ली प्रथम संस्करण: २०१८ हार्ड बॉन्ड पृष्ठ: १२८ मूल्य: ३००₹

विरले दोस्त कबीर के: एक मूल्यांकन

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पुस्तक: विरले दोस्त कबीर के; एक मूल्यांकन(आलोचना) संपादक: अमित धर्मसिंह प्रकाशक: शिल्पायन बुक्स, दिल्ली प्रथम संस्करण: २०१८ हार्ड बॉन्ड पृष्ठ: १२८ मूल्य: ३००₹

रचनाधर्मिता के विविध आयाम

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पुस्तक: रचनाधर्मिता के विविध आयाम( आलोचना) आलोचक: अमित धर्मसिंह प्रकाशक: नमन प्रकाशन, दिल्ली प्रथम संस्करण: २०१३ हार्डबॉन्ड पृष्ठ: १२८ मूल्य: ३००₹

समन्वय

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पुस्तक: समन्वय ( गद्य और पद्य संकलन) संपादक: अमित धर्मसिंह प्रकाशक: वाणी, साहित्यिक संस्था, मुजफ्फरनगर प्रथम संस्करण: २०१३ पेपर बैक पृष्ठ: १४८ मूल्य: २००₹

स्मारिका

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पुस्तक: स्मारिका (आस - विश्वास) संपादक: तुलसी नीलकंठ प्रकाशक: जीवंत प्रकाशन, मुजफ्फरनगर प्रथम संस्करण: २००९ पेपरबैक पृष्ठ: ५२ मूल्य: निःशुल्क

आस विश्वास

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पुस्तक: आस-विश्वास (काव्य संग्रह) कवि: अमित धर्मसिंह प्रथम संस्करण: २००७ पेपरबैक प्रकाशक: जीवंत प्रकाशन, मुजफ्फरनगर पृष्ठ: १५२ मूल्य: १२०₹

टिप्पणी

अमित धर्मसिंह की कविताओं पर विशाल गोयल की संक्षिप्त टिप्पणी.. (संघर्ष द्वारा) यथार्थ से जीतकर काेई बड़ा नहीं हाेता, सपनाें काे खाेकर बाैना जरूर हाे जाता है। बधाई भाई तुम्हारी दृष्टि कूडी के फूलों तक पहुंचती है नहीं ताे समकालीनता की नकली छवियों से ग्रस्त कविता पता नहीं कैसे कैसे ट्रीटमेंट देती इस खालिस और दमदार संघर्ष काे। साैंदर्य माैत है कुरूपता की बिना कुरूपता काे काेसे। किसी भी तरह के शक्तिमान रूपवान में सामर्थ्य नहीं अरूपवान साैंदर्य हाेने की। वैसे संघर्ष के साैंदर्य विमर्श भरे पड़े है... साहित्य न मंच है ना माेर्चा, साैंदर्य का हर परिस्थिति में संधान है, चाहे वह संघर्ष का हाे या दमन का हाे। और साहित्य ना काेई पक्ष है जिसका विपक्ष हाेना अनिवार्य हाे और न ही यह काेई थीसिस है जिसकी एंटीथिसिस गढ़ने की फिराक में असहाय हीन सा गुस्सा लगातार रहता हाे। प्रकियाओं की पहचान न हाे सकने की असमर्थता मनुष्याें काे वर्गाें में जांत में और फिर आखिर में व्यक्तिरुप में गरियाती है। दूसराें से लड़ने का मैदान बाहर है, साहित्य खुद से लड़ने की जगह है। अमित जानता है घृणा से कैसा साहित्य लिखा ज...

कविताएं

अमित धमसिंह की दस कविताएं  (1) अनायास याद आया अनायास याद आया  आम की गुट्ठो के लिये जिद करना लिफाफे में चीज़ लेना नारियल के पानी के लिए लड़ना  भाई-बहनों से । बुहारे गए  कच्चे आँगन में पानी के छिड़काव की  सौंधी खुशबू गरम चूल्हे पर  पोतने के पोच्चे की महक याद आयी; याद आया सतपाल चाय वाले की भट्टी में सुलगते  कच्चे कोयले का धुंआ बीड़ी सुटकते पापा की बगल में लेटकर बीड़ी के धुएँ को साँस से खींचना । चूल्हे से निकली फूली हुई रोटी के फाड़ने से निकली भप्पी पावे पर मुक्का मारकर छिती गंट्ठी की महक याद आयी; याद आया भुनी हुई  भभोलन(फटकन)का राख मिला स्वाद । अँधेरी गहरी रातों में टायर जलाकर रामलीला देखने जाना ताड़का से डरना राम के साथ रोना रावण पर मुठ्ठी कसना याद आया  अनायास ।। (2) आदी होश सँभालने से पहले ही हमें डराया गया हव्वा, कोक्को, लुल्लु से, पाँव में जेवड़ी बाँधकर खाट के पावे से बाँधा गया ताकि हम एक सीमा में ही घूम-फिर सके। बोलना शुरू किया...

कविताएं

अमित धर्मसिंह की पंद्रह कविताएं १.बरसात हमारी छोटी उम्र में बरसात बड़ी मुश्किलें लेकर आती। हालांकि हमने बरसात में कागज़ की नाँव चलाई, गलियों में भरे पानी में उछले-कूदे, ओले चुगकर खाये, बारिस बंद करवाने के लिए उलटे तवे-परात बजाये, मगर यह सब ज्यादा दिन नहीं चला। हमारे कमरे की छत घंटे दो घंटे की बारिश ही सह पाती, झड़ लगता तो हमारी शामत आ जाती, छत से पानी टपकना शुरू होता तो सबसे पहले पापा चूने वाली जगह को लाठी से ठोकते, ताकि चूने वाला स्थान उभारकर छत का चूना बंद किया जा सके। विफल होने पर कोई कट्टा या बोरी ओढ़कर घुप अँधेरी रात में ही छत पर चढ़ा जाता, हाथ से पूरी छत लेहसी जाती। छत पर चढ़ने-उतरने के लिये दीवार में निकली ईंटों का प्रयोग होता, जिनसे रिपटने का खतरा बराबर बना रहता। तिस पर छत का टपकना बढता जाता, पूरी छत जगह-जगह से टपकने लगती, छोटे से कमरे में जगह-जगह बाल्टी, तसला, भिगौना, आदि रखे जाते, जिनका पानी बार-बार बाहर फेंकना होता। फिर भी नौबत घर में रखे बर्तनों और कपड़ो के भीगने की आ जाती, एक खाट दरवाजे के बीचोबीच बिछाई जाती, जो आधी कमरे में और आधी बाहर ...

कविताएं

अमित धर्मसिंह की ग्यारह कविताएं...   1.हमारे गाँव में हमारा क्या है ! आठ बाई दस के कड़ियों वाले कमरे में पैदा हुए खेलना सीखा तो माँ ने बताया हमारे कमरे से लगा कमरा हमारा नहीं है दस कदम की दूरी के बाद आँगन दूसरों का है। हर सुबह दूसरों के खेतों में फ़ारिग़ होने गये तो पता होता कि खेत किसका है उसके आ जाने का डर बराबर बना रहता। तोहर के पापड़ों पर लपके या गन्ने पर रीझे तो माँ ने आगाह किया कि खेतवाला आ जायेगा। दूसरों के कुबाड़े से माचिस के तास चुगकर खेले दूसरों की कूड़ियों से पपैया फाड़कर बजाया दूसरों के खेतों से बथुआ तोड़कर लाये आलू चुगकर लाये। दूसरों के खेतों में ही गन्ने बुवाते धान रोपते, काटते दफन होते रहे हमारे पुरख़े दूसरों के खेतों में ही। ये खेत मलखान का है वो ट्यूबवेल फूलसिंह की है ये लाला की दुकान है वो फैक्ट्री बंसल की है ये चक धुम्मी का है वो ताप्पड़ चौधरी का है ये बाग़ खान का है वो कोल्हू पठान का है ये धर्मशाला जैनियों की है वो मंदिर पंडितों का है कुछ इस तरह जाना हमने अपने गाँव को। हमारे गाँव में हमारा क्या है! ये हम आज तक नह...