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Showing posts from April, 2018

मंत्रणा

मंत्रणा: हर आदमी को लेखक होना चाहिये... लिखना हमारे समय की मज़बूरी और ज़रूरत दोनों हैं। मज़बूरी इसलिये की इस क्रूर समय में हम शायद ही लिखने के अलावा कुछ कर सकते हैं और जरुरत इसलिए कि लिखना अब कला जैसी कोई चीज़ नहीं रह गयी है बल्कि अपने को बनाये रखने और अपने अधिकारों की रक्षा का एक सशक्त माध्यम बन गया है। बेबसी और लाचारी में एक लेखन ही है जो मनुष्य को सर्वाधिक संबल दे सकता है। सर्वविदित है कि लिखने में जबसे शिल्प और छंद के बंधन ढीले हुए हैं तबसे लेखन गरीबों और मजबूरों की आवाज़ बनकर उभरा है। भला हो मार्क जुकरबर्ग का कि जिसने लेखन को इतना बड़ा मंच दिया । इसी से यह कमाल संभव हो सका है कि गरीब से गरीब और अनपढ़ से अनपढ़ भी अपनी बात सार्वजनिक मंच पर शेयर करने लगा है। और अपने स्तर से भारतीय समाज और राजनीति को प्रभावित करने लगा है। यह बात और है कि इससे कुछ ने लेखन में बहुत ही हलके किस्म के प्रयोग किये हैं, और कॉपी पेस्ट करने वाले भी लेखक बन गए हैं। मगर जहाँ एक तरफ फेसबुक जैसे माध्यम का दुरूपयोग कर जनता को गुमराह कर जनमत जुटाने की राजनितिक साजिशें रची जाती हैं वहीँ कुछ अच्छे पढ़ने-लिखने वाले इसी माध...

विष्णु प्रभाकर

अपने घर से निष्कासित विष्णु प्रभाकर... ज़मीन किसी की नहीं होती और सबकी होती है । यह दो विरोधी बातें अगर कहीं एक साथ देखने को मिलती हैं तो ज़मीन के बारे में ही देखने को मिलती हैं। एक तरफ जहाँ ज़मीन सबके पालन-पोषण का महानतम कार्य करती है वहीँ ज़मीन ही है जो एक दिन अच्छे-अच्छे को लील देती है। "माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोए,इक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोए।।" और माटी के रौदने से न कोई बचा है और न बच पायेगा। मगर कुछ लोग इसी ज़मीन पर ऐसे जन्म लेते हैं जिन्हें न ज़मीन मिटा पाती है और न आसमान। क्योंकि "मौत से बचने की एक तरकीब है, दूसरों के ज़ेहन में जिंदा रहो।" और दूसरों के ज़ेहन में जिंदा रहने वाले लोग कभी नहीं मरते। ऐसे शख्स भी कभी नहीं मरते जो अपने हिस्से आयी ज़मीन का सदुपयोग करना जानते हैं। जीते जी तो जीते जी मरने के बाद भी वे अपनी ज़मीन पर सुनहरा इतिहास दर्ज कर जाते हैं। ऐसा ही सुनहरा इतिहास लिखने वाले एक जगत्प्रसिद्ध साहित्यकार थे विष्णु प्रभाकर। मगर आज की पीढ़ी उनकी ऐतिहासिक हैसियत और निशानी को गुमनामी की कारा में धकेलने की कोशिश हो रही है और हैरानी की बात तो यह है क...

पत्रकार

एक पत्रकार ऐसा भी...के सन्दर्भ में... जिन मित्रों ने दिनेश की मेहनत को इतना सम्मान और प्रचार-प्रसार दिया, उन सबके प्रति मैं अपनी और दिनेश की ओर से हृदय से आभारी हूँ। दिनेश आपका स्वयं आभार व्यक्त करता यदि उसके पास संबधित साधन होता। मैंने हाल ही में उसे जब उस पर लगायी यह पोस्ट दिखाई तो वह अत्यंत भावुक हो गया। वह शायद खुद को इतना कृतज्ञ और आभारी पा रहा था कि उसका वज़ूद तिनके की तरह काँप रहा था। वह आप सबके इस स्नेह से इतना खुश था कि उससे कुछ कहते न बन रहा था। बड़ी आत्मीयता के साथ हम दोनों ने एक चाय के स्टाल पर चाय पी। चाय पीने के बाद दिनेश बोला "अमित जी मैं आज फिर शर्मिंदा हूँ क्योंकि आज फिर मेरे पास चाय के  पैसे नहीं हैं। एक बार पहले भी हमने साथ-साथ चाय पी थी तब भी मेरे पास पैसे नहीं थे। बीच में एक दिन मैंने आपको चाय का ऑफर दिया था। उस दिन मेरे पास 250-300 रूपये थे मगर उस दिन आप जल्दी में थे और मेरे रोकने से रुके नहीं थे । मैं आपके स्नेह को ठुकरा नहीं सकता हूँ इसलिये आज दूसरी बार शर्मिंदगी का भार उठा रहा हूँ लेकिन जल्दी ही मैं इस भार से मुक्त होने की कोशिश करूँगा।" ऐसे हैं दिन...