समीक्षा: विटामिन ज़िन्दगी
कोई पहाड़ों में चीखता है, निर्जन में भटकता है...! -अमित धर्मसिंह विटामिन ज़िन्दगी को पढ़ते हैं, तो पढ़ते ही चले जाते हैं। एक नई दुनिया खुलती चली जाती है। एक ऐसी दुनिया जो हर समय हमारी आंखों के सामने होती है मगर हममें से ज्यादातर लोग उसे देख नहीं पाते हैं। कारण बहुत से हैं - या तो हमारे देखने का दायरा इतना सीमित होता है कि हम अपने अलावा दूसरी चीजें देख ही नहीं पाते, या हम अपनी-अपनी जरूरत और मुसीबतों को लेकर इस कदर घिरे होते हैं कि चाहकर भी हम दूसरों को देखने की जहमत नहीं उठाते, या फिर हमारी सोच और समाज की जो संरचना है उसमें उस तरह की चीजें अभी तक नहीं जोड़ी जा सकी हैं जो आदमी को बेहतर इंसान बनाने का काम कर सके। ऐसे बहुत से सवालों पर सोचने पर मजबूर कर देती है- ललित कुमार की आत्मकथा विटामिन ज़िन्दगी। यह आत्मकथा सामाजिक विसंगतियों और ज़िन्दगी की पेचीदगियों से जुड़ी बेहद मार्मिक किन्तु प्रेरक कहानी है। इसमें पोलियो ग्रस्त बच्चे की त्रासदी के माध्यम से स...