Posts

Showing posts from November, 2017

जूठन

Image
जूठन में ‘सरनेम’ की त्रासदी अमित धर्मसिंह  ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित विमर्श और साहित्य के आधार-स्तम्भों में से एक नाम है। यह बात जितनी आसानी से कही जा रही है, यह उतनी आसानी से संभव नहीं हुई है। ओमप्रकाश वाल्मीकि जीवन-भर तरह-तरह की सामाजिक व सांस्कृतिक परेशानियों से जूझते रहे। इनके जीवन का यह पक्ष ऐसा है, जो भारतीय सनातन संस्कृति के संबंध में पुनर्विचार करने पर विवश करता है। जानकर गहरे विषाद से हृदय कराह उठता है कि जैसे भारतीय संस्कृति में संवेदना के दोहरे मापदंड रहे हैं, उनसे मनुष्यता को शर्मसार होना पड़ता है। निम्नवर्ग का इतिहास इतना यातना-भरा रहा है कि उसमें झाँकने मात्र से ठीक होते जख्म फिर से हरे होने लगते हैं। अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ को लिखने के संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं - ”सचमुच जूठन लिखना मेरे लिए किसी यातना से कम नहीं था। जूठन के एक-एक शब्द ने मेरे जख्मों को और ज्यादा ताजा किया था, जिन्हें मैं भूल जाने की कोशिश करता था।’’1 इसी प्रकार ”इन अनुभवों को लिखने में कई प्रकार के खतरे थे। एक लम्बी जद्दोजहद के बाद मैंने सिलसिलेवार लिखना शुरू किया। तमाम कष्टों, या...