खेल जो हमने खेले की समीक्षाएं, डा. टेकचंद, सुदेश तनवर जी द्वारा लिखित।
1. दलित बचपन और खेल खिलौने (लेख ) - डा. टेकचंद दलित साहित्यकार व शिक्षक मुकेश मानस ने 'मगहर' पत्रिका का 'दलित बचपन' विशेषांक प्रकाशित किया था जो काफी चर्चित व प्रशंसित भी हुआ । बचपन किसी भी इंसान के जीवन का सुनहरा दौर होता है। एक फिल्मी गीत में कहा भी गया है- 'कितनी प्यारी होती है ये भोली सी उमर ना नौकरी की चिंता ना रोटी की फिकर और जब बेहतर मानवीय जीवन जीने के लिए नौकरी और रोटी दोनों आवश्यक होते हैं , तो नौकरी रोटी कमाने के लिए अपार संघर्ष करना होता है। उनको तो बहुत ज्यादा जिनके पास विरासत में न धन है न ज़मीन न शिक्षा है। और न ही कोई सामाजिक प्रोत्साहन। भारतीय समाज में जातिगत धार्मिक हदबंदिया नौकरी और रोटी प्राप्त करने कमाने में अपने प्रारंभ से ही बेहद संकीर्ण रहे हैं। देश और धरती के संसाधनों में यथोचित हिस्सेदारी के लिए प्रत्येक समाज का व्यक्ति संघर्ष करता है । परंतु दलित आदिवासियों का संघर्ष तो बचपन से ही शुरू हो जाता है। साहित्यकार तो इससे आगे भी सोचते हैं। मजदूर जब मां के पेट में पल रहा शिशु भ्रूण होता है तभी से मजदूरी का स्वाद चखने लगता है। जातिगत खांचों ...